कई राज्यों में राज्यपाल रह चुके सत्यपाल मलिक अनेक बार कह चुके हैं कि 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में मोदी और भाजपा की जीत में पुलवामा और बालाकोट का काफी बड़ा योगदान था। उन्होंने यह भविष्यवाणी भी की है कि 2024 के चुनाव के ठीक पहले भी कोई और बड़ी घटना हो सकती है।
अयोध्या के राममंदिर में प्राणप्रतिष्ठा को लेकर जो उन्माद उत्पन्न किया गया, उसके चलते यह एक बड़ी घटना बन गया है। ठीक इसी समय सुरन्या अयय्यर, जो एक अधिवक्ता और लेखक हैं, ने उपवास व पश्चाताप किया, जिसे उन्होंने अपने मुस्लिम मित्रों के प्रति “संताप और स्नेह” के 72 घंटे निरूपित किया। उनका दावा है कि उन्हें मुगलों की विरासत पर गर्व है। हम अपने चारों ओर विभाजनकारी और दमघोंटू माहौल बनता देख सकते हैं, जो बहुत डरावना लगता है।
वैसे मंदिरों के उद्घाटन सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के अवसर भी रहे हैं, जो कुछ उदाहरणों से स्पष्ट होगा। सन् 1939 में दिल्ली में लक्ष्मीनारायण मंदिर (बिड़ला मंदिर) का उद्घाटन करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘हिन्दू धर्म के हर अनुयायी को प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिए कि दुनिया का हर ज्ञात धर्म हर दिन फले-फूले और पूरी मानव जाति का हित करे। मुझे उम्मीद है कि इन मंदिरों से सभी धर्मों के एक समान सम्मान का संदेश जाएगा और सांप्रदायिक ईर्ष्या और कलह बीते दिन की बातें बन जाएंगीं”।
लगभग यही बात स्वामी विवेकानंद ने काफी पहले (1897) में कही थी। “भारत में हिन्दुओं ने ईसाईयों के लिए गिरजाघर बनाए हैं और अभी भी बना रहे हैं और उन्होंने मुसलमानों के लिए मस्जिदें भी बनाई हैं”। अपनी पुस्तक ‘लेक्चर्स फ्रॉम कोलंबो टू अल्मोड़ा‘ में स्वामीजी कहते हैं, “कहने की जरुरत नहीं कि इसे समझने के लिए हमें न केवल परोपकारी बनना होगा बल्कि एक दूसरे का सकरात्मक मददगार भी बनना होगा, भले हमारी धार्मिक मान्यताएं और प्रतिबद्धताएं कितनी ही भिन्न क्यों न हों। और भारत में हम ठीक यही करते आए हैं, जैसा कि मैंने आपको अभी-अभी बताया और यही किया जाना चाहिए”।
वर्तमान में माहौल इसके ठीक विपरीत है, जैसा कि सुरन्या के उपवास से जाहिर होता है। यह उन घटनाओं में भी प्रतिबिंबित होता है जिनमें आनंद पटवर्धन की सर्वकालिक क्लासिक “राम के नाम”, जो सेंसर द्वारा अनुमोदित है, का प्रदर्शन आयोजित करने वाले सांस्कृतिक कर्मियों को गिरफ्तार किया जा रहा है और उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किए जा रहे हैं। यह 20 जनवरी को हैदराबाद में हुआ।
दूसरी ओर हैं आरएसएस के अघोषित मुखपत्र ‘आर्गनाईजर’ के संपादक प्रफुल्ल केतकर जैसे लोग, जिनका दावा है कि “अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा दशकों चले राम जन्मभूमि आंदोलन की परिणति मात्र नहीं है, अपितु यह राष्ट्रीय चेतना के पुनर्निर्माण की शुरूआत है”। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक बदलाव और ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ के विचार के विकास की जो प्रक्रिया स्वाधीनता आंदोलन के साथ-साथ चली थी, वह नकार दी गई है और जिसे मोटे तौर पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ कहा जा सकता है, वह अस्तित्व में आ चुका है और हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की ओर सांप्रदायिक शक्तियों ने कई सफल कदम उठा लिए हैं।
भारत के विचार में समाज के विभिन्न वर्गों का एकजुट होकर औपनिवेशिक शक्तियों से संघर्ष करना शामिल था, और इसमें सभी की स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय उपलब्ध कराने का लक्ष्य हासिल करने का प्रयास भी सम्मिलित था। इस व्यापक आंदोलन, जिसका लक्ष्य भारत के विचार को हासिल करना था, वही भारत के संविधान के मूल्यों का आधार बना।
