112 वर्षों पहले जब ‘रक्षा बंधन’ हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बना

Written by Teesta Setalvad | Published on: August 8, 2017
भारत छोड़ो आंदोलन का नारा यूसुफ मेहर अली ने मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में दिया था। इस नारे के बाद ग्वालिया टैंक मैदान का नाम अगस्त क्रांति मैदान रख दिया गया।  


 
आज से 112 वर्षों पहले और भारत छोड़ो आंदोलन से 37 साल पहले बंगाल की गलियों और सड़कों पर रविंद्रनाथ टैगोर की राखी संगीत गुनगुनाए जाते थे और इस दौरान बंगाल के हिंदू और मुस्लिम बंगाल विभाजन के खिलाफ सड़कों पर निकले और इस गीत को गाया। विभाजन को रद्द कर दिया गया और पूर्वी और पश्चिमी बंगाल का अंग्रेजों द्वारा 12 दिसंबर 1911 को फिर एकीकरण कर दिया गया। धार्मिक आधार पर विभाजन के बजाए भाषाई आधार पर नया विभाजन किया गया। ये विभाजन हिंदी, ओरिया और असमिया भाषा के आधार प्रशासनिक इकाइयों में बांटा गया। बिहार और उड़िसा प्रोविंस को पश्चिम क्षेत्र में रखा गया जबकि असम प्रोविंस को पूर्वी क्षेत्र में। ब्रिटिश इंडिया की प्रशासनिक राजधानी कलकत्ता से नई दिल्ली स्थानांतरित की गई।  
 
राखी संगीत
स्वदेशी तथा विभाजन-विरोधी प्रदर्शन में दोनों बंगाल के लोगों ने शहरों और गांवों में जुलूस निकाला और स्वदेशी और देशभक्ति गीत गाए।

बंगाल की धरती और जल को,
बंगाल की वायु और फलों को अक्षय कर दो, अक्षय कर दो, अक्षय कर दो, मेरे ईश्वर।
बंगाल के घरों और बाजारों को,
बंगाल के वनों और खेतों को भर दो, भर दो, भर दो, मेरे ईश्वर।
बंगालियों के वादों और उम्मीदों को,
बंगालियों के कर्मों और भाषा को सत्य कर दो, सत्य कर दो, सत्य कर दो, मेरे ईश्वर।
बंगालियों की जिंदगियों और दिलों को,
बंगाली घरों में भाईयों और बहनों को संघटित कर दो, संघटित कर दो, संघटित कर दो, मेरे ईश्वर।

अध्यक्ष के रुप में गोखले के संबोधन के अंश
बंगाल 19वीं सदी की शुरुआत में संयुक्त राष्ट्रवादी आंदोलन के अपने चरम पर था, जो अंततः ब्रिटिश राज के लिए एक खतरा बनकर उभरा। बांटों और शासन करो हमेशा शासकों की नीति रही है, चाहे अंग्रेज हो या जो आज दिल्ली से शासन करने वाले।

इस राष्ट्रवादी आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन का फैसला किया। उस वक्त विभिन्न नेताओं द्वारा इसका विरोध किया। विरोध करने वाले नेताओं में रविंद्रनाथ टैगोर शामिल थें।

जून 1905 में असम लॉर्ड कर्जन और मुस्लिम नेताओं के बीच बैठक हुई और उसमें पहचान कायम रखने के लिए अलग राज्य के विचार पर मुस्लिमों को राजी करने में सफलता हासिल कर ली गई। मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों असम और सिलहट से हिंदू आबादी वाले क्षेत्रों पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़िसा को अलग करने की योजना थी। ब्रिटिश सरकार ने अगस्त 1905 में विभाजन का आदेश पारित कर दिया जो उसी साल 16 अक्टूबर को प्रभाव में आया। हालांकि ये तारीख श्रावण महीने में पड़ा जिसमें हिंदू समाज के लोग रक्षा बंधन का त्योहार मनाते हैं।   
 
