पदों के खाली रहने के कारण न्याय न मिलना संविधान में दिए गए न्याय पाने के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सभी नागरिकों को प्राप्त है, लेकिन आयोगों में लंबित शिकायतें इस अधिकार का हनन कर रही हैं।
मध्य प्रदेश अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और राज्य महिला आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियों के अभाव में बड़ी संख्या में शिकायतें लंबित हैं। इस स्थिति में शिकायतकर्ताओं को न्याय कैसे मिलेगा, यह चिंता का विषय है। यह समस्या पिछले साल मार्च से जारी है। इस बीच, इन आयोगों के पास बड़ी संख्या में शिकायतें पहुंच रही हैं, लेकिन पद खाली होने के कारण किसी का निपटारा नहीं हो पा रहा है। शिवराज सिंह चौहान सरकार के बाद बनी डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार भी इन आयोगों में नियुक्तियां नहीं कर पाई है, जिसके कारण ये संवैधानिक संस्थाएं बुनियादी कामकाज तक सीमित रह गई हैं।
राज्य महिला आयोग के एक कर्मचारी ने द मूक नायक को नाम न छापने की शर्त पर बताया कि आयोग को प्रतिमाह लगभग 300 शिकायतें मिलती हैं। साल भर में यह संख्या लगभग तीन हजार तक पहुंच जाती है। इनमें से कुछ शिकायतें, जिनका आयोग से सीधा संबंध नहीं होता, उन्हें निरस्त कर दिया जाता है। बाकी शिकायतों पर संबंधित विभाग से प्रतिवेदन मंगाया जाता है, लेकिन अंतिम निर्णय के लिए अध्यक्ष या सदस्य की नियुक्ति अनिवार्य होती है। यही हाल अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग का भी है, जहां हजारों मामलों का निपटारा अब तक नहीं हो पाया है।
पदों के खाली रहने के कारण न्याय न मिलना संविधान में दिए गए न्याय पाने के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सभी नागरिकों को प्राप्त है, लेकिन आयोगों में लंबित शिकायतें इस अधिकार का हनन कर रही हैं। संवैधानिक संस्थाओं के कार्यों में इस तरह की बाधा नागरिकों के मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन है।
राज्य अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग और महिला आयोग जैसी संस्थाओं के पास सिविल न्यायालय की शक्तियां हैं। ये आयोग विभागीय जांच की समीक्षा कर संबंधित अधिकारियों की पेशी लगाकर सुनवाई करते हैं और शासन को अनुशंसा भेजते हैं। परंतु अध्यक्ष या सदस्यों के बिना ये शक्तियां निष्प्रभावी हो जाती हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, इन नियुक्तियों में देरी का प्रमुख कारण वर्ष 2020 से लंबित न्यायिक विवाद बताया गया है। कमलनाथ सरकार द्वारा की गई नियुक्तियों को भाजपा सरकार ने रद्द कर दिया था, जिसके खिलाफ नियुक्त सदस्य न्यायालय पहुंचे। जबलपुर हाईकोर्ट ने सरकार के इस फैसले पर रोक लगा दी, लेकिन इस बीच आयोगों के कार्यकाल में भी कोई ठोस निर्णय नहीं हो पाया। राज्य अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व सदस्य प्रदीप अहिरवार के अनुसार, "सरकार ने नियुक्तियां रद्द कर संवैधानिक प्रक्रिया में रुकावट डाली, जिसका सीधा असर जनता को न्याय मिलने पर पड़ा।"
महिला आयोग में करीब 35 हजार मामले लंबित
महिला आयोग की स्थिति और भी गंभीर है। पूर्व सदस्य संगीता शर्मा ने द मूकनायक को बताया, “जब मैंने 2020 में कार्यभार संभाला था, तब आयोग में दस हजार मामले पहले से लंबित थे। आज यह संख्या 35 हजार से भी अधिक हो गई है।” उनका कहना है कि सरकार महिलाओं के अधिकारों की बात तो करती है, लेकिन आयोग में नियुक्तियों के अभाव में महिलाओं को न्याय नहीं मिल पा रहा है।
संवैधानिक अधिकार का हनन
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 में नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए अदालत जाने का अधिकार प्रावधानित है। लेकिन जब संवैधानिक आयोगों में न्याय प्रदान करने वाले प्रमुख पद खाली हों तो यह अधिकार एक औपचारिकता बनकर रह जाता है। आयोगों में लंबित पड़ी 60 हजार से अधिक शिकायतें इस बात की गवाह हैं कि जनता को न्याय दिलाने की संवैधानिक प्रक्रिया बाधित हो रही है।
रिपोर्ट के अनुसार, महिला और अनुसूचित जाति/जनजाति आयोगों में करीब 60 हजार मामले लंबित हैं। इनका निपटारा तब ही हो सकता है जब इन आयोगों में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति की जाएगी। फिलहाल यह साफ नहीं है कि ये नियुक्तियां कब होंगी। हर दिन बड़ी संख्या में शिकायतें आयोगों के पास पहुंच रही हैं, जिनका निपटारा फिलहाल केवल प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में है, जो पर्याप्त नहीं है। हाल ही में डॉ. मोहन यादव ने परसीमन आयोग का गठन किया है। सरकार अन्य कार्यों को अंजाम दे रही है, ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि सरकार एससी/एसटी और महिला आयोग जैसे महत्वपूर्ण आयोगों में नियुक्तियां क्यों नहीं कर रही है।
