विरोध में इस्तीफा: मध्य प्रदेश की महिला न्यायाधीश ने भेदभाव और उत्पीड़न के आरोपी वरिष्ठ की पदोन्नति पर दिया इस्तीफा

Written by sabrang india | Published on: July 31, 2025
एक शक्तिशाली विरोध के रूप में न्यायाधीश अदिति गजेन्द्र शर्मा ने जातिगत उत्पीड़न के आरोप लगाए गए वरिष्ठ न्यायाधीश की पदोन्नति के बाद इस्तीफा दिया, न्यायपालिका की चुप्पी, व्यवस्थागत पक्षपात और अपने ही आदर्शों के साथ विश्वासघात की निंदा की।


Image : barandbench.com

मध्य प्रदेश की महिला न्यायाधीश आदिति गजेन्द्र शर्मा ने पुरजोर विरोध के रूप में इस्तीफा दे दिया। उन्होंने न्यायपालिका पर "संस्थागत विश्वासघात" का आरोप लगाया है, जो उस वरिष्ठ जिला न्यायाधीश राजेश कुमार गुप्ता की पदोन्नति के बाद सामने आया है, जिन पर उन्होंने पहले जातिगत उत्पीड़न, पद के दुरुपयोग और संस्थागत प्रतिशोध का आरोप लगाया था। उनका इस्तीफा पत्र, तीखी भाषा और पीड़ा तथा मोहभंग के स्पष्ट भाव से भरा हुआ, न्यायपालिका पर अपने ही एक सदस्य की रक्षा करने में विफल रहने का आरोप लगाया गया है।

यह इस्तीफा उस घटना के ठीक एक दिन बाद आया जब केंद्र सरकार ने 29 जुलाई 2025 को गुप्ता की मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में दो वर्ष की अवधि के लिए न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की अधिसूचना जारी की। यह नियुक्ति तब की गई जब शर्मा ने गुप्ता की पदोन्नति का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम, भारत के राष्ट्रपति, विधि एवं न्याय मंत्रालय और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को औपचारिक आपत्तियां दी थीं। शर्मा ने अपने आपत्ति में कहा था कि गुप्ता जब उनके प्रशासनिक वरिष्ठ थे, तो उन्हें लगातार अपमान, भेदभाव और जातिवादी व्यवहार का शिकार बनाया।

एक इस्तीफा पत्र जो आरोप-पत्र जैसा प्रतीत होता है

द प्रिंट द्वारा प्राप्त और प्रकाशित किए गए अपने इस्तीफा पत्र में शर्मा ने लिखा कि वह “विश्वासघात की पीड़ा” के साथ इस्तीफा दे रही हैं। “किसी अपराधी या अभियुक्त के हाथों नहीं, बल्कि उसी व्यवस्था के हाथों, जिसकी सेवा की मैंने शपथ ली थी।” उन्होंने लिखा कि उन्हें “लगातार उत्पीड़न” का सामना करना पड़ा, “सिर्फ शरीर या मन का नहीं, बल्कि मेरी गरिमा, मेरी आवाज और उस पूरे अस्तित्व का, जिसे एक महिला न्यायाधीश के रूप में मैंने जिया, जो बोलने का साहस रखती थी।”

हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, अपने इस्तीफे को व्यक्तिगत हार के रूप में देखे जाने की धारणा को खारिज करते हुए शर्मा ने लिखा, “मैं न्यायिक सेवा से इस्तीफा दे रही हूं, इसलिए नहीं कि मैंने संस्था को विफल किया बल्कि इसलिए क्योंकि संस्था ने मुझे विफल कर दिया।” उनके शब्द केवल व्यक्तिगत नहीं थे, बल्कि एक संस्थागत चेतावनी भी शामिल किए हुए थे: “यह पत्र उन फ़ाइलों को सालता रहे जिनमें यह दर्ज होगा। यह उन गलियारों में फुसफुसाए जहां कभी सन्नाटा राज करता था।”

