NCERT स्कूली किताबों का पुनर्लेखन : ‘मुस्लिम राज’ तो एक बहाना है, असल में तो सच छुपाना है!  

Written by Shamsul Islam | Published on: August 4, 2025
किताब के इस नये संस्करण में बहुत सारे विषयों में तब्दीलियाँ की गई हैं लेकिन प्रेस विवरणों में सिर्फ़ यह बताया गया कि मुग़ल और मुसलमान शासकों पर मौजूदा पाठों के स्थान पर भारत में मुसलमान शासकों द्वारा किए गए धार्मिक उत्पीड़न और अन्य क्रूरताओं का विवरण शामिल कर दिया गया है। और इसी को लेकर हिन्दुत्व के बंधक मीडिया और व्हाट्सप्प विश्वविद्यालयों ने इस्लाम और देश के मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक और जंग छेड़ दी। 



राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) के निदेशक, डी. पी. सकलानी ने दिनांक जुलाई 17, 2025 को कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक का कई बुनियादी परिवर्तनों के साथ अनावरण किया। इस संशोधित पाठ्यपुस्तक को 2025-26 के सत्र से लागू किया जाना है। किताब के इस नये संस्करण में बहुत सारे विषयों में तब्दीलियाँ की गई हैं लेकिन प्रेस विवरणों में सिर्फ़ यह बताया गया कि मुग़ल और मुसलमान शासकों पर मौजूदा पाठों के स्थान पर भारत में मुसलमान शासकों द्वारा किए गए धार्मिक उत्पीड़न और अन्य क्रूरताओं का विवरण शामिल कर दिया गया है। और इसी को लेकर हिन्दुत्व के बंधक मीडिया और व्हाट्सप्प विश्वविद्यालयों ने इस्लाम और देश के मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक और जंग छेड़ दी। इस से पहले कक्षा 6-12 तक की पाठ्यपुस्तकों में भी आमूल-चूल परिवर्तन किये जा चुके थे। 

आरएसएस के पूर्ण नियंत्रण में NCERT ने इस काम को पूरा करने के लिए जिस विशेषज्ञ को जिम्मेदारी दी है वे मिशेल डैनिनो एक फ़्रांसीसी मूल के भारतीय लेखक हैं। वे वर्तमान में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम के अध्यक्ष हैं। वे हिंदुत्व के समर्थक हैं और ऐतिहासिक निषेधवाद (भूत काल की सच्चाईयों को झुटलाना) में लिप्त होने के कारण उनकी आलोचना की जाती रही है।

 आईए, हम पहले जानें कौन से ज़रूरी विषय निकाल दिए गए हैं, जिन पर चर्चा नहीं हो रही है। 

आपातकाल

कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक 'स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनीति' में आपातकाल पर अध्याय को पाँच पृष्ठ कम कर दिया गया है।  लोगों और संस्थाओं पर आपातकाल के कठोर प्रभाव से संबंधित अंश हटा दिए गए हैं।

आपातकाल के दौरान सभी ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर लगाए गए प्रतिबंधों का एक और संदर्भ कक्षा 12 की समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तक के अध्याय 8 ('सामाजिक आंदोलन') से हटा दिया गया है।

विरोध प्रदर्शन और सामाजिक आंदोलन

कक्षा 6 से 12 तक की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से समकालीन भारत में सामाजिक आंदोलनों में परिवर्तित हुए विरोध प्रदर्शनों का विवरण देने वाले लगभग तीन अध्याय हटा दिए गए हैं। उदाहरण के लिए, कक्षा 12 की पाठ्यपुस्तक 'स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनीति' से "लोकप्रिय आंदोलनों के उदय" पर एक अध्याय हटा दिया गया है।

चिपको आंदोलन, सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स के विकास, अस्सी के दशक के कृषि संघर्षों, विशेष रूप से भारतीय किसान संघ द्वारा संचालित संघर्ष,  आंध्र प्रदेश के शराब विरोधी आंदोलन, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में नर्मदा नदी और उसकी सहायक नदियों पर सरदार सरोवर परियोजना के निर्माण का विरोध करने वाले प्रसिद्ध नर्मदा बचाओ आंदोलन और सूचना के अधिकार के लिए आंदोलन के विवरणों को हटा दिया गया।

समानता के लिए संघर्ष’ अध्याय को भी हटा दिया

एनसीईआरटी ने कक्षा 7 की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक से ‘समानता के लिए संघर्ष’ अध्याय को भी हटा दिया है, जिसमें बताया गया है कि कैसे ‘तवा मत्स्य संघ’ ने मध्य प्रदेश के सतपुड़ा जंगल के विस्थापित वनवासियों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी।

देसी/विदेशी जन संघर्षों पर अध्याय हटा दिया

कक्षा 10 की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक 'लोकतांत्रिक राजनीति-II' से जन संघर्षों पर तीसरा अध्याय हटा दिया गया है। यह दबाव समूहों और आंदोलनों के माध्यम से राजनीति को प्रभावित करने के अप्रत्यक्ष तरीकों पर विचार करता था। नेपाल में लोकतंत्र के लिए आंदोलन और बोलीविया में पानी के निजीकरण के विरोध के अलावा, यह अध्याय नर्मदा बचाओ आंदोलन, 1987 में कर्नाटक के अहिंसक कित्तिको-हच्चिको (तोड़ो और लगाओ) विरोध, कांशीराम द्वारा स्थापित पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ और राष्ट्रीय जन आंदोलनों के गठबंधन, जिसके संस्थापकों में मेधा पाटकर शामिल हैं, का भी उल्लेख करता था।

