इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से पूरे-पूरे अध्यायों तथा वक्तव्यों को हटाने के एनसीईआरटी के फैसले से हम स्तब्ध हैं और मांग करते हैं कि पाठ्यपुस्तकों की इस काट-छांट को फौरन वापस लिया जाए।
रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, केएम श्रीमाली, मृदुला मुखर्जी, जयति घोष समेत देश के सैकड़ों प्रसिद्ध इतिहासकारों व अन्य अकादमिकों ने शुक्रवार, 7 अप्रैल को एक संयुक्त बयान जारी कर, एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में ताजा बदलावों को विभाजनकारी तथा पक्षपाती एजेंडा संचालित कहा है और इन बदलावों को फौरन वापस लेने की मांग की है।
नेशनल काउंसिल ऑफ एजूकेशनल रिसर्च एंट ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) ने 12वीं कक्षा की तथा अन्य कक्षाओं की भी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से पूरे के पूरे अध्याय हटाने और अन्य पाठ्यपुस्तकों से वक्तव्यों को काटने का हाल में जो फैसला लिया है, वह गहरी चिंता का विषय है। महामारी और लॉकडाउन का इसकी दलील के लिए आड़ के तौर पर इस्तेमाल करते हुए कि पाठ्यचर्या का बोझ हल्का किए जाने की जरूरत थी, एनसीईआरटी ने स्कूलों की छठी से बारहवीं तक की कक्षाओं की समाजविज्ञान, इतिहास, राजनीतिशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों से मुगल दरबारों के इतिहास, गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगे, इमरजेंसी और दलित लेखकों, नक्सलवादी आंदोलन व समानता के लिए संघर्ष जैसे विषयों को हटाने की, विवादित प्रक्रिया शुरू की थी। एनसीईआरटी की इन पुस्तकों के नये संस्कारणों में इन कांट-छांटों को सामान्य नियम ही बना दिया गया है, जबकि अब हम महामारी-उत्तर दौर में हैं, जहां स्कूली शिक्षा लड़खड़ाते-लड़खड़ाते वापस सामान्य स्थिति में पहुंच गयी है और अब ऑनलाइन पद्धति का उस तरह उपयोग नहीं किया जा रहा है।
इसके प्रकाश में यह गहराई से परेशान करने वाली बात है कि 12वीं कक्षा की इतिहास की पाठ्य पुस्तक के खंड-2 से मुगलों पर एक अध्याय हटा दिया गया है और इतिहास की पाठ्यपुस्तक के खंड-3 से, आधुनिक भारतीय इतिहास से संबंधित दो अध्याय हटा दिए गए हैं। इस सिलसिले में इन पाठ्यपुस्तकों को तैयार करने वाली टीमों के सदस्यों से परामर्श करने की कोई कोशिश नहीं की गयी है। इन टीमों में एनसीईआरटी के सदस्यों के अलावा इतिहासकार और स्कूली शिक्षक भी शामिल थे। ये पाठ्य पुस्तकें परामर्श और विशद चर्चाओं की प्रक्रिया के जरिए विकसित की गयी थीं। ऐसा करना, पुस्तकों को अंतर्वस्तु के पहलू से ही मूल्यवान नहीं था बल्कि शिक्षण-विद्या के लिहाज से भी मूल्यवान था, जो मिडिल से सीनियर स्कूल के स्तरों तक छात्र की समझदारी में एक आवयविक एकता तथा क्रमिक विकास सुनिश्चित करता था। इसकी भी कोशिश थी कि पाठ्यपुस्तकों को जहां तक संभव हो, ज्यादा से ज्यादा समावेशी बनाया जाए और इस उपमहाद्वीप के अंदर की भी और वृहत्तर दुनिया की भी, मानवीय अतीत की समृद्ध विविधता का एक एहसास दिया जाए।
अध्यायों / अध्यायों के खंडों का काटा जाना, न सिर्फ शिक्षार्थियों को मूल्यवान अंतर्वस्तु से वंचित करने के पहलू से बहुत ही समस्यापूर्ण है बल्कि उन शिक्षण-विद्या मूल्यों से वंचित करने के पहलू से भी समस्यापूर्ण है, जिनकी जरूरत उन्हें वर्तमान तथा भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करने के लिए होगी। स्कूली पाठ्यपुस्तकों में समय-समय पर संशोधन किए जाने की जरूरत को तो हम भी समझते हैं, लेकिन यह वर्तमान ऐतिहासिक विद्वत्ता की सर्वानुमति से ताल मिलाकर ही किया जा सकता है। लेकिन, पाठ्यपुस्तकों में संशोधन के इस चक्र में छांट-छांटकर जिस तरह से हिस्सों को काटा गया है, शैक्षणिक चिंताओं पर, विभाजनकारी राजनीति के हावी होने को ही प्रतिबिंबित करता है।
एनसीईआरटी के निदेशक के अनुसार, यह कांट-छांट स्कूली पाठ्यपुस्तकों के युक्तिकरण का हिस्सा है और यह छात्रों का बोझ कम करने के लिए किया गया है। एनसीईआरटी के अनुसार, महामारी के दौरान छात्रों को पढ़ाई के नुकसान का सामना करना पड़ा था और महामारी के बाद के दौर में छात्र पाठ्यक्रम का बोझ जरूरत से ज्यादा हो गया महसूस कर रहे थे। एनसीईआरटी के अनुसार, चूंकि कुछ अध्यायों में विभिन्न विषयों व कक्षाओं के बीच दोहराव हो रहा था, यह तार्किक था कि जरूरत से ज्यादा बोझ से दबे छात्रों के लिए अंतर्वस्तु को घटाया जाए।
एनसीईआरटी के अधिकारियों ने, युक्तिकरण की इस कसरत के पीछे किसी न्यस्त राजनीतिक उद्देश्य के होने से इंकार किया है।
बहरहाल, एनसीईआरटी के निदेशक का इंकार अपनी जगह, एनसीईआरटी की किताबों से छांट-छांटकर ऐसे अध्यायों का निकाला जाना, जो वर्तमान सत्ता अधिष्ठान की वृहत्तर विचारधारात्मक उन्मुखता से मेल नहीं खाते हैं, स्कूली पाठ्यपुस्तकों में ये संशोधन थोपने के पीछे मौजूदा निजाम के गैर-अकादमिक, पक्षपाती एजेंडा को बेनकाब कर देता है। यह तब पूरी तरह से साफ हो जाता है, जब हम पाठ्यपुस्तकों से कुछ चुनिंदा विषयों के हटाए जाने का, वर्तमान सरकार के वृहत्तर विचारधारात्मक एजेंडा की पृष्ठभूमि में रखकर, आलोचनात्मक विश्लेषण करते हैं। यह एजेंडा, भारतीय उपमहाद्वीप के जनगण के इतिहास को तोड़-मरोड़कर, एक वर्चस्वशाली एकल (हिंदू) परंपरा की पैदाइश के रूप में गढ़ने का एजेंडा है।
इस तरह के एजेंडा से संचालित होकर, इतिहास की पाठ्यपुस्तक के खंड-2 से, ‘किंग्स एंड क्रानिकल्स: द मुगल कोर्ट्स’ शीर्षक अध्याय निकाल दिया गया है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि मुगलों ने तीन सदियों से ज्यादा तक इस उपमहाद्वीप के अनेक हिस्सों पर राज किया था, जो इस दौर के इतिहास को, इस उपमहाद्वीप के इतिहास का अभिन्न हिस्सा बना देता है। मध्य काल में, मुगल साम्राज्य और विजयनगर साम्राज्य, भारतीय उपमहाद्वीप