संभल हिरासत में मौत का मामला: सिस्टम की नाकामी एक बार फिर उजागर हुई

Written by sabrang india | Published on: January 25, 2025
उत्तर प्रदेश के संभल में हुई दुखद घटनाओं ने एक बार फिर देश में हिरासत में होने वाली मौत, सांप्रदायिक तनाव और सरकार की जवाबदेही के मुद्दे को उजागर किया है। यह नैरेटिव मुख्य धारा मीडिया की रिपोर्टों और स्वतंत्र पत्रकारों द्वारा जमीनी स्तर पर किए गए पड़ताल के साथ साथ सभी संबंधित स्रोतों से लिए गए सबूतों और साक्षात्कार का विश्लेषण करके घटनाओं, परिणामों और उनके व्यापक निहितार्थों की सावधानी के साथ जांच करती है।



इरफान की हिरासत में मौत

संभल निवासी 40 वर्षीय इरफ़ान को कर्ज न चुकाने का आरोप लगाने वाली शिकायत के बाद 20 जनवरी, 2025 को पुलिस ने हिरासत में लिया था। हिरासत में लिए जाने के कुछ ही घंटों के भीतर इरफान की मौत हो गई। उनके परिवार ने आरोप लगाया कि पुलिस को उनकी गंभीर हालत के बारे में बताने के बावजूद उन्हें जरूरी दवाएं नहीं दी गईं। उन्होंने अधिकारियों पर हिरासत में टॉर्चर करने का आरोप लगाया जिसको पुलिस ने कर दिया। पुलिस ने दावा किया कि इरफान को दिल का दौरा पड़ा था और सबूत के तौर पर सीसीटीवी फुटेज का हवाला दिया।

इरफान के बेटे के साथ साथ अन्य प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि पुलिस ने इरफान को उसकी दवा लेने की इजाजत देने के लिए बार-बार किए गए रिक्वेस्ट को नजरअंदाज कर दिया। उनकी पत्नी रेशमा ने कहा कि परिवार ने इरफान की हार्ट की परेशानी के बारे में अधिकारियों को बताया था, फिर भी उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। इस लापरवाही को न केवल एक प्रक्रियात्मक चूक के तौर पर बल्कि कैदी के अधिकारों और बुनियादी मानवता के लिए सिस्टेमेटिक उपेक्षा के रूप में उजागर किया गया। पड़ोसियों और समाज के अन्य सदस्यों की गवाही ने इरफान को कानून का पालन करने वाला व्यक्ति बताया है। इरफान की गिरफ्तारी और हिरासत में हुई मौत स्थानीय लोगों के लिए बेहद चौंकाने वाली घटना थी।

परिवार द्वारा दिए गए मेडिकल रिपोर्ट में हृदय संबंधी बीमारियों के बारे में बताया गया था, जिससे पुलिस द्वारा उनकी सेहत के मामले में नजरअंदाज करने पर सवाल उठता है। कानूनी विशेषज्ञों ने बताया कि बीएनएसएस (पहले सीआरपीसी) के तहत प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा जारी दिशा-निर्देशों की खुलेआम अनदेखी की गई। हिरासत में लेने से पहले कोई मेडिकल जांच नहीं की गई, जो एनएचआरसी के आदेशों का भारी उल्लंघन है।


हिरासत में मौत की यह घटना ऐसे राज्य में हुई जहां इस तरह के कई मामले सामने आए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, हिरासत में मौतों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है जो पुलिस की जवाबदेही और कानूनी प्रक्रियाओं के पालन में प्रणालीगत खामियों की ओर इशारा करता है।

नारजगी और विरोध

इरफान की मौत की खबर तेजी से फैली जिससे संभल में लोगों बड़े पैमाने पर नाराजगी है। सैकड़ों स्थानीय लोग, कार्यकर्ता और नेता रायसत्ती पुलिस चौकी के बाहर इकट्ठा हुए और हिरासत में टॉर्चर के एक गंभीर मामले के लिए न्याय और जवाबदेही की मांग की। हाथों में बैनर लिए प्रदर्शनकारियों ने नारे लगाए जिसमें घटना की स्वतंत्र जांच की मांग की गई। जरूरी मेडिकल केयर न करने और अमानवीय व्यवहार के आरोपों को लेकर लोगों में गुस्सा और बढ़ गया। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि तनाव बढ़ने पर पुलिस चौकी को छोड़कर चले गए, जिससे यह अस्थायी रूप से खाली हो गई। स्थिति को संभालने और व्यवस्था बहाल करने के लिए रैपिड एक्शन फोर्स के साथ साथ पुलिस बल को तैनात किया गया।