टैगोर ने विद्वता से हिंदू और मुस्लिम समाज के बीच एकता को प्रदर्शित करने के लिए अंग्रेजों के विभाजन नीति के खिलाफ भाईचारे, एकजुटता और सुरक्षा के ताने बाने के माध्यम का इस्तेमाल किया।  

गोपाल कृष्ण गोखले ने बनारस कांग्रेस अधिवेशन (1905) में अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहाः
सज्जनों, इस वक्त हम सभी के जेहन में सबसे बड़ा सवाल बंगाल विभाजन का है। हमारे बंगाली भाइयों पर एक क्रूर प्रहार किया गया है, और पूरे देश को गहरे दुख और असंतोष में डाल दिया गया है, जैसा कि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था।
 
विभाजन की योजना गुप्त तरीके से बनाई गई और इसे कट्टरपंथी विपक्ष के रूप में ढोया गया जिसका पिछले आधी शताब्दी के दौरान प्रत्येक सरकार ने सामना किया, नौकरशाही शासन के वर्तमान प्रणाली के सबसे खराब विशेषताओं के पूर्ण उदाहरण के रूप में साबित होंगे... लॉर्ड कर्जन और उसके सहायक...कभी दलील नहीं दिया कि इस मामले में लोगों के गहरे एहसास पर निर्णय करने के लिए मेरे पास कोई साधन नहीं है। जो संभवतः लोगों के विचारों के सम्मानजनक प्रतिनिधित्व के माध्यम से किया जा सकता था। जैसे ही यह ज्ञात हो गया कि किसी प्रकार के विभाजन का विचार किया गया था, विरोध प्रदर्शन के लिए बैठकें होने लगी... भारत के राज्य सचिव को प्रस्तावित उपाय के लिए अपनी मंजूरी को रोकना पड़ा। ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कॉमन्स के हस्तक्षेप की मांग की गई थी, पहले एक विरूप याचिका द्वारा, साठ हजार लोगों द्वारा हस्ताक्षर किए गए, और बाद में, हर्बर्ट रॉबर्ट्स द्वारा सभा में इस विषय पर बहस किया गया। सभी अपरिवर्तनीय साबित हुए...जले पर नमक छिड़का गया, लॉर्ड सीएमएन ने "विनिर्मित" के रूप में अपने उपायों के विरोध का वर्णन किया-एक विपक्ष जिसमें भारतीयों के सभी वर्ग, ऊंच और नीच, अशिक्षित और शिक्षित, हिंदुओं और मुस्लिम शामिल हुए...

लोकप्रिय भावना की जबरदस्त उथल-पुथल, जो विभाजन के परिणामस्वरूप बंगाल में हुआ है,
हमारी राष्ट्रीय प्रगति के इतिहास में एक मील का पत्थर बनाएगा। ब्रिटिश शासन के बाद से पहली बार शुरू हुआ, भारतीय समुदाय के सभी वर्गों, जाति या पंथ के भेद के बिना, एक आम आवेग के द्वारा और एक आम गलत प्रतिरोध के विरोध में एक साथ कार्य करने के लिए दबाव बढ़ाने के प्रोत्साहन के बिना स्थानांतरित किया गया है। सत्य राष्ट्रीय चेतना की एक लहर पूरे प्रांत में दौर गई...कठोर और अनियंत्रित नौकरशाही के उत्पीड़न के खिलाफ बंगाल का बहादुरी भरा फैसला पूरे भारत को चकित और प्रसन्नचित कर दिया..
 
