महात्मा गांधी की हत्या: 55 करोड़ की बदनामी और संघी षड्यंत्र

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: February 1, 2022
संघ परिवार महात्मा गांधी की हत्या करने के बाद भी वर्षों से उनकी बदनामी करने में लगे हुए हैं. महात्मा गांधी के शरीर को मार कर उनके विचारों को भी मारने की यह साजिश है जिसमें संघ परिवार वर्षों से लगा हुआ है. लेकिन आज भी महात्मा गाँधी का नाम देश और दुनिया में सम्मान के साथ लिया जाता है. 30 जनवरी को जहां सारी दुनिया महात्मा गांधी को याद कर श्रद्धांजलि देने में व्यस्त थी उसी वक्त संघ परिवार के कार्यकर्ता गोडसे को पूजने में व्यस्त थे. ट्विटर पर #नाथूराम गोडसे जिंदाबाद ट्रेंड हुआ. राहुल गांधी ने जब ‘गांधी जी की हत्या एक हिंदुत्ववादी ने की थी’ ट्वीट किया तब बीजेपी और संघ परिवार बौखला गया. हमेशा महात्मा गांधी को बदनाम करने के लिए पाकिस्तान को 55 करोड़ दिए जाने का इल्जाम गांधी जी के सिर पर लगाया जाता है. लेकिन असलियत क्या है यह लोगों तक पहुँचनी चाहिए.



संक्षिप्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
ब्रिटिश साम्राज्यवाद 700 सस्थाओं और राजाओं पर आधिपत्य कर भारत में अपनी हुकूमत स्थापित की थी. उसी के बाद ही देश में राष्ट्र की कल्पना का उदय हुआ था और कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्र आंदोलन की शुरुआत हुई थी. गांधी जी के स्वतंत्रता आंदोलन में शिरकत करने के कारण स्वतंत्रता आंदोलन और व्यापक हो गया. पूरे देश में स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी आग की तरह फैल गई. एक झंडे और एक नारे तले पूरा स्वतंत्रता आंदोलन खड़ा हो गया उसका कारण महात्मा गांधी थे. इसीलिए पहली बार नेताजी सुभाष चंद्र बोस  ने 6 जुलाई 1944 को महात्मा गांधी को "राष्ट्रपिता" की उपाधि दी थी. ब्रिटिश चाहते थे कि जिन 700 संस्थानों से उन्होंने सत्ता पाई थी उन्हीं के हाथों सत्ता सौंपकर वापस जाएं लेकिन महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया और अंग्रेजों का षड्यंत्र सफल नहीं होने दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नहीं थे इसी के कारण उन्होंने गांधी जी को राष्ट्रपिता मानने से इनकार कर दिया. गांधी जी के आने से पहले का स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व लोकमान्य तिलक जैसे मध्यमवर्ग समर्थित नेताओं के पास था. महात्मा गांधी जी ने सर्वप्रथम किसान, मजदूर, दलित, महिला, छात्र समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया. सभी धर्म के लोगों की हिस्सेदारी बगैर स्वतंत्रता आंदोलन सफल होना नामुमकिन है यह गांधीजी जानते थे. इसीलिए सभी धर्म के लोगों के साथ उन्होंने अपना सहयोग और संवाद बढ़ाया. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का ग्रामीण भारत में विस्तार किया.

30 जनवरी 1948 को नथुराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को गोली मारी. तभी से ही संघ परिवार हर तरीके से उस हत्या का समर्थन करने की कोशिश करता है. नाथूराम गोडसे और संघ परिवार को पता था कि अंग्रेजों के जाने के बाद हिंदु राष्ट्र का एजेंडा अमल करने में महात्मा गांधी सबसे बड़ा रोड़ा हैं. इसीलिए उनकी हत्या कर दी गई. 