आरोपों को अनदेखा किया गया, उत्पीड़न का सिलसिला चलता रहा

शर्मा के आरोप न तो गुमनाम थे और न ही बिना समर्थन के। जैसा कि द प्रिंट और हिंदुस्तान टाइम्स दोनों ने पुष्टि की कि उन्होंने गुप्ता के खिलाफ विस्तृत और दस्तावेज तैयार करके शिकायतें कीं जिनमें सार्वजनिक अपमान, जाति आधारित अपशब्द और उनके पेशेवर समीक्षा में हस्तक्षेप जैसी घटनाएं शामिल थीं। उन्होंने आरोप लगाया कि गुप्ता और उनकी पत्नी ने न केवल उनका अपमान किया, बल्कि उनकी सामाजिक बातचीत को भी नियंत्रित करने का भी प्रयास किया, खासकर अपनी बेटी के साथ उनकी दोस्ती को लेकर आपत्ति जताई।

इस वर्ष की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में शर्मा ने आरोप लगाया कि गुप्ता ने अपने प्रशासनिक पद का दुरुपयोग करते हुए जानबूझकर उनके परफॉर्मंस रेटिंग को घटाया। उन्होंने दावा किया कि गुप्ता ने उनके प्रशिक्षु न्यायाधीश के कार्यकाल के दौरान एक प्रतिकूल कार्य वातावरण बनाया। शर्मा के अनुसार, यह उत्पीड़न केवल पेशेवर स्तर तक सीमित नहीं था, बल्कि व्यक्तिगत अपमान और उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के संगठित प्रयासों तक भी फैला।

फिर भी, कई बार शिकायत करने के बावजूद शर्मा ने कहा कि न तो कोई जांच हुई, न कोई नोटिस दिया गया, और न ही सुनवाई का अवसर मिला जो कि प्राकृतिक न्याय के सबसे बुनियादी सिद्धांतों की पूरी तरह उपेक्षा है। “वही न्यायपालिका जो न्यायालय की बेंच से पारदर्शिता की शिक्षा देती है, अपने ही हॉल में प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धांतों का पालन करने में विफल रही।” उनके पत्र में इन चीजों का जिक्र किया है जैसा कि द प्रिंट ने अपनी रिपोर्ट में प्रकाशित किया है।

आरोपों के बीच एक चिंताजनक पदोन्नति

ध्यान देने वाली बात यह है कि गुप्ता की पदोन्नति को पहले 2023 में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने रोका था, जिसकी अध्यक्षता उस समय के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड कर रहे थे, जब उन्हें शर्मा के साथ अन्य शिकायतें प्राप्त हुई थीं। यह मामला आगे की जांच के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय को वापस भेज दिया गया था। हालांकि, द प्रिंट के अनुसार, ऐसा लगता है कि जांच केवल औपचारिक थी, जिसमें शर्मा को गवाही देने के लिए भी नहीं बुलाया गया। इसके बाद अप्रैल 2025 में गुप्ता को क्लीन चिट दी गई और उनका नाम फिर से विचार करने के लिए भेजा गया।

द प्रिंट ने यह भी रिपोर्ट में लिखा कि गुप्ता के खिलाफ अन्य न्यायिक अधिकारियों से भी कई शिकायतें आई थीं, जिनमें एक दलित न्यायाधीश ने उन पर जातिगत उत्पीड़न का आरोप लगाया था, और एक वरिष्ठ न्यायाधीश ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बारे में धमकाने और अपमानजनक टिप्पणियों का हवाला दिया था। शर्मा ने अपनी इस्तीफे में बताया कि इनमें से किसी भी शिकायत की ठीक से जांच नहीं हुई।

