अदालत ने सभी जिलों के कलेक्टरों को निर्देश दिया है कि वे एक निर्धारित समय सीमा के भीतर कुपोषण की स्थिति की रिपोर्ट प्रस्तुत करें। हाईकोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि वह इस मामले को केवल औपचारिकता नहीं बनने देगा।

प्रतीकात्मक तस्वीर ; साभार : टीओआई
मध्य प्रदेश में बच्चों और महिलाओं के बीच बढ़ते कुपोषण और उससे जुड़ी बीमारियों को लेकर जबलपुर हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई है। याचिका में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया गया है कि प्रदेश में 10 लाख से ज्यादा बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जिनमें से 1.36 लाख बच्चे गंभीर रूप से अतिकुपोषित हैं। वहीं, प्रदेश की महिलाओं में एनीमिया की दर चिंताजनक है। करीब 57% महिलाएं खून की कमी से पीड़ित हैं।
इस पर संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने गहरी चिंता जताई है और सभी जिलों के कलेक्टर्स से कुपोषण की स्थिति पर विस्तृत रिपोर्ट तलब की है।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति विनय सराफ की युगलपीठ ने राज्य शासन, मुख्य सचिव और अन्य संबंधित विभागों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। यह जनहित याचिका जबलपुर निवासी सामाजिक कार्यकर्ता दिपांकर सिंह की ओर से अधिवक्ताओं अमित सिंह सेंगर, अतुल जैन, अनूप सिंह सेंगर और कोविदा त्रिपाठी के जरिए दायर की गई है।
पोषण स्तर के मामले एमपी दूसरे स्थान पर
दाखिल याचिका में पोषण ट्रैकर 2.0 और हालिया स्वास्थ्य सर्वेक्षणों का हवाला देते हुए बताया गया है कि मध्य प्रदेश देश में कुपोषण के मामलों में दूसरे स्थान पर पहुंच गया है। याचिकाकर्ता के अनुसार, प्रोटीन और विटामिन की भारी कमी के चलते बच्चों की शारीरिक वृद्धि रुक रही है, जिससे वे सