सहारनपुर में दलितों पे हुए राजपूती हमले के बाद भीम आर्मी के द्वारा जंतर मंतर पर किये गए विशाल प्रदर्शन के बाद एक बात तो साफ़ हो गयी के संघठन में शक्ति है और यह के दलितों में अन्दर ही अन्दर घुटन की स्थिति पैदा हो रही है क्योंकि राजनैतिक पार्टिया उनकी भावनाओं को समझने में नाकामयाब रही है . सहारनपुर के घटनाक्रम के विषय में मेरी पहिली टिपण्णी यह थी के भीम आर्मी एक हकीकत है युवाओं के रोष को प्रकट कर रही है लेकिन इसकी ताकत बसपा जैसी पार्टियों को बेहद नुक्सान पहुंचा सकती है . उत्तर प्रदेश के चुनावो के नतीजों के बाद भी मैं लगातार यह कहता आया हूँ के अखिलेश यादव या मायावती को कमजोर करके अभी उत्तर प्रदेश में और फिर देश में आप सामाजिक न्याय की ताकतों को मज़बूत नहीं कर सकते क्योंकि २०१९ में राजनीती में नए प्रयोग का वक़्त नहीं है और सभी बहुजन शक्तियों को एक होकर ब्राह्मणवादी छल कपट का मुकाबला करना होगा अन्यथा स्थिति बहुत गंभीर होगी .
मैं ये मानता हूँ के बसपा और सपा जैसी पार्टियों ने अपने मूलाधार को छोड़कर ‘विकास’ की राजनीती की जो चली नहीं, क्योंकि उनके लोगो के मूल प्रश्नों की और तो उन्होंने ज्यादा तवजोह ही नहीं दी. बसपा और सपा ने अपने मूल आधार से आगे अन्य वर्गों में पैठ बनाने की कोशिश नहीं की लेकिन इसका मतलब उनको समान्तर पार्टिया खड़े कर देने से नहीं होगा क्योंकि अमित शाह और उनके सहयोगी तो यही चाहते हैं के दलितों और पिछडो की कई पार्टिया मैदान में हों ताकि उन्हें राजनीती को मनिपुलेट करना आसन होगा .
मैंने पहले दिन से ये कहा के बहुजन समाज पार्टी हो या अन्य कोई दल, उनके अन्दर लोकतान्त्रिक प्रकिर्या लानी पड़ेगी और दलित पिछडो के हासिये पे रहने वाले समाजो से भी चर्चा करनी पड़ेगी, उनके नेतृत्व को पार्टी में लाना पड़ेगा और उनके सवालो को भी मुद्दा बनाना पड़ेगा. पिछले तीन वर्षो में दलित बहुजन आदिवासी छात्र अपने प्रश्नों को लेकर सड़क पे हैं लेकिन क्या किसी राजनैतिक दल ने उनका मुद्दा उठाया और यदि उठाया भी तो बहुत देर से.
राहुल गाँधी और अरविन्द केजरीवाल इन मुद्दों पर दूसरो से ज्यादा गए लेकिन उस पर बहुजन राजनीती इतनी प्रभावित नहीं होती जितना बसपा या बहुजन राजनीती करने वाले अन्य नेताओं और दलों के छात्रो से मिलने और उनके मुद्दे पर बात कहने से होती . लेकिन राजीनति में हर बात को कहना या न कहना अपने आप में एक कैलकुलेशन हैं इसलिए वोट पॉलिटिक्स के हिसाब से ही हमारी प्रतिक्रिया होती हैं .
सहारनपुर घटनाक्रम में बसपा की एंट्री बहुत देर से हुई हालाँकि ये सूचनाये भी है के भीम आर्मी के अधिकांश कार्यकर्ता राजनैतिक तौर बसपा से जुड़े हुए हैं और उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया जो बसपा एंड बहुजन राजनीती के विरुद्ध जाता हो लेकिन सुश्री मायावती द्वारा सीधे तौर पर भीम आर्मी को संघ का एजेंट कह देना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात है हालाँकि उत्तर प्रदेश प्रशाशन की ख़ुफ़िया रिपोर्ट ये कह रही है के भीम आर्मी को बसपा का ही समर्थन है .
बसपा समर्थको का कहना है के भीम आर्मी के चलते बसपा कमजोर होगी और अंततः भाजपा और हिंदुत्व की ताकते मज़बूत होंगी लेकिन भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद ये मानते हैं के उनकी लड़ाई सामाजिक है और उनका कोई राजनैतिक अजेंडा नहीं नहीं है. वह यह कहते हैं के राजनीती में वोट की मज़बूरी कई बार आपको अपने समुदायों पर हो रहे अत्याचारों की बात उठाने से रोकती है लेकिन सामाजिक आन्दोलन वोटो का मोहताज नहीं होता इसलिए वो अपने समाज के आत्मसम्मान और अन्य कमजोर लोगो की लड़ाई लड़ते रहेंगे . चंद्रशेखर यह भी कहते हैं के बहिन जी ने सहारनपुर जाने में देर की है .
हमने पहले भी यह कहा है के चंद्रशेखर और उनके आन्दोलन को देखना होगा लेकिन उस पर तुरंत इल्जाम लगा देना खतरनाक होगा क्योंकि भाजपा भी इसकी तलाश में है . सहारनपुर ने संघ के जातिवादी चरित्र को दिखाया है और उत्तर प्रदेश में इस समय सरकारी तौर पर संरक्षित ठाकुरवाद ने भाजपा के सम्पूर्ण हिन्दुओ के प्रतिनिधित्व की पोल खोली है लेकिन राजनैतिक पार्टिया इसको काउंटर करने में नाकामयाब रही है .
इसलिए अंग्रेजी के अखबारों ने जहाँ चंद्रशेखर आजाद की जंतर मंतर की रैल्ली को दिखाया वही उत्तर प्रदेश के हिंदी अखबारों में उसको विलन के तौर पर ही परोसा गया . सुश्री मायावती की सहारनपुर यात्रा भी प्रदेश के अखबारों ने कवर नहीं की क्योंकि उनकी मुख्य खबर तो ‘पाकिस्तान को सबक’ सिखाने में चली गयी.
सुश्री मायावती ने ‘ब्राह्मणों’ पर हो रहे ‘अत्याचार’ के उपर कहा है जो राजनैतिक तौर पर कुछ भी नहीं देगा क्योंकि ठाकुरवाद ब्राह्मणवाद का एक मजबूत स्तम्भ है इसलिए जाति के नाम पर किसी भी प्रकार की गोलबंदी अंततः ब्रह्माण्वादी व्यवस्था को ही मज़बूत करेगी .
कई लोग यह कह रहे हैं के चंद्रशेखर आजाद को इसलिए गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है क्योंकि उन्हें बहिन जी को कमजोर करने के लिए संघ द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है और दूसरा ये के उनके कारण से सहारनपुर घटनाक्रम में पूरा फोकस ठाकुरों से हटकर भीम आर्मी पे हो गया है . पुलिस दलितों को परेशान कर रही है लेकिन इन बातो में बहुत दम नहीं है.
चंद्रशेखर देहरादून के डीएवी कॉलेज के छात्र रहे हैं और शुरूआती दौर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से जुड़े रहे है लेकिन ऐसे बहुत से लोग हैं जो संघ से जुड़े और बाद में उसके जातिवादी स्वरूप का पर्दाफास भी किया . हमारे मित्र राजस्थान के भंवर मेघवंशी जी ने जिस प्रकार से राजस्थान में दलितों की अस्मिता की लड़ाई को मजबूत किया है वो अनुकर्णीय है. चंद्रशेखर और अन्य युवाओं के छात्र राजनीती के दिनों को खंगालने की बजाये हम उनके आज के कार्यो का आंकलन करें इसलिए ये जरुरी है के उन्हें मौका दिया जाए .भीम आर्मी रास्ट्रीय एकता संघठन के पूरेप्रदेश में कार्यक्रमों में लोगो की भागीदारी बढ़ी है क्योंकि लोग दिल की आवाज़ पर आये और राजनितिक दलों ने समय पर इतने भयावह घटनाक्रम पर सामायिक उत्तर नहीं दिया .
उत्तर प्रदेश के अन्दर दलित अस्मिता के प्रश्न का उत्तर मान्यवर कांशीराम जी ने बसपा के गठन के बाद से दे दिया लेकिन वर्तमान दौर में बढ़ते सामाजिक द्वंदों के चलते राजनैतिक दल चुप रहकर या इंतज़ार कर समाज के वीभत्स प्रश्नों का जवाब नहीं देना चाहते और यही सबसे बड़ी पीड़ा का कारण है . आज का यूवा अन्याय सहन करने को तैयार नहीं है . वो चाहता है के राजनितिक दल उसके सवालो का जवाब दे .
हमें बहुत से बातो का ध्यान रखना होगा . सोशल मीडिया के इस दौर में झूठ फ़ैलाने वाली मशीनरी से बहुत सावधान रहना होगा . जैसे चंद्रशेखर आजाद पर आरोप लगा के उन्होंने दलितों से इस्लाम धर्म अपनाने की बात कही हालाँकि उन्होंने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में साफ़ कर दिया के वह दलितों को बौध धर्म अपनाने के लिए कह रहे है जो बाबा साहेब आंबेडकर का रास्ता था. वो कहते हैं के मुझे मानववादी भारत बनाना है जो बाबा साहेब अम्बेकर का सपना था . असल में झूठ के इस दौर में हमें अत्यंत सावधान रहने की जरुरत है . कोई भी आन्दोलन एक दिन की उपज नहीं होता .
मान्यवर कांशीराम ने गाँव गाँव साइकिल और पैदल चल कर इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा किया के समाज उसके साथ जुड़ गया . अब उनके मिशन को आगे जाने की जरुरत है. बड़े समाजो में मतभिन्नता स्वाभाविक है लेकिन उसका मतलब ये नहीं के वो दुश्मन हैं . चंद्रशेखर आजाद का यह वक्तव्य के मेरी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा नहीं है लेकिन मैं समाज का वोट लेकर नेताओं को अब बोलने के लिए मजबूर करूँगा, महत्वपूर्ण है . हम इस बात से भी सहमत हैं के हमारे समाज के सामाजिक एकता राजनैतिक एकता से बड़ी है यानी सामाजिक न्याय को भुलाकर कोई भी राजनीती वो बहुजन समाज के साथ छल होगी .
इस चुनाव से पहले भी मैंने कहा था के इस वक्त आरोप प्रत्यारोप का समय नहीं है और इतने बड़े विशाल समाज में कई संगठन बनेंगे और बिगड़ेंगे भी. आन्दोलनों और राजनीती के व्यक्तिवादी चरित्र ने आज की राजनीती को और दूषित कर दिया है क्योंकि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को जातीय हित बनाकर किसी भी आन्दोलन को बहुत अच्छे से तोडा जा सकता है इसलिए आज हर एक ‘महत्वकांक्षी’ व्यक्ति अपनी जाति के नाम एक पार्टी बनाना चाहती है और बहुत आसानी से इन महत्वकांक्षी लोगो को खरीद लिया जाता है और उसे ‘समाज’ या ‘पार्टी’ की इच्छा या निर्णय बोलकर जस्टिफाई कर लिया जाता है. हासिये के जिन जातियों को जगह नहीं मिलती उनके नेता ‘दूसरी’ और रुख करते हैं ओर फिर आरोप प्रत्यारोपो का दौर शुरू हो जाता है .
हमारा ये मानना है के अभी भी बहुजन राजनीती को बहुजन युवाओं के अन्दर पनप रहे आक्रोश को समझना पड़ेगा और चंद्रशेखर जैसे युवको को जगह देनी पड़ेगी अन्यथा वो न चाहते हुए भी विरोध में होंगे और कुल मिलाकर बहुजन राजनीती के जिस विकल्प को मान्यवर कांशीराम ने देखा था उसको कमजोर ही करेंगे . बहुजन आन्दोलन को मजबूत करने के लिए नयी पीढ़ी को पार्टियों में जगह मिलनी चाहिए और इसके लिए आवश्यक है के पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र हो और नेतृत्व उपर से न थोपा जाए .
एक बात और समझने की जरुरत है के मात्र भाजपा विरोध के नाम पर सारी राजनैतिक और सामाजिक शक्तिया सामाजिक न्याय की पक्षधर हो ऐसा जरुरी नहीं है. जैसे भ्रस्टाचार विरोध के नाम पर चला आन्दोलन अंततः संघ परिवार को मज़बूत करने वाला निकला .
भीम आर्मी के कार्य को अगर बसपा या उसका नेतृत्व नहीं स्वीकारता तो ये उसकी भूल होगी क्योंकि भीम आर्मी बसपा के सब्बसे ताकतवर जगह सहारनपुर से बनी है और बसपा को दिल से चाहने वाले लोगो में से अधिकांश लोग उसमे हैं .
आज का मीडिया आन्दोलनों के अन्दर से भी मोदी और संघ को मज़बूत करने के तरीके ढूंढ रहा है क्योंकि उन्हें पता है के जनता में व्यापक असंतोष है लेकिन पूंजीवादी जातिवादी ताकते ये मानती है के मोदी युग उनका स्वर्णिम युग है इसलिए जनता चाहे त्रस्त रहे या मरे, मनुवादी मीडिया खबरे अपने लाभ हानि के अनुसार ही परोसेगा . इसलिए अंग्रेजी के अखबारों ने जहाँ चंद्रशेखर आजाद की जंतर मंतर की रैल्ली को दिखाया वही उत्तर प्रदेश के हिंदी अखबारों में उसको विलन के तौर पर ही परोसा गया . सुश्री मायावती की सहारनपुर यात्रा भी प्रदेश के अखबारों ने कवर नहीं की क्योंकि उनकी मुख्य खबर तो ‘पाकिस्तान को सबक’ सिखाने में चली गयी .
चंद्रशेखर आज़ाद के नाम पर बहुजन आन्दोलन के साथियो में आपसी मुकाबला भी हो रहा है जो दुखद है . इस वक़्त सामाजिक न्याय की ताकतों को एक साथ होना पड़ेगा . भीम आर्मी जनता की दबी भावनाओं की प्रकट कर रही है लेकिन यदि बसपा जैसे पार्टियों ने उनको नहीं स्वीकारा तो लम्बे समय में यह नुक्सान वर्धक होगा और फिर २०१९ को यदि छोड़ भी दे तो २०२२ के विधान सभा चुनावो में हम बहुजन समाज की ही कई राजनैतिक पार्टियों को देखेंगे जो बहुत अच्छासंकेत नहीं होगा क्योंकि मतों के विभाजन का फायदा तो हमेशा से ही ताकतवर जातियों को हुआ है और इस वक़्त वे सभी हिंदुत्व के बैनर तले मजबूती से खड़े हैं . चंद्रशेखर को भी बहुत सावधान रहना होगा क्योंकि उनके उपर सभी राजनैतिक दलों की नज़र होगी और उन्हें अपनी और से यही प्रयास करना चाहिए के जातिवादी ताकते उनके इस प्रयास का राजनैतिक लाभ न ले . अभी तक के उनके बयानों या मीडिया में इंटरव्यूज से तो साफ़ दीखता है के चंद्रशेखर और उनकी टीम के साथी बहुत समझदारी से अपनी बात रखते हैं और उनकी राजनैतिक समझ परिपक्व है इसलिए हम उम्मीद करते हैं के उनका आन्दोलन समाज हित में जारी रहेगा ताकि बहुजन राजनीती पर समाज के कार्यो को मजबूती से ध्यान देने का दबाब पड़े और यह भी जरुरी होगा वह लम्बी लड़ाई की तैय्यारी करे और देश भर के ऐसे आन्दोलनों के साथ जुड़े जो सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और संवेधानिक सर्वोच्चता की बात करते हो .
बहुजन राजनीती को अन्ना के आन्दोलन से सीखना होगा . शुरुआत में कांग्रेस और अन्य सभी पार्टियों ने अन्ना और केजरीवाल के आन्दोलन को मात्र एन जी ओ का आन्दोलन बताकर उसका मजाक उड़ाया . ये समझना जरुरी है के संघ परिवार ने एक गैर राजनैतिक आन्दोलन के जरिये उस वक़्त के सभी राजनैतिक दलों को जनता के कठघरे में भ्रष्ट दिखा दिया . उस आन्दोलन से अगर राजनैतिक दल ढंग से निपटते तो आज हमें ये दिन नहीं देखने पड़ते . चंद्रशेखर के आन्दोलन के सिलसिले में भी ऐसा ही दीखता है . भीम आर्मी के कार्य को अगर बसपा या उसका नेतृत्व नहीं स्वीकारता तो ये उसकी भूल होगी क्योंकि भीम आर्मी बसपा के सब्बसे ताकतवर जगह सहारनपुर से बनी है और बसपा को दिल से चाहने वाले लोगो में से अधिकांश लोग उसमे हैं . इसका मतलब यह भी है के लोग ये मानते हैं के बसपा की राजनैतिक मजबूरिया हैं जिसके चलते वो सामाजिक मुद्दों को पुरे जोर शोर से नहीं उठा पा रही है और ऐसी स्थिति में भीम आर्मी ने वो काम बेहतरीन तरीके से किया है इसलिए चुनावों में भले ही लोग बसपा की और जाए, सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन के तौर पर भीम आर्मी की ताकत बनी रहेगी और बसपा और भीम आर्मी दोनों को ही अपने मतभेदों को दूर कर साथ काम करना होगा नहीं तो विभाजन का फायदा उन्ही ताकतों को होगा जिन्होंने सहारनपुर की वीभत्स घटना को अंजाम दिया . उम्मीद है सभी समझदारी दिखाएँगे .
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