नोटबदली - जनता को परेशान कर सत्ता पर दीर्घकालिक कब्जे की तैयारी

नरेन्द्र मोदी ने विदेशी बैंकों में जमा काले धन को वापस भारत लाने की बात की थी। वह तो हुआ नहीं उल्टे उन्होंने भारत से बाहर धन ले जाने की सीमा 75,000 डॉलर से बढ़ा कर ढाई लाख डॉलर कर दी। एक बार देश का पैसा बाहर चला गया फिर उसका हमारी अर्थव्यवस्था में योगदाम खत्म हो गया।






हलांकि कई लोग, जिनमें से इस लेख का एक लेखक भी शामिल था, काफी दिनों से यह सुझाव दे रहे थे कि भ्रष्टाचार कम करने के लिए बड़े नोटों, खासकर रु. 500 व रु. 1000 के नोट बंद किए जाएं लेकिन जो नरेन्द्र मोदी सरकार कर रही है वैसा नहीं सोचा गया था। यह माना गया था कि, भले ही काला धन नकद में सिर्फ 6 प्रतिशत ही है, बड़े नोटों का प्रचलन बंद हो जाने से बड़ा काला धन छुपाना व बड़ी घूस देना असुविधाजनक हो जाएगा। यह कभी नहीं सोचा गया था कि नए बड़े नोट पुनः अर्थव्यवस्था में ले आए जाएंगे। इन पर स्थाई प्रतिबंध की मांग की गई थी। नए बड़े नोटों को लाकर तो नए भ्रष्टाचार और काले धन को उत्पन्न करने की संभावनाएं खोल दी गई हैं। यहां यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जिसे नोटबंदी कहा जा रहा है वह असल में तो नोटबदली ही है।

जिस तरह से आप अपना ही कितना पैसा निकाल सकते हैं और कितना जमा करा सकते हैं इसके नियम रोज-रोज बदले जाते रहे उसने पूरी वित्तीय व्यवस्था का मजाक बना कर रख दिया। पुराने नोटों को जमा करने की अंतिम तिथि से एक हफ्ते से भी पहले भारतीय रिजर्व बैंक ने घोषणा कर दी कि एक बार में सिर्फ रु. 5000 ही जमा कर सकते हैं। वित मंत्री ने कहा कोई सीमा नहीं होगी लेकिन जितना जमा करना है एक बार में ही जमा करें। दो दिनों तक स्थिति अस्पष्ट बनी रही और फिर दोनों ही निर्णय वापस ले लिए गए। ऐसा प्रतीत होता है कि कोई बहुत सोच-समझ कर निर्णय नहीं लिए जा रहे थे और प्रधान मंत्री समेत मंत्रियों व भारतीय रिजर्व बैंक समेत बैंकों में तालमेल का अभाव दिखा। भारतीय रिजर्व बैंक ने बड़ी मेहनत से अपनी जो एक स्वायत्त छवि बनाई थी, वह सारी घूल में मिल गई। अब वह प्रधान मंत्री व वित मंत्री के इशारे पर नाच रहा है।


एक तरफ कहा गया कि आप 49.5 प्रतिशत कर देकर काला धन जमा करा सकते हैं लेकिन जब कोई काला धन जमा कराने की कोशिश करता तो आयकर विभाग उसके पीछे पड़ जाता। लोग कतारों में खड़े होकर जब अपना पैसा निकालने जाते तो सरकार द्वारा घोषित सीमा तक भी नकद नहीं मिल पा रहा था। कुछ लोग शुरू की भीड़ से बचने के लिए थोड़ा बाद में लेकिन घोषित अंतिम तारीख 30 दिसंबर से एक हफ्ते पहले भी पहुंचे तो उनसे पूछा जाने लगा कि इतनी देर से क्यों आए? आपातकाल लागू होने को छोड़कर कभी भी स्वतंत्र भारत में सरकार ने खुद ही व्यवस्था को इस तरह बंधक नहीं बनाया है। अपनी घोषणाओं पर खुद ही नहीं टिकी रही और वादा कर पीछे जाती रही। बैंक व्यवस्था की विश्वसनीयता को दीर्घकालिक नुकसान पहुंचा है। अब लोग बैंकों व उनके निर्णयों को संदेह से देखेंगे।


