वर्तमान में सरकार द्वारा लायी जा रही नीतियाँ आम जनता के लिए किसी आपदा से कम नहीं है। नई शिक्षा नीति 2020 को मोदी सरकार के केबिनेट द्वारा 29 जुलाई को मंजूरी दे दी गयी है जो कॉर्पोरेट की पूंजी, संघ का ज्ञान व् बाजार पोषित सरकार के कार्यान्वयन का मिश्रण है। इस नीति में मनुवादी एजेंडे को फलीभूत करने की तैयारी है जिसमें गरीब, दलित, महिला, अल्पसंख्यक को शिक्षा से आहिस्ता-आहिस्ता दूर करने की कवायद है। कायदे से इस शिक्षा नीति को संसद के दोनों सदनों में पेश करके पास किया जाना चाहिए था तभी यह कानून का रूप लेती लेकिन मनुवादी सरकार के रवैये से लगता है कि उसकी नौबत ही नहीं आने दी जायेगी। यह शिक्षा नीति शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी विनिवेश को घटायेगी और बड़ी पूँजीपतियों को मुनाफे के लिए शिक्षा क्षेत्र के दरवाज़े खोलेगी। देश के आम मेहनतकश जनता के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करने के रास्ते और भी संकरे हो जायेंगे। 'नयी शिक्षा नीति' के मोटे बस्ते में भारी-भरकम शब्दजाल की भरमार है लेकिन इसकी आंतरिक सच्चाई डरावनी है। हमारे संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में है। केंद्र सरकार द्वारा, विभिन्न राज्य सरकारों के विरोध और आपत्तियों को दरकिनार कर एकतरफा तरीके से नई शिक्षा नीति लागू करना संविधान का पूरी तरह उल्लंघन है।
प्रो। के। कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में बनी कमेटी ने नयी शिक्षा नीति का प्रारूप (ड्राफ्ट) तैयार किया है जो अगले 20 साल तक शिक्षा के स्वरूप और ढाँचे को निर्धारित करेगा जिससे प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा और शिक्षण संस्थान प्रभावित होंगे। भारत में पहली शिक्षा नीति 1968 में आयी थी। आज़ादी के बाद से लेकर 1968 तक शिक्षा की दिशा उस समय के पूंजीपति टाटा-बिड़ला प्लान से निर्देशित थी। इसके बाद दूसरी शिक्षा नीति 1986 में आयी जिसे 1992 में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के मद्देनजर संशोधित किया गया जिसके बाद से ही शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजीपतियों के प्रवेश की शुरुआत की गयी और शिक्षा बाजार की एक वस्तु व् मुनाफा का साधन बनकर रह गयी। शिक्षा से हो रहे मुनाफे में बढ़ोतरी के लिए अब तीसरी शिक्षा नीति हमारे सामने है।
नयी शिक्षा नीति 2020 में सुझाये गये भारी भरकम प्रावधानों में विरोधाभास की स्थिति है। यह नीति शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को उन्नत करने की बात कहती है किन्तु दूसरी तरफ़ प्राइमरी स्तर के बच्चों की पढाई के लिए सरकार अपनी जिम्मेदारियों से दूर हटती नजर आती है। वो स्कूली पाठ्यक्रम में बदलाव की बात तो करती है लेकिन देश में स्कूली स्तर पर 10 लाख अध्यापकों के कमी पर कोई काम नहीं करती। इस नीति में कमोवेश यह स्वीकार किया गया है कि फॉउंडेशनल स्टेज यानी पहले 5 साल की पढ़ाई (3+2) में अध्यापक की कोई जरूरत नहीं होती है। इस काम को एनजीओ, आँगनवाड़ी कर्मी और अन्य स्वयंसेवक के हवाले छोड़ देने के मनसूबे सामने आ रहे हैं।
5+3+3+4 फार्मूला: इसमें 5 का मतलब है - तीन साल प्री-स्कूल के क्लास व 1 और 2 उसके बाद के 3 का मतलब है क्लास 3, 4 और 5, उसके बाद के 3 का मतलब है क्लास 6, 7 और 8 और आख़िर के 4 का मतलब है क्लास 9, 10, 11 और 12। यानी नई शिक्षा नीति लागू होने पर भी 6 साल में बच्चा पहली क्लास में ही होगा, लेकिन पहले के 3 साल भी फ़ॉर्मल एजुकेशन वाले ही होंगे। प्ले-स्कूल के शुरुआती साल भी अब स्कूली शिक्षा में जुड़ेंगे।
