सलवा जुडूम और एसपीओ ने जलाया था कोंडासावली गाँव- 12 साल बाद आया NHRC का निर्णय

Written by Anuj Shrivastava | Published on: February 13, 2020
पीयूसीएल की महासचिव सुधा भारद्वाज द्वारा दर्ज की गई शिकायत पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जाँच उपरान्त इसकी पुष्टि की है कि सुकमा ज़िले के गाँव कोंडासावली, कर्रेपारा और  कामरागुडा में सन् 2007 में सलवा जुडूम और स्थानीय एसपीओ ने ही गाँवों में 95 घरों को जलाया और 7 ग्रामीणों की हत्या की थी। आयोग ने इस घटना में पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों की संलिप्तता को स्पष्ट मानते हुए उस समय की राज्य सरकार को भी कटघरे में लिया है। आयोग ने राज्य सरकार को अनुशंसा देते मृत व्यक्तियों के परिवार वालों को 5-5 लाख रुपए मुआवजा शीघ्र दिया जाये आदेश पारित किया है। इस घटना में मृतकों के नाम हैं – (i) मंडावी भीमा, कोंडासावली (ii) बारसे सुकलू, कर्रेपारा (iii) बारसे नंदा, कर्रेपारा (iv) कुंजाम बोदा, कर्रेपारा (v) सुदाम भीम पि. मगड़ू, परलागट्टा (vi) सुदाम भीम पि. जोगा, परलागट्टा (vii) मीडियम अय्यती, परलागट्टा.।



सन् 2007 में इस आगज़नी और हत्या की भयावह घटना के बाद उक्त तीनों गाँव के ग्रामीण गाँव छोड़कर चले गए थे। कुछ वर्ष पश्चात्, सलवा जुडूम की मुहीम खत्म होने के बाद जब वे गाँव लौटे तो उन्होंने निर्णय लिया कि वे इस घटना की शिकायत करेंगे और सन् 2013 में उन्होंने सरपंच द्वारा पुलिस थाने में लिखित शिकायत पेश की। परन्तु उस शिकायत पर कार्यवाही करने की जगह, उन गाँव वालों और उनके सरपंच पर ही पुलिस कर्मियों और वहाँ के पूर्व सलवा जुडूम के नेताओं द्वारा हमला हुआ, और एक घटना में एक मृतक की पत्नी को भी मारा गया। इससे व्यथित होकर गाँव वालों ने पीयूसीएल की छ्त्तीसगढ़ इकाई से सम्पर्क किया और अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, महासचिव ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इन गाँवों की ओर से लिखकर शिकायत दर्ज की।  आयोग की निगरानी में सुकमा पुलिस ने ग्रामीणों की एफआईआर तो दर्ज की, पर उस पर जाँच फिर भी सही तरिके से नहीं की गई।

इस सब को देखते हुए कि पहले ही FIR दर्ज करने में 7 साल का विलम्ब हुआ और फिर स्थानीय अधिकारीगण जाँच में भी लापरवाही कर रहे हैं, आयोग ने दिनांक 23.9.2019 के अपने आदेश में कहा कि “आयोग का यह निष्कर्श है कि ये घटनाएँ पुलिस, राजस्व और जिला सुकमा के अन्य अधिकारियों के संज्ञान में घटना होने के तुरंत बाद आ गईं थीं, लेकिन पुलिस और ज़िला अधिकारियों ने जानबूझकर इन हत्याओं और आगज़नी की घटनाओं को नज़रअंदाज़ किया”

इस जघन्य अपराध में सुकमा ज़िले के अधिकारीगण की संलिप्तता दर्शाते हुए आयोग लिखता है कि “ वास्तव में, राज्य और ज़िला सुकमा के अधिकारीयों द्वारा सात साल तक इन घटनाओं का संज्ञान नहीं लिया जाना, इस बात को बहुत मज़बूती से दर्शाता है कि यह अपराध सुकमा ज़िले/ राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा ही किया गया है”

“ इस तरह लम्बी अवधि तक इन घटनाओं का संज्ञान नहीं लेने की जानबूझकर की गयी चूक, इस तथ्य को दृढ़ता से इंगित करती है कि ये भयावह अपराध जगरगुंडा बेस कैंप के एसपीओ द्वारा किए गए थे, जैसा कि FIR no. 10/2013 के शिकायतकर्ता द्वारा आरोप लगाया गया है”