सामाजिक आंदोलनों पर कैंची 

कक्षा 11 और 12 के समाजशास्त्र पाठ्यक्रम में सामाजिक आंदोलनों पर एकमात्र अध्याय को काफी कम कर दिया गया है। कक्षा 12 की पाठ्यपुस्तक 'भारत में सामाजिक परिवर्तन और विकास' में 'सामाजिक आंदोलन' शीर्षक वाले अध्याय में किए गए कई बदलावों में से एक अभ्यास बॉक्स को हटाना है जिसमें छात्रों से संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हाल ही में हुए किसानों के विरोध प्रदर्शन पर चर्चा करने के लिए कहा गया था।

लोकतंत्र

लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र के निर्माण से संबंधित चार अध्याय इस आधार पर हटा दिए गए हैं कि अन्य कक्षाओं की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में भी इसी तरह के विषय शामिल हैं। उदाहरण के लिए, कक्षा 6 की राजनीति विज्ञान की पुस्तक से 'लोकतांत्रिक सरकार के प्रमुख तत्व' शीर्षक वाला अध्याय हटा दिया गया है। यह मिडिल स्कूल में लोकतंत्र की अवधारणा का पहला विस्तृत परिचय था और कुछ महत्वपूर्ण तत्वों पर चर्चा करता था जो एक लोकतांत्रिक सरकार के कामकाज को प्रभावित करते हैं, जिनमें कक्षा 10 की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक से 'लोकतंत्र और विविधता' और 'लोकतंत्र के लिए चुनौतियाँ' जैसे अध्याय भी हटा दिए गए हैं। इन दोनों अध्यायों को सबसे पहले अप्रैल में सीबीएसई पाठ्यक्रम से हटाया गया था, और अब इन्हें एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक से स्थायी रूप से हटा दिया गया है।

जवाहर लाल नेहरू की कटौती 

पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा कक्षा 6 की इतिहास की पाठ्यपुस्तक के अध्याय 'अशोक, युद्ध त्यागने वाले सम्राट' से सम्राट अशोक पर दिया गया उद्धरण हटा दिया गया है। हटाए गए उद्धरण में कहा गया है: "उनके आदेश (निर्देश) आज भी हमें उस भाषा में बोलते हैं जिसे हम समझ सकते हैं और हम आज भी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं।"

भाखड़ा नांगल बाँध पर नेहरू की निम्नलिखित टिप्पणी कक्षा 12 की समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तक से हटा दी गई है।

“हमारे इंजीनियर हमें बताते हैं कि शायद दुनिया में कहीं और इतना ऊँचा बाँध नहीं है। यह काम कठिनाइयों और जटिलताओं से भरा है। जब मैं उस जगह पर घूम रहा था, तो मुझे लगा कि आजकल सबसे बड़े मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे ही उसी जगह हैं जहाँ इंसान मानवता की भलाई के लिए काम करता है। इससे बड़ा कौन सा स्थान हो सकता है, यह भाखड़ा नांगल, जहाँ हज़ारों-लाखों लोगों ने काम किया है, अपना खून-पसीना बहाया है और अपनी जान भी कुर्बान की है?”

लोगों की भागीदारी, संघर्ष समाधान, समानता और न्याय।

'स्वतंत्रता के बाद का भारत' अध्याय, जो संविधान निर्माण और भाषाई राज्यों के निर्माण के बारे में बात करता है, कक्षा 8 की इतिहास की पाठ्यपुस्तक 'हमारे अतीत III' से हटा दिया गया है।

राजद्रोह  

राजद्रोह के उदाहरण के ज़रिए औपनिवेशिक क़ानून की मनमानी और भारत में क़ानूनी क्षेत्र के विकास में भारतीय राष्ट्रवादियों की भूमिका का वर्णन करने वाला एक भाग अब कक्षा 8 की राजनीति विज्ञान की किताब के अध्याय 'क़ानूनों को समझना' का हिस्सा नहीं है।

मस्जिद के विध्वंस, गुजरात और मणिपुर हिंसा के विवरण हटाए गए  

अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस, गुजरात दंगों में मारे गए मुसलमानों का उल्लेख, मणिपुर हिंसा के संदर्भ मस्जिद के विध्वंस कक्षा 11 और 12 की पाठ्यपुस्तकों में से हटाए गए।

हैदर अली और टीपू सुल्तान को हटाया गया

एनसीईआरटी की कक्षा 8 की नई सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में भारत के औपनिवेशिक काल पर अपने अध्याय में हैदर अली  और टीपू सुल्तान, या 1700 के दशक के चार एंग्लो-मैसूर युद्धों का उल्लेख नहीं है। याद रहे कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ टीपू सुल्तान  जिन्हें "मैसूर के टाइगर" के रूप में जाना जाता है ने गौरवशाली सैनिक प्रतिरोध किया था। वे रॉकेट तोपखाने के अग्रदूत थे जिन्हें अंग्रेज़ों के विरुद्ध बहुत कामयाबी मिली। उनके शासनकाल में मैसूर की अर्थव्यवस्था अपने चरम पर पहुँच गई। वे 4 मई  1799 के दिन श्रीरंगपट्टनम के मोर्चे पर अंग्रेज़-मराठा-निज़ाम की साझी सेना से लड़ते हुए शहीद हुए। जिस वक़्त टीपू शहीद हुए उन्हों ने एक भारी सोने की अंगूठी पहनी हुयी थी जिस पर देवनागरी लिपि में ‘राम’ अंकित था।   