भारत के इस विचार को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनकी जड़ें राजे-रजवाड़ों के मूल्यों में थीं, जिन्हें मोटे तौर पर सामंती मूल्य कहा जा सकता है। इन मूल्यों के केन्द्र में थे जाति, वर्ग और लिंग के जन्म-आधारित पदानुक्रम और यही वे मूल्य हैं जिनका उपयोग मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा को लेकर उन्माद उत्पन्न करने के लिए किया गया। इनके मूल में हैं विभिन्न धर्मों के राजा, जमींदार और उनसे जुड़े विचारक जो मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस जैसे संगठनों के रूप में सामने आए। जहां मुस्लिम सांप्रदायिक शक्तियां सामंती मूल्यों पर पाकिस्तान में अमल कर रही हैं, वहीं हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियां भारत में हर्षित हैं। वे धीरे-धीरे प्रबल होते हुए राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के साथ अर्ध-शिखर पर पहुंच गईं हैं।
आजादी की लड़ाई के दौरान के भारत के मूल्य भगत सिंह, अम्बेडकर और गांधी के विचारों के रूप में प्रकट हुए जिन्होंने आजादी, समानता और बंधुत्व या मेल-जोल पर जोर दिया। राष्ट्रपिता से कुछ मतभेदों के बावजूद, सुभाषचन्द बोस की भी इस ‘भारत के विचार’ के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता थी।
अभिजात जमींदार और मनुस्मृति-पूजक विचारधारा, हिंदू राष्ट्र अर्थात हिन्दुत्व का सामाजिक आधार थी। ये शक्तियों और यह विचारधारा प्रबल होती गईं, विशेषकर पिछले चार दशकों में, और वे दिन पर दिन सांप्रदायिकता के शक्तिशाली होते जाने से बहुत प्रसन्न हैं। वे मंदिर में हुई प्राण प्रतिष्ठा को लेकर भी गांधी और विवेकानंद के नजरिए के विपरीत संकीर्ण विचार व्यक्त कर रहे हैं। सांप्रदायिक राष्ट्रवादी एक विशेष प्रकार के ‘सभ्यतागत मूल्यों’ को और प्रबल बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिसकी जड़ें मनुस्मृति में निहित ब्राम्हणवाद में हैं।
जो लोग मनुस्मृति के मूल्यों से दूर रहने के पक्ष में हैं, जो भारतीयता के झंडे तले सभी को जोड़ना चाहते हैं, जो वर्ग, जाति और लिंग के अंतरों को भूलकर एकता के पक्ष में हैं, उन्हें हिन्दू भारत में तरह-तरह की धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। यह मुस्लिम पाकिस्तान में जो हो रहा है, उसके समानांतर परन्तु उलट है।
ऐसे में आशा की एकमात्र किरण है ‘भारत का विचार’ रखने वाले समाज के उन सभी वर्गों की एकता जिन्होंने मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ी था। उनका आन्दोलन उन ताकतों के खिलाफ है जो धर्म के नाम पर जन्म-आधारित ऊंच-नीच पर गर्वित हैं और जो भारतीय संविधान से ज्यादा महत्व धार्मिक ग्रंथों को देते हैं। मगर इन ताकतों का आन्दोलन बिखरा हुआ है। इस आन्दोलन में शामिल विभिन्न समूहों के हित अलग-अलग हो सकते हैं मगर ज़रुरत इस बात की है कि भारतीय संविधान और आईडिया ऑफ़ इंडिया के प्रति उनकी निष्ठा के आधार पर वे एक साथ काम करें और समूहों और पार्टियों के ऊपर उठें।
आज भी कई ऐसी पार्टियां हैं जो सांप्रदायिकता से दूर हैं। इन पार्टियों के नेताओं ने अपने मतभेदों को भुलाकर, ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ मिलकर संघर्ष किया था। आज जरूरत इस बात की है कि समाज के ऐसे वर्गों के सामाजिक और राजनैतिक गठबंधनों को आगे लाया जाए। औपनिवेशिक सरकार, समाज के अधिकांश तबकों के हितों के खिलाफ थी। इसी तरह, आज जो ध्रुवीकरण की राजनीति के सहारे सत्ता में हैं, वे भी समाज के कमजोर वर्गों के हितों के खिलाफ हैं। पिछले दस सालों में यह एकदम साफ हो गया है।
उन्माद से निपटने के लिए उन्माद पैदा करने की जरूरत नहीं है। हमें उस विचारधारा की जरूरत है जो समाज के कमजोर वर्गों- दलितों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं, श्रमिकों और आदिवासियों को एक करे। ऐसे कई सांझा मूल्य हैं जिनकी रक्षा उन्हें करना है। और उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन से उभरे ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ को भी बचाना है। क्या भारत जोड़ो न्याय यात्रा ऐसे सांझा मंच की स्थापना की दिशा में पहला कदम हो सकता है? यह आज हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