19 जुलाई 1905 को गवर्नर जनरल कर्जन ने बंगाल को दो भागों में बंटवारे की घोषणा की। एक पूर्वी बंगाल जिसमें आसाम को शामिल गया और दूसरा पश्चिमी बंगाल जिसमें बिहार और उड़िसा के कुछ हिस्सों को शामिल किया गया।
 
बंगाल विभाजन का मुख्य राजनीतिक उद्देश्य था जनसंख्या को बांटना और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना। उस वक्त बंगाल राष्ट्रीय आंदोलन का मुख्य केंद्र था।
 
ऊच्च जाति के मुस्लिमों को समझा कर हिंदू-मुस्लिम एकता को खंडित करने की अंग्रेजों की ये पहल थी कि मुस्लिम बहुल नवनिर्मित राज्य उनके हित में था। हालांकि इसने बंगाल के सभी वर्गों के लोगों को जागृत किया और अभूतपूर्व जन आंदोलन के रुप में जुटाया जो जल्द ही देश के दूसरे हिस्सों में फैल गया।
 
7 अगस्त, 1905 से विभाजन विरोधी प्रदर्शन कलकत्ता में एक बैठक में हजारों लोगों के शामिल होने के बाद फैसला किया गया कि जब तक बंगाल विभाजन का प्रस्ताव निरस्त नहीं कर दिया जाता है तब तक ब्रिटिश वस्तुओं का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।
 
बंगाल विभाजन 16 अक्टूबर 1905 को प्रभाव में आया। इस दिन को पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। इस आंदोलन के दौरान स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल और ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार स्वतंत्रता संग्राम का एक अभिन्न अंग बन गया। बैठक में शामिल हे हजारों लोगों ने स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार करने का प्रण किया। दिसंबर 1905 में गोखले की अध्यक्षता में कांग्रेस के बनारस सत्र में स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया गया। स्वदेशी का संदेश पूरे देश में फैल गया और भारतीय उद्योग को बढ़ावा देने में सहायता मिली। राष्ट्रवादियों द्वारा बड़ी संख्या में शिक्षण संस्थानें खोली गई और राष्ट्रीय शिक्षा परिषद का गठन किया गया। यह आंदोलन विभाजन के सवाल पर बंगाल में शुरू हुआ जो देश की स्वतंत्रता आंदोलन के रूप में चारो तरफ फैल गया। अंग्रेज शासकों ने राष्ट्रवाद की बढ़ती ज्वार को कुचलने के लिए खुला दमन शुरू कर दिया। 
 
विभाजन, स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन पर कांग्रेस के प्रस्ताव
 
कलकत्ता में वर्ष 1906 में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक सत्र में विभाजन के खिलाफ दोबारा प्रस्ताव पास किया गया और फिर से स्वदेशी और बहिष्कार के समर्थन में प्रस्ताव पारित किया गया। वर्ष 1905 में विभाजन के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया था।  


इन प्रस्तावों के कुछ अंशः

VI.     बंगाल का विभाजन-कांग्रेस ने फिर से बंगाल विभाजन के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया और वर्तमान सरकार पर खेद जताते हुए कहा कि मूल योजना में गलतियां थी जो बंगाल के बहुल जनसंख्या के पूर्णतः खिलाफ थी...
 
VII.    बहिष्कार आंदोलन- प्रशासन में देश के लोगों की आवाज बहुत कम थी या नहीं के बराबर थी, और सरकार के लिए उनके प्रतिनिधि को उचित स्थान स्थान प्राप्त नहीं था, इसलिए कांग्रेस का विचार था कि बंगाल विभाजन के खिलाफ शुरू किया बहिष्कार आंदोलन वैध है।
 
VIII.  स्वदेशी-स्वदेशी आंदोलन को कांग्रेस का पूरा समर्थन प्राप्त था और इस क्रम में उसने लोगों को एकजुट किया। स्वदेशी उद्योग को सतत बढ़ावा देने और सफलता के लिए मजदूरों को एकत्रित किया गया। आयातित वस्तुओं को छोड़कर स्वदेशी वस्तुओं को प्राथमिकता दी गई।


आगरा और सूरत की बैठक में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन 
16 अक्टूबर 1905 को और उसके बाद देश के सभी हिस्सों में बंगाल विभाजन के खिलाफ विरोध बैठक आयोजित की गई। 
 
