कर्नाटक से शुरू हुए हिजाब विवाद के बाद भारत के अन्य हिस्सों में शैक्षणिक संस्थानों पर सांप्रदायिक बहस हावी हो रही है। जिस राज्य से विवाद की शुरूआत हुई है उसी राज्य से एक बहुत ही राहत वाली तस्वीर सामने आई है। अब खुद छात्राओं ने ही अपनी मुस्लिम साथियों का साथ निभाने का फैसला किया है। उडुपी से शुरू हुए मामले का उडुपी की ही विभिन्न समुदाय की छात्राओँ ने सामने करने का मन बना लिया लगता है। यहां गुरूवार को एक प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज में चार छात्राएं अपनी एक हिजाब वाली साथी छात्रा का हाथ थामे कॉलेज जाती नजर आईं।
Image Credit: Deccan Herald
इससे एक दो दिन पहले ही हिजाब पहने कॉलेज पहुंची छात्राओं को भगवा गमछा डाले युवक-युवतियों ने जय श्री राम के नारे लगाकर ट्रोल किया था। कॉलेज प्रशासन ने भी दक्षिणपंथी भीड़ का साथ देते हुए हिजाब वाली छात्राओं को गेट पर ही रोक दिया था जबकि मुस्लिम लड़कियों ने परीक्षा देने के लिए कक्षाओं में अनुमति देने की गुहार लगाई थी। पूरे दृश्य ने "बेटी बचाओ बेटी पढाओ" के नारे के पाखंड को उजागर कर दिया था, क्योंकि बेटियों को हिजाब के साथ कक्षाओं में जाने की अनुमति नहीं थी।
डेक्कन हेराल्ड ने उडुपी में छात्राओं की एक तस्वीर प्रकाशित की है, 'हिजाब और बिना हिजाब, एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए'। कैप्शन में लिखा है, "हिजाब विवाद के बीच, विभिन्न समुदायों की छात्रा एक साथ उडुपी के सरकारी पीयू कॉलेज में पहुंची हैं।"
हिजाब और ड्रेस को लेकर छात्रों के बढ़ते विरोध के बीच जिले में कॉलेज लंबे समय तक बंद रहे। यहां तक कि यह सुनिश्चित करने के लिए धारा 144 भी लगाई गई थी कि वहां शैक्षणिक संस्थानों के पास कोई विरोध प्रदर्शन न हो।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश के अनुसार, छात्रों को राज्य द्वारा निर्धारित ड्रेस का पालन करने और किसी भी धार्मिक कपड़े पहनने से बचने के लिए कहा गया है। मामले को तत्काल सुनवाई के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ले जाया गया, लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने अपील पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया।
छात्रों के अनुसार, कॉलेजों और स्कूलों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध कभी कोई मुद्दा नहीं था। हालाँकि उन्हें इसे कक्षाओं में उतारने के लिए कहा गया था, लेकिन इसे परिसर में पहनने की अनुमति थी। फिर अचानक इन युवतियों को अपनी पसंद का प्रयोग करने से क्यों रोका जा रहा है?
यह कर्नाटक के शिक्षा मंत्रालय द्वारा किए गए संशोधन के कारण है जिसने तय किया कि छात्रों को अब कक्षाओं में हिजाब पहनने की अनुमति नहीं दी जाएगी। "उचित" ड्रेस जरूरी है। हिजाब को धार्मिक कपड़ों के रूप में लिया जाता था और शैक्षणिक संस्थानों की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के खिलाफ देखा जाता था।
कई लोगों ने इस पर सवाल उठाया क्योंकि हिजाब पहनकर गए बच्चों के साथ बड़े लोग क्यों स्कूल पहुंच रहे हैं और इसे पहले कभी कोई मुद्दा नहीं माना जाता था, फिर अब क्यों? इस विवाद ने भारत में राजनीतिक समुदाय को भी विभाजित कर दिया है। एक आधा इस तरह के कदम की निरर्थकता की बात करता है और दूसरा इसे सही ठहराता है।
लेकिन क्या हमारे स्कूल कभी धार्मिक प्रतीकों से रहित थे? प्रार्थना, सरस्वती पूजा उत्सव, यहां तक कि 2022 के गणतंत्र दिवस परेड के दौरान शिक्षा मंत्रालय की परेड में ब्राह्मण, एक उच्च जाति के पुजारी समुदाय की पोशाक पहने एक छात्र को दिखाया गया है। धार्मिक पहचान के बहुत से उदाहरण शैक्षणिक संस्थानों में नजर आते हैं। क्या ये धर्मनिरपेक्ष ताकतों के खिलाफ नहीं हैं? तो हिजाब से आँखों को इतना दर्द क्यों होता है? साथ ही, क्या धर्मनिरपेक्षता दूसरों की धार्मिक प्रथाओं का सम्मान करने और उनके प्रति सहिष्णु होने के बारे में नहीं है?