बंधक मीडिया और हिन्दुत्व समर्थक विशेषज्ञों ने ज्ञान दिया कि मुसलमान शासकों के हिंदुस्तान में राज के कालखंड को निकाल दिया गया है इस लिये सेकुलर और प्रगतिशील ख़ेमे को बहुत परेशानी हो रही है। सच यह है कि इस में बहुत कुछ नया जोड़ा गया है। नई किताब का इतिहास खंड, जो दिल्ली सल्तनत से शुरू होकर औपनिवेशिक काल (अँग्रेज़ी राज) तक जाता है, के आरंभ में 'इतिहास के अंधकारमय कालखंडों’ पर एक टिप्पणी दी गई है जिस में इतिहास के उन "अंधकारमय" कालखंडों का वर्णन किया गया है, जब युद्ध, दुर्व्यवहार, कट्टरता और रक्तपात का बोलबाला था। 

'इतिहास के अंधकारमय कालखंडों’ की पहचान करते हुए महमूद गज़नी और मुग़ल शासकों की दमनकारी नीतियों का विशेष कर उल्लेख किया गया है जैसा की हम निम्नलिखित से जानेंगे।  

1. दूसरे अध्याय में अफ़गानिस्तान के महमूद गजनी का उल्लेख किया गया है, जिसने उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था और सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया था। इसमें संशोधन किया गया है। सबसे पहले, उसके नाम से "सुल्तान" की उपाधि हटा दी गई है। दूसरा, "उसने लगभग हर साल उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया" वाक्य को संशोधित करके "उसने धार्मिक उद्देश्य से उपमहाद्वीप पर 17 बार (1000-1025 ई.) आक्रमण किया" कर दिया गया है।

2. पहले मुग़ल सम्राट बाबर के बारे में, किताब में लिखा है कि उसकी आत्मकथा उसे सुसंस्कृत और बौद्धिक रूप से जिज्ञासु बताती है। "लेकिन वह एक क्रूर और निर्दयी विजेता भी था, जिसने शहरों की पूरी आबादी का कत्लेआम किया, महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाया, और लूटे गए शहरों के कत्ल किए गए लोगों से बनी 'खोपड़ियों की मीनारें' बनवाने में गर्व महसूस करता था।" कक्षा 7 की पुरानी किताब में, बाबर को केवल अपने पैतृक सिंहासन को छोड़ने के लिए मजबूर किए जाने और काबुल, और फिर दिल्ली और आगरा पर कब्ज़ा करने के रूप में वर्णित किया गया था।

3.  यह अकबर के शासनकाल को "क्रूरता और सहिष्णुता का मिश्रण" बताता है। जब अकबर ने चित्तौड़गढ़ के राजपूत किले पर हमला किया और "लगभग 30,000 नागरिकों के नरसंहार का आदेश दिया", तो उसने विजय संदेश भेजा: "हम काफिरों के कई किलों और कस्बों पर कब्ज़ा करने में सफल रहे हैं और वहाँ इस्लाम की स्थापना की है। अपनी रक्तपिपासु तलवार की ताकत से, हमने उनके मन से काफिरों के निशान मिटा दिए हैं और उन जगहों पर और पूरे हिंदुस्तान में मंदिरों को नष्ट कर दिया है।" पुस्तक यह भी बताती है कि बाद में अकबर द्वारा विभिन्न धर्मों के प्रति सहिष्णुता के बावजूद, "प्रशासन के उच्च पदों पर गैर-मुसलमानों को अल्पसंख्यक रखा गया"।

4. औरंगज़ेब के बारे में, किताब बताती है कि कुछ विद्वानों का तर्क है कि उसके इरादे मुख्यतः राजनीतिक थे, और वे मंदिरों को दिए गए अनुदानों और सुरक्षा के आश्वासनों का उदाहरण देते हैं। हालाँकि उसके फैसलों में राजनीति की भूमिका थी, लेकिन उसके फरमान (आदेश) "उसके व्यक्तिगत धार्मिक इरादे को भी स्पष्ट करते हैं।" उसने प्रांतों के राज्यपालों को स्कूलों और मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया, और बनारस, मथुरा, सोमनाथ, जैन मंदिरों और सिख गुरुद्वारों में मंदिरों को ध्वस्त कर दिया।

मुसलमान शासकों के अपने हिन्दू प्रजा पर ढाए ज़ुल्मों के इस विस्तृत वृतांत के साथ एक टिप्पणी भी जोड़ी गई है जिस में रेखांकित किया गया है कि आज के किसी भी व्यक्ति (यानी देश के मुसलमानों) को दोष दिए बिना, निष्पक्षता से अंधकारमय घटनाक्रमों का अध्ययन करना ज़रूरी है। अगर हम ‘मुसलमान राज’ के अपराधियों की पहचान करना चाहते हैं तो उस काल के ऐतिहासिक सच जो स्वयं ‘हिन्दू’ स्रोतरों ने दर्ज की हैं से साफ़ पता चल जाएगा कि मुसलमान शासकों ने जो ज़ुल्म किये उस में हिन्दू ऊंची जातियाँ पूरे तौर पर शरीक थीं। 

महमूद गज़नी (महमूद ग़ाज़ी) द्वारा सोमनाथ मंदिर के विध्वंस के बारे में आरएसएस के श्रेष्ठतम विचारक गोलवलकर का कथन 

कोई भी समझदार व्यक्ति इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि गुजरात स्थित सोमनाथ मंदिर को महमूद गज़नी ने 1026 में अपवित्र किया, लूटा और ध्वस्त किया था। लेकिन इस तथ्य को हमेशा छपाय जाता है कि यह अपराध स्थानीय हिंदू सरदारों की सक्रिय मदद और भागीदारी से किया गया था। एमएस गोलवलकर ने महमूद द्वारा सोमनाथ मंदिर के अपवित्रीकरण और विध्वंस का ज़िक्र करते हुए कहा:

