जिस धर्म मे आप इंसान की तरह स्वीकृत ही नहीं उस धर्म को आप कैसे सुधार सकते हैं?

Written by Sanjay Sarman Jothe | Published on: August 23, 2018
दुनिया के इतिहास पर गौर कीजिए। बड़े उत्थान और पतन दोनों ही सँगठित धर्म (आस्तिक या नास्तिक) से जुड़े हैं। मिडिल ईस्ट सहित यूरोप की सामाजिक राजनीतिक चेतना को पहले ईसाइयत और बाद में इस्लाम ने बदला। बाद में इन सँगठित धर्मों में स्वाभाविक रूप से बुराइयां आई और बाद में ईसाइयत में सुधार के प्रयास अपेक्षाकृत अधिक सफल हुए।



इसका पूरी दुनिया पर असर हुआ।

भारत मे भी श्रमण धर्मों में स्वयं की कमजोरियों से पतन आरंभ हुआ। ये धर्म ही पतित हुए और इसका लाभ नये वर्णाश्रम धर्म ने उठाया। इसके बाद पतन तेज हुआ, फिंर गुलामी और कमजोरी इस देश का मुख्य स्वभाव ही बन गया।

ऐक कमजोर अशिक्षित समाज को विकसित होने के लिए एक संगठन, अनुशासन, आदर्श और मार्ग की जरूरत होती है। धर्म उसे यह देता भी है और वही धर्म उससे आदर्श और मार्ग छीनता भी है।

धर्म के साथ बड़ा अवसर और बड़ा खतरा दोनों एकसाथ आता है। ठीक उसी तरह जैसे गर्भवती स्त्री के पास मां बनने का अवसर और प्रसव में मर जाने का खतरा एकसाथ आता है।

आपकी प्राथमिकता क्या है इस बात से तय होता है कि आप क्या करेंगे। अगर नये धर्म के साथ जुड़े अवसर को भारत की तकदीर बदलने का मार्ग बनता हुआ देख पा रहे हैं तो यह अंबेडकर की दृष्टि है। अगर पुराने धर्म में बैठे हुए उसे ही सुधारने का प्रयास कर रहे हैं तो यह गांधी की दृष्टि है।

गांधी की दृष्टि मौलिक रूप से गलत है। क्योंकि जिस धर्म मे आप इंसान की तरह स्वीकृत ही नहीं उस धर्म को आप कैसे सुधार सकते हैं? आप अपनी चीज को ही सुधार सकते हैं, दूसरों की चीज को किस अधिकार से सुधारेंगे? अगर आप सुधारेंगे भी तो उस चीज का मालिक चुपचाप बैठकर आपको सुधार करने देगा?

इसीलिए बाबा साहेब अंबेडकर नये और परिष्कृत बौद्ध धर्म की प्रस्तावना लिखते हैं। वे भारत को आमूल चूल बदलने का मार्ग निर्मित करते हैं।

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