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इससे एक दो दिन पहले ही हिजाब पहने कॉलेज पहुंची छात्राओं को भगवा गमछा डाले युवक-युवतियों ने जय श्री राम के नारे लगाकर ट्रोल किया था। कॉलेज प्रशासन ने भी दक्षिणपंथी भीड़ का साथ देते हुए हिजाब वाली छात्राओं को गेट पर ही रोक दिया था जबकि मुस्लिम लड़कियों ने परीक्षा देने के लिए कक्षाओं में अनुमति देने की गुहार लगाई थी। पूरे दृश्य ने "बेटी बचाओ बेटी पढाओ" के नारे के पाखंड को उजागर कर दिया था, क्योंकि बेटियों को हिजाब के साथ कक्षाओं में जाने की अनुमति नहीं थी।
डेक्कन हेराल्ड ने उडुपी में छात्राओं की एक तस्वीर प्रकाशित की है, 'हिजाब और बिना हिजाब, एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए'। कैप्शन में लिखा है, "हिजाब विवाद के बीच, विभिन्न समुदायों की छात्रा एक साथ उडुपी के सरकारी पीयू कॉलेज में पहुंची हैं।"
हिजाब और ड्रेस को लेकर छात्रों के बढ़ते विरोध के बीच जिले में कॉलेज लंबे समय तक बंद रहे। यहां तक कि यह सुनिश्चित करने के लिए धारा 144 भी लगाई गई थी कि वहां शैक्षणिक संस्थानों के पास कोई विरोध प्रदर्शन न हो।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश के अनुसार, छात्रों को राज्य द्वारा निर्धारित ड्रेस का पालन करने और किसी भी धार्मिक कपड़े पहनने से बचने के लिए कहा गया है। मामले को तत्काल सुनवाई के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ले जाया गया, लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने अपील पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया।
छात्रों के अनुसार, कॉलेजों और स्कूलों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध कभी कोई मुद्दा नहीं था। हालाँकि उन्हें इसे कक्षाओं में उतारने के लिए कहा गया था, लेकिन इसे परिसर में पहनने की अनुमति थी। फिर अचानक इन युवतियों को अपनी पसंद का प्रयोग करने से क्यों रोका जा रहा है?
यह कर्नाटक के शिक्षा मंत्रालय द्वारा किए गए संशोधन के कारण है जिसने तय किया कि छात्रों को अब कक्षाओं में हिजाब पहनने की अनुमति नहीं दी जाएगी। "उचित" ड्रेस जरूरी है। हिजाब को धार्मिक कपड़ों के रूप में लिया जाता था और शैक्षणिक संस्थानों की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के खिलाफ देखा जाता था।
कई लोगों ने इस पर सवाल उठाया क्योंकि हिजाब पहनकर गए बच्चों के साथ बड़े लोग क्यों स्कूल पहुंच रहे हैं और इसे पहले कभी कोई मुद्दा नहीं माना जाता था, फिर अब क्यों? इस विवाद ने भारत में राजनीतिक समुदाय को भी विभाजित कर दिया है। एक आधा इस तरह के कदम की निरर्थकता की बात करता है और दूसरा इसे सही ठहराता है।
लेकिन क्या हमारे स्कूल कभी धार्मिक प्रतीकों से रहित थे? प्रार्थना, सरस्वती पूजा उत्सव, यहां तक कि 2022 के गणतंत्र दिवस परेड के दौरान शिक्षा मंत्रालय की परेड में ब्राह्मण, एक उच्च जाति के पुजारी समुदाय की पोशाक पहने एक छात्र को दिखाया गया है। धार्मिक पहचान के बहुत से उदाहरण शैक्षणिक संस्थानों में नजर आते हैं। क्या ये धर्मनिरपेक्ष ताकतों के खिलाफ नहीं हैं? तो हिजाब से आँखों को इतना दर्द क्यों होता है? साथ ही, क्या धर्मनिरपेक्षता दूसरों की धार्मिक प्रथाओं का सम्मान करने और उनके प्रति सहिष्णु होने के बारे में नहीं है?
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