सुप्रीम कोर्ट ने पहले शर्मा को बहाल किया था

फरवरी 2025 में, शर्मा को एक महत्वपूर्ण कानूनी जीत मिली जब सुप्रीम कोर्ट ने 2023 में उनकी बर्खास्तगी को निरस्त कर दिया और इसे “दंडात्मक, मनमाना और अवैध” बताया। न्यायमूर्ति बी.वी. नगरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि उनके मूल्यांकन में महत्वपूर्ण कारकों की अनदेखी की गई थी, जिनमें गर्भपात और लंबे समय तक कोविड से संबंधित जटिलताएं शामिल थीं। इस फैसले में संस्थागत जिम्मेदारी पर जोर दिया गया कि महिला न्यायाधीशों को विशेष रूप से स्वास्थ्य संकट या मातृत्व के दौरान सपोर्ट किया जाना चाहिए।

फिर भी, बहाली के बाद भी शर्मा ने कहा कि उन्हें कुछ प्रतिशोध का सामना करना पड़ा, जिसमें उच्च न्यायालय से उनके व्यवहार सुधारने के लिए एक “सलाह” भी शामिल थी। उनकी पिछली शिकायत को औपचारिक शिकायत में बदलने के प्रयासों का कोई जवाब नहीं मिला।

एक ऐसा सिस्टम जो सच्चाई नहीं, बल्कि ताकत को इनाम देता है

अपने पत्र में शर्मा बार-बार यह दोहराती हैं कि उनका विरोध बदला लेने के लिए नहीं, बल्कि जवाबदेही के लिए है। द प्रिंट ने उनके हवाले से लिखा, “श्री राजेश कुमार गुप्ता, जिन्होंने मेरी परेशानियों की साजिश रची, उनसे कोई सवाल नहीं किया गया बल्कि उन्हें इनाम दिया गया। सिफारिश की गई। पदोन्नत किया गया। तलब के बजाय एक मंच दिया गया। "श्री राजेश कुमार गुप्ता पर मैंने हल्के में नहीं, गुमनाम होकर नहीं, बल्कि दस्तावेजी साक्ष्यों और बिना डर के आरोप लगाए, जो केवल एक आहत स्त्री ही जुटा सकती है, उन्हें सफाई देने तक के लिए नहीं कहा गया। न कोई जांच, न नोटिस, न सुनवाई, न जवाबदेही और अब उन्हें 'न्यायमूर्ति' की उपाधि दी गई है, जो खुद 'न्याय' शब्द पर एक क्रूर मजाक है।”

कॉलेजियम प्रणाली की तीखी आलोचना करते हुए, उन्होंने चेतावनी दी कि दोषियों को इनाम देना न्यायपालिका के भीतर अन्य व्हिसलब्लोअर्स के लिए एक भयावह संदेश भेजता है। उन्होंने लिखा, “उस खामोशी में मैंने अपने समय की कठोर सच्चाई देखी कि ईमानदारी अब एक विकल्प है, सत्ता ही सुरक्षा है और सच बोलने वालों को उससे ज्यादा दंड मिलता है जितना उसे तोड़ने वालों को।” उन्होंने आगे लिखा,  “वही संस्था जो कानून के समक्ष समानता का पाठ पढ़ाती है, उसने सच की जगह सत्ता को चुना।”

वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह: एक संरचनात्मक विश्वासघात

सुप्रीम कोर्ट में शर्मा की बर्खास्तगी के खिलाफ उनका प्रतिनिधित्व करने वाली वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने द प्रिंट से कहा कि यह पहला मामला नहीं है जिसमें किसी महिला न्यायाधीश को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा है। उन्होंने आगे कहा, “जैसा कि उन्होंने (शर्मा ने) खुद कहा, ‘न्यायपालिका की बेटियों’ को न्यायपालिका ने ही निराश किया है। मैं इससे सहमत हूं। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का जो बंद दरवाजों के पीछे चलने वाला प्रक्रिया है, उसमें कुछ ज्यादा गलत है। हैरानी की बात यह है कि इस मामले में न्यायपालिका और सरकार एक ही लाइन में खड़ी नजर आती हैं।”
जयसिंह ने तर्क दिया कि शिकायतों की समुचित जांच के बिना बंद दरवाजों के पीछे की जाने वाली नियुक्तियां संस्थागत क्षरण का संकेत है। उन्होंने कहा, “हमने एक बहुत ही योग्य और बेदाग सेवा रिकॉर्ड वाली न्यायिक अधिकारी को खो दिया। उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया में जीत हासिल की, लेकिन प्रशासनिक प्रक्रिया में हार गईं।”