के दो सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्य थे, जिन दोनों पर ही इससे पहले की पाठ्यपुस्तकों में चर्चा की गयी थी। फिर भी, पाठ्यपुस्तक के संशोधित प्रारूप में मुगलों से संबंधित अध्याय हटा दिया गया है, जबकि विजयनगर साम्राज्य पर अध्याय बनाए रखा गया है। इस अध्याय का हटाया जाना, वृहत्तर सांप्रदायिक संदेशों को उजागर करता है, जो भारत के अतीत के संबंध में इस गलत पूर्वधारणा पर आधारित हैं कि शासकों का धर्म ही, उस दौर का प्रमुख धर्म था। यह, ‘हिंदू युग’, ‘मुस्लिम युग’ आदि के बहुत ही समस्यापूर्ण विचारों तक ले जाता है। इस तरह की श्रेणियों को अनालोचनात्मक तरीके से उस समाज पर थोपा जा रहा है, जो ऐतिहासिक रूप से बहुत ही विविधतापूर्ण सामाजिक ताने-बाने वाला समाज रहा है।
इसके अलावा, आधुनिक भारत से संबंधित, खंड-3 से दो बहुत ही महत्वपूर्ण अध्यायों को काट दिया गया है। ये हैं: ‘कोलोनियल सिटीज: अर्बनाइजेशन, प्लानिंग एंड आर्कीटैक्चर’ और ‘अंडरस्टेंडिंग पार्टीशन: पॉलिटिक्स, मैमोरीज़, एक्सपीरिएंसेज’। गांधी की हत्या में हिंदू अतिवादियों की भूमिका के हरेक उल्लेख का निकाला जाना भी महत्वपूर्ण है। मिसाल के तौर पर इतिहास की पाठ्यपुस्तक के खंड-3 में, ‘महात्मा गांधी एंड नेशनल मूवमेंट’ शीर्षक के अध्याय में से, इसका उल्लेख काट दिया गया है कि नाथूराम गोडसे ‘एक अतिवादी हिंदू अखबार का संपादक था।’
इस पर जोर देना जरूरी है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से पूरे-पूरे अध्यायों तथा अंशों को काट देने का एनसीईआरटी का वर्तमान प्रतिगामी कदम, किन्हीं अकादमिक या शैक्षणिक चिंताओं पर आधारित नहीं है। इसके बजाए, इतिहास की पाठ्यपुस्तक से ठीक उन्हीं अध्यायों को निकाला गया है, जो वर्तमान सत्ताधारियों की छद्म-इतिहास व्यवस्था में फिट नहीं होते हैं। अतीत के अध्ययन से किसी भी दौर का काटा जाना, छात्रों को अतीत को वर्तमान से जोड़ने वाले सूत्रों को समझ पाने में असमर्थ बना देगा और छात्रों को अतीत व वर्तमान को जोड़ने, उनकी तुलना करने तथा उन्हें आमने-सामने रखने के अवसर से, वंचित कर देगा और संबंधित अनुशासन की विषय-वस्तु की आवयविक अंतर्संबद्धता को छिन्न-भिन्न कर देगा। पुन:, इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से पूरे-पूरे दौरों का हटाया जाना, न सिर्फ गलत-धारणाओं व गलत-समझदारियों को बनाए रखेगा बल्कि सत्ताधारी अभिजन के विभाजनकारी सांप्रदायिक तथा जातिवादी एजेंडा को, आगे बढ़ाने का भी काम करेगा।
एनसीईआरटी ने पहले जो किताबें तथा इतिहास के पाठ्यक्रम तैयार किए थे, उनका मकसद भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐसी समझ देना था, जहां वह विभिन्न समूहों, इथनिक समुदायों आदि से संबद्ध, विभिन्न संस्कृतियों के एक महा-सम्मिलन पात्र की तरह सामने आता है। एनसीईआरटी के जिस पुराने पाठ्यक्रम से अब रणनीतिक तरीके से अध्यायों को उड़ा दिया गया है, उसका मुख्य जोर भारतीय उपमहाद्वीप की और आज के दौर की ऐतिहासिक वंशावली की, साझा विरासत पर था।