"उसने खैबर दर्रा पार किया और सोमनाथ की संपत्ति लूटने के लिए भारत में क़दम रखा। उसे राजस्थान के विशाल रेगिस्तान को पार करना पड़ा। एक समय ऐसा भी आया जब उसके पास न तो भोजन था, न ही उसकी सेना के लिए पानी, और यहाँ तक कि अगर वह खुद अपने हाल पर छोड़ दिया जाता, तो वह नष्ट हो जाता... लेकिन नहीं, महमूद ग़ाज़ी ने स्थानीय [हिन्दू] सरदारों को यह विश्वास दिला दिया कि सौराष्ट्र के पास उनके खिलाफ विस्तारवादी योजनाएँ हैं। अपनी मूर्खता और तुच्छता में उन्होंने उस पर विश्वास कर लिया। और वे उसके साथ हो लिए। जब महमूद गाजी ने महान मंदिर पर हमला किया, तो वह हिंदू थे, हमारे खून का खून, हमारे मांस का मांस, हमारी आत्मा की आत्मा - जो उसकी सेना के अग्रिम मोर्चे पर खड़े थे। सोमनाथ को हिंदुओं की सक्रिय मदद से अपवित्र किया गया था। ये इतिहास के तथ्य हैं।" [RSS English organ, Organizer, January 4, 1950.]

बाबर के ज़ुल्म 

NCERT इस सच को नहीं बताती कि बाबर ने मुसलमान इब्राहीम लोधी को हराकर और मारकर उत्तरी हिंदुस्तान पर क़ब्ज़ा किया था। यह भी नहीं बताया जाता कि हिन्दू राजा राणा सांगा जिन्हों ने बाबर को चुनौती दी के मुख्य सेनापति हसन मेवाती थे जो मार्च 15, 1527  

को खानवा [भरतपुर के पास] की जंग में बाबर की सेना का मुक़ाबला करते है शहीद हुए थे।    

औरंगज़ेब के ज़ुल्म 

यह किसी का तर्क नहीं हो सकता है कि औरंगज़ेब [1618-1707] ने अपनी हिन्दुस्तानी प्रजा के ख़िलाफ़ जघन्य अपराध नहीं किए। यह याद रखने की  ज़रूरत है कि उसकी क्रूरता ग़ैर-मुसलमानों तक ही सीमित नहीं थी। उसके अपने पिता (मुग़ल बादशाह शाहजहां), भाई (दारा शिकोह, मुराद बख्श और शाह शुजा), शिया समुदाय, वे मुसलमान जो इस्लाम के उसके ब्रांड का पालन नहीं करते थे और भारत के पूर्वी, मध्य और पश्चिमी हिस्सों में मुसलमान शासक राजवंशों को उसकी भयानक क्रूरता और दमन का सामना करना पड़ा। उन्हें नष्ट कर दिया गया। बर्बर शब्द सिख गुरुओं, उनके परिवारों और अनुयायियों के साथ उसके व्यवहार का वर्णन करने के लिए एक बहुत हल्का शब्द होगा। 

इसी औरंगज़ेब ने प्रसिद्ध सूफ़ी संत, सरमद को दिल्ली की जामा मस्जिद के अहाते में क़तल किया [जामा मस्जिद के पूर्वी द्वार पर जहां सीढ़ीयों का आरंभ होता है वहाँ उनकी क़ब्र पर एक मज़ार है जो बहुत से लोगों के लिये आज भी पूजनीय है]। यह भी सच है कि ऐसे अनगिनत मामले थे जब औरंगज़ेब के निरंकुश शासन के दौरान हिंदुओं और उनके धार्मिक स्थलों को हिंसक तरीक़े से निशाना बनाया गया था। उस ने ‘सतनामियों’ के विद्रोहों को कुचल डाला।

हालाँकि, उस के दुवारा हिंदू और जैन धार्मिक स्थलों के संरक्षण के समकालीन रिकॉर्ड भी उपलब्ध हैं। दो जीवित उदाहरण भव्य गौरी शंकर मंदिर है, जो लाल किले के लाहौरी-गेट से थोड़ी दूरी पर है, जो शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान बनाया गया था और जो औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान काम करता रहा और लाल किले के ठीक सामने जैन लाल मंदिर। [Trushke, Audrey, Aurangzeb: The Man and the Myth, Penguin, Gurgaon, 2017, pp. 99-106.] यह याद रखना ज़रूरी है कि औरंगज़ेब के सभी अपराधों को केवल हिंदुओं के दमन तक सीमित करना मानवता के ख़िलाफ़ उसके संगीन अपराधों को हल्का करने के समान होगा।

मुग़ल राज हिन्दू ऊंची जातियों के सहारे टिका था  

NCERT कितनी भोली (या आरएसएस के शिकंजे में है) कि उसे इस सच की जानकारी नहीं है कि औरंगज़ेब या मुग़ल 'इस्लामी' शासन अपने साम्राज्य को चलाने में हिंदू उच्च जातियों का झुण्डों में 'मुसलमान' शासकों कि सेवा में शामिल होने के कारण अस्तित्व में आया और मज़बूती से चलता रहा। यह एकता कितनी गहरी और पक्की थी, इसका अंदाज़ा  इसी बात से लगाया जा सकता है कि अकबर के बाद कोई मुग़ल बादशाह किसी मुसलमान मां से पैदा नहीं हुआ। इसके अलावा, हिंदू उच्च जातियों ने 'मुसलमान' शासकों के प्रति असीम वफ़ादारी दिखाते हुए उनकी दिमाग़ और बल दोनों से ख़ूब सेवा की। 

