जीवन के आखिरी सालों में अपने सिद्धांतों को कुचले जाते देख दुखी थे महात्मा गांधी- तुषार गांधी

Written by CJP Team | Published on: October 2, 2023
देश आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मोत्सव मना रहा है। अहिंसा के पुजारी के रूप में पहचाने जाने वाले महात्मा गांधी के जीवन को लेकर सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) ने उनके परपौत्र तुषार गांधी से बात की। इस दौरान उन्होंने बापू के जीवन के अंतिम दिनों को लेकर काफी गहरी बातें कहीं। 



तुषार गांधी ने कहा, उनके जीवन के आख़िरी चार साल, महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत की सबसे कठिन परीक्षा साबित हुए। डायरेक्ट एक्शन डे से  बँटवारे तक जब पूरा हिंदुस्तान क़ौमी नफ़रत और हिंसा की आग में झुलस रहा था, और कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के नेता अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे थे, अकेले बापू , अपनी जान जोखिम में डालते हुए, दिल्ली से नोआख़ाली, बिहार से कलकत्ता तक, अहिंसा की लाठी का सहारा लेते हुए, हिंदुस्तान की एकता के लिए लड़ते रहे। 

तुषार गांधी ने कहा कि इतिहास गवाह है कि बापू की इस क़वायद से देश के पूर्वी हिस्सों में तो वे शांति क़ायम करने में सफल हुए, लेकिन उन्हें नाथूराम गोडसे की गोली का शिकार होना पड़ा। अपनी किताबों में और इस इंटरव्यू में भी, बापू के परपोते तुषार गांधी उनके आख़िरी सालों के बारे में कहते हैं कि इस जाँबाज़ कोशिश के चलते, ख़ासकर उनकी शहादत के फलस्वरूप लगभग पचास साल तक क़ौमी नफ़रत की हवा इस देश में अगर चली भी तो टिक नहीं पाई।

तुषार गांधी बताते हैं कि जब नोआखाली सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा था तब महात्मा गांधी 7 नवंबर 1946 को वहां पहुंचे थे। यह वह समय था जब देश आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था।  महात्मा गांधी उस वक्त  दिल्ली से पंद्रह सौ किलोमीटर दूर सांप्रदायिकता की आग में जल रहे पूर्वी और पश्चिमी बंगाल में अमन बहाली की कोशिशों में जुटे थे।

तुषार गांधी बताते हैं कि वे 125 साल जीने की बात कहते थे लेकिन उन्होंने अपने अंतिम समय में अपने अहिंसा के सिद्धांत को ध्वस्त होता पाया। सांप्रदायिकता की आग में जगह-जगह जल रहे देश के हिस्सों को बिखरते देखना उनके लिए तोड़ देने वाली बात थी। वे अपने जीवन के आखिरी चार सालों में मरने की दुआ करते रहे। महात्मा गांधी के बारे में आज की पीढ़ी जो जानती है वह खासकर गलत ही जानती है। उनके बारे में इतना दुष्प्रचार किया गया है कि आज लोग झूठ को सच मानने लगे हैं। 



तुषार गांधी कहते हैं कि महात्मा गांधी पार्टीशन के अंतिम समय तक विरोध में रहे। लेकिन कोई उनके साथ लड़ने के लिए तैयार नहीं था। आज जो खुद को देशभक्त कहते हैं, उन्होंने कभी नहीं कहा कि गांधीजी हम आपका समर्थन करते हैं। उस वक्त गांधी की आवाज ही इकलौती आवाज विभाजन रोकने के लिए चल रही थी। उन्होंने पार्टीशन होने के बाद भी कहा कि भले ही भूखंड का बंटवारा हो गया हो लेकिन दिलों का बंटवारा नहीं होना चाहिए। 