लैंग्वेज फ़ार्मूला: स्कूली शिक्षा में भाषा के स्तर पर बदलाव किए गए जिसमें 3 लैंग्वेज फ़ॉर्मूले की बात की गई है, कक्षा पाँच तक मातृ भाषा/ लोकल भाषा में पढ़ाई की बात हुई है।साथ ही ये भी कहा गया है कि जहाँ संभव हो, वहाँ कक्षा 8 तक इसी प्रक्रिया को अपनाया जाए लेकिन यह नहीं बताया गया है कि बच्चे जब तमिल, तेलुगू और कन्नड़ भाषा में पढ़ाई करके दिल्ली या अन्य शहरों में जाएँगे तो उनकी आगे की पढाई कैसे और किन भाषाओँ में होगी।
'नयी शिक्षा नीति' का दस्तावेज स्वीकार करता है कि देश में अब भी 25% यानी 30 करोड़ से ऊपर लोग अनपढ़ हैं फ़िर भी शिक्षा की पहुँच को आखिरी आदमी तक ले जाने की ज़रूरत पर कोई काम नहीं किया गया है। वैसे तो यह ड्राफ्ट 2030 तक 100% साक्षरता के लक्ष्य को पाने की बात करता है परन्तु दूसरी तरफ़ कहता है कि जहाँ 50 से कम बच्चे हों वहाँ स्कूल को बन्द कर देना चाहिए। आज स्कूलों को बढ़ाने की जरूरत है किन्तु यह नीति ठीक इसके उलट उपाय सुझा रही है। नयी शिक्षा नीति का मूल ड्राफ्ट शिक्षा के ऊपर जीडीपी का 6% और केंद्रीय बजट का 10% ख़र्च करने की बात करता है। आज नर्सरी से पीजी तक की शिक्षा निःशुल्क और एक समान रूप से उपलब्ध करवाने की जरुरत है। आत्मनिर्भरता का राग अलापने वाली सरकार बच्चों को छोटे उम्र में काम सिखाने की भी बात करते हैं इसी आपसी प्रतिस्पर्धा व् सस्ते श्रमिकों की आपूर्ति के लिए वोकेशनल सेण्टरों, आईटीआई, पॉलिटेक्निक इत्यादि को बढ़ावा दिया जा रहा है।
अब नयी शिक्षा नीति के तहत उच्च शिक्षा से जुड़े एमए, एमफ़िल, तकनीकी कोर्सों और पीएचडी के कोर्सों को भी मनमाने ढंग से पुनर्निर्धारित किया गया है। एमफिल के कोर्स को समाप्त ही कर दिया गया है। इससे सीधे-सीधे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ होगी। नयी शिक्षा नीति में मल्टीएन्ट्री और एग्जिट का प्रावधान किया गया है यदि कोई छात्र बीटेक किसी कारणवश पूरा नहीं कर पाया तो उसे एक साल के बाद सर्टिफिकेट, दो साल करके छोड़ने पर डिप्लोमा तो तीन साल के बाद डिग्री दी जा सकेगी। मतलब नयी शिक्षा नीति यह मानकर चल रही है कि छात्र अपना कोर्स पूरा नहीं कर पायेंगे। सरकार को ऐसे तमाम कारणों के समाधान ढूढ़ने चाहिए थे ताकि किसी छात्र को अपनी पढ़ाई बीच में ना छोड़नी पड़े। इससे तकनीकी कोर्सों की शिक्षा की गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव ही पड़ेगा। पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा में भी बदलाव किये गये हैं। देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रैक्टिकल काम ना के बराबर होते हैं। जिसके चलते हमारे देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए नयी शिक्षा नीति में कोई कदम नहीं उठाया गया है। उच्च शिक्षा पर पहले से जारी हमलों को उच्च शिक्षा नीति और भी द्रुत गति प्रदान करेगी। बड़ी पूँजी के निवेश के साथ ही केन्द्रीयकरण बढ़ेगा और फ़ीसों में बेतहाशा वृद्धि होगी।
उच्च शिक्षा व् शोध की हालात नयी शिक्षा नीति के तहत बद से बदतर हो सकते हैं। विश्व स्तरीय रिसर्च और शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण के नाम पर देश के सरकारी स्वायत संस्थाओं को शिक्षा माफिया के हवाले किए जाने की साजिस है। यूनिवर्सिटी की कल्पना स्वायत्ता के बुनियाद पर टिकी होती है और स्वायत्ता का मतलब आर्थिक स्वायत्ता से संबधित है जिसे संस्थानों के ग्रेडेड ऑटोनोमी के नाम पर दरकिनार किया जा सकता है। उच्च शिक्षा की निगरानी व् देख रेख के लिए नई संस्थाएं बनाने की बात की गयी है जिससे शिक्षण संस्थानों के मध्य एक नए तरह का छुआछुत व् भेदभाव