कक्षा 12 की पाठ्यपुस्तक में से काट-छांट के अलावा राजनीतिक विज्ञान की पाठ्पुस्तक में भी कई अन्य महत्वपूर्ण जगहों पर कैंचियां चलायी गयी हैं, जैसे जन-आंदोलनों के उभार, 2002 के गुजरात के दंगों से संबंधित हिस्से और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट का उल्लेख। इसी प्रकार, 11वीं कक्षा की समाज शास्त्र की पाठ्यपुस्तक, ‘अंडरस्टेंडिंग सोशियॉलाजी’ से 2002 के गुजरात के दंगों का जिक्र काट दिया गया है।
इस विभाजनकारी तथा पक्षपाती एजेंडा से संचालित होकर, स्कूली पाठ्यपुस्तकों से अनेक महत्वपूर्ण विषयों को छांट-छांटकर काटने के जरिए, एनसीईआरटी न सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप की साझा विरासत का भारी नुकसान कर रही है बल्कि भारतीय अवाम की आकांक्षाओं के साथ ही दगा कर रही है। औपनिवेशिक गठन और उनकी समकालीन पुनप्रस्तुतियां, भारतीय सभ्यता के ही गलत समझे जाने को अभिव्यक्त करती हैं। इसमें भारतीय सभ्यता को, एक वर्चस्वशाली एकल परंपरा की उपज माना जाता है। इसमें ‘हिंदू समाज’ जैसी श्रेणियों को अनालोचनात्मक तरीके से, एक ऐतिहासिक रूप से बहुत ही विविधतापूर्ण सामाजिक ताने-बाने के समाज पर थोप दिया जाता है। ये सारी काट-छांट छात्रों के सामने, भारतीय उपमहाद्वीप में एक एकरूप ‘हिंदू’ समाज का, एक कटा-छंटा इतिहास पेश करती है। इस प्रकार के इतिहास की राजाओं और उनकी लड़ाइयों के गिर्द के आख्यानों से ही, एक चिंताजनक ग्रस्तता रहती है। यह समझ राज्य की निर्मिति, साम्राज्य निर्माण तथा मध्यकाल के रूपांतरणों को, एक कथित एकरूप ‘हिंदू’ समाज और दूसरी ओर ‘इस्लामी’ आक्रांताओं तथा शासकों के बीच, सदाबहार मुकाबले की तरह देखती है। यह समझ, भारत के अतीत में एक कल्पित रूप से बहुत व्यापक सामाजिक सौहार्द रहे होने की धारणा को भी पेश करती है, जो विभिन्न राज्य संरचनाओं के आधीन लिंग, जाति, वर्ग आदि के आधार पर, आबादियों के शोषण तथा उत्पीडऩ को ढांपने का काम करती है। यह समझ क्षेत्रीय विविधता की अनदेखी भी करती है। इतिहास के अध्ययन को, ऐसे एकरूप इतिवृत्तों में घटाने के जरिए, छद्म इतिहासों का और खासतौर पर एक सांप्रदायिक तथा जातिवादी किस्म के छद्म इतिहास का बोलबाला कायम करने के लिए, जमीन तैयार की जा रही है। वैसे भी आज व्हाट्सऐप तथा सोशल मीडिया के अन्य ऐपों के जरिए, इस तरह के ‘इतिहासों’ का व्यापक रूप से प्रसार हो रहा है।
इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से पूरे-पूरे अध्यायों तथा वक्तव्यों को हटाने के एनसीईआरटी के फैसले से हम स्तब्ध हैं और मांग करते हैं कि पाठ्यपुस्तकों की इस काट-छांट को फौरन वापस लिया जाए। एनसीईआरटी का फैसला, विभाजनकारी मंतव्यों से संचालित है। यह ऐसा निर्णय है जो हमारे संवैधानिक मिजाज और भारतीय उपमहाद्वीप की साझा संस्कृति के खिलाफ जाता है। इसे जल्दी से जल्दी निरस्त किया जाना चाहिए।
