आज 9 अगस्त है। भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ। 1942 को इस दिन उठे करो या मरो के तुमुल कोलाहल ने अंग्रेज़ों को आख़िरी चेतावनी दे दी थी। लंगोटी वाला बूढ़ा गाँधी, उस ब्रिटिश साम्राज्य के लिए चुनौती बन गया था जिसमें कभी सूरज नहीं डूबता था।
अगस्त क्रांति दिवस पर विशेष–
इसका यह अर्थ नहीं कि स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने में सिर्फ़ काँग्रेस जुटी थी और अन्य धाराओं का कोई योगदान नहीं था। यही वह समय था जब गाँधी के रास्ते से असहमत सुभाषचंद्र बोस भारत से बाहर जाकर अपने सैन्य अभियान की तैयारी कर रहे थे। लंबे समय से सिरदर्द बने कम्युनिस्टों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के नए वैश्विक गठबंधन के बाद सार्वजनिक विरोध छोड़ दिया था लेकिन उनकी गुप्त गतिविधियों से अंग्रेज़ बेहद संशकित थे। उन्हें लगता था कि कम्युनिस्ट ‘बोल्शेविक शैली’ की क्रांति की तैयारी में जुटे हैं। उनके पीछे जासूस पड़े थे और तमाम कम्युनिस्ट नेता गिरफ़्तार थे।
लेकिन ये असहमत लोगों से बिलुकल अलग असहमति की एक धारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की थी। 1942 में गाँधी जी का सहयोग ना करना एक बात थी,लेकिन अंग्रेजों के राज को स्वाभाविक बताना और बलिदानी क्रांतिकारियों के उद्यम को त्रुटिपूर्ण बताना बिलकुल अलग बात थी। आरएसएस ने बिलकुल यही किया। भगत सिंह जैसे शहीद उसके लिए सर्वोच्च बलिदान के आदर्श नहीं थे। उसने अंग्रेज़ों को स्वाभाविक विजेता बताकर उनके राज को स्वाभाविक बताया।
यह संयोग नहीं कि 1925 में बने आरएसएस के किसी कार्यकर्ता ने 1947 तक किसी अंग्रेज़ को एक कंकड़ी भी फेंककर नहीं मारी। संघ दीक्षित नाथूराम गोडसे ने हथियार उठाया भी तो आज़ादी के बाद निहत्थे गाँधी के प्राण लेने के लिए।
इसलिए 1942 के आंदोलन में भाग ना लेने का आरोप कोई बड़ी बात नहीं है। बडी बात यह है कि उसने स्वतंत्रता के उद्योग को अपमानित किया। उसका विरोध किया। यह बातें प्रलाप नहीं हैं, ख़ुद संघ नेताओं की स्वीकारोक्ति है इसके पीछे।
सन 1942 में जब भारत ब्रिटिश दमन चक्र में पिस रहा था और भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी तो 8 जून 1942 को गुरु गोलवरकर ने संघ कार्यकर्ताओंके अखिल भारतीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति पर दिए गए भाषण में अंग्रेज़ी राज को स्वाभाविक बताते हुए कहा-
“समाज की पतित अवस्था के लिए संघ दूसरों को दोष देना नहीं चाहता। जब लोग दूसरों के सिर पर दोष मढ़ने लगते हैं तब उके मूल में उनकी दुर्बलता रहती है। दुर्बलों पर अन्याय का दोष बलवानों के माथे मढ़ना व्यर्थ है…दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करने की संघ की इच्छा नहीं है। यदि यह हम जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली निगलती है तो उस बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है। यह निसर्ग-नियम भला हो, बुरा हो, वह सब समय सत्य ही है। यह नियम यह कहने से कि वह अन्यायपूर्ण है, बदलता नहीं।”
(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड-1 पृष्ठ 11-12, भारतीय विचार साधना,नागपुर, 1981)
देश को आज़ाद कराने के लिए भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे ना जाने कितने वीरों ने शहादत दी। लेकिन संघ की नज़र में यह आदर्श नहीं था-
‘ हमारी भारतीय संस्कृति को छोड़कर अन्य सब संस्कृतियों ने ऐसे बलिदान की उपासना की है तथा उसे आदर्श माना है और ऐसे सब बलिदानियों को राष्ट्रनायक के रूप में स्वीकार किया है…परंतु हमने भारतीय परम्परा में इस प्रकार के बलिदान को सर्वोच्च आदर्श नहीं माना है। ‘
‘यह स्पष्ट है कि जीवन में असफल रहे हैं, उनमें अवश्य कोई बहुत बड़ी कमी रही होगी। जो पराजित हो चुका है, वह दूसरों को प्रकाश कैसे दे सकता है और उन्हें सफलता की ओर कैसे ले जा सकता है ? हवा के प्रत्येक झोंके में कंपित ज्योति हमारा पथ कैसे प्रकाशित कर सकती है ? ‘