इस तथ्य को ‘हरिशंकर परसाई’ द्वारा बर्षों पूर्व किए गए आकलन से समझा जा सकता है जो आज सत्य साबित होने के राह पर है:

"यह सभी जानते हैं कि गोडसे फांसी पर चढ़ा, तब उसके हाथ में भगवा ध्वज था और होंठों पर संघ की प्रार्थना- नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि. पर यही बात बताने वाला गांधीवादी गाइड दामोदरन नौकरी से निकाल दिया गया है. उसे आपके मोरारजी भाई ने नहीं बचाया. मोरारजी सत्य पर अटल रहते हैं. इस समय उनके लिए सत्य है प्रधानमंत्री बने रहना. इस सत्य की उन्हें रक्षा करनी है. इस सत्य की रक्षा के लिए जनसंघ का सहयोग ज़रूरी है. इसलिए वे यह झूठ नहीं कहेंगे कि गोडसे आर.एस.एस. का था. वे सत्यवादी हैं. तो अब महात्माजी, जो कुछ उम्मीद है, बाला साहेब देवरस से है. वे जो करेंगे, वही आपके लिए होगा। वैसे काम चालू हो गया है. गोडसे को भगतसिंह का दर्जा देने की कोशिश चल रही है। गोडसे ने हिंदू राष्ट्र के विरोधी गांधी को मारा था.

गोडसे जब भगतसिंह की तरह राष्ट्रीय हीरो हो जायेगा, तब तीस जनवरी का क्या होगा ? अभी तक यह ‘गांधी निर्वाण दिवस’ है, आगे ‘गोडसे गौरव दिवस’ हो जायेगा. इस दिन कोई राजघाट नहीं जायेगा. फिर भी आपको याद ज़रूर किया जायेगा.
जब तीस जनवरी को गोडसे की जय-जयकार होगी, तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि उसने कौन-सा महान कर्म किया था. बताया जायेगा कि इस दिन उस वीर ने गांधी को मार डाला था. तो आप गोडसे के बहाने याद किये जायेंगे. अभी तक गोडसे को आपके बहाने याद किया जाता था.

एक महान पुरुष के हाथ से मरने का कितना फ़ायदा मिलेगा आपको ? लोग पूछेंगे- यह गांधी कौन था ? जवाब मिलेगा--वही जिसे गोडसे ने मारा था."

55 करोड़ और भारत पाकिस्तान विभाजन
महात्मा गांधी के खून का समर्थन करने के लिए सबसे बड़ा कारण संघ परिवार आगे करता है वह महात्मा गांधी जी का भारत पाकिस्तान विभाजन को अनुमति देने का और 55 करोड़ पाकिस्तान को देने का आग्रह और उसके लिए अनशन का है. जबकि यह सफेद झूठ सर्व विदित है. लेकिन इतिहास की जानकारी ना रखने वाली नई पीढ़ी को यह सोशल मीडिया के जरिए झूठा इतिहास पढ़ाना चाहते हैं. महात्मा गांधी ने असल में 55 करोड़ के लिए अनशन किया ही नहीं था. गांधी जी ने 13 जनवरी 1948 से अनिश्चितकालीन अनशन दिल्ली में धार्मिक दंगे शांत हो इसलिए शुरू किया था. महात्मा गांधी जी का मानना यही था कि भारत पाकिस्तान विभाजन के दौरान किए गए करार में भारत ने पाकिस्तान को 75 करोड़ देने थे. इसमें से 20 करोड़ पहली किस्त दी जा चुकी थी और 55 करोड़ देना बाकी थे. यह किस्त ना देने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धूमिल हो जाती. यह मत सिर्फ गांधी जी का नहीं था उनके साथ साथ लॉर्ड माउंटबेटन राजाजी और रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर चिंतामनराव देशमुख इनकी भी सोच पाकिस्तान को पैसे देने के पक्ष में थी. तब उनका खून कैसे नहीं हुआ. सिर्फ गांधी जी को क्यों निशाना बनाया गया? इसका जवाब साफ है कि गांधीजी हिंदू राष्ट्र के संघ परिवार के एजेंडे के विरोध में लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता की मिसाल थे.

अगर सही में 55 करोड़ के मसले पर गांधीजी को निशाना बनाया गया तो इससे पहले 1934 के बाद से ही लगातार गांधीजी पर हमले क्यों हुए थे? तब कहां 55 करोड़ या भारत पाकिस्तान विभाजन का मसला था? 1930 के बाद ही गांधीजी अपने आइडिया ऑफ इंडिया के विजन का विस्तार कर रहे थे. वह डॉ भीमराव अंबेडकर के साथ पिछड़ों दलित समूह के अधिकार समर्थन कर रहे थे. मनुस्मृति के समर्थक ऊंची जाति के हिंदू संगठन यह बदलाव कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. इसीलिए 1934 के बाद लगातार गांधीजी पर हमले हो रहे थे.

महात्मा गांधी 1934 में अस्पृश्यता विरोधी मुहिम के लिए पूरे देश में घूम रहे थे इसी के तहत 19 जून 1934 को वह पुणे, महाराष्ट्र आए. इसी दौरान 25 जून 1934 को उन पर बम से हमला किया गया. नगर पालिका सभागृह में भाषण देने जा रहे महात्मा गाँधी पर हुए हमले में नगर पालिका के मुख्य अधिकारी दो पुलिस के साथ कुल 7 लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए. गांधीजी उस वक्त पीछे के कार में बैठे हुए थे इसलिए बच गए. इस षड्यंत्र के पीछे जो ग्रुप साजिश रच रहा था, नथुराम गोडसे और नारायण आप्टे इसी ग्रुप का हिस्सा थे. जो लोग इस हमले को अंजाम देते वक्त पकड़े गए थे उनके जूतों में गांधी जी के साथ-साथ नेहरू जैसे अन्य नेताओं की तस्वीरें थी. गांधी जी ने खुद भी यही कहा था कि "मैं 7 बार मृत्यु के समीप जाकर वापस लौटा हूं". इसका मतलब यही था कि कई बार गांधी जी को मारने का प्रयास हुआ था. गांधीजी मई 1944 में जेल से छूटकर आए. मलेरिया से बीमार होने के कारण आराम करने के लिए वह पुणे के नजदीक पंचगनी में आए. इसी दौरान 20 लोगों का एक ग्रुप पंचगनी में आया और पूरे दिन उन्होंने गांधी विरोधी नारे लगाए. यह बात पता चलने पर गांधी जी ने उसमें शामिल नाथूराम गोडसे और साथियों को मिलने के लिए बुलाया. लेकिन गोडसे ने मिलने से इनकार किया. नारे देने वाले युवकों में से एक युवक अपनी जेब से खंजर निकालते हुए महात्मा गांधी के तरफ दौड़ा. उस युवक का नाम था नाथूराम गोडसे. इसी वक्त पास ही में खड़े मणि शंकर पुरोहित और सातारा के भीलारे गुरुजी ने उस युवक को धर दबोचा और उसके हाथ से खंजर छीन लिया. नाथूराम के साथ दूसरा और एक युवक था जो भाग गया. गांधी जी ने गोडसे के पास संदेश भिजवाया कि 8 दिन मेरे पास रहो जिससे मुझे तुम्हारे विचार समझने में आसानी होगी. लेकिन गोडसे ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया. महात्मा गांधी 29 जून 1946 के दिन मुंबई से पुणे रेलवे से यात्रा कर रहे थे. उनकी रेलवे नेरल कर्जत स्टेशन पहुंचने से पहले रेल का एक्सीडेंट हो इसलिए रेलवे मार्ग पर बड़े-बड़े पत्थर फेंके गए थे. रेलवे के ड्राइवर एम एल परेरा थे जिनके सावधानी की वजह से वह एक्सीडेंट टल गया लेकिन रेलवे इंजन का बहुत नुकसान हुआ. इस षड्यंत्र के पीछे भी वही दक्षिणपंथी ग्रुप का हाथ था. इससे पता चलता है कि ऐसे कई हमले गांधीजी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के कार्यकर्ता और गोडसे ने 1948 से पहले ही किए थे. उस वक्त ना ही भारत पाकिस्तान विभाजन का मसला था और ना ही 55 करोड़ का की बात हो रही थी. 

