वो किसी मसीहा के इंतजार में हैं..आखिर, कब तक?

Written by Shashi Shekhar | Published on: November 23, 2018
अमेरिकन पॉलिटिकल कमेंटेटर जॉर्ज विल कहते है. “Voters don't decide issues, they decide who will decide issues.” माने, हम जनता खुद अपना मुद्दा तय नहीं करते है, बल्कि यह तय करते है कि हमारा मुद्दा कौन तय करेगा. नतीजा हम सब के सामने है.



चंपारण हमसफर एक्सप्रेस में मोतीहारी से दिल्ली आते वक्त एक हमसफर ने कहा कि सरकार खाली शिक्षा और स्वास्थ्य का बोझ उठा ले तो हम आम आदमी का खर्चा काफी कम हो जाएगा. सज्जन अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ यात्रा कर रहे थे. ठीकठाक कमाई वाले नजर आ रहे थे. मैंने उनसे कहा कि आपसे किसने कहा कि सरकार आपके-हमारे शिक्षा और स्वास्थ्य का बोझ नहीं उठाती. दोनों मिला कर एक लाख करोड से अधिक का बजट है. वो बोले, हां, ये तो है. तो फिर उन्होंने ये सवाल ही क्यों उठाया? क्योंकि न तो वे और न ही मैं और न ही आप सब सरकारी शिक्षा-स्वास्थ्य सेवा का इस्तेमाल करते हैं न करना चाहते हैं. वजह? जगजाहिर है. 

तो सवाल है कि 1 लाख करोड रुपये से अधिक का बजट फिर जाता कहां है? उसका फायदा क्या है? सरकारी स्कूलों और अस्पतलाओं को क्या बंद कर देना चाहिए? या फिर उन्हें दिल्ली एम्स की तर्ज पर, निजी स्कूलों की तर्ज पर बदल देना चाहिए? जाहिर है, इन्हें बंद करने के बजाए बेहतर बनाया जाना चाहिए. बनाएगा कौन? सरकार. लेकिन सरकार क्यों और कैसे बनाएगी? कोई राजनीतिक दल इतना बडा काम क्यों करना चाहेगा जब उसे अन्य मुद्दों पर ही वोट मिल जाता हो.

तो गलती किसकी है? हम मतदाताओं की. जो मुद्दा तय नहीं करते है. हम ये तय करते है कि हमारा मुद्दा कौन तय करेगा? हम कांग्रेस को चुनते है ताकि वो देश का ज्वलंत मुद्दा आतंकवाद को बनाए. हम भाजपा को चुनते है कि वो देश का मुद्दा राम मन्दिर बनाए. हम नीतीश कुमार को चुनते है कि वो बिहार का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा शराबबंदी और दहेजबंदी को बनाए. हम मायावती को चुनते है कि वो दलित उत्थान को अपना मुद्दा बनाए. मतलब ये कि हमारे प्रतिनिधि ये तय करते है कि मतदाता का मुद्दा क्या हो? 

तो फिर हम शिकायत किससे करते है और क्यों करते है, जब आरक्षण मिलने के बाद भी किसी दलित या पिछडे वर्ग के बच्चे को नौकरी नहीं मिलती, वह भी तब जब देश में 25 लाख सरकारी नौकरियां खाली है. हम क्यों गुस्सा जाहिर करते है जब पैसा होने के बाद भी मोतीहारी-दरभंगा-गया का कोई आम आदमी पटना तक में अपने हार्ट का ठीक से इलाज नहीं करवा सकता. हम क्यों गुस्सा जाहिर करते है जब 70 साल से कथित तुष्टिकरण किए जाने के बाद भी किसी मुसलमान का बच्चा पढाई की जगह पंक्चर लगाने का काम करता है.

दरअसल, हम खुद ही अपने लाश का मजार बनते जा रहे है. अपनी बदहाली के जिम्मेवार हम खुद है. क्यों? क्योंकि, हम सब जानते-बूझते खामोश है. मेरे हर मित्र को मालूम है कि समस्या क्या है, समाधान क्या है? लेकिन वो किसी मसीहा के इंतजार में है...? आखिर, कब तक....

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