गाँधी की भारत की परिकल्पना और आज का परिदृश्य

Written by Ram Puniyani | Published on: October 6, 2023
हर वर्ष की तरह हम इस साल (2023) में भी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जयंती मना रहे हैं. इस अवसर पर यह बेहतर होगा कि हम उनकी शिक्षाओं को याद करें, विशेषकर हमारे देश के वर्तमान परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में. सारी दुनिया महात्मा गाँधी का कितना सम्मान करती है यह इससे स्पष्ट है कि दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मलेन में भाग लेने आये दुनिया भर के शीर्ष नेताओं ने राजघाट पहुंचकर उन्हें श्रद्धांजलि दी. यह भी साफ़ है कि उस विचारधारा, जिसके कारण गांधीजी को सीने में तीन गोलियां खानी पडीं, के पैरोकार भी उन्हें नज़रअंदाज़ करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. हम सब यह भी जानते हैं कि महात्मा गाँधी की विचारधारा पूरी दुनिया में फैल रही है. परन्तु महात्मा गाँधी के अपने देश भारत में सत्य, अहिंसा और सांप्रदायिक सद्भाव के उनके सिद्धातों के लिए कितनी जगह बची है? क्या गांधीजी के अपने देश भारत में नीतियां बनाते समय बापू के इस सबक को याद रखा जा रहा है कि राज्य को अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के कल्याण को ध्यान में रखना चाहिए?



जिस विचारधारा का इस समय देश में बोलबाला है वह इस्लाम और ईसाई धर्म को विदेशी मानती है. यह समझ अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा की नींव है और इसके कारण भी उनके खिलाफ हिंसा होती है. भारत में लगभग सभी धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं. इसे गांधीजी किस रूप में देखते थे? उन्होंने लिखा था, “निश्चित रूप से भारत के लोगों के महान धर्म हमारे देश के लिए पर्याप्त हैं....” और फिर वे भारत के धर्मों को सूचीबद्ध करते हैं: “ईसाई और यहूदी धर्मों के अलावा, हिन्दू धर्म और उसकी शाखाएं, इस्लाम और पारसी, भारत के जीवंत धर्म हैं,” (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ गाँधी, खंड 46, पृष्ठ 27-28).

आज जिस विचारधारा का बोलबाला है वह हिन्दू समाज की बुराईयों के लिए मुस्लिम आक्रांताओं को ज़िम्मेदार मानती है. उसके अनुसार, मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं का दमन किया. गांधीजी इतिहास को एकदम अलग नज़रिए से देखते थे: “मुस्लिम राजाओं के राज में हिन्दू फले-फुले और हिन्दू राजाओं के काल में मुस्लिम. दोनों पक्षों को यह अहसास था कि आपस में लड़ना आत्मघाती होगा. इसलिए दोनों पक्षों ने शांतिपूर्वक एक साथ रहने का निर्णय लिया. अंग्रेजों के आने के बाद झगड़े फिर शुरू हो गए....क्या मुसलमानों का ईश्वर, हिन्दुओं के ईश्वर से अलग है? सभी धर्म अलग-अलग रास्ते हैं जो एक बिंदु पर मिलते हैं. इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमने कौन-सी सड़क चुनी, जब तक कि हम एक ही मंजिल पर पहुंचें. इसमें लड़ने की क्या वजह है?” 

हिन्दुओं द्वारा इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने को भी बड़ा मुद्दा बनाया जा रहा है. ईसाईयों के विरुद्ध अलग-अलग स्थानों पर भीषण हिंसा हो रही है. गाँधीजी ने लिखा था, “... मुस्लिम शासन के दौरान दोनों कौमों (हिन्दू और मुसलमान) के परस्पर रिश्ते शांतिपूर्ण रहे. यह याद रखा जाना चाहिए कि भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत के पहले भी कई हिन्दुओं ने इस्लाम अपना लिया था. मेरी यह मान्यता है कि अगर देश में मुस्लिम शासन न भी होता, तब भी यहाँ मुसलमान होते और अगर अंग्रेजों का शासन न भी होता, तब भी यहाँ ईसाई होते.” (‘यंग इंडिया’, फरवरी 26, 1925 के अंक में पृष्ठ 75 पर एक बंगाली जमींदार के पत्र पर  टिप्पणी)

गांधीजी के महान अनुयायी नेहरु ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में भारत के बारे में लिखा था: “वह मानो एक प्राचीन स्लेट है जिस पर एक के ऊपर एक अनेक परतों में विचार और सपने लिखे गए परन्तु कोई परत, उसके पहले की परतों में जो कुछ लिखा गया था, उसे न तो पूरी तरह ढँक पाई और न ही मिटा पाई.”  

