भारत छोड़ो आंदोलन की भावना कैसे हो पुनर्जीवित?

Written by Ram Puniyani | Published on: September 1, 2017
सन 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, जिसकी 75वीं वर्षगांठ हम इस वर्ष मना रहे हैं, भारत के स्वाधीनता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था। सन 1942 के 8 अगस्त को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कार्यसमिति ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान (जिसे अब अगस्त क्रांति मैदान कहा जाता है) में आयोजित बैठक में अंग्रेज़ों के खिलाफ एक नया आंदोलन शुरू करने की घोषणा की। यह सन 1920 के असहयोग आंदोलन और सन 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद गांधीजी के नेतृत्व में देश में चलाया गया तीसरा बड़ा जनांदोलन था। गांधीजी के जादू के चलते ही स्वाधीनता संग्राम में देश के सभी वर्गों ने भागीदारी करनी शुरू की। उसके पहले तक, कांग्रेस की राजनीति केवल पढ़े-लिखे श्रेष्ठि वर्ग तक सीमित थी। गांधीजी, भारत के स्वाधीनता संग्राम में हवा के एक ताज़ा झोंके के समान थे। उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा पर आधारित अपनी विचारधारा के अनुरूप, सभी धर्मों, वर्गों और जातियों और दोनों लिंगों के भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा बनाया।

Quit India Movement

इसके पहले, मई 1942 में गांधीजी ने अंग्रेज़ों से कहा कि वे भारत छोड़ दें। भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित करने के साथ ही कांग्रेस ने स्वाधीनता के लिए अपना सबसे बड़ा संघर्ष शुरू किया। इस आंदोलन को ‘भारत छोड़ो’ का नाम युसुफ मेहराली नाम के एक समाजवादी कांग्रेस नेता ने दिया था। प्रस्ताव पारित होने के तुरंत बाद, कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। हज़ारों लोगों ने अपनी गिरफ्तारियां दीं। यह आंदोलन इतना व्यापक और शक्तिशाली था कि उसने अंग्रेज सरकार की चूलें हिला दीं। इस आंदोलन के मूलभूत मूल्य क्या थे?

यह सही है कि इस आंदोलन का नेतृत्व और उसमें मुख्य भागीदारी कांग्रेस की थी। कांग्रेस की विचारधारा इस आंदोलन की आत्मा थी। अन्य राजनीतिक गुट, जिनमें साम्यवादी और हिन्दू व मुस्लिम राष्ट्रवादी शामिल थे, इस आंदोलन से दूर रहे। चूंकि तत्समय चल रहे द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ ने जर्मनी के खिलाफ इंग्लैंड और मित्र राष्ट्रों का साथ देने का निर्णय लिया था, इसलिए कम्युनिस्ट ब्रिटेन के साथ थे। कम्युनिस्ट इस युद्ध को ग्रेट पेट्रीओटिक वॉर (महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध) मानते थे। मुस्लिम राष्ट्रवादी राजनीतिक दल, मुस्लिम लीग, जिसका नेतृत्व मोहम्मद अली जिन्ना कर रहे थे, पहले ही यह कह चुकी थी कि वह एक अलग मुस्लिम पाकिस्तान के निर्माण की पक्षधर है। उसे इस आंदोलन से कोई लेना देना नहीं था। मुस्लिम लीग का यह मानना था कि स्वतंत्र अविभाजित भारत, दरअसल, हिन्दू राज होगा।

जहां तक हिन्दू राष्ट्रवादियों का संबंध है, उनकी दो मुख्य धाराएं थीं। सावरकर के नेतृत्व वाली हिन्दू महासभा, भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध में थी। सावरकर ने हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं को यह स्पष्ट निर्देश दिया था कि उनमें से जो सरकारी सेवाओं में हैं, वे अपने कर्तव्यों का पालन करते रहें। दूसरी धारा थी आरएसएस की। उसके मुखिया माधव सदाशिव गोलवलकर ने सभी शाखाओं को निर्देश दिया कि वे ऐसा कुछ भी न करें जिससे अंग्रेज़ शासक नाराज़ हों। अटल बिहारी वाजपेयी, जो उस समय आरएसएस के कार्यकर्ता थे, को आंदोलन के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया परंतु उन्होंने जल्दी ही यह स्पष्टीकरण दिया कि वे आंदोलन में भाग नहीं ले रहे थे। वे तो केवल तमाशबीन थे। इसके बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। उस समय श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने बाद में भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ की स्थापना की, बंगाल में हिन्दू महासभा के नेता थे। उन्होंने सरकार से यह वायदा किया कि वे बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।

