प्राइमरी से लेकर पीएचडी तक; पढ़ाई के हर पड़ाव पर, अध्यापक एवं छात्र के बीच के सम्बन्ध; विद्यार्थी के व्यक्तित्व एवं शिक्षा की गुणवत्ता पर निर्णायक असर डालते हैं| यदि अध्यापक एवं छात्र के बीच के सम्बन्ध लोकतान्त्रिक न हों तो विद्यार्थी के साथ-साथ पूरे समाज को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है|
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि बीएचयू जैसे गौरवशाली शिक्षण संस्थान में आज भी ऐसे अध्यापकों एवं अधिकारियों का बोलबाला है; जो लोकतांत्रिक मूल्यों की बजाए सामन्ती मूल्यों एवं वर्चस्व की संस्कृति में यकीन रखते हैं| गौरतलब है कि छात्राओं के हालिया आन्दोलन के दबाव में; सामन्ती मूल्यों एवं वर्चस्व की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले कुलपति जी.सी. त्रिपाठी को बीएचयू से बेआबरू होकर रुखसत होना पड़ा; लेकिन आज भी बीएचयू की बेहतरी से जुड़े ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका समाधान होना बाकी है|
फिलहाल हम आपका ध्यान पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया की ओर आकर्षित करना चाहेंगे| बीएचयू में शोध प्रवेश के लिए 200 नम्बर की परीक्षा में से; 100 नम्बर `अकेडमिक रिकॉर्ड’ के होते हैं, बाकी के 100 नम्बर में से 30 नम्बर लिखित परीक्षा और 70 नम्बर इंटरव्यू के होते हैं| हमारी जानकारी के मुताबिक़ इतने ज्यादा नम्बर का इंटरव्यू शायद ही किसी अन्य किसी विश्वविद्यालय या संस्थान में होता हो! बहरहाल सवाल यह है कि आज जब सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक; इंटरव्यू में होने वाले मनमानेपन और भेदभाव की हकीकत को स्वीकार कर रहे हों; तब ऐसे में बीएचयू में 70 नम्बर का इंटरव्यू बनाए रखने का भला क्या तुक है?
दरअसल सच्चाई तो यह है कि 70 नम्बर के इंटरव्यू में ही नहीं, 30 नम्बर की लिखित परीक्षा में भी कोई पारदर्शिता नहीं बरती जाती| इस तरह से देखा जाए तो बीएचयू प्रशासन के हाथ में 100 नम्बर होते हैं; जिसके बल पर वह मनमानेपन और भेदभाव का खेल खेलता है| इस स्थिति के चलते; असुविधाजनक प्रश्न पूछने वाले और असहमति व्यक्त करने वाले योग्य छात्र-छात्राएं भी शोध में प्रवेश से वंचित हो जाते हैं, जबकि अयोग्य होने के बावजूद प्रशासन के `चहेतों’ को प्रवेश मिलने का रास्ता खुल जाता है| स्वाभाविक है कि इस स्थिति के चलते; कमजोर आर्थिक-सामजिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र-छात्राओं को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है|
शिक्षा और शोध के लिए जरुरी है कि असहमति व्यक्त करने और प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए; लेकिन यहाँ तो दब्बूपन और चाटुकारिता की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की उलटी बयार बहाई जा रही है; जाहिर है कि यह स्थिति न सिर्फ अन्यायपूर्ण है, बल्कि शिक्षा और शोध की गुणवत्ता के लिहाज से बीएचयू के लिए नुकसानदेह भी है|
हमारी मांग है कि 70 नम्बर से घटा करके; शोध प्रवेश प्रक्रिया में इंटरव्यू की भूमिका को न्यूनतम किया जाए, इसी के साथ 30 नम्बर की लिखित परीक्षा को भी वस्तुनिष्ठ बनाया जाए ताकि इसमें होने वाली धांधली पर रोक लगे| शोध प्रवेश प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के सवाल पर शुरू हो रहे संघर्ष में हम आपका सहयोग चाहते हैं| यह पीएचडी में प्रवेश से वंचित होने वाले महज कुछ छात्र-छात्राओं के दाखिले की लड़ाई भर नहीं; यह न्याय और लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली के साथ-साथ बीएचयू में शिक्षा और शोध की गुणवत्ता की बेहतरी की भी लड़ाई है|
इस लड़ाई को जीत के मुकाम तक पहुंचाने का संकल्प लेने के लिए; 30 नवम्बर को 3 बजे छित्तूपुर गेट पर संकल्प-सभा आयोजित की जा रही है, आप से अनुरोध है कि इस सभा में जरूर शामिल हों!