नए नोटों के बाजार में आने के कुछ ही दिनों के अंदर ही बड़ी-बड़ी रकमें पकड़ी जाने लगीं जिसमें पूरे या आंशिक रूप से नए नोट शामिल थे। सवाल यह है कि जब बैंक व ए.टी.एम. से पैसा निकालने की सीमा क्रमशः रु. 24,000 व रु. 2,000 तय थी तो इतनी बड़ी रकमें आईं कहां से? क्या यह बैंक अधिकारियों की मिली भगत के बिना संभव है? लेकिन नोटबदली लागू होने के बाद लाखों-करोड़ों के साथ कुछ व्यापारियों या दलालों के पकड़े जाने की तो खबरें आईं किंतु उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही की खबर सुनने को नहीं मिली जिनकी वजह से लाखों-करोड़ों मूल्य के नए नोट बैंकों से बाहर आ गए। किसी जाने-माने पूंजीपति या व्यापारिक घराने, खासकर जो काला धन का कारोबार करने के लिए जाने जाते हैं के यहां छापा पड़ने की कोई खबर सुनने को नहीं मिली।


तो विचित्र स्थिति यह हो गई कि सामान्य नागरिक को तो बैकों को अपनी जायज आय के बारे में जवाब देना पड़ रहा था और नाजायज धन रखने वालों को छुआ तक नहीं गया। चूंकि ज्यादातर पुराने रु. 500 व रु. 1000 के नोट बैंकों में वापस आ चुके हैं अतः जिनके पास था भी उन्होंने काले धन को सफेद कर लिया है।

न ही किसी बड़े नेता या राजनीतिक दल के कार्यालय में छापा पड़ा जबकि इस देश में काले धन के संस्थागत अस्तित्व की मूल वजह उसका चुनाव में इस्तेमाल होना है। यह सार्वजनिक जानकारी है कि देश में सबसे ज्यादा अज्ञात स्रोत से धन दो राजनीतिक दलों, कांग्रेस व भाजपा को मिलता है। पिछले दस वर्षों में क्रांग्रेस व भाजपा को कुल मिलकर रु. 5,450 धन ऐसा मिला, जो अधिकांश शायद काला होगा, यानी उसपर कर नहीं दिया गया होगा। यह धन या तो बड़े व्यापारिक घरानों का होगा अथवा सरकारी योजनाओं या परियोजनाओं में हुए भ्रष्टाचार की देन होगा। लेकिन उन अधिकारियों के खिलाफ भी कोई कार्यवाही नहीं हुई जो राजनीतिक दलों के एजेंट के रूप में काम करते हैं और जिनकी सम्पत्ति उनके आय के ज्ञात स्रोतों से निश्चित रूप से ज्यादा है।

इसके गम्भीर मायने हैं। चूंकि उन लोगों को छुआ तक नहीं गया जो चुनावों में लगने वाले काले धन का कारोबार करते हैं, तो चुनाव अभी भी भ्रष्टाचार से ही पोषित होते रहेंगे। फिर इस तमाशे की क्या जरूरत थी?
      
2015-16 में राजनीति दलों को जो रु. 20,000 से ऊपर का चंदा मिला उसमें भाजपा को 613 दानदाताओं ने रु. 76.85 करोड़ दिया जबकि कांग्रेस को 918 दानदाताओं ने रु. 20.42 करोड़ दिया। भाजपा को जो धन मिला वह अन्य छह राष्ट्रीय दलों, जिसमें माकपा, भाकपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व तृणमूल कांग्रेस भी शामिल हैं के कुल चंदे से तीन गुना अधिक था। गौर करने योग्य बात यह है कि भाजपा को रु. 67.99 करोड़ 283 निजी कम्पनियों से मिला और कांग्रेस को रु. 8.83 करोड़ 57 कम्पनियों से। भाजपा को शेष रु. 8.86 करोड़ 330 व्यक्तियों ने दिया और कांग्रेस का शेष रु. 11.24 करोड़ 859 व्यक्तियों से आया। कांग्रेस को रु. 8.11 करोड़ देने वाले 318 लोगों के व भाजपा को रु. 2.19 देने वाले 71 लोगों के पैन कार्ड विवरण अनउपलब्ध थे। उपर्युक्त से पता चलता है कि भाजपा जिसको पिछले तीन वित्तीय वर्षों से ही कांग्रेस से ज्यादा चंदा मिलना शुरू हुआ है को पांच गुना ज्यादा निजी कम्पनियां सात गुना ज्यादा चंदा दे रही हैं। इसी तरह भाजपा को चंदा देने वाले व्यक्तियों की संख्या भले ही कम हो लेकिन वे ज्यादा बड़ी रकमें दे रहे हैं। भाजपा को चंदा देने वाला व्यक्ति व्यवस्था के नियम ज्यादा अच्छी तरह समझता है इसलिए नकद रहित व्यवस्था उसके ज्यादा अनुकूल है बनिस्पत बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टियों के पारम्परिक दानदाताओं के। कांग्रेस को रु. 20,000 के ऊपर धनराशि में कुल रु. 1.17 करोड़ नकद मिले जबकि भाजपा को सिर्फ रु. 51,000।
      