अयोध्या के राममंदिर में प्राणप्रतिष्ठा को लेकर जो उन्माद उत्पन्न किया गया, उसके चलते यह एक बड़ी घटना बन गया है। ठीक इसी समय सुरन्या अयय्यर, जो एक अधिवक्ता और लेखक हैं, ने उपवास व पश्चाताप किया, जिसे उन्होंने अपने मुस्लिम मित्रों के प्रति “संताप और स्नेह” के 72 घंटे निरूपित किया। उनका दावा है कि उन्हें मुगलों की विरासत पर गर्व है। हम अपने चारों ओर विभाजनकारी और दमघोंटू माहौल बनता देख सकते हैं, जो बहुत डरावना लगता है।
वैसे मंदिरों के उद्घाटन सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के अवसर भी रहे हैं, जो कुछ उदाहरणों से स्पष्ट होगा। सन् 1939 में दिल्ली में लक्ष्मीनारायण मंदिर (बिड़ला मंदिर) का उद्घाटन करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘हिन्दू धर्म के हर अनुयायी को प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिए कि दुनिया का हर ज्ञात धर्म हर दिन फले-फूले और पूरी मानव जाति का हित करे। मुझे उम्मीद है कि इन मंदिरों से सभी धर्मों के एक समान सम्मान का संदेश जाएगा और सांप्रदायिक ईर्ष्या और कलह बीते दिन की बातें बन जाएंगीं”।
लगभग यही बात स्वामी विवेकानंद ने काफी पहले (1897) में कही थी। “भारत में हिन्दुओं ने ईसाईयों के लिए गिरजाघर बनाए हैं और अभी भी बना रहे हैं और उन्होंने मुसलमानों के लिए मस्जिदें भी बनाई हैं”। अपनी पुस्तक ‘लेक्चर्स फ्रॉम कोलंबो टू अल्मोड़ा‘ में स्वामीजी कहते हैं, “कहने की जरुरत नहीं कि इसे समझने के लिए हमें न केवल परोपकारी बनना होगा बल्कि एक दूसरे का सकरात्मक मददगार भी बनना होगा, भले हमारी धार्मिक मान्यताएं और प्रतिबद्धताएं कितनी ही भिन्न क्यों न हों। और भारत में हम ठीक यही करते आए हैं, जैसा कि मैंने आपको अभी-अभी बताया और यही किया जाना चाहिए”।
वर्तमान में माहौल इसके ठीक विपरीत है, जैसा कि सुरन्या के उपवास से जाहिर होता है। यह उन घटनाओं में भी प्रतिबिंबित होता है जिनमें आनंद पटवर्धन की सर्वकालिक क्लासिक “राम के नाम”, जो सेंसर द्वारा अनुमोदित है, का प्रदर्शन आयोजित करने वाले सांस्कृतिक कर्मियों को गिरफ्तार किया जा रहा है और उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किए जा रहे हैं। यह 20 जनवरी को हैदराबाद में हुआ।
दूसरी ओर हैं आरएसएस के अघोषित मुखपत्र ‘आर्गनाईजर’ के संपादक प्रफुल्ल केतकर जैसे लोग, जिनका दावा है कि “अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा दशकों चले राम जन्मभूमि आंदोलन की परिणति मात्र नहीं है, अपितु यह राष्ट्रीय चेतना के पुनर्निर्माण की शुरूआत है”। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक बदलाव और ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ के विचार के विकास की जो प्रक्रिया स्वाधीनता आंदोलन के साथ-साथ चली थी, वह नकार दी गई है और जिसे मोटे तौर पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ कहा जा सकता है, वह अस्तित्व में आ चुका है और हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की ओर सांप्रदायिक शक्तियों ने कई सफल कदम उठा लिए हैं।
भारत के विचार में समाज के विभिन्न वर्गों का एकजुट होकर औपनिवेशिक शक्तियों से संघर्ष करना शामिल था, और इसमें सभी की स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय उपलब्ध कराने का लक्ष्य हासिल करने का प्रयास भी सम्मिलित था। इस व्यापक आंदोलन, जिसका लक्ष्य भारत के विचार को हासिल करना था, वही भारत के संविधान के मूल्यों का आधार बना।