की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। देश के गरीब, पिछड़े अल्पसंख्यक, महिलाऐं जो सरकारी संस्थाओं में प्रवेश पाकर उच्च शिक्षा पाने की ख्वाहिश रखते हैं उनके सपने को कुचलने की तैयारी इस नीति के माध्यम से सामने आ रही है। इस नयी शिक्षा नीति में तय किया गया है कि जो स्टूडेंट जितना फीस दे पाएगा उसके हिसाब से तय किया जाएगा कि वो कहाँ और कितना पढाई करेगा। सरकार की कोई जबाबदेही नहीं होगी। कुल मिलाकर 'नयी शिक्षा नीति 2020' जनता के प्रति नहीं बल्कि बाजार आधारित व् मनुवादी सरकार समर्थित व्यवस्था के प्रति समर्पित है। शिक्षा की नयी नीति हरेक स्तर की शिक्षा पर नकारात्मक असर डालेगी।
प्रो। के। कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में बनी कमेटी ने नयी शिक्षा नीति का प्रारूप (ड्राफ्ट) तैयार किया है जो अगले 20 साल तक शिक्षा के स्वरूप और ढाँचे को निर्धारित करेगा जिससे प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा और शिक्षण संस्थान प्रभावित होंगे। भारत में पहली शिक्षा नीति 1968 में आयी थी। आज़ादी के बाद से लेकर 1968 तक शिक्षा की दिशा उस समय के पूंजीपति टाटा-बिड़ला प्लान से निर्देशित थी। इसके बाद दूसरी शिक्षा नीति 1986 में आयी जिसे 1992 में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के मद्देनजर संशोधित किया गया जिसके बाद से ही शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजीपतियों के प्रवेश की शुरुआत की गयी और शिक्षा बाजार की एक वस्तु व् मुनाफा का साधन बनकर रह गयी। शिक्षा से हो रहे मुनाफे में बढ़ोतरी के लिए अब तीसरी शिक्षा नीति हमारे सामने है।
नयी शिक्षा नीति 2020 में सुझाये गये भारी भरकम प्रावधानों में विरोधाभास की स्थिति है। यह नीति शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को उन्नत करने की बात कहती है किन्तु दूसरी तरफ़ प्राइमरी स्तर के बच्चों की पढाई के लिए सरकार अपनी जिम्मेदारियों से दूर हटती नजर आती है। वो स्कूली पाठ्यक्रम में बदलाव की बात तो करती है लेकिन देश में स्कूली स्तर पर 10 लाख अध्यापकों के कमी पर कोई काम नहीं करती। इस नीति में कमोवेश यह स्वीकार किया गया है कि फॉउंडेशनल स्टेज यानी पहले 5 साल की पढ़ाई (3+2) में अध्यापक की कोई जरूरत नहीं होती है। इस काम को एनजीओ, आँगनवाड़ी कर्मी और अन्य स्वयंसेवक के हवाले छोड़ देने के मनसूबे सामने आ रहे हैं।
5+3+3+4 फार्मूला: इसमें 5 का मतलब है - तीन साल प्री-स्कूल के क्लास व 1 और 2 उसके बाद के 3 का मतलब है क्लास 3, 4 और 5, उसके बाद के 3 का मतलब है क्लास 6, 7 और 8 और आख़िर के 4 का मतलब है क्लास 9, 10, 11 और 12। यानी नई शिक्षा नीति लागू होने पर भी 6 साल में बच्चा पहली क्लास में ही होगा, लेकिन पहले के 3 साल भी फ़ॉर्मल एजुकेशन वाले ही होंगे। प्ले-स्कूल के शुरुआती साल भी अब स्कूली शिक्षा में जुड़ेंगे।
लैंग्वेज फ़ार्मूला: स्कूली शिक्षा में भाषा के स्तर पर बदलाव किए गए जिसमें 3 लैंग्वेज फ़ॉर्मूले की बात की गई है, कक्षा पाँच तक मातृ भाषा/ लोकल भाषा में पढ़ाई की बात हुई है।साथ ही ये भी कहा गया है कि जहाँ संभव हो, वहाँ कक्षा 8 तक इसी प्रक्रिया को अपनाया जाए लेकिन यह नहीं बताया गया है कि बच्चे जब तमिल, तेलुगू और कन्नड़ भाषा में पढ़ाई करके दिल्ली या अन्य शहरों में जाएँगे तो उनकी आगे की पढाई कैसे और किन भाषाओँ में होगी।
'नयी शिक्षा नीति' का दस्तावेज स्वीकार करता है कि देश में अब भी 25% यानी 30 करोड़ से ऊपर लोग अनपढ़ हैं फ़िर भी शिक्षा की पहुँच को आखिरी आदमी तक ले जाने की ज़रूरत पर कोई काम नहीं किया गया है। वैसे तो यह ड्राफ्ट 2030 तक 100% साक्षरता के लक्ष्य को पाने की बात करता है परन्तु दूसरी तरफ़ कहता है कि जहाँ 50 से कम बच्चे हों वहाँ स्कूल को बन्द कर देना चाहिए। आज स्कूलों को बढ़ाने की जरूरत है किन्तु यह नीति ठीक इसके उलट उपाय सुझा रही है। नयी शिक्षा नीति का मूल ड्राफ्ट शिक्षा के ऊपर जीडीपी का 6% और केंद्रीय बजट का 10% ख़र्च करने की बात करता है। आज नर्सरी से पीजी तक की शिक्षा निःशुल्क और एक समान रूप से उपलब्ध करवाने की जरुरत है। आत्मनिर्भरता का राग अलापने वाली सरकार बच्चों को छोटे उम्र में काम सिखाने की भी बात करते हैं इसी आपसी प्रतिस्पर्धा व् सस्ते श्रमिकों की आपूर्ति के लिए वोकेशनल सेण्टरों, आईटीआई, पॉलिटेक्निक इत्यादि को बढ़ावा दिया जा रहा है।
अब नयी शिक्षा नीति के तहत उच्च शिक्षा से जुड़े एमए, एमफ़िल, तकनीकी कोर्सों और पीएचडी के कोर्सों को भी मनमाने ढंग से पुनर्निर्धारित किया गया है। एमफिल के कोर्स को समाप्त ही कर दिया गया है। इससे सीधे-सीधे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ होगी। नयी शिक्षा नीति में मल्टीएन्ट्री और एग्जिट का प्रावधान किया गया है यदि कोई छात्र बीटेक किसी कारणवश पूरा नहीं कर पाया तो उसे एक साल के बाद सर्टिफिकेट, दो साल करके छोड़ने पर डिप्लोमा तो तीन साल के बाद डिग्री दी जा सकेगी। मतलब नयी शिक्षा नीति यह मानकर चल रही है कि छात्र अपना कोर्स पूरा नहीं कर पायेंगे। सरकार को ऐसे तमाम कारणों के समाधान ढूढ़ने चाहिए थे ताकि किसी छात्र को अपनी पढ़ाई बीच में ना छोड़नी पड़े। इससे तकनीकी कोर्सों की शिक्षा की गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव ही पड़ेगा। पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा में भी बदलाव किये गये हैं। देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रैक्टिकल काम ना के बराबर होते हैं। जिसके चलते हमारे देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए नयी शिक्षा नीति में कोई कदम नहीं उठाया गया है। उच्च शिक्षा पर पहले से जारी हमलों को उच्च शिक्षा नीति और भी द्रुत गति प्रदान करेगी। बड़ी पूँजी के निवेश के साथ ही केन्द्रीयकरण बढ़ेगा और फ़ीसों में बेतहाशा वृद्धि होगी।
उच्च शिक्षा व् शोध की हालात नयी शिक्षा नीति के तहत बद से बदतर हो सकते हैं। विश्व स्तरीय रिसर्च और शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण के नाम पर देश के सरकारी स्वायत संस्थाओं को शिक्षा माफिया के हवाले किए जाने की साजिस है। यूनिवर्सिटी की कल्पना स्वायत्ता के बुनियाद पर टिकी होती है और स्वायत्ता का मतलब आर्थिक स्वायत्ता से संबधित है जिसे संस्थानों के ग्रेडेड ऑटोनोमी के नाम पर दरकिनार किया जा सकता है। उच्च शिक्षा की निगरानी व् देख रेख के लिए नई संस्थाएं बनाने की बात की गयी है जिससे शिक्षण संस्थानों के मध्य एक नए तरह का छुआछुत व् भेदभाव की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। देश के गरीब, पिछड़े अल्पसंख्यक, महिलाऐं जो सरकारी संस्थाओं में प्रवेश पाकर उच्च शिक्षा पाने की ख्वाहिश रखते हैं उनके सपने को कुचलने की तैयारी इस नीति के माध्यम से सामने आ रही है। इस नयी शिक्षा नीति में तय किया गया है कि जो स्टूडेंट जितना फीस दे पाएगा उसके हिसाब से तय किया जाएगा कि वो कहाँ और कितना पढाई करेगा। सरकार की कोई जबाबदेही नहीं होगी। कुल मिलाकर 'नयी शिक्षा नीति 2020' जनता के प्रति नहीं बल्कि बाजार आधारित व् मनुवादी सरकार समर्थित व्यवस्था के प्रति समर्पित है। शिक्षा की नयी नीति हरेक स्तर की शिक्षा पर नकारात्मक असर डालेगी।