लेकिन बड़ा पैसा तो रु. 20,000 से कम वाले चंदों से आता हैे जिनके स्रोत अज्ञात होते हैं। यह धन पार्टी के कुल चंदे का आधे से ज्यादा से लेकर 80 प्रतिशत तक होता है। 2014-15 में भाजपा के रु. 970 करोड़ में से रु. 505 करोड़ अज्ञात स्रोत से था। क्रांगेस के रु. 593 करोड़ में रु. 445 करोड़ इस तरह की राशि थी। चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार रु. 20,000 से कम के चंदे का स्रोत बताना जरूरी नहीं है।
      
असल में तो राजनीतिक दल जो काले धन का इस्तेमाल करते हैं वह घोषित अज्ञात स्रोतों से कहीं ज्यादा होता होगा।
      
सच तो यह है कि सभी दल काले धन का इस्तेमाल चुनावों में करते हैं। इसलिए सबने मिलकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल को अवरुद्ध किया। साफ है कि अन्य दलों की तुलना में भाजपा को ज्यादा अमीर लोगों व बड़ी कम्पनियों से धन मिल रहा है। वह उन्हीं के मुताबिक नीतियां बनाएगी। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि नरेन्द्र मोदी ने भू-अधिग्रहण कानून में तीन बार संशोधन का प्रयास किया ताकि किसान की भूमि अधिग्रहित करना आसान हो जाए। मायावती ने उ.प.्र में रिलायंस फ्रेश के स्टोर नहीं लगने दिए और नीतीश कुमार ने बिहार में विशेष आर्थिक क्षेत्र नहीं बनने दिए। उनकी सोच कम्पनियों के दबाव से अपने को मुक्त रखना है। जबकि नरेन्द्र मोदी निजी कम्पनियों और अमीरों के लिए ही काम कर रहे हैं।

नरेन्द्र मोदी ने विदेशी बैंकों में जमा काले धन को वापस भारत लाने की बात की थी। वह तो हुआ नहीं उल्टे उन्होंने भारत से बाहर धन ले जाने की सीमा 75,000 डॉलर से बढ़ा कर ढाई लाख डॉलर कर दी। एक बार देश का पैसा बाहर चला गया फिर उसका हमारी अर्थव्यवस्था में योगदाम खत्म हो गया।

क्या काला धन ही हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी समस्या थी?
      
जिसे देश में अभी लोग पूरी तरह से साक्षर भी नहीं हैं और जो हैं भी उनकी काबिलियत संदिग्ध है, जहां बहुसंख्यक आबादी किसान, मजदूर, छोटा व्यापारी, दुकानदार, थोक विक्रेता व अनौपचारिक क्षेत्र में लगे उद्यमी नकद का इस्तेमाल करते हैं वहां हमारी अपेक्षा है कि लोग मोबाइल फोन और कार्ड के सहारे पैसों का लेन-देन करें? इसमें लोगों के लिए क्या सुविधा होगी? हां, मोबाइल कम्पनियों और किस्म-किस्म की कम्पयूटर कम्पनियों जो मोबाइल या कार्ड से भुगतान करने की व्यवस्थाएं बना रहीे हैं उनका फायदा जरूर है। अब उन्हें अपना प्रचार करने की भी जरूरत नहीं क्योंकि सरकार ही उनका प्रचार कर रही है। लेकिन भारत का ग्रामीण और शहरी गरीब खासकर महिलाएं, आदिवासी, दलित इस व्यवस्था का हिस्सा बन जाएंगे यह कैसे सम्भव होगा? निरक्षर और गरीब लोगों के ऊपर इस तरह की व्यवस्था थोपना भी उनके साथ अन्याय है।
      
विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां डेªज ने रांची में 85 दुकानकारों, ठेले वालों व व्यापारियों के एक सर्वेक्षण में पाया कि इस वर्ग की औसत आय जब से नोटबदली लागू हुई एक माह की अवधि में 46 प्रतिशत गिर गई, यानी आधी हो गई है। औसत लोगों को एक माह में 13 घंटे बैंकों व ए.टी.एम. के सामने खड़ा रहना पड़ा। कुछ लोग 30-40 घंटे भी बैंकों में खड़े रहे। रांची की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था नकद पर चलती है और वह बुरी तरह प्रभावित हुई। किसान को दाम न मिलने के अभाव में अपनी उपज ऐसे ही बाजार में छोड़ देनी पड़ी, लोग जरूरी चीजें नहीं खरीद पाए, कुछ लोगों ने अपने यहां काम करने वालों को तनख्वाह न दे पाने की स्थिति में निकाल दिया और मजदूर को भी काम मिलने में दिक्कत आई। कुछ लोगों को तो खाने के भी लाले पड़ गए। कम बिक्री, कम आय, कम खर्च, कम रोजगार के दुष्चक्र से बाहर आने में समय लगेगा। रांची जैसी ही स्थिति देश के शेष शहरों और गांवों की है। नकदविहीन व्यवस्था लागू करने के चक्कर में सरकार ने लोगों के पास पैसा होते हुए भी उन्हें धनविहीन बना दिया है।
      