भारत के इस विचार को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनकी जड़ें राजे-रजवाड़ों के मूल्यों में थीं, जिन्हें मोटे तौर पर सामंती मूल्य कहा जा सकता है। इन मूल्यों के केन्द्र में थे जाति, वर्ग और लिंग के जन्म-आधारित पदानुक्रम और यही वे मूल्य हैं जिनका उपयोग मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा को लेकर उन्माद उत्पन्न करने के लिए किया गया। इनके मूल में हैं विभिन्न धर्मों के राजा, जमींदार और उनसे जुड़े विचारक जो मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस जैसे संगठनों के रूप में सामने आए। जहां मुस्लिम सांप्रदायिक शक्तियां सामंती मूल्यों पर पाकिस्तान में अमल कर रही हैं, वहीं हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियां भारत में हर्षित हैं। वे धीरे-धीरे प्रबल होते हुए राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के साथ अर्ध-शिखर पर पहुंच गईं हैं।
आजादी की लड़ाई के दौरान के भारत के मूल्य भगत सिंह, अम्बेडकर और गांधी के विचारों के रूप में प्रकट हुए जिन्होंने आजादी, समानता और बंधुत्व या मेल-जोल पर जोर दिया। राष्ट्रपिता से कुछ मतभेदों के बावजूद, सुभाषचन्द बोस की भी इस ‘भारत के विचार’ के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता थी।
अभिजात जमींदार और मनुस्मृति-पूजक विचारधारा, हिंदू राष्ट्र अर्थात हिन्दुत्व का सामाजिक आधार थी। ये शक्तियों और यह विचारधारा प्रबल होती गईं, विशेषकर पिछले चार दशकों में, और वे दिन पर दिन सांप्रदायिकता के शक्तिशाली होते जाने से बहुत प्रसन्न हैं। वे मंदिर में हुई प्राण प्रतिष्ठा को लेकर भी गांधी और विवेकानंद के नजरिए के विपरीत संकीर्ण विचार व्यक्त कर रहे हैं। सांप्रदायिक राष्ट्रवादी एक विशेष प्रकार के ‘सभ्यतागत मूल्यों’ को और प्रबल बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिसकी जड़ें मनुस्मृति में निहित ब्राम्हणवाद में हैं।
जो लोग मनुस्मृति के मूल्यों से दूर रहने के पक्ष में हैं, जो भारतीयता के झंडे तले सभी को जोड़ना चाहते हैं, जो वर्ग, जाति और लिंग के अंतरों को भूलकर एकता के पक्ष में हैं, उन्हें हिन्दू भारत में तरह-तरह की धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। यह मुस्लिम पाकिस्तान में जो हो रहा है, उसके समानांतर परन्तु उलट है।
ऐसे में आशा की एकमात्र किरण है ‘भारत का विचार’ रखने वाले समाज के उन सभी वर्गों की एकता जिन्होंने मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ी था। उनका आन्दोलन उन ताकतों के खिलाफ है जो धर्म के नाम पर जन्म-आधारित ऊंच-नीच पर गर्वित हैं और जो भारतीय संविधान से ज्यादा महत्व धार्मिक ग्रंथों को देते हैं। मगर इन ताकतों का आन्दोलन बिखरा हुआ है। इस आन्दोलन में शामिल विभिन्न समूहों के हित अलग-अलग हो सकते हैं मगर ज़रुरत इस बात की है कि भारतीय संविधान और आईडिया ऑफ़ इंडिया के प्रति उनकी निष्ठा के आधार पर वे एक साथ काम करें और समूहों और पार्टियों के ऊपर उठें।
आज भी कई ऐसी पार्टियां हैं जो सांप्रदायिकता से दूर हैं। इन पार्टियों के नेताओं ने अपने मतभेदों को भुलाकर, ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ मिलकर संघर्ष किया था। आज जरूरत इस बात की है कि समाज के ऐसे वर्गों के सामाजिक और राजनैतिक गठबंधनों को आगे लाया जाए। औपनिवेशिक सरकार, समाज के अधिकांश तबकों के हितों के खिलाफ थी। इसी तरह, आज जो ध्रुवीकरण की राजनीति के सहारे सत्ता में हैं, वे भी समाज के कमजोर वर्गों के हितों के खिलाफ हैं। पिछले दस सालों में यह एकदम साफ हो गया है।
उन्माद से निपटने के लिए उन्माद पैदा करने की जरूरत नहीं है। हमें उस विचारधारा की जरूरत है जो समाज के कमजोर वर्गों- दलितों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं, श्रमिकों और आदिवासियों को एक करे। ऐसे कई सांझा मूल्य हैं जिनकी रक्षा उन्हें करना है। और उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन से उभरे ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ को भी बचाना है। क्या भारत जोड़ो न्याय यात्रा ऐसे सांझा मंच की स्थापना की दिशा में पहला कदम हो सकता है? यह आज हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)