अरबिंदो घोष जिन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदू आधार प्रदान करने में प्रमुख भूमिका निभाई, ने स्वीकार किया कि मुग़ल शासन इस तथ्य के कारण टिका रहा कि मुग़ल सम्राटों ने हिंदुओं को "सत्ता और ज़िम्मेदारी के पद दिए, उन्हों ने अपनी सल्तनतों को संरक्षित रखने के लिये उनके मस्तिष्क और बाहुबल का इस्तेमाल किया"। [देखें Chand, Tara, History of the Freedom Movement in India, vol. 3, Publication Division  Government of India, Delhi, 1992, p. 162.] प्रसिद्ध इतिहासकार तारा चंद ने मध्ययुगीन काल की प्राथमिक स्रोत सामग्री पर भरोसा करते हुए निष्कर्ष निकाला कि 16वीं शताब्दी के अंत से 19वीं शताब्दी के मध्य तक, "यह उचित रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पश्चिमी पंजाब को छोड़कर पूरे भारत में, भूमि में श्रेष्ठ अधिकार हिंदुओं के हाथों में आ गए थे” जिनमें से अधिकांश राजपूत थे। [Chand, Tara, History of the Freedom Movement in India, vol. 1, Publication Division  Government of India, Delhi, 1961, p. 124.]

माआसिरुल-उमरा [कमांडरों की जीवनी] 1556 से 1780 तक मुग़ल साम्राज्य में अधिकारियों का एक जीवनी शब्दकोश [अकबर से शाह आलम तक] को मुग़ल शासकों द्वारा रखे गये उच्च रैंक के अधिकारियों का सबसे प्रामाणिक रिकॉर्ड माना जाता है। इस काम को शाहनवाज़ ख़ान और उनके बेटे अब्दुल हई ने 1741 और 1780 के बीच संकलित किया था। ये ब्योरा मुग़ल शासकों के दस्तावेज़ों पर आधारित था। इसके अनुसार इस अवधि में मुग़ल शासकों ने लगभग 100 (365 में से) हिंदुओं को उच्च पदस्थ अधिकारियों के ओहदों पर नियुक्त किया था, जिनमें से अधिकांश “राजपूत राजपूताना, केंद्रीय-भारत, बुंदेलखंड, महाराष्ट्र” से थे। जहां तक ​​संख्या का सवाल है, ब्राह्मणों ने मुग़ल प्रशासन को संभालने में राजपूतों का अनुसरण किया।

[Khan, Shah Nawaz, Abdul Hai, Maasir al-Umara [translated by H Beveridge as Mathir-ul-Umra], volumes 1 & 2, Janaki Prakashan, Patna, 1979.]

दिलचस्प बात यह है कि 1893 में स्थापित, ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ ने जो "हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध" थी, 1931 में इस पुस्तक के उन हिस्सों का जिन में ‘मुग़ल दरबार के हिन्दू सरदारों कि जीवनियां’ का वर्णन किया गया था का हिन्दी अनुवाद करके एक पुस्तक के रूप में छापा था। [व्रजरत्न दास (अनुवाद), माआसिरुल-उमरा, काशी नागरी प्राचारिणी सभा, काशी, 1931]

औरंगज़ेब के हिन्दू सेनापति औरंगज़ेब ने युद्ध के मैदान में कभी भी शिवाजी का सामना नहीं किया। यह उसके  सेनापति, आमेर (राजस्थान) के एक राजपूत शासक, जय सिंह प्रथम (1611-1667) था, जिसे शिवाजी (1603-1680) को अधीन करने के लिए भेजा गया था। जय सिंह II (1681-1743), (जय सिंह I का भतीजा) मुग़ल सेना का अन्य प्रमुख राजपूत सेनापति था जिसने औरंगज़ेब की वफ़ादारी से सेवा की थी। उन्हें 1699 में औरंगज़ेब द्वारा 'सवाई' [अपने समकालीनों से एक चौथाई गुना श्रेष्ठ] की उपाधि से सम्मानित किया गया था और इस तरह उन्हें महाराजा सवाई जय सिंह के नाम से जाना जाने लगा। उन्हें औरंगज़ेब द्वारा मिर्ज़ा राजा [शाही राजकुमार के लिए एक  फ़ारसी उपाधी] की उपाधि भी दी गई थी। अन्य मुग़ल शासकों द्वारा उन्हें दी गयीं अन्य उपाधियाँ 'सरमद-ए-राजाह-ए-हिंद' [भारत के शाश्वत शासक], 'राज राजेश्वर' [राजाओं के स्वामी] और 'श्री शांतनु जी' [हितकारी राजा] थीं। ये उपाधियाँ आज भी उनके वंशजों द्वारा प्रदर्शित की जाती हैं।

अकबर बनाम महाराणा प्रताप

मौजूद हिंदुत्व कथानक के अनुसार प्रताप सिंह प्रथम जिन को महाराणा प्रताप (1540-1597) के रूप में जाना जाता है, भारत के मुग़ल शासक अकबर के ख़िलाफ़ हिंदू और हिंदू राष्ट्र के लिए लड़े जो इस्लामी शासन के तहत भारत के हिंदुओं को अधीन करना चाहता था। दिलचस्प बात यह है कि अकबर ने कभी भी युद्ध में महाराणा का सामना नहीं किया; यह अकबर का सबसे भरोसेमंद राजपूत सैन्य कमांडर, मान सिंह I (1550-1614) जो उनका साल भी था, जिसने मुग़ल साम्राज्य की ओर से महाराणा के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी। हल्दीघाटी की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई (18 जून, 1576) महाराणा के नेतृत्व वाली सेना और मान सिंह I के बीच लड़ी गई, जिसने मुग़ल सेना का नेतृत्व किया। वह नवरत्नों (अकबर के दरबार उस के प्रिय दरबारी) में से एक था, अकबर ने उसे अपना फ़रज़ंद (पुत्र) कहा और उसने अकबर के साम्राज्य के कई सूबों पर शासन किया। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि हकीम ख़ान सूर/सूरी, एक अफ़ग़ान, महाराणा प्रताप की सेना के तोपख़ाना के मुखिया थे जो हल्दीघाटी कि लड़ाई में लड़ते हुए शहीद हुए थे।