13 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी ने अनशन शुरू किया. 15 जनवरी को मंत्रिमंडल की मीटिंग हुई उसमें 55 करोड़ पाकिस्तान को देने का फैसला हुआ. अगर गांधीजी का यह 55 करोड़ का आग्रह रहता तो वह अनशन वहीं समाप्त करते. लेकिन गांधीजी के अनशन का उद्देश्य दिल्ली में शांति स्थापित करना था. इसीलिए उन्होंने अपना अनशन जारी रखा. गांधी जी का अनशन ख़त्म हो इसलिए डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के अध्यक्षता में सभी धर्मों के 130 प्रतिनिधियों की कमेटी स्थापित की गई जिस पर संघ परिवार और हिंदू महासभा के प्रतिनिधि भी शामिल थे. इस कमेटी द्वारा 17 जनवरी को दिल्ली में पब्लिक मीटिंग की गई. गांधीजी ने अनशन छोड़ने के लिए 7 शर्ते रखी थीं और वह सब मान ली गई हैं ऐसे डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जी ने घोषणा की. यह घोषणा  निम्नलिखित थी.

1) हिंदू मुस्लिम सिख और अन्य धर्म या दिल्ली में भाई भाई की तरह और शांति कायम करते हुए एक साथ मिलजुल कर रहेंगे. मुसलमानों के प्राण और संपत्ति की सुरक्षा करने की प्रतिज्ञा हम लेते हैं. इस तरह के दंगे दिल्ली में फिर ना हों इसलिए सावधानी बरतेंगे.

2) पिछले साल की तरह इस साल भी ख्वाजा कुतुबुद्दीन मजहर का त्योहार मनाया जाएगा इसका आश्वासन हम देते हैं.

3) सब्जी मंडी, करोल बाग, पहाड़गंज और शहर के अन्य इलाकों में मुसलमान पहले जैसे अपने व्यापार कर पाएंगे.

4) जिस मस्जिद का कब्जा हिंदू और सिख भाइयों ने लिया है वह कब्ज़ा छोड़ देंगे और सारी मस्जिदें मुसलमानों के स्वाधीन करेंगे.

5) जो मुसलमान दिल्ली छोड़ के दूर गए हैं और जिनको दिल्ली वापस आना है उस पर किसी की आपत्ति नहीं होगी और वापस लौटे लोग पहले की तरह अपना रोजगार और व्यापार करते रहेंगे इस पर पाबंदी नहीं होगी.

6) यह सारे प्रयास हम व्यक्तिगत तौर पर करेंगे इसके लिए किसी पुलिस या लश्कर की मदद नहीं ली जाएगी.

7) महात्मा गांधी जी हम पर पूरा विश्वास रखें और अपना अनशन खत्म करें और इससे आगे भी हमारा नेतृत्व कर हमें मार्गदर्शन करें.

इस घोषणा में 7 मुद्दों में कहीं पर भी 55 करोड़ का या पाकिस्तान का जिक्र भी नहीं है. यह मांगें मानने के बाद गांधी जी ने 18 जनवरी को अपना अनशन तोड़ा. इससे साफ पता चलता है कि संघ परिवार के प्रचार का आधार झूठ झूठ और सिर्फ झूठ है. संघ के आकाओं का मानना रहा है कि एक ही झूठ को अगर बार बार बोला जाए तो लोग उसे सच मान लेते हैं. देश में आज इनके झूठ और नफरत की राजनीति पैर पसार चुकी है जो लोकतंत्र के लिए घातक है.

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