अमृत बाजार पत्रिका की आर्काइव से
आगर नगर, अक्टूबर 22
मनकमेश्वर मंदिर में आयोजित स्वदेशी जन बैठक में हिंदू और मुस्लिम समाज के हजारों लोग शामिल हुए। स्थानीय ईसाई समाज के लोगों ने रविवार होने के चलते बैठक में न शामिल होने के कारणों को व्यक्त करते हुए अपना सहानुभूति संदेश भेजा था। लाला केदारनाथ वकील इस बैठक में अध्यक्ष चयन किए गए। राष्ट्र गीत के गायन के बाद बैठक आयोजित की गई और समाप्त की गई। इस बैठक में स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने को लेकर प्रस्ताव पारित किया गया...


सूरत, अक्टूबर 23...यहां हुई बैठक में 5000 से ज्यादा लोग शामिल हुए। इन लोगों में पारसी, हिंदू, मुस्लिम, यहूदी और ईसाई समाज के लोगों ने हिस्सा लिया। वकील, व्यापारियों, जमींदारों, पेंशनभोगी, कारीगर, सभी वर्गों और जातियों के लोग यहां इकट्ठा हुए। दिवान बहादुर अंबालाल देसाई (अहमदाबाद) द्वारा समर्थित इस बैठक की राय बहादुर कृष्णमुखराम महाता, सेवानिवृत्त जज द्वारा अध्यक्षता की गई। अली मोहम्मद भीमजी (बॉम्बे) और मौलवी अब्दुल हलीम मोंघीर ने स्वदेशी आंदोलन के पक्ष में बात की। एक बड़े उत्साह का संचार हुआ। ये कार्यवाही तीन घंटों तक चली... हस्तशिल्प का प्रदर्शन किया गया। बैठकों के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए एक समिति बनाई गई।  
 
बंगाल विभाजन और स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि
बंगाल विभाजन में कर्जन का लक्ष्य क्या था?
सैंट जॉन ब्रोडरिक को 2 फरवरी 1905 में कर्जन द्वारा लिखे गए पत्र का कुछ अंश नीचे दिया गया है। ब्रोडरिक भारत का राज्य सचिव था। कर्जन ने इस पत्र में बंगाल विभाजन का विचार व्यक्त किया था।

विभाजन घोषणा
शिमला में 1 सितंबर 1905 को जारी किए गए बंगाल विभाजन की घोषणा के अंश
निम्नलिखित घोषणा जिसमें भारत के महामहिम राजा-सम्राट की मंजूरी भारत में राज्य के सचिव द्वारा सूचित किया गया है।
 
भारतीय परिषद अधिनियम 1861 के उद्देश्य के लिए गवर्नर जनरल को असम के मुख्य आयुक्त के प्रशासन के अधीन क्षेत्रों का गठन करने को अधिकृत किया गया...

2.  परिषद के गवर्नर जनरल को अक्टूबर, 1905 का सोलहवां दिन को प्रांत के प्रभावी होने की अवधि के रूप में निर्दिष्ट करने को कहा गया और 15वां दिन पार्षदों के रूप में जिसे लेफ्टिनेंट गवर्नर विधि तथा नियमन के निर्माण के लिए अपनी सहयता के लिए नामांकित कर सकता है।
3. परिषद में गवर्नर जनरल को और अधिक संतुष्ट किया गया कि पूर्वी बंगाल और असम प्रांत के लिए नियुक्त किया गया ये जिले मिमेनसिंह, फरीदपुर, बाकरगंज, टिप्पेरा, नोआखली, चित्तागौंग, चित्तागौंग पहाड़ी क्षेत्र, राजशाही, दिनाजपुर, जलपाइगुरी, रंगपुर, बोगरा, पबना और मालदा जो अब विलियम्स के प्रेसीडेंसी के बंगाल प्रभाग का हिस्सा हैं वे अब उक्त प्रभाग के अधीन होंगे।