एक कायस्थ शाहजहां और औरंगज़ेब का प्रधान मंत्री 

समकालीन दस्तावेज़ों में राजा रघुनाथ बहादुर, एक कायस्थ, जो शाहजहाँ और औरंगज़ेब दोनों के दीवान आला (प्रधान मंत्री) के रूप में कार्य करता था, का प्रत्यक्ष विवरण है। उसके वंशजों में से एक, राजा महाराज लाल द्वारा लिखी गई एक जीवनी के अनुसार, “राजा रघुनाथ बहादुर दीवान आला (प्रधान मंत्री) के सबसे ऊंचे पद पर पहुंचकर अपने सह- जातियों [कायस्थों] के हितों से बेख़बर नहीं थे। राजा ने उनमें से प्रत्येक को उनकी व्यक्तिगत योग्यता के अनुसार सम्मान और परिलब्धियों के पदों पर नियुक्त किया; जबकि उनमें से कई को उनकी सेवाओं के लिए सम्मान और मूल्यवान जागीरें प्रदान की गईं। एक भी कायस्थ बेरोज़गार या ज़रूरतमंद परिस्थितियों में नहीं रहा।

[Lal, Lala Maharaj, Short Account of the Life and Family of Rai Jeewan Lal Bahadur Late Honrary Magistrate Delhi, With Extracts from His Diary Relating to the Times of Mutiny 1857, 1902.]

इस वृत्तांत से पता चलता है कि औरंगज़ेब, जो एक 'कट्टर मुसलमान' और बेलगाम बादशाह था कि सल्तनत में, कायस्थ प्रधान मंत्री अपनी जाति के लोगों को जो सभी हिन्दू थे, को संरक्षण देने में आज़ाद था। औरंगज़ेब इस हिंदू प्रधान मंत्री के इतने दिलदादा थे कि उस की मृत्यु के बाद एक पत्र में अपने एक वज़ीर (मंत्री) असद ख़ान को हिदायती दी की राजा रघुनाथ के 'ऋषि- मार्गदर्शन' का पालन करे। [Trushke, Audrey, pp. 74-75.]

5000 साल पुरानी सभ्यता में मुसलमान काल (500 साल) की ही पड़ताल   

औरंगज़ेब या अन्य 'मुसलमान' शासकों के पूर्व-आधुनिक भारत में किए गए अपराधों को उन के धर्म से जोड़ने से आरएसएस द्वारा बताए गए 'हिंदू' इतिहास के लिए भी गंभीर परिणाम पैदा होने वाले हैं। उदाहरण के लिए, लंका के राजा रावण को लें, जिसने 'हिंदू' कथा के अनुसार 14 साल के लंबे वनवास या वनवास के दौरान सीता, उनके पति भगवान राम और उनके साथियों के ख़िलाफ़ अकथनीय अपराध किए। यह रावण, उसी कथा के अनुसार, एक विद्वान ब्राह्मण था जो भगवान शिव के सबसे बड़े उपासकों में से एक था।

महाभारत 

महाकाव्य महाभारत हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नहीं बल्कि दो 'हिंदू' सेनाओं (पांडवों और कौरवों (दोनों क्षत्रिय) के बीच एक भीषण युद्ध की कहानी है। इस में 'हिंदू' वृत्तांत  के अनुसार 120 करोड़ लोग, सभी हिन्दू, का वध हुआ था।  पांडवों की संयुक्त पत्नी द्रौपदी को कौरवों, सभी हिन्दू, ने निर्वस्त्र कर दिया था। 

अगर औरंगज़ेब और अन्य 'मुसलमान' शासकों की तरह रावण, कौरवों, जयसिंह प्रथम और द्वितीय आदि के अपराधों को उनके धर्म से जोड़ दिया जाए तो देश बूचड़ख़ाने में तब्दील हो जाएगा। और यदि अतीत के अपराधियों के वर्तमान सहधर्मियों से बदला लेना है तो भारतीय सभ्यता की शुरुआत से इस की शुरुआत करनी होगी; भारतीय मुसलमानों की बारी तो बहुत बाद में आएगी!

क्या धार्मिक उत्पीड़न केवल ‘मुसलमान काल’ में हुआ?

हिंदुस्तान के 5000 साल के इतिहास (‘मुसलमान काल’ से पहले) का ‘हिन्दू’ विवरण ऐसी  अनगिनत मिसालों से भरा है जिन से साफ़ पता चलता है कि धार्मिक उत्पीड़न कोई छुपा मामला नहीं था। स्वामी विवेकानंद जिन के हिन्दू होने में NCERT को कोई आशंका नहीं होनी चाहिए उन्हों ने बहुत स्पष्ट शब्दों में जानकारी दी कि, "जगन्नाथ मंदिर एक प्राचीन बौद्ध मंदिर है। हमने इसे और अन्य मंदिरों को अपने अधीन करके पुनः हिंदूकृत किया है। हमें अभी भी ऐसे कई काम करने हैं।" [The Complete Works of Swami Vivekananda, vol. 3, 264.]