Courtesy: Newsclick
रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, केएम श्रीमाली, मृदुला मुखर्जी, जयति घोष समेत देश के सैकड़ों प्रसिद्ध इतिहासकारों व अन्य अकादमिकों ने शुक्रवार, 7 अप्रैल को एक संयुक्त बयान जारी कर, एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में ताजा बदलावों को विभाजनकारी तथा पक्षपाती एजेंडा संचालित कहा है और इन बदलावों को फौरन वापस लेने की मांग की है।
नेशनल काउंसिल ऑफ एजूकेशनल रिसर्च एंट ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) ने 12वीं कक्षा की तथा अन्य कक्षाओं की भी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से पूरे के पूरे अध्याय हटाने और अन्य पाठ्यपुस्तकों से वक्तव्यों को काटने का हाल में जो फैसला लिया है, वह गहरी चिंता का विषय है। महामारी और लॉकडाउन का इसकी दलील के लिए आड़ के तौर पर इस्तेमाल करते हुए कि पाठ्यचर्या का बोझ हल्का किए जाने की जरूरत थी, एनसीईआरटी ने स्कूलों की छठी से बारहवीं तक की कक्षाओं की समाजविज्ञान, इतिहास, राजनीतिशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों से मुगल दरबारों के इतिहास, गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगे, इमरजेंसी और दलित लेखकों, नक्सलवादी आंदोलन व समानता के लिए संघर्ष जैसे विषयों को हटाने की, विवादित प्रक्रिया शुरू की थी। एनसीईआरटी की इन पुस्तकों के नये संस्कारणों में इन कांट-छांटों को सामान्य नियम ही बना दिया गया है, जबकि अब हम महामारी-उत्तर दौर में हैं, जहां स्कूली शिक्षा लड़खड़ाते-लड़खड़ाते वापस सामान्य स्थिति में पहुंच गयी है और अब ऑनलाइन पद्धति का उस तरह उपयोग नहीं किया जा रहा है।
इसके प्रकाश में यह गहराई से परेशान करने वाली बात है कि 12वीं कक्षा की इतिहास की पाठ्य पुस्तक के खंड-2 से मुगलों पर एक अध्याय हटा दिया गया है और इतिहास की पाठ्यपुस्तक के खंड-3 से, आधुनिक भारतीय इतिहास से संबंधित दो अध्याय हटा दिए गए हैं। इस सिलसिले में इन पाठ्यपुस्तकों को तैयार करने वाली टीमों के सदस्यों से परामर्श करने की कोई कोशिश नहीं की गयी है। इन टीमों में एनसीईआरटी के सदस्यों के अलावा इतिहासकार और स्कूली शिक्षक भी शामिल थे। ये पाठ्य पुस्तकें परामर्श और विशद चर्चाओं की प्रक्रिया के जरिए विकसित की गयी थीं। ऐसा करना, पुस्तकों को अंतर्वस्तु के पहलू से ही मूल्यवान नहीं था बल्कि शिक्षण-विद्या के लिहाज से भी मूल्यवान था, जो मिडिल से सीनियर स्कूल के स्तरों तक छात्र की समझदारी में एक आवयविक एकता तथा क्रमिक विकास सुनिश्चित करता था। इसकी भी कोशिश थी कि पाठ्यपुस्तकों को जहां तक संभव हो, ज्यादा से ज्यादा समावेशी बनाया जाए और इस उपमहाद्वीप के अंदर की भी और वृहत्तर दुनिया की भी, मानवीय अतीत की समृद्ध विविधता का एक एहसास दिया जाए।
अध्यायों / अध्यायों के खंडों का काटा जाना, न सिर्फ शिक्षार्थियों को मूल्यवान अंतर्वस्तु से वंचित करने के पहलू से बहुत ही समस्यापूर्ण है बल्कि उन शिक्षण-विद्या मूल्यों से वंचित करने के पहलू से भी समस्यापूर्ण है, जिनकी जरूरत उन्हें वर्तमान तथा भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करने के लिए होगी। स्कूली पाठ्यपुस्तकों में समय-समय पर संशोधन किए जाने की जरूरत को तो हम भी समझते हैं, लेकिन यह वर्तमान ऐतिहासिक विद्वत्ता की सर्वानुमति से ताल मिलाकर ही किया जा सकता है। लेकिन, पाठ्यपुस्तकों में संशोधन के इस चक्र में छांट-छांटकर जिस तरह से हिस्सों को काटा गया है, शैक्षणिक चिंताओं पर, विभाजनकारी राजनीति के हावी होने को ही प्रतिबिंबित करता है।
एनसीईआरटी के निदेशक के अनुसार, यह कांट-छांट स्कूली पाठ्यपुस्तकों के युक्तिकरण का हिस्सा है और यह छात्रों का बोझ कम करने के लिए किया गया है। एनसीईआरटी के अनुसार, महामारी के दौरान छात्रों को पढ़ाई के नुकसान का सामना करना पड़ा था और महामारी के बाद के दौर में छात्र पाठ्यक्रम का बोझ जरूरत से ज्यादा हो गया महसूस कर रहे थे। एनसीईआरटी के अनुसार, चूंकि कुछ अध्यायों में विभिन्न विषयों व कक्षाओं के बीच दोहराव हो रहा था, यह तार्किक था कि जरूरत से ज्यादा बोझ से दबे छात्रों के लिए अंतर्वस्तु को घटाया जाए।
एनसीईआरटी के अधिकारियों ने, युक्तिकरण की इस कसरत के पीछे किसी न्यस्त राजनीतिक उद्देश्य के होने से इंकार किया है।
बहरहाल, एनसीईआरटी के निदेशक का इंकार अपनी जगह, एनसीईआरटी की किताबों से छांट-छांटकर ऐसे अध्यायों का निकाला जाना, जो वर्तमान सत्ता अधिष्ठान की वृहत्तर विचारधारात्मक उन्मुखता से मेल नहीं खाते हैं, स्कूली पाठ्यपुस्तकों में ये संशोधन थोपने के पीछे मौजूदा निजाम के गैर-अकादमिक, पक्षपाती एजेंडा को बेनकाब कर देता है। यह तब पूरी तरह से साफ हो जाता है, जब हम पाठ्यपुस्तकों से कुछ चुनिंदा विषयों के हटाए जाने का, वर्तमान सरकार के वृहत्तर विचारधारात्मक एजेंडा की पृष्ठभूमि में रखकर, आलोचनात्मक विश्लेषण करते हैं। यह एजेंडा, भारतीय उपमहाद्वीप के जनगण के इतिहास को तोड़-मरोड़कर, एक वर्चस्वशाली एकल (हिंदू) परंपरा की पैदाइश के रूप में गढ़ने का एजेंडा है।
इस तरह के एजेंडा से संचालित होकर, इतिहास की पाठ्यपुस्तक के खंड-2 से, ‘किंग्स एंड क्रानिकल्स: द मुगल कोर्ट्स’ शीर्षक अध्याय निकाल दिया गया है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि मुगलों ने तीन सदियों से ज्यादा तक इस उपमहाद्वीप के अनेक हिस्सों पर राज किया था, जो इस दौर के इतिहास को, इस उपमहाद्वीप के इतिहास का अभिन्न हिस्सा बना देता है। मध्य काल में, मुगल साम्राज्य और विजयनगर साम्राज्य, भारतीय उपमहाद्वीप के दो सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्य थे, जिन दोनों पर ही इससे पहले की पाठ्यपुस्तकों में चर्चा की गयी थी। फिर भी, पाठ्यपुस्तक के संशोधित प्रारूप में मुगलों से संबंधित अध्याय हटा दिया गया है, जबकि विजयनगर साम्राज्य पर अध्याय बनाए रखा गया है। इस अध्याय का हटाया जाना, वृहत्तर सांप्रदायिक संदेशों को उजागर करता है, जो भारत के अतीत के संबंध में इस गलत पूर्वधारणा पर आधारित हैं कि शासकों का धर्म ही, उस दौर का प्रमुख धर्म था। यह, ‘हिंदू युग’, ‘मुस्लिम युग’ आदि के बहुत ही समस्यापूर्ण विचारों तक ले जाता है। इस तरह की श्रेणियों को अनालोचनात्मक तरीके से उस समाज पर थोपा जा रहा है, जो ऐतिहासिक रूप से बहुत ही विविधतापूर्ण सामाजिक ताने-बाने वाला समाज रहा है।
इसके अलावा, आधुनिक भारत से संबंधित, खंड-3 से दो बहुत ही महत्वपूर्ण अध्यायों को काट दिया गया है। ये हैं: ‘कोलोनियल सिटीज: अर्बनाइजेशन, प्लानिंग एंड आर्कीटैक्चर’ और ‘अंडरस्टेंडिंग पार्टीशन: पॉलिटिक्स, मैमोरीज़, एक्सपीरिएंसेज’। गांधी की हत्या में हिंदू अतिवादियों की भूमिका के हरेक उल्लेख का निकाला जाना भी महत्वपूर्ण है। मिसाल के तौर पर इतिहास की पाठ्यपुस्तक के खंड-3 में, ‘महात्मा गांधी एंड नेशनल मूवमेंट’ शीर्षक के अध्याय में से, इसका उल्लेख काट दिया गया है कि नाथूराम गोडसे ‘एक अतिवादी हिंदू अखबार का संपादक था।’
इस पर जोर देना जरूरी है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से पूरे-पूरे अध्यायों तथा अंशों को काट देने का एनसीईआरटी का वर्तमान प्रतिगामी कदम, किन्हीं अकादमिक या शैक्षणिक चिंताओं पर आधारित नहीं है। इसके बजाए, इतिहास की पाठ्यपुस्तक से ठीक उन्हीं अध्यायों को निकाला गया है, जो वर्तमान सत्ताधारियों की छद्म-इतिहास व्यवस्था में फिट नहीं होते हैं। अतीत के अध्ययन से किसी भी दौर का काटा जाना, छात्रों को अतीत को वर्तमान से जोड़ने वाले सूत्रों को समझ पाने में असमर्थ बना देगा और छात्रों को अतीत व वर्तमान को जोड़ने, उनकी तुलना करने तथा उन्हें आमने-सामने रखने के अवसर से, वंचित कर देगा और संबंधित अनुशासन की विषय-वस्तु की आवयविक अंतर्संबद्धता को छिन्न-भिन्न कर देगा। पुन:, इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से पूरे-पूरे दौरों का हटाया जाना, न सिर्फ गलत-धारणाओं व गलत-समझदारियों को बनाए रखेगा बल्कि सत्ताधारी अभिजन के विभाजनकारी सांप्रदायिक तथा जातिवादी एजेंडा को, आगे बढ़ाने का भी काम करेगा।
एनसीईआरटी ने पहले जो किताबें तथा इतिहास के पाठ्यक्रम तैयार किए थे, उनका मकसद भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐसी समझ देना था, जहां वह विभिन्न समूहों, इथनिक समुदायों आदि से संबद्ध, विभिन्न संस्कृतियों के एक महा-सम्मिलन पात्र की तरह सामने आता है। एनसीईआरटी के जिस पुराने पाठ्यक्रम से अब रणनीतिक तरीके से अध्यायों को उड़ा दिया गया है, उसका मुख्य जोर भारतीय उपमहाद्वीप की और आज के दौर की ऐतिहासिक वंशावली की, साझा विरासत पर था।
कक्षा 12 की पाठ्यपुस्तक में से काट-छांट के अलावा राजनीतिक विज्ञान की पाठ्पुस्तक में भी कई अन्य महत्वपूर्ण जगहों पर कैंचियां चलायी गयी हैं, जैसे जन-आंदोलनों के उभार, 2002 के गुजरात के दंगों से संबंधित हिस्से और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट का उल्लेख। इसी प्रकार, 11वीं कक्षा की समाज शास्त्र की पाठ्यपुस्तक, ‘अंडरस्टेंडिंग सोशियॉलाजी’ से 2002 के गुजरात के दंगों का जिक्र काट दिया गया है।
इस विभाजनकारी तथा पक्षपाती एजेंडा से संचालित होकर, स्कूली पाठ्यपुस्तकों से अनेक महत्वपूर्ण विषयों को छांट-छांटकर काटने के जरिए, एनसीईआरटी न सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप की साझा विरासत का भारी नुकसान कर रही है बल्कि भारतीय अवाम की आकांक्षाओं के साथ ही दगा कर रही है। औपनिवेशिक गठन और उनकी समकालीन पुनप्रस्तुतियां, भारतीय सभ्यता के ही गलत समझे जाने को अभिव्यक्त करती हैं। इसमें भारतीय सभ्यता को, एक वर्चस्वशाली एकल परंपरा की उपज माना जाता है। इसमें ‘हिंदू समाज’ जैसी श्रेणियों को अनालोचनात्मक तरीके से, एक ऐतिहासिक रूप से बहुत ही विविधतापूर्ण सामाजिक ताने-बाने के समाज पर थोप दिया जाता है। ये सारी काट-छांट छात्रों के सामने, भारतीय उपमहाद्वीप में एक एकरूप ‘हिंदू’ समाज का, एक कटा-छंटा इतिहास पेश करती है। इस प्रकार के इतिहास की राजाओं और उनकी लड़ाइयों के गिर्द के आख्यानों से ही, एक चिंताजनक ग्रस्तता रहती है। यह समझ राज्य की निर्मिति, साम्राज्य निर्माण तथा मध्यकाल के रूपांतरणों को, एक कथित एकरूप ‘हिंदू’ समाज और दूसरी ओर ‘इस्लामी’ आक्रांताओं तथा शासकों के बीच, सदाबहार मुकाबले की तरह देखती है। यह समझ, भारत के अतीत में एक कल्पित रूप से बहुत व्यापक सामाजिक सौहार्द रहे होने की धारणा को भी पेश करती है, जो विभिन्न राज्य संरचनाओं के आधीन लिंग, जाति, वर्ग आदि के आधार पर, आबादियों के शोषण तथा उत्पीडऩ को ढांपने का काम करती है। यह समझ क्षेत्रीय विविधता की अनदेखी भी करती है। इतिहास के अध्ययन को, ऐसे एकरूप इतिवृत्तों में घटाने के जरिए, छद्म इतिहासों का और खासतौर पर एक सांप्रदायिक तथा जातिवादी किस्म के छद्म इतिहास का बोलबाला कायम करने के लिए, जमीन तैयार की जा रही है। वैसे भी आज व्हाट्सऐप तथा सोशल मीडिया के अन्य ऐपों के जरिए, इस तरह के ‘इतिहासों’ का व्यापक रूप से प्रसार हो रहा है।
इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से पूरे-पूरे अध्यायों तथा वक्तव्यों को हटाने के एनसीईआरटी के फैसले से हम स्तब्ध हैं और मांग करते हैं कि पाठ्यपुस्तकों की इस काट-छांट को फौरन वापस लिया जाए। एनसीईआरटी का फैसला, विभाजनकारी मंतव्यों से संचालित है। यह ऐसा निर्णय है जो हमारे संवैधानिक मिजाज और भारतीय उपमहाद्वीप की साझा संस्कृति के खिलाफ जाता है। इसे जल्दी से जल्दी निरस्त किया जाना चाहिए।
Courtesy: Newsclick