‘ नि:संदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतया पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत एवं अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊँचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श रूप में नहीं रखा है। हमने ऐसे बलिदान को महानका सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि अंतत: वे अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल रहे और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी। ‘
(गुरु गोलवलकर, विचार नवनीत पृष्ठ 280-281)
यही नहीं, गुरु गोलवलकर शहादत को अविवेकी कदम भी बताते हैं–
‘अंग्रेज़ों के प्रति क्रोध के कारण अनेकों ने अद्भुत कारनामे किए। हमारे मन में भी एक-आध बार विचार आ सकता है कि हम भी वैसा करें…परंतु सोचना चाहिए कि उससे संपूर्ण राष्ट्र-हित साध्य होता है क्या ? बलिदान के कारण पूरे समाज में राष्ट्रहितार्थ सर्वस्वार्पण करने की तेजस्वी सोच नहीं बढ़ती। अब तक का अनुभव है कि वह हृदय की अंगार सर्वसाधारण को असहनीय होती है। एक संस्कृत सुभाषित में कहा गया है कि – सहसा विद्धीत न क्रियां। अविवेक:परमपदां पदं।’
(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, पृष्ठ 61-62)
समझा जा सकता है कि संघ अपने लक्ष्य को किस तरह प्राप्त करना चाहता है। उसे हर हाल में विजेता होना है। पराजय का उसके लिए कोई मोल नहीं (हाँलाकि शिवाजी और राणा प्रताप भी पराजित थे, लेकिन मुस्लिमों से लड़ने वाले नायक के रूप में प्रचारित करना उसकी रणनीति है।) इसीलिए संघ से जुड़े तमाम नेता माफ़ी माँगने में देर नहीं करते। चाहे वे अंग्रेज़ रहे हों या फिर इमरजेंसी की इंदिरागाँधी। ख़ुद को सुरक्षित रखते हुए साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए क़ामयाबी पाना उसका मंत्र 1942 में भी था और 2017 में भी।
बर्बरीक
साभार: मीडिया विजिल
अगस्त क्रांति दिवस पर विशेष–
इसका यह अर्थ नहीं कि स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने में सिर्फ़ काँग्रेस जुटी थी और अन्य धाराओं का कोई योगदान नहीं था। यही वह समय था जब गाँधी के रास्ते से असहमत सुभाषचंद्र बोस भारत से बाहर जाकर अपने सैन्य अभियान की तैयारी कर रहे थे। लंबे समय से सिरदर्द बने कम्युनिस्टों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के नए वैश्विक गठबंधन के बाद सार्वजनिक विरोध छोड़ दिया था लेकिन उनकी गुप्त गतिविधियों से अंग्रेज़ बेहद संशकित थे। उन्हें लगता था कि कम्युनिस्ट ‘बोल्शेविक शैली’ की क्रांति की तैयारी में जुटे हैं। उनके पीछे जासूस पड़े थे और तमाम कम्युनिस्ट नेता गिरफ़्तार थे।
लेकिन ये असहमत लोगों से बिलुकल अलग असहमति की एक धारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की थी। 1942 में गाँधी जी का सहयोग ना करना एक बात थी,लेकिन अंग्रेजों के राज को स्वाभाविक बताना और बलिदानी क्रांतिकारियों के उद्यम को त्रुटिपूर्ण बताना बिलकुल अलग बात थी। आरएसएस ने बिलकुल यही किया। भगत सिंह जैसे शहीद उसके लिए सर्वोच्च बलिदान के आदर्श नहीं थे। उसने अंग्रेज़ों को स्वाभाविक विजेता बताकर उनके राज को स्वाभाविक बताया।
यह संयोग नहीं कि 1925 में बने आरएसएस के किसी कार्यकर्ता ने 1947 तक किसी अंग्रेज़ को एक कंकड़ी भी फेंककर नहीं मारी। संघ दीक्षित नाथूराम गोडसे ने हथियार उठाया भी तो आज़ादी के बाद निहत्थे गाँधी के प्राण लेने के लिए।
इसलिए 1942 के आंदोलन में भाग ना लेने का आरोप कोई बड़ी बात नहीं है। बडी बात यह है कि उसने स्वतंत्रता के उद्योग को अपमानित किया। उसका विरोध किया। यह बातें प्रलाप नहीं हैं, ख़ुद संघ नेताओं की स्वीकारोक्ति है इसके पीछे।