मध्य प्रदेश अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और राज्य महिला आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियों के अभाव में बड़ी संख्या में शिकायतें लंबित हैं। इस स्थिति में शिकायतकर्ताओं को न्याय कैसे मिलेगा, यह चिंता का विषय है। यह समस्या पिछले साल मार्च से जारी है। इस बीच, इन आयोगों के पास बड़ी संख्या में शिकायतें पहुंच रही हैं, लेकिन पद खाली होने के कारण किसी का निपटारा नहीं हो पा रहा है। शिवराज सिंह चौहान सरकार के बाद बनी डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार भी इन आयोगों में नियुक्तियां नहीं कर पाई है, जिसके कारण ये संवैधानिक संस्थाएं बुनियादी कामकाज तक सीमित रह गई हैं।
राज्य महिला आयोग के एक कर्मचारी ने द मूक नायक को नाम न छापने की शर्त पर बताया कि आयोग को प्रतिमाह लगभग 300 शिकायतें मिलती हैं। साल भर में यह संख्या लगभग तीन हजार तक पहुंच जाती है। इनमें से कुछ शिकायतें, जिनका आयोग से सीधा संबंध नहीं होता, उन्हें निरस्त कर दिया जाता है। बाकी शिकायतों पर संबंधित विभाग से प्रतिवेदन मंगाया जाता है, लेकिन अंतिम निर्णय के लिए अध्यक्ष या सदस्य की नियुक्ति अनिवार्य होती है। यही हाल अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग का भी है, जहां हजारों मामलों का निपटारा अब तक नहीं हो पाया है।
पदों के खाली रहने के कारण न्याय न मिलना संविधान में दिए गए न्याय पाने के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सभी नागरिकों को प्राप्त है, लेकिन आयोगों में लंबित शिकायतें इस अधिकार का हनन कर रही हैं। संवैधानिक संस्थाओं के कार्यों में इस तरह की बाधा नागरिकों के मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन है।
राज्य अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग और महिला आयोग जैसी संस्थाओं के पास सिविल न्यायालय की शक्तियां हैं। ये आयोग विभागीय जांच की समीक्षा कर संबंधित अधिकारियों की पेशी लगाकर सुनवाई करते हैं और शासन को अनुशंसा भेजते हैं। परंतु अध्यक्ष या सदस्यों के बिना ये शक्तियां निष्प्रभावी हो जाती हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, इन नियुक्तियों में देरी का प्रमुख कारण वर्ष 2020 से लंबित न्यायिक विवाद बताया गया है। कमलनाथ सरकार द्वारा की गई नियुक्तियों को भाजपा सरकार ने रद्द कर दिया था, जिसके खिलाफ नियुक्त सदस्य न्यायालय पहुंचे। जबलपुर हाईकोर्ट ने सरकार के इस फैसले पर रोक लगा दी, लेकिन इस बीच आयोगों के कार्यकाल में भी कोई ठोस निर्णय नहीं हो पाया। राज्य अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व सदस्य प्रदीप अहिरवार के अनुसार, "सरकार ने नियुक्तियां रद्द कर संवैधानिक प्रक्रिया में रुकावट डाली, जिसका सीधा असर जनता को न्याय मिलने पर पड़ा।"
महिला आयोग में करीब 35 हजार मामले लंबित
महिला आयोग की स्थिति और भी गंभीर है। पूर्व सदस्य संगीता शर्मा ने द मूकनायक को बताया, “जब मैंने 2020 में कार्यभार संभाला था, तब आयोग में दस हजार मामले पहले से लंबित थे। आज यह संख्या 35 हजार से भी अधिक हो गई है।” उनका कहना है कि सरकार महिलाओं के अधिकारों की बात तो करती है, लेकिन आयोग में नियुक्तियों के अभाव में महिलाओं को न्याय नहीं मिल पा रहा है।
संवैधानिक अधिकार का हनन
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 में नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए अदालत जाने का अधिकार प्रावधानित है। लेकिन जब संवैधानिक आयोगों में न्याय प्रदान करने वाले प्रमुख पद खाली हों तो यह अधिकार एक औपचारिकता बनकर रह जाता है। आयोगों में लंबित पड़ी 60 हजार से अधिक शिकायतें इस बात की गवाह हैं कि जनता को न्याय दिलाने की संवैधानिक प्रक्रिया बाधित हो रही है।
रिपोर्ट के अनुसार, महिला और अनुसूचित जाति/जनजाति आयोगों में करीब 60 हजार मामले लंबित हैं। इनका निपटारा तब ही हो सकता है जब इन आयोगों में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति की जाएगी। फिलहाल यह साफ नहीं है कि ये नियुक्तियां कब होंगी। हर दिन बड़ी संख्या में शिकायतें आयोगों के पास पहुंच रही हैं, जिनका निपटारा फिलहाल केवल प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में है, जो पर्याप्त नहीं है। हाल ही में डॉ. मोहन यादव ने परसीमन आयोग का गठन किया है। सरकार अन्य कार्यों को अंजाम दे रही है, ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि सरकार एससी/एसटी और महिला आयोग जैसे महत्वपूर्ण आयोगों में नियुक्तियां क्यों नहीं कर रही है।
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