उक्त FIR  पर सही रूप से विवेचना नहीं करना और आयोग के आदेश उपरांत भी अधिकारियों की इस प्रकरण में रुचि नहीं लेने के संदर्भ में आयोग ने इस जाँच को “ कवर अप” घोषित करते हुए लिखा है कि-

“जिस तरीके से पुलिस द्वारा इस मामले की जाँच की जा रही है और जिस तरीके से कोंटा तहसीलदार ने अपनी जाँच की है, उसको देखते हुए यह स्पष्ट है कि राज्य विभागों, और पुलिस और प्रशासन का उद्देश्य इन घटनाओं के बारे में सच्चाई का पता लगाना नहीं अपितु इन अपराधों को छिपाना है। तहसीलदार कोंटा की जाँच रिपोर्ट और विवेचक द्वारा दर्ज बयानों को पढ़कर ज़ाहिर है कि उनका उद्देश्य सत्य को स्थापित करना बिल्कुल भी नहीं है और वह केवल इस घटना का एक कवर अप ऑपरेशन कर रहे हैं”

छत्तीसगढ़ पीयूसीएल इकाई ने आयोग के इस आदेश का स्वागत किया है, और आदेश को जल्द से जल्द अमल में लाने की मांग की है। पीयूसीएल ने विज्ञप्ति जारी कर पर इस बात पर भी चिन्ता व्यक्त करता है कि जब आयोग ने इस बात को मज़बूती से रखा है कि सलवा जुडूम और एसपीओ ने इस जघन्य अपराध को कारित किया है, और पुलिस और प्रशासन के अधिकारीगण इसके कवर–अप में जुटे हैं, तो इनके खिलाफ किसी दांडिक कार्यवाही की अनुशंसा क्यों नहीं दी गई है।  बार बार यही देखा जा रहा है कि शासन द्वारा आदिवासियों, दलितों और कमज़ोर वर्ग के विरुद्ध घृणित अपराध किए जाते हैं, और जब वे स्थापित हो जाते हैं, तो पीड़ितों को केवल मुआवज़े से ही संतुष्टी होना पड़ता है दोषियों के ख़िलाफ़ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती।  पीयूसीएल आयोग और राज्य सरकार दोनों से ये माँग की है कि इन अपराधी अफसरों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाए।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के इस आदेश से यह बात भी सपष्ट होती है कि पीयूसीएल महासचिव सुधा भारद्वाज ग़रीब आदिवासियों और पीड़ित वर्ग के लिए काम करती थीं। इस बात के ढेरों प्रमाण मिल सकते हैं कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में कैसे बड़े कार्पोरेट घरानों के इशारों पर ग़रीब आदिवासियों किजमीने हड़पने का खेल लम्बे समय से चल रहा है. आदिवासियों को दरकार उनकी ज़मीन से उन्हें बेदखल करने के लिए उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार करने जैसी अमानवीय घटनाएं भी कारित की जाती रही हैं. ऐसे कई मामले हैं जिनमें पुलिस प्रशासन की मिलीभगत भी साफ़ ज़ाहिर होती है।

ऐसे ही सताए हुए ग़रीब आदिवासियों की तरफ से मुकद्दमा लड़ती हैं अधिवक्ता सुधा भारद्वाज। कार्पोरेट लूट बदस्तूर चलती रहे इसके लिए सरकार प्रतिबद्ध है और इस लूट के रास्ते में आने वाले, पीड़ितों के साथ खड़े हर व्यक्ति को मैनेज करने या रास्ते से हटा देने की कोशिश की जाती है। लालच और जान का डर अधिवक्ता सुधा भारद्वाज पर काम न आया तो देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल डे डाल दिया गया। एक साल से भी ज़्यादा हो गए पुलिस उनके ख़िलाफ़ कोइसबूत ही पेश नहीं कर पाई है। 

छत्तीसगढ़ पीयूसीएल ने  मांग की है कि दलित, आदिवासी और मजदूर, किसानों के मानव अधिकारों को सुनिष्चित करने सँवैधानिक कानून के तहत आवाज  उठाने वाली अधिवक्ता सुधा भारद्वाज और अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को तत्काल रिहा किया जाए।

बाकी ख़बरें