गांधीजी के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से नफरत भड़काई जा रही है. मुंहजुबानी प्रचार और अन्य चैनलों के ज़रिए यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि गांधीजी ने भगतसिंह की मौत की सज़ा को रुकवाने का प्रयास नहीं किया. सच यह है कि गांधीजी ने लार्ड इरविन को दो पत्र लिखकर यह मांग की थी कि या तो भगतसिंह की फांसी की सज़ा को मुल्तवी कर दिया जाए या उसे आजन्म कारावास में परिवर्तित कर दिया जाए. लार्ड इरविन, गांधीजी के अनुरोध पर विचार कर रहे थे परन्तु पंजाब प्रान्त में पदस्थ ब्रिटिश अधिकारियों ने यह चेतावनी दी कि अगर ऐसा कुछ किया गया तो वे सामूहिक रूप से त्यागपत्र दे देंगे. यह भी याद रखा जाना चाहिए कि गांधीजी ने 1931 में कराची में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में पारित वह प्रस्ताव तैयार किया था जिसमें भगतसिंह को फांसी दिए जाने की निंदा की गई थी.

यह झूठ भी फैलाया जा रहा है कि गांधीजी ने सुभाषचंद्र बोस के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया. सच यह है कि अहिंसा के सिद्धांत और दूसरे विश्वयुद्ध का लाभ उठाते हुए अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के मुद्दों पर दोनों नेताओं में मतभेद थे परन्तु वे दोनों एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे. बोस, गांधीजी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित करते थे और उन्होंने आजाद हिन्द फौज की पहली बटालियन का नाम गांधीजी के नाम पर रखा था. गांधीजी, बोस को ‘देशभक्तों का राजा’ बताते थे और वे जेल में कैद आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों से मिलने गए थे. और जेल में डाल दिए गए फौज के अधिकारियों और सैनिकों के मुकदमों में कांग्रेस नेताओं ने ही उनकी पैरवी की थी.      

इसी तरह, गांधीजी और आंबेडकर के परस्पर मतभेदों को भी भी बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जाता है. आंबेडकर, पृथक निर्वाचन के समर्थक थे वहीं गांधीजी की दृष्टि में आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था बेहतर थी. गांधीजी चाहते थे कि औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध संघर्ष में देश एक बना रहे. बाबासाहेब भी यह मानते थे कि महात्मा गाँधी, स्वाधीनता आन्दोलन के शीर्षतम नेता हैं और अपने दूसरे विवाह, जो अंतरजातीय था, के बाद आंबेडकर ने कहा था कि अगर गांधीजी आज जीवित होते तो वे बहुत प्रसन्न होते. गांधीजी ने ही यह सुनिश्चित किया कि आंबेडकर स्वतंत्र भारत के पहली कैबिनेट में शामिल हों और उन्होंने ही यह सुझाव दिया था कि आंबेडकर को संविधान सभा की मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाया जाए.

हाँ, सरदार पटेल और नेहरु में से कौन भारत का पहला प्रधानमंत्री बने, इस मुद्दे पर गांधीजी ने नेहरु का समर्थन किया था. यह महत्वपूर्ण है कि पटेल और नेहरु दोनों गांधीजी के निकट सहयोगी थे. गांधीजी ने नेहरु को इसलिए चुना क्योंकि उन्हें वैश्विक राजनीति की समझ थी. कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे गांधीजी के बाद, नेहरु आमजनों में सबसे लोकप्रिय थे. वे उम्र में पटेल से कम से और इसलिए देश की प्रगति के लिए अपेक्षाकृत अधिक लम्बे समय तक काम करते रहने में सक्षम थे. परन्तु ये केवल कयास हैं. जहाँ तक नेहरु और पटेल का सवाल है, चंद मुद्दों पर मतभेद के बावजूद, वे एक-दूसरे के बहुत करीब थे. पटेल ने यह कहा था कि नेहरु उनके छोटे भाई होने के साथ-साथ उनके नेता भी हैं.

आज ज़रुरत इस बात की है कि हम नफरत की राह, जिस पर हम चल रहे हैं, के खतरनाक नतीजों पर विचार करें. गांधीजी के ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ के सन्देश ने सभी समुदायों को एक रखा और सबने मिल कर औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष किया. गांधीजी का समाजसुधार का सन्देश, जाति प्रथा के खिलाफ उनका संघर्ष और धार्मिक पहचानों से ऊपर उठकर देश को एक रखने का उनका प्रयास, इन सभी की हमें आज ज़रुरत है. उनके बताये रास्ते पर चलना ही उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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