बीएचयू शोध मोर्चा
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि बीएचयू जैसे गौरवशाली शिक्षण संस्थान में आज भी ऐसे अध्यापकों एवं अधिकारियों का बोलबाला है; जो लोकतांत्रिक मूल्यों की बजाए सामन्ती मूल्यों एवं वर्चस्व की संस्कृति में यकीन रखते हैं| गौरतलब है कि छात्राओं के हालिया आन्दोलन के दबाव में; सामन्ती मूल्यों एवं वर्चस्व की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले कुलपति जी.सी. त्रिपाठी को बीएचयू से बेआबरू होकर रुखसत होना पड़ा; लेकिन आज भी बीएचयू की बेहतरी से जुड़े ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका समाधान होना बाकी है|
फिलहाल हम आपका ध्यान पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया की ओर आकर्षित करना चाहेंगे| बीएचयू में शोध प्रवेश के लिए 200 नम्बर की परीक्षा में से; 100 नम्बर `अकेडमिक रिकॉर्ड’ के होते हैं, बाकी के 100 नम्बर में से 30 नम्बर लिखित परीक्षा और 70 नम्बर इंटरव्यू के होते हैं| हमारी जानकारी के मुताबिक़ इतने ज्यादा नम्बर का इंटरव्यू शायद ही किसी अन्य किसी विश्वविद्यालय या संस्थान में होता हो! बहरहाल सवाल यह है कि आज जब सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक; इंटरव्यू में होने वाले मनमानेपन और भेदभाव की हकीकत को स्वीकार कर रहे हों; तब ऐसे में बीएचयू में 70 नम्बर का इंटरव्यू बनाए रखने का भला क्या तुक है?
दरअसल सच्चाई तो यह है कि 70 नम्बर के इंटरव्यू में ही नहीं, 30 नम्बर की लिखित परीक्षा में भी कोई पारदर्शिता नहीं बरती जाती| इस तरह से देखा जाए तो बीएचयू प्रशासन के हाथ में 100 नम्बर होते हैं; जिसके बल पर वह मनमानेपन और भेदभाव का खेल खेलता है| इस स्थिति के चलते; असुविधाजनक प्रश्न पूछने वाले और असहमति व्यक्त करने वाले योग्य छात्र-छात्राएं भी शोध में प्रवेश से वंचित हो जाते हैं, जबकि अयोग्य होने के बावजूद प्रशासन के `चहेतों’ को प्रवेश मिलने का रास्ता खुल जाता है| स्वाभाविक है कि इस स्थिति के चलते; कमजोर आर्थिक-सामजिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र-छात्राओं को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है|
शिक्षा और शोध के लिए जरुरी है कि असहमति व्यक्त करने और प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए; लेकिन यहाँ तो दब्बूपन और चाटुकारिता की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की उलटी बयार बहाई जा रही है; जाहिर है कि यह स्थिति न सिर्फ अन्यायपूर्ण है, बल्कि शिक्षा और शोध की गुणवत्ता के लिहाज से बीएचयू के लिए नुकसानदेह भी है|
हमारी मांग है कि 70 नम्बर से घटा करके; शोध प्रवेश प्रक्रिया में इंटरव्यू की भूमिका को न्यूनतम किया जाए, इसी के साथ 30 नम्बर की लिखित परीक्षा को भी वस्तुनिष्ठ बनाया जाए ताकि इसमें होने वाली धांधली पर रोक लगे| शोध प्रवेश प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के सवाल पर शुरू हो रहे संघर्ष में हम आपका सहयोग चाहते हैं| यह पीएचडी में प्रवेश से वंचित होने वाले महज कुछ छात्र-छात्राओं के दाखिले की लड़ाई भर नहीं; यह न्याय और लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली के साथ-साथ बीएचयू में शिक्षा और शोध की गुणवत्ता की बेहतरी की भी लड़ाई है|
इस लड़ाई को जीत के मुकाम तक पहुंचाने का संकल्प लेने के लिए; 30 नवम्बर को 3 बजे छित्तूपुर गेट पर संकल्प-सभा आयोजित की जा रही है, आप से अनुरोध है कि इस सभा में जरूर शामिल हों!
बीएचयू शोध मोर्चा