कलकत्ता की सुबह
अमृत बाजार पत्रिका में 17 अक्टूबर 1905 को ‘कलकत्ता इन मॉर्निंग’ शीर्षक पहला समाचार प्रकाशित हुआ था। इसमें 16 अक्टूबर 1905 के बंगाल विभाजन के बाद कलकत्ता की स्थिति का विवरण दिया गया था जो नीचे हैः
ब्रिटिश भारत के इतिहास में कल सबसे यादगार दिन था। ये वो दिन था जिस दिन बंगाल विभाजन योजना लागू हुई थी, इस दिन हमारी असंतुष्ट सरकार ने आधिकारिक गजट में पूरी आबादी की इच्छा के खिलाफ एक घोषणा कर दिया, इस दिन हमारे नियमों ने बंगाली बोलने को पश्चिम बंगाल के लोगों यानी कलकत्ता के लोगों, राष्ट्रीयता, सामाजिक स्थिति, पंथ और लिंग से अलग करने की कोशिश की, इसे शोक के दिन के तौर पर महसूस किया गया। हिंदू और मुस्लिम समाज के बंगाली नेताओं ने खामोशी से शोक नहीं मनाया। उन्होंने इसके अलावा भी बहुत कुछ किया। उन्होंने भावी पीढ़ी के लिए विरासत के रूप में और ब्रिटिश प्रशासन के लिए एक मील का पत्थर के रूप में फेडरेशन हॉल की नींव रखी। उन्होंने राष्ट्रीय कोष खोलकर स्वदेशी आंदोलन को आगे बढ़ने की दिशा में एक व्यावहारिक कदम भी उठाया।   
 
हुगली नदी के किनारे का दृश्य
सुबह से दोपहर तक के कुछ घंटों में, गंगा के किनारे बाग बाजार से हावड़ा तक एक अनोखा दृश्य देखा गया। यह ऐसा था मानो मनुष्य के चेहरों का समुद्र उमड़ रहा था। सभी सड़कों, गलियों और उप-गलियों से लोगों की भीड़ जो नंगे पांव गंगा नदी के किनारे पहुंच कर पवित्र नदी में लगाने जा रही थी। 

जैसे ही दिन चढ़ना शुरू हुआ लोगों की भीड़ लगातार और बढ़ती चली गई और लाखों की संख्या में महानगर के शोकाकुल पुरूष नदी किनारे पहुंचे।  

सभी लोग ‘बंदे मातरम’ का गायन लगातार कर रहे थें, खामोश वातारवरण गूंज उठा। पवित्र नदी के किनारे पहुंचने के बाद लाखों की संख्या में पहुंचे लोगों ने असंख्य जुलूस निकाली। इस दौरान वे अपनी हाथों पर पीले रंग की राखी बांध रखी थी और वे ‘बंदे मातरम’ उच्चारित कर रहे थें।

शहर में हजारों जुलूस निकाले गए खासकर उत्तरी क्षेत्र में सुबह 8 बजे से दोपहर 2 बजे तक। इस दौरान वे एक दूसरे को गले लगाते रहे और राखी बांधते हुए ‘बंदे मातरम’ का गायन करते रहे। यह ऐसा लग रहा था जैसे मानो देवता जमीन पर उतर आए।

सड़क और गलियां
कलकत्ता शहर की गलियों और सड़कों का पूरा दृश्य बिल्कुल अनूठा था, शायद ऐसा कभी भारत के दूसरे शहरों में नहीं देखा गया था...न ही कोई बेचने वाला था और न ही कोई खरीदार था...सभी कारखाने बंद कर दिए गए थे और कारखाने के लोग शहर में प्रदर्शन के लिए निकल गए...सिर्फ ‘बंदे मातरम’ की आवाज सुनाई दे रही थी। मुस्लिमों और मारवाड़ियों का दल भी कार्यवाहियों में शामिल हो गया जिससे उत्साह को और बल मिला। 

 

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