बैकों और ए.टी.एम. की कतार में खड़े पूरे देश में करीब सौ लोग अपनी जान से हाथ धो चुके हैं। सरकार कहती है कि जनता को काले धन के खिलाफ लड़ाई में थोड़ा कष्ट झेलना पड़ेगा। यदि जनता से यह अपेक्षा की जा रही है कि वह अपना कर्त्वय निभाए तो कतारों में खड़े लोगों की मृत्यु की जिम्मेदारी भी सरकार को लेनी चाहिए और सीमा पर शहीद हुए सैनिक या किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा में मरे लोगों के परिवारों की तरह इन लोगों के परिवारों को भी मुआवजा मिलना चाहिए। अखिलेश यादव ने तो उत्तर प्रदेश में मरे 14 लोगों के परिवारों को दो-दो लाख रुपए का मुआवजा देकर पहल की है लेकिन यह जिम्मेदारी तो मुख्यतः केन्द्र सरकार की है।
      
2013-14 से 2015-16 तक 29 सरकारी बैंकों ने निजी कम्पनियों का रु. 1.14 लाख करोड़ रुपए कर्ज माफ कर दिया। यह पिछले 9 सालों में माफ किए गए कुल कर्ज से ज्यादा है। दस बड़ी कम्पनियों ने सरकारी बैंकों व वित्तीय संस्थानों से कुल 6 करोड़ रुपए कर्ज लिए हुए हैं। सरकार के मुताबिक सरकारी बैंकों के 2,071 खातों में रु. 3.38 लाख करोड़ कर्ज दिया गया जिसकी वापसी की सम्भावना कम है। देश के सबसे अमीर लोगों के कर्ज सरकार माफ करती है और आम इंसान को दोषी बना कर कतारों में खड़ा कर, उसके लिए नकद की कृत्रिम कमी पैदा कर, उसके रोजगार पर संकट खड़ा कर परेशान करती है अथवा कुछ छोटे व्यापारियों या दलालों के यहां छापे डाल जनता की आंखों में धूल झोंकने का काम करती है।
      
जनता का छोटा-छोटा धन जबरन बैंकों में जमा करा सरकार निजी कम्पनियों और अमीर लोगों द्वारा बैंकों का पैसा हड़प जाने से पैसों की कमी को पूरी कर रही है और शायद पुनः वैसे ही लोगों को बड़े कर्ज में दे दिया जाए। वाह रे बैंकिग व्यवस्था। सरकार को बड़े कर्ज लिए हुए लोगों से वसूली करने के लिए जो उन्हें जवाबदेह बनाने का काम करना चाहिए वह करती हुई वह नहीं दिख रही। विजय मल्लया, ललित मोदी, सुब्रत राय या बाबा रामदेव के प्रति वह नर्म दिखाई पड़ती है। मजे की बात यह है कि ये सभी महानुभाव एक से बढ़ कर एक राष्ट्रवादी हैं। विजय मल्लया इंग्लैण्ड में निलामी में टीपू सुल्तान की तलवार रु. एक करोड़ देकर वापस लाए थे, ललित मोदी ने भारत में फटाफट क्रिकेट की प्रतियोगिता शुरू की जिसमें दुनिया भर के खिलाड़ी खेलने आते हैं, सुब्रत राय के मुख्यालय के सामने भारतमाता की बड़ी तस्वीर है और उनकी कम्पनी सहारा के एक साथ एक लाख से ऊपर कर्मचारियों का राष्ट्रगान गाने का विश्व रिकार्ड कायम किया गया है और बाबा रामदेव तो योग और आयुर्वेद की धाक पूरी दुनिया में जमा रहे हैं। शायद राष्ट्रवाद और बड़े पैसे खासकर कालेधन का आपस में कोई सम्बंध है?
      
कुल मिलाकर नोटबदली को लागू करने में सरकार के कुप्रबंधन का खामियाजा जनता को भोगना पड़ रहा है। जनता के गुस्से को सुनहरे सपने दिखाकर या राष्ट्रवाद का घूंट पिला कर नियंत्रित किया गया है लेकिन भविष्य कोई बेहतर होने वाला है इसके कोई आसार तो दिखाई नहीं पड़ते।
 

 

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