राजनीतिक गलियारों से आई प्रतिक्रियाओं ने इन विरोधों के महत्व को और बढ़ा दिया। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने हिरासत में हुई मौत की निंदा करते हुए इसे भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के तहत “कानून के शासन पर एक काला धब्बा” बताया। उन्होंने प्रशासन पर पुलिस की ज्यादतियों के लिए दंड से छुटकारे को संस्थागत बनाने का आरोप लगाया। इसी तरह, भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने हिरासत में हुई मौतों की एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति की ओर इशारा किया, जो वंचित समुदायों को प्रभावित कर रही है। उन्होंने जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की मांग की और ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए व्यवस्थित पुलिस सुधारों का आह्वान किया।


समाज के नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि संभल में विरोध प्रदर्शन अल्पसंख्यक समूहों के बीच गहरे असंतोष को दर्शाते हैं, जो पुलिस कस्टडी में मौतों को संस्थागत पक्षपात का प्रतीक मानते हैं। कार्यकर्ताओं ने उत्तर प्रदेश में ऐसी घटनाओं की ज्यादा संख्या का जिक्र किया है। उनका कहना है कि इस तरह के कृत्य कानून प्रवर्तन यानी पुलिस में विश्वास को खत्म करते हैं, खासकर अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में। यह विरोध प्रदर्शन न्याय के लिए एक आवाज बन गया, जिसने प्रणालीगत असमानताओं और पुलिस के दुर्व्यवहार के व्यापक मुद्दों की ओर ध्यान खींचता है।

न्यायिक आयोग की जांच

बड़े पैमाने पर सार्वजनिक दबाव और बढ़ती राष्ट्रीय जांच के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने संभल में इरफान की हिरासत में मौत और हिंसा की अन्य हालिया घटनाओं की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन किया। सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश देवेंद्र अरोड़ा की अध्यक्षता में, आयोग ने घटनाओं की गहन जांच करने के लिए इलाके का दौरा किया। इस जांच का उद्देश्य प्रक्रियात्मक खामियों को उजागर करना और यह जांचना था कि हिरासत में इरफान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ या नहीं।

आयोग ने इरफान के परिवार, समाज के सदस्यों और स्थानीय पुलिस अधिकारियों के बयान दर्ज करने के साथ साथ कई पड़ताल किए। इसने पोस्टमार्टम रिपोर्ट सहित मेडिकल के सबूतों की भी समीक्षा की, जिसमें पुलिस के आधिकारिक के बयान में विसंगतियां पाई गईं। रिपोर्टों ने अनिवार्य प्रक्रियाओं के पालन में कमी को उजागर किया जैसे कि गिरफ्तारी के बाद मेडिकल जांच की आवश्यकता जो NHRC दिशानिर्देशों और CrPC (अब BNSS) के तहत निर्धारित है।

इरफान के मामले की जांच करने के अलावा, आयोग ने संभल में पुलिस के आचरण के व्यापक मुद्दों की समीक्षा करने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का विस्तार भी किया। इसमें 24 नवंबर, 2024 को हुए दंगों की जांच शामिल थी, जो शाही जामा मस्जिद के पास एक विवादास्पद भूमि सर्वे के दौरान भड़के थे। गवाहों ने कहा कि पुलिस की निष्क्रियता और देरी से की गई कार्रवाई ने सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा दिया, जिससे व्यापक हिंसा हुई और संपत्ति का नुकसान हुआ। कई लोगों ने आरोप लगाया कि अधिकारियों ने बाद की कार्रवाई के दौरान कुछ समुदायों को निशाना बनाया।

व्यवस्थागत चिंताएं और उनके दूरगामी परिणाम

संभल में हिरासत में हुई हिंसा कोई अकेली घटना नहीं है, बल्कि यह उन व्यवस्थागत समस्याओं का प्रतिबिंब है जो देश भर में कानून प्रवर्तन को प्रभावित कर रही हैं। उदाहरण के लिए, 15 दिसंबर, 2024 को महाराष्ट्र के परभणी में सोमनाथ सूर्यवंशी का मामला इसी तरह के पैटर्न को दर्शाता है। संविधान की प्रतिकृति के बेअदबी से भड़की सांप्रदायिक हिंसा के बाद 35 वर्षीय दलित कार्यकर्ता सूर्यवंशी को गिरफ्तार किया गया था। न्यायिक हिरासत में रहते हुए, उन्होंने सीने में दर्द की शिकायत की और उसके तुरंत बाद एक सरकारी अस्पताल में उनकी मौत हो गई। उनके परिवार ने पुलिस की बर्बरता का आरोप लगाया, दावा किया कि उन्हें उनकी दलित पहचान और एक्टिविज्म के लिए निशाना बनाया गया। इसके चलते बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें राहुल गांधी के साथ साथ अन्य नेताओं ने दावा किया कि सूर्यवंशी की मौत "शत प्रतिशत हिरासत में हुई मौत" थी। विरोध प्रदर्शनों ने न्याय की मांग को तेज कर दिया और कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा पॉवर के दुरुपयोग के बार-बार होने वाले उदाहरणों को उजागर किया, खासकर वंचित समुदायों के खिलाफ। ये घटनाएं जवाबदेही सुनिश्चित करने और हिरासत में हिंसा को शासन का सामान्य पहलू बनने से रोकने के लिए प्रणालीगत सुधारों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती हैं।

हिरासत में मौत और यातना को नियंत्रित करने वाला कानूनी ढांचा

भारत में हिरासत में टॉर्चर और मौत के कानूनी निहितार्थ विधायी प्रवर्तन और प्रणालीगत जवाबदेही दोनों में अहम खामियों को उजागर करते हैं। संवैधानिक आदेशों, आपराधिक कानून प्रावधानों और एनएचआरसी के दिशानिर्देशों के अनुसार, हिरासत में हिंसा मानवाधिकारों और न्यायिक निर्देशों का भारी उल्लंघन है। संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को सुनिश्चित करता है, जिसमें अमानवीय व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा शामिल है। यह अनुच्छेद 22 द्वारा समर्थित है, जो गिरफ्तारी और हिरासत के दौरान प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा प्रदान करता है। फिर भी, इन संवैधानिक गारंटियों को व्यवस्थागत दुरुपयोग से कमजोर किया जाता है।

सीआरपीसी की जगह लेने वाली भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023, ऐसे उल्लंघनों को रोकने के लिए महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय पेश करती है। धारा 196 हिरासत में मौत या बलात्कार से जुड़े मामलों में मजिस्ट्रेट जांच का आदेश देती है, निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए कार्यकारी मजिस्ट्रेटों की तुलना में न्यायिक या महानगरीय मजिस्ट्रेटों की भूमिका पर जोर देती है। धारा 194 जिला मजिस्ट्रेटों को जांच करने का अधिकार देती है, जो पारदर्शी जांच सुनिश्चित करने में नागरिक अधिकारियों की बढ़ती जिम्मेदारी पर प्रकाश डालती है। ये प्रावधान सीआरपीसी की धारा 176(1ए) के तहत पूर्व दिशानिर्देशों के अनुरूप हैं, लेकिन न्यायिक ढांचे के भीतर जवाबदेही को केंद्रीकृत करके प्रवर्तन की खामियों को दूर करने का प्रयास करते हैं।

एनएचआरसी दिशानिर्देश स्वतंत्र रूप से शव परीक्षण, मौतों की तत्काल रिपोर्टिंग और समयबद्ध जांच को अनिवार्य बनाकर इसे और मजबूत करते हैं। हालांकि, इन सुरक्षा उपायों के बावजूद प्रवर्तन कमजोर बना हुआ है। आंकड़ों से पता चलता है कि प्रतिदिन पांच से ज्यादा कस्टोडियल मौतें होती हैं, जो कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा शक्ति के निरंतर दुरुपयोग को उजागर करती हैं।

न्यायिक निर्णयों ने हमेशा कस्टोडियल परिस्थितियों में उचित प्रक्रिया के महत्व पर जोर दिया है। बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 1997 (1) एससीसी 416 में सर्वोच्च न्यायालय ने हिरासत में टॉर्चर को रोकने के लिए व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए, जिसमें गिरफ्तारी ज्ञापन, पारिवारिक अधिसूचना और कानूनी प्रतिनिधित्व तक पहुंच को अनिवार्य बनाया गया। इसी तरह, सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन 1980 एससीसी (3) 488 में सर्वोच्च न्यायालय ने थर्ड-डिग्री मेथड और मनमाने तरीके से हथकड़ी लगाने की निंदा की और उन्हें अनुच्छेद 21 और 19 का उल्लंघन बताया।

संभल और परभणी जैसे मामलों में इन सुरक्षा उपायों का पालन न करना न केवल संस्थागत पूर्वाग्रह को रेखांकित करता है, बल्कि प्रणालीगत सुधारों की तत्काल आवश्यकता को भी उजागर करता है। यह जरूरी है कि पुलिस प्रशिक्षण में मानवाधिकारों का दृष्टिकोण शामिल हो और नागरिक समाज प्रवर्तन की खामियों को दूर करने के लिए एक वाचडॉग के तौर पर काम करे। इसके अलावा, टॉर्चर के खिलाफ यूएन कनवेंशन को लागू करने में भारत की विफलता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जवाबदेही तंत्र को संस्थागत बनाने के लिए बड़े पैमाने पर हिचकिचाहट को दर्शाता है। हिरासत में बढ़ती हिंसा की प्रवृत्ति के साथ यह हिचकिचाहट लोगों की गरिमा और अधिकारों की रक्षा के लिए तत्काल विधायी और प्रशासनिक हस्तक्षेप की मांग करती है।

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