नोआखाली में शांति के लिए उन्होंने चार महीने की पदयात्रा की। इस दौरान वे नंगे पैर रहे। वे कहते थे कि नोआखाली एक श्मशान भूमि है जहां हजारों बेकसूर लोगों की जान गई है। कलकत्ता में 1946 की हिंसा के बारे में वे कहते हैं कि यहां उस वक्त जो हुआ उसकी तीन लहरें आईं। सबसे पहले मुस्लिम लीग ने अपने गुंडों के जरिए हिंदुओं की हत्या कराई। इसके बाद हिंदुओं ने मुस्लिमों को मारा। इसका असर नोआखाली में दिखाई दिया जहां हिंदू अल्पसंख्यक थे। इसका असर बिहार में हुआ जहां हिंदुओं ने मुसलमानों को काटा। ये हीट की चेन जो हुई उसे लेकर बापू परेशान हो गए। उन्होंने कहा कि अगर मैंने इसे रोकने की कोशिश नहीं की तो यह मुल्क बचेगा नहीं। तब वे नोआखाली गए। नोआखाली में उनकी पदयात्रा के दौरान मुस्लिम लीग ने अवरोध पैदा किये। वे उस वक्त गए थे जब वहां की परिस्थितियां सही नहीं थीं। 

नोआखाली में शांति के लिए उन्होंने जो रणनीति अपनाई वह भी अहम थी। प्यारेलाल नैयर को एक गांव भेजा, सुशीला नैयर को दूसरे गांव भेजा। उन्होंने उनसे कह दिया कि स्थितियां चाहे कैसी भी हों, शांति बहाली तक वहीं रहो। उन्होंने अपने साथियों के लिए एक-एक गांव दे दिया कि वहां जाकर काम करो और शांति प्रस्ताव रखो। उन्होंने उसी दौरान यह भी प्रतिज्ञा ली कि मैं मुसलमान के घर में मेहमान बनकर रहूंगा, अगर मुसलमान मुझे बुलाता है तो। वर्ना मैं किसी पेड़ के नीचे भी पड़ा रहूंगा मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मैं रहूंगा उनके बीच ही। इसका असर यह हुआ कि मुसलमान भी सोचने लगे कि यह बुड्ढा डरता ही नहीं है। अपना जो कहना है उसे कह देता है, किसी की सुनता ही नहीं है। वे मुसलमानों को डांटने के बाद उनके कंधे पर हाथ रखकर पूछते थे कि कुछ समझ में आ रहा है या नहीं, वहां का मुसलमान समझता भी था। इसका असर यह हुआ कि उनके साथ चल रहा प्रेस कोर रिपोर्ट लिख रहा था कि असर तो हो रहा है। 

तुषार गांधी आगे बताते हैं कि उन्होंने नोआखाली के हिंदुओं को आश्वासन दिया था कि मैं आजादी के बाद तुम्हारे बीच रहूंगा। जिसके कारण वे आजादी के कुछ हफ्ते पहले पंजाब से नोआखाली के लिए निकले। इस दौरान वे कलकत्ता पहुंचे तो वहां के मुसलमानों ने कहा कि उन्हें खतरा है कि आजादी के बाद शायद हमें काट दिया जाएगा। सुहरावर्दी ने भी उनसे खतरे का अंदेशा जताया। इस पर गांधीजी ने कहा कि तुम नोआखाली में हिंदुओं पर अत्याचार रुकवाओ मैं यहां तुम्हारा साथ दूंगा। इसका असर यह हुआ कि बांग्लादेश में आज भी हिंदू रह रहे हैं। 

वे आगे कहते हैं कि बापू ने जो लोगों को समझाया उसका असर यह हुआ कि देश 50 साल तक सुरक्षित रहा। 60 साल के बाद से हमने चरमपंथियों की ताकत को बढ़ते हुए देखा है। तुषार गांधी कहते हैं कि मैं तो मानता हूं कि गांधी मर्डर षड़यंत्र का सबसे बड़ा नेता मोहनदास करमचंद गांधी ही थे। क्योंकि वे जान रहे थे कि शांति बनाए रखने के लिए देश को एक बड़ा झटका देने की जरूरत है। इसीलिए जब उनपर गोली चली तो हर आदमी सोचने लगा कि उन तीन गोलियों में से एक गोली उसी ने चलाई है। हर हिंदुस्तानी को ऐहसास हुआ कि मैंने ही मेरे बाप का कत्ल किया है। 
Related:
'गांधी गोडसे-एक युद्ध': क्या वैकल्पिक नैरेटिव वास्तव में संभव है?
सर्व सेवा संघ: आखिर गांधी-जेपी की विरासत को बुलडोजर ने रौंद डाला, बिलखते रहे गांधीवादी
1992 से 2022: किस तरह से इंडियन स्टेट और समाज दोनों को लक्षित और रूपांतरित किया गया है

बाकी ख़बरें