संस्थागत आत्ममंथन की मांग

शर्मा का इस्तीफा केवल एक व्यक्तिगत निर्णय नहीं है बल्कि यह न्यायपालिका की उस विफलता पर एक औपचारिक आरोप है, जिसमें वह अपने ही सिद्धांतों को निभाने में असमर्थ रही। अपने पत्र को वह तीखे शब्दों के साथ समाप्त करती हैं:

“मैं अब जा रही हूं, ऐसी चोटों के साथ जिन्हें न कोई बहाली, न कोई मुआवजा, न ही कोई माफी कभी भर पाएगी लेकिन मेरी सच्चाई अभी भी मेरे पास संपूर्ण और अमिट है। यह पत्र जिन फ़ाइलों में दर्ज हो, उन्हें हमेशा सताए। जहां कभी खामोशी राज करती थी, वहां इसकी फुसफुसाहट गूंजे। यह उन प्रतिष्ठाओं से ज्यादा समय तक जीवित रहे जिन्हें जल्दबाजी में बचाया गया और उन अन्यायों से भी जो चुपचाप दफन कर दिए गए।”

मैं इस पत्र पर एक न्यायिक अधिकारी के रूप में नहीं, बल्कि न्यायपालिका की चुप्पी की शिकार के रूप में हस्ताक्षर कर रही हूं।

तब नियम कहां थे? तब वह बहुप्रशंसित पारदर्शिता कहां थी?

आपने अपनी ही एक सदस्य की रक्षा करने से इनकार कर दिया।"

आपने उन सिद्धांतों को निभाने से इनकार कर दिया, जिनका आप उपदेश देते हैं।

जहां न्याय सबसे जरूरी था, वहीं आप न्यायसंगत होने से चूक गए।

और अगर यह आपकी अंतरात्मा को नहीं झकझोरता, तो शायद सड़न उतनी गहरी है जितनी हम स्वीकार करने का साहस नहीं रखते।

मैं इस संस्था को बिना किसी मेडल, बिना किसी जश्न और बिना किसी कड़वाहट के छोड़ रही हूं सिर्फ कड़वी सच्चाई के साथ कि न्यायपालिका ने मेरा साथ नहीं दिया। और उससे भी बदतर इसने खुद को भी निराश किया।

यह इस्तीफा पत्र किसी समापन की घोषणा नहीं है। यह एक विरोध का बयान है। इसे अपनी अभिलेखागार में ऐसे ही संजोकर रखें कि एक समय मध्य प्रदेश में एक महिला न्यायाधीश थीं, जिन्होंने न्याय के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी, लेकिन उस व्यवस्था द्वारा तोड़ी गईं, जो सबसे जोर से न्याय का उपदेश देती थी।

“और यदि इस पत्र को पढ़कर एक भी न्यायाधीश, एक भी रजिस्ट्रार या कॉलेजियम का एक भी सदस्य असहज महसूस करे तो शायद मेरी आवाज ने मेरी वकालत की उपाधि से कहीं ज्यादा न्याय किया है।”

उनका यह कदम-साहसिक, दर्दनाक और बेबाक-अब न्यायपालिका में महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार का प्रमाण बन गया है। यह नियुक्तियों की पारदर्शिता, सत्ता संरचनाओं में महिलाओं की आवाज को दबाने, और प्रक्रियात्मक अस्पष्टता के माध्यम से असहमति को दबाने के खतरों के बारे में गहरे चिंताजनक सवाल उठाता है।

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