देश की जनता ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। यह आंदोलन एक नए उभरते भारतीय राष्ट्र का प्रतीक था। गांधीजी के हिन्दू-मुस्लिम एकता के आह्वान पर इस आंदोलन में हिन्दुओं और मुसलमानों ने कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। उस समय तक न तो मुस्लिम लीग का मुसलमानों पर कोई विशेष प्रभाव था और ना ही हिन्दू, हिन्दू महासभा के समर्थक थे।

आज जब हम इस महान जनांदोलन की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तब देश की स्थिति क्या है? सत्ताधारी दल भाजपा, जिसकी स्वाधीनता संग्राम और भारत छोड़ो आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी, अपना भोंपू बजा रही है। हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी ‘मन की बात’ करते हुए यह आशा व्यक्त की कि साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार इत्यादि भारत छोड़ देंगे। यह एक पवित्र विचार है परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक नारा भर है। हम सब ने देखा है कि इस सरकार की नीतियों के कारण साम्प्रदायिकता का दानव और मज़बूत व ताकतवर होकर उभरा है। राममंदिर के विघटनकारी मुद्दे में लवजिहाद, घरवापसी और गोरक्षा जैसे मुद्दे जुड़ गए हैं। इन सभी मुद्दों ने देश में एक जुनून-सा पैदा कर दिया गया है, जिसके चलते भीड़ पीट-पीटकर लोगों की जान ले रही है। इंडियास्पेन्ड द्वारा पिछले छह वर्षों के आंकड़ों के संकलन से ऐसा पता चलता है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, इन घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। मुसलमानों में असुरक्षा का भाव बढ़ा है और वे राजनीतिक मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ गए हैं।

पिछले तीन वर्षों में दलितों के खिलाफ अत्याचारों की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है और इनने भयावह स्वरूप ग्रहण कर लिया है। रोहित वेम्युला की संस्थागत हत्या और ऊना में दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार इसके नमूने हैं। जहां कमज़ोर वर्गों के कल्याण के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं के लिए धन के आवंटन में लगातार कमी की जा रही है वहीं व्यापमं जैसे भ्रष्टाचार से जुड़े मुद्दों को दरकिनार किया जा रहा है। जब तक प्रधानमंत्री ऐसे कदम नहीं उठाते जिनसे महात्मा गांधी द्वारा जिस हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात कही गई थी, वह चरितार्थ नहीं होती, जब तक प्रधानमंत्री गोरक्षा व अन्य विघटनकारी मुद्दों को पीछे नहीं धकेलते, तब तक उनके शब्द खोखले ही रहेंगे।

भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘संकल्प से सिद्धी’ अभियान शुरू किया है। अन्य बातों के अतिरिक्त, इस अभियान के अंतर्गत सावरकर पर आधारित फिल्में दिखाई जाएंगी। यह भारत छोड़ो आंदोलन का मखौल बनाना होगा क्योंकि सावरकर ने इस आंदोलन का कड़ा विरोध किया था। वे तो हिन्दू राष्ट्र के हामी थे। वे अंग्रेज़ों के साथ मिलकर मुस्लिम राष्ट्र का विरोध करना चाहते थे। महात्मा गांधी को केवल सफाई का प्रतीक बताकर उनके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं के साथ अन्याय किया जा रहा है। वे बंधुत्व के हामी भी थे, वे समानता की बात भी करते थे, वे साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। गांधी ने गोहत्या पर प्रतिबंध की मांग का समर्थन करने से इंकार कर दिया था क्योंकि उनका कहना था कि ऐसा कोई भी प्रयास भारत की विविधवर्णी संस्कृत के विरूद्ध होगा। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ पर संसद के दोनो सदनों के संयुक्त अधिवेशन में पारित किए जाने वाले प्रस्ताव में इस आंदोलन में गांधीजी और कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका की चर्चा होगी और सरकार इस महान जनांदोलन की असली भावना,मूल आत्मा को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेगी। 

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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