सन 1942 में जब भारत ब्रिटिश दमन चक्र में पिस रहा था और भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी तो 8 जून 1942 को गुरु गोलवरकर ने संघ कार्यकर्ताओंके अखिल भारतीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति पर दिए गए भाषण में अंग्रेज़ी राज को स्वाभाविक बताते हुए कहा-
“समाज की पतित अवस्था के लिए संघ दूसरों को दोष देना नहीं चाहता। जब लोग दूसरों के सिर पर दोष मढ़ने लगते हैं तब उके मूल में उनकी दुर्बलता रहती है। दुर्बलों पर अन्याय का दोष बलवानों के माथे मढ़ना व्यर्थ है…दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करने की संघ की इच्छा नहीं है। यदि यह हम जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली निगलती है तो उस बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है। यह निसर्ग-नियम भला हो, बुरा हो, वह सब समय सत्य ही है। यह नियम यह कहने से कि वह अन्यायपूर्ण है, बदलता नहीं।”
(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड-1 पृष्ठ 11-12, भारतीय विचार साधना,नागपुर, 1981)
देश को आज़ाद कराने के लिए भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे ना जाने कितने वीरों ने शहादत दी। लेकिन संघ की नज़र में यह आदर्श नहीं था-
‘ हमारी भारतीय संस्कृति को छोड़कर अन्य सब संस्कृतियों ने ऐसे बलिदान की उपासना की है तथा उसे आदर्श माना है और ऐसे सब बलिदानियों को राष्ट्रनायक के रूप में स्वीकार किया है…परंतु हमने भारतीय परम्परा में इस प्रकार के बलिदान को सर्वोच्च आदर्श नहीं माना है। ‘
‘यह स्पष्ट है कि जीवन में असफल रहे हैं, उनमें अवश्य कोई बहुत बड़ी कमी रही होगी। जो पराजित हो चुका है, वह दूसरों को प्रकाश कैसे दे सकता है और उन्हें सफलता की ओर कैसे ले जा सकता है ? हवा के प्रत्येक झोंके में कंपित ज्योति हमारा पथ कैसे प्रकाशित कर सकती है ? ‘
‘ नि:संदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतया पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत एवं अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊँचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श रूप में नहीं रखा है। हमने ऐसे बलिदान को महानका सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि अंतत: वे अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल रहे और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी। ‘
(गुरु गोलवलकर, विचार नवनीत पृष्ठ 280-281)
यही नहीं, गुरु गोलवलकर शहादत को अविवेकी कदम भी बताते हैं–
‘अंग्रेज़ों के प्रति क्रोध के कारण अनेकों ने अद्भुत कारनामे किए। हमारे मन में भी एक-आध बार विचार आ सकता है कि हम भी वैसा करें…परंतु सोचना चाहिए कि उससे संपूर्ण राष्ट्र-हित साध्य होता है क्या ? बलिदान के कारण पूरे समाज में राष्ट्रहितार्थ सर्वस्वार्पण करने की तेजस्वी सोच नहीं बढ़ती। अब तक का अनुभव है कि वह हृदय की अंगार सर्वसाधारण को असहनीय होती है। एक संस्कृत सुभाषित में कहा गया है कि – सहसा विद्धीत न क्रियां। अविवेक:परमपदां पदं।’
(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, पृष्ठ 61-62)
समझा जा सकता है कि संघ अपने लक्ष्य को किस तरह प्राप्त करना चाहता है। उसे हर हाल में विजेता होना है। पराजय का उसके लिए कोई मोल नहीं (हाँलाकि शिवाजी और राणा प्रताप भी पराजित थे, लेकिन मुस्लिमों से लड़ने वाले नायक के रूप में प्रचारित करना उसकी रणनीति है।) इसीलिए संघ से जुड़े तमाम नेता माफ़ी माँगने में देर नहीं करते। चाहे वे अंग्रेज़ रहे हों या फिर इमरजेंसी की इंदिरागाँधी। ख़ुद को सुरक्षित रखते हुए साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए क़ामयाबी पाना उसका मंत्र 1942 में भी था और 2017 में भी।
बर्बरीक
साभार: मीडिया विजिल
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