अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन ने भरी हुंकार, कहा- वन विभाग को देश से खदेड़ कर रहेंगे

Written by Navnish Kumar | Published on: March 29, 2021
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन द्वारा वनाधिकार मान्यता कानून के क्रियान्वयन को लेकर तीन दिन के संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया और सरकार द्वारा व्यक्तिगत एवं सामूहिक वनाधिकारों की अनदेखी तथा बड़े पैमाने पर दावे फार्मों के निरस्तीकरण आदि को लेकर रोष जताया। साथ ही, वनाधिकार आंदोलन को अखिल भारतीय स्तर पर मजबूत करने तथा वन विभाग को जंगल से खदेड़ने तक चैन से नहीं बैठने का भी ऐलान किया। 



सहारनपुर के नागल-माफी बेहट स्थित भारती सदन में आयोजित संवाद कार्यक्रम में यूनियन से जुड़े देश-प्रदेश के सैकडों वनाधिकार कार्यकर्ताओं ने भाग लिया और अपने अपने क्षेत्र में वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन और पेश आ रही चुनौतियों को लेकर बात रखी। ज्यादातर कार्यकर्ताओं का कहना था कि वन व राजस्व अधिकारी उनके (वनाधिकार) दावों को और दावेदारों को गैरजरूरी-गैरकानूनी तौर से अपात्र घोषित कर दें रहे हैं, जबकि कानूनन वह ऐसा कर भी नहीं सकते हैं। उनका काम साक्ष्य व दस्तावजों को, ग्राम वनाधिकार समिति को उपलब्ध कराना होता हैं। यही नहीं, अगर किसी दावे में कोई खामी आदि हैं भी, तो भी अधिकारी दावा निरस्त नहीं कर सकते हैं। बल्कि उसे ग्राम सभा को लौटाना होता है। अंतिम निर्णय ग्राम सभा को ही लेना होता है। लेकिन हजारों-लाखों की संख्या में दावेदारों को, जो 2005 के पूर्व से काबिज काश्त चले आ रहे हैं, अधिकारियों की लापरवाही की वजह से अपात्र घोषित कर दिया गया है और किया जा रहा है। यही नहीं, जिन लोगों को व्यक्तिगत अधिकार (पत्र) दिए गए हैं वह भी आधे-अधूरे हैं। टोंगिया या वन गांवों को राजस्व गांव का दर्जा देने को लेकर भी ऐसी ही आधी-अधूरी स्थिति हैं जबकि सामुदायिक अधिकारों का तो अभी खाता ही नहीं खुल सका है, 'कोरा' पड़ा है। उत्तराखंड में तो व्यक्तिगत दावों का भी कुछ पता नहीं हैं। उल्टे अभी भी जमीनों को वन भूमि के तौर पर दर्ज किया जा रहा है। यही कारण हैं कि उत्तराखंड में वन भूमि क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है। आलम यह है कि उत्तर प्रदेश से अलग होते समय उत्तराखंड में 64% वन भूमि थी जो आज बढ़कर 72 प्रतिशत हो गई है। यह भी तब है जब खेती व आय का जरिया छीनने से बड़े पैमाने पर लोग पहाड़ से पलायन कर रहे हैं। हजारों गांव खाली हो गए हैं।

केंद्रीय अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वनाधिकार मान्यता) कानून-2006 की पृष्ठभूमि में जाएं तो आदिवासियों से बड़े पैमाने पर छीनी गई यही सब जमीनें हैं जिसे वन-भूमि घोषित कर दिया गया और जिसके कारण वहां खेती कर रहे आदिवासियों और वनवासियों को अचानक अवैध घोषित कर दिया गया और उन्हें खेती करने से रोकने को तरह-तरह से परेशान किया गया और किया जा रहा है। इसी उत्पीड़न को दूर करने को आए, वनाधिकार कानून की प्रस्तावना में भी, अरसे से जारी इस उत्पीड़न को ‘ऐतिहासिक अन्याय’ की संज्ञा देते हुए, दूर करने का भरोसा दिया गया और आदिवासियों व वनाश्रित समुदाय के वनाधिकार को मान्यता प्रदान किए जाने की बात कही गई है। 

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के संवाद कार्यक्रम में दूर-दूर से आए वनाधिकार कार्यकर्ताओं ने कहा कि वन विभाग उनके साथ, जंगलों का भी दुश्मन है। कहा, विभाग का गठन ही वनों के कटान के लिए हुआ था। जबकि उनके तो पुरखे भी जंगलों में जन्मे हैं और अरसे से रहते आ रहे हैं। कहा आदिवासियों और परंपरागत वनवासियों से उनकी भूमि और वन संसाधनों के मालिकाना हकों को छीनकर वन विभाग को जंगलों का थानेदार बना देना तब भले औपनिवेशिक हुकूमत का राजनैतिक व आर्थिक ध्येय रहा होगा, लेकिन आजादी के 74 बरस बाद, उसी चरित्र के साथ खड़े औपनिवेशिक वन प्रशासन के वजूद पर आज सवाल खड़े किए ही जाने चाहिए। वैसे भी वन विभाग का वैधानिक लक्ष्य हरित क्षेत्र का संरक्षण होता तो सघन वनों के क्षेत्रफल में लगातार गिरावट जारी नहीं रहती? वहीं, यदि वन विभाग का प्रशासनिक दायित्व वन भूमि की रक्षा थी/है तो लाखों हेक्टेयर वन भूमि के अधिग्रहण पर वो मौन क्यों हैं? 

यही नहीं, आधे-अधूरे वनाधिकारों और राजस्व दरजे को लेकर भी लोगों में रोष दिखा। इसलिए ग्रामसभा स्तर पर दस्तावेज उपलब्ध कराते हुए दावा प्रक्रिया पुनः शुरू करने की जरुरत है। वहीं जहां जरूरत है वहां ग्राम सभाओं और ग्राम वनाधिकार समितियों का पुनर्गठन कराया जाए। ताकि दावों की जांच, सत्यापन व अनुमोदन ग्रामसभा स्तर पर पूर्ण किया जा सके। उन्होंने कहा- अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे में खोल व टोला आदि बस्तियां हैं जहां अभी ग्रामसभाएं गठित किया जाना शेष है।

यही नहीं, कार्यक्रम में कोविड काल में (वनाधिकार) आंदोलन की स्थिति को लेकर भी मंथन हुआ। वक्ताओं ने कहा कि कोरोना काल में जहां ज्यादातर संगठन खाली बैठ गए हैं वहां यूनियन कार्यकर्ताओं का ''जूम'' बैठकों आदि के माध्यम से जुड़े रहने और निरंतर संवाद/गतिविधि जारी रखने को लेकर संतोष जताया गया। यही नहीं, यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी ने इसी आधार पर संगठन को अपनी भूमिका विस्तृत करने और देश भर में विस्तारित करने का प्रस्ताव रखा। 

चौधरी ने कहा कि यूनियन कार्यकर्ता न सिर्फ कोरोना काल में ''जूम'' व प्रशिक्षण बैठकों आदि के माध्यम से जुड़े रहे और वनाधिकार को लेकर गतिविधि जारी रखीं बल्कि लखीमपुर खीरी (पलिया) आदि में सामूहिक दावों को लेकर शानदार कामयाबी भी हासिल की है। जबकि दूसरे संगठन इस (कोरोना काल) दौरान लगभग निष्क्रिय बने रहे। कहा, सभी यूनियन कार्यकर्ता अनुभवी हैं। सभी 15-20 साल से निरंतर संगठन से जुड़े हैं। उनका यही अनुभव संगठन को नित नई कामयाबी से जोड़ रहा है। इसलिए संगठन के, राष्ट्रीय भूमिका निभाने को तैयार रहने का यह एकदम उपयुक्त समय है। यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा ने फोन पर साथियों को संबोधित किया और राष्ट्रीय स्तर पर भूमिका निभाने के लिए कार्यकर्ताओं की हौसला अफजाई की।

यूनियन के वरिष्ठ पदाधिकारी संगठन सचिव मुन्नीलाल व रजनीश ने आगामी कार्यक्रमों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि वनाधिकार को लेकर सभी ज़िलों में प्रदर्शन करने हैं जिसमें दूसरे ज़िले के साथी भी शामिल हो। वहीं, सभी जिलों में सामूहिक वनाधिकार को दावा फार्म भरने पर सहमति बनी। मातादयाल, रानी, सुकालो गोंड़ आदि ने एक सुर में वन विभाग को जंगल से खदेड़ने का आह्वान किया।

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