हिंदुत्व खेमे के एक और दार्शनिक बंकिम चंद्र चटर्जी ने भी इसकी पुष्टि की है। उनके अनुसार, जगन्नाथ मंदिर का एक अभिन्न अंग, रथयात्रा भी एक बौद्ध अनुष्ठान था। बंकिम चंद्र चटर्जी ने लिखा: "जगन्नाथ मंदिर एक प्राचीन बौद्ध मंदिर है। हमने इसे और अन्य मंदिरों को अपने अधीन कर लिया और उनका पुनः हिंदूकरण किया। मुझे ज्ञात है कि जनरल कनिंघम ने भिलसा टोपेस पर अपने कार्य में [जगन्नाथ मंदिर में] रथ उत्सव की उत्पत्ति का एक और बहुत ही उचित विवरण दिया है। वहाँ उन्होंने इसे बौद्धों के एक ऐसे ही उत्सव से जोड़ा है, जिसमें बौद्ध धर्म के तीन प्रतीक, बुद्ध, धर्म और संघ, उसी शैली में एक रथ पर चित्रित किए जाते थे, और मेरा मानना है कि यह रथ के समान ही मौसम था। यह तथ्य इस सिद्धांत का पूर्ण समर्थन करता है कि जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियाँ, जो अब रथ में हैं, बुद्ध, धर्म और संघ के स्वरूपों की लगभग प्रतिकृतियाँ हैं, और ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें उन्हीं के आधार पर बनाया गया है।" 

[Chatterjee, Bankim Chandra, 'On the origin of Hindu festivals' in Essays & Letters, Rupa, Delhi, 2010, pp. 8-9.]

यह कोई अकेली घटना नहीं थी। स्वामी दयानंद सरस्वती, जिन्हें हिंदुत्व का अग्रदूत माना जाता है, ने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में शंकराचार्य (8वीं शताब्दी) के योगदान पर चर्चा करते हुए लिखा:
"दस वर्षों तक उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया, जैन धर्म का खंडन किया और वैदिक धर्म का समर्थन किया। आजकल जो भी खंडित मूर्तियाँ ज़मीन से खोदकर निकाली जाती हैं, वे शंकर के काल में खंडित हुई थीं, जबकि जो मूर्तियाँ यहाँ-वहाँ ज़मीन के नीचे पूरी मिलती हैं, उन्हें जैनियों ने खंडित होने के भय से दबा दिया था।" [Sarswati, Dayanand, Satyarth Praksh, chapter xi, p. 347.]

प्रसिद्ध इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार (1870-1958) ने जिनका इस्लाम या मुस्लिम शासकों कोई प्रेम नहीं था और जिन्हें आरएसएस एक सच्चा हिंदू इतिहासकार मानता है 1742 में बंगाल पर मराठा आक्रमण के अपने वर्णन में साफ़ कहा कि 'हिंदू राष्ट्र' की इस सेना को बंगाल के हिंदुओं के सम्मान और संपत्ति की ज़रा भी परवाह नहीं थी। सरकार के अनुसार, "घूमते हुए मराठा दस्तों ने बेरहमी से विनाश और अकथनीय अत्याचार किया।"

[Jadunath Sarkar (ed.), The History of Bengal-Volume II Muslim Period 1200 A.D.–1757 A.D. (Delhi: BR Publishing, 2003), (first edition 1948), 457.]

बंगाल के इतिहास पर अपनी महान कृति में, सरकार ने मराठों के हाथों बंगाली हिंदुओं पर हुए अत्याचारों के प्रत्यक्षदर्शी वृत्तांत प्रस्तुत किए। ऐसे ही एक प्रत्यक्षदर्शी, गंगाराम के अनुसार,
"मराठों ने सोना-चाँदी लूट लिया, बाकी सब कुछ त्याग दिया। कुछ लोगों के हाथ काट दिए, कुछ के नाक-कान; और कुछ को तो उन्होंने सीधे मार डाला। वे सुंदर महिलाओं को घसीटकर ले गए और उनका बलात्कार करने के बाद ही उन्हें मुक्त किया।"

[Jadunath Sarkar (ed.), The History of Bengal-Volume II Muslim Period 1200 A.D.–1757 A.D. (Delhi: BR Publishing, 2003), (first edition 1948), 457.]


एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी, वणेश्वर विद्यालंकार, ने जो बर्धमान महाराजा के राजपुरोहित थे, मराठों द्वारा हिंदुओं पर किये गए अत्याचारों की भयावह कहानियां इन शब्दों में सुनाईं: "शाहू राजा की सेना दयाहीन, गर्भवती महिलाओं और शिशुओं, ब्राह्मणों और गरीबों की हत्या करने वाली, उग्र स्वभाव वाली, हर किसी की संपत्ति लूटने और हर तरह के पाप कर्म करने में माहिर है।" [Ibid., 458.]

मुसलमान राज के अंत पर मुसलमान केवल 21.5% एक और महत्वपूर्ण तथ्य जिसे जानबूझकर छुपा कर रखा जाता है, वह यह है कि 500 सौ से अधिक वर्षों के 'मुसलमान'/मुग़ल शासन के बावजूद, जो हिंदुत्व इतिहासकारों के अनुसार हिंदुओं को ख़त्म करने या उन्हें बल-पूर्वक मुसलमान बनाने की एक संयोजित परियोजना के अलावा और कुछ नहीं था; भारत एक ऐसा देश बना रहा जिसमें हिंदुओं का कुल आबादी में 2/3 बहुमत उस समय भी बना रहा जब औपचारिक 'मुसलमान' शासन भी समाप्त हो गया था। ब्रिटिश शासकों ने पहली जनगणना 1871-72 में की थी। जनगणना रिपोर्ट के अनुसार: "ब्रिटिश भारत की हिन्दू (सिखों सहित) जनसंख्या 140½ मिलियन [14 करोड़ 50 लाख] है जो भारत कि पूरी आबादी का 73.5 प्रतिशत है। मुसलमान आबादी 40¾ मिलियन [4 करोड़ 7 लाख पचास हज़ार] है यानी 21.5%। बौद्ध, जैन, ईसाई, यहूदी, पारसी, ब्रह्मोस और अन्य 9.25 मिलियन [लगभग 1 करोड़ से कुछ कम] जो कुल आबादी का 5 प्रतिशत है।”


[Memorandum on the Census Of British India of 1871-72: Presented to both Houses of Parliament by Command of Her Majesty London, George Edward Eyre and William Spottiswoode, Her Majesty's Stationary Office 1875, 16.]


इन आँकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि हिन्दुओं का उत्पीड़न और उनका सफ़ाया 'मुसलमान' शासन की गौण परियोजना भी नहीं थी। अगर ऐसा होता तो भारत से हिंदू धर्म और हिन्दू धर्म के अनुयायी ग़ायब हो जाते। 'मुसलमान' शासन के अंत में हिंदू 73.5% थे जो अब 2011 की जनगणना के अनुसार बढ़कर 79.80% हो गए हैं। इसके उलट मुसलमान जो 21.5% थे वो घटकर 14.23% रह गए हैं। भारत ही एकमात्र ऐसा देश प्रतीत होता है जहाँ आधी सहस्राब्दी से अधिक के मुग़ल 'मुसलमान' शासन के बावजूद उनकी सल्तनत कि जनसंख्या शासकों के धर्म में परिवर्तित नहीं हुई। भारत के मुसलमान न केवल संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक बने रहे, बल्कि धन, संसाधनों और अन्य लाभों से भी वंचित थे, जो कि मुग़ल शासन के तहत हिंदू उच्च जातियों का हासिल थे।  

स्कूल की किताबों के लगातार चल रहे हिन्दुत्ववादी बदलाओं पर चिंता जताते हुए द इंडियन एक्स्प्रेस ने एक संपादकीय (अप्रैल 8, 2025) में आगाह किया था कि,

“पिछले साल, इस अखबार द्वारा एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों पर की गई एक और जाँच में महात्मा गांधी की हत्या, आपातकाल, गुजरात 2002 और विरोध आंदोलनों से जुड़े प्रमुख अंशों को हटाए जाने का खुलासा हुआ था... हालिया संशोधन नई शिक्षा नीति में जगाई गई उम्मीदों को झुठलाते हैं—ये शिक्षा सुधार के प्रति नीति के वैचारिक रूप से अज्ञेयवादी [AGNOSTIC] दृष्टिकोण के विरुद्ध हैं। कुछ बदलाव जिन्हें ‘मामूली संपादन’ कहा गया है—उदाहरण के लिए, बारहवीं कक्षा की समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तक में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों की गरीबी और लाचारी के संदर्भ को हटाना—एक संगठित हिंदू समाज की अवधारणा को बढ़ावा देने के राजनीतिक एजेंडे से जुड़े प्रतीत होते हैं। इसी तरह, बड़ी बांध परियोजनाओं को आदिवासी समूहों की विपन्नता से जोड़ने वाले एक वाक्य को हटाना...तर्कपूर्ण जुड़ाव के प्रति एक असहजता को दर्शाता है।

“आज युवा मन सोशल मीडिया सहित विभिन्न स्रोतों से संस्कृति, इतिहास और राजनीति पर जानकारी की भरमार से रूबरू हो रहा है। सत्यनिष्ठा अक्सर इसकी भेंट चढ़ जाती है। इसलिए, कक्षाओं को वस्तुनिष्ठता का आधार प्रदान करते हुए छात्रों को सामाजिक जटिलताओं, उनकी विविधताओं, संघर्षों और असमानताओं के प्रति सचेत करना चाहिए। देश की अग्रणी पाठ्यपुस्तक निर्माण संस्था को इस प्रक्रिया को सक्षम बनाना चाहिए, न कि इसमें बाधा डालना चाहिए।” https://indianexpress.com/article/opinion/editorials/express-view-on-nce...

मुसलमान काल के बारे में ताज़ातरीन NCERT के पुनर्लेखन के साथ एक रहस्यात्मक टिपण्णी भी जोड़ी गई है जिस में बड़ा दिल दिखाते हुए कहा गया है कि आज के किसी भी व्यक्ति (यानी देश के मुसलमानों) को दोष दिए बिना, निष्पक्षता से अंधकारमय घटनाक्रमों अर्थात मुस्लिम काल’ का अध्ययन किया जाए। अगर सच-मुच में ‘मुसलमान राज’ के अपराधियों की पहचान करना चाहते हैं तो मुसलमानों से नहीं देश की ऊंची जातियों के हिंदुओं से हिसाब पूछना बहुत ज़रूरी है। आज देश की ऊंची जातियों के पास जो संपदा के अंबार लगे हैं उस के ऐतिहासिक कारण हैं। उन्हों ने ना ही मुसलमान और ना ही ईसाई शासकों से बैर मोल लिया बल्कि उनकी पूरी वफ़ादारी से सेवा की, मुसलमान शासकों से तो इन्हों ने रोटी-बेटी के संबंध बनाए। ऐसा नहीं कि ऊंची जातियों के हिन्दू इन ज़ालिम शासकों से लड़े नहीं पर जो लड़े थे उनके वंश में कौन बचा? देश की त्रासदी है कि जिन्हों ने ग़द्दारी की थी, ‘मुसलमान राज’ और ‘ईसाई राज’ उनका ही राज था, वे आज देश का कौन ग़द्दार था उसे तेय कर रहे हैं!


अस्वीकृति: यहाँ व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, और यह अनिवार्य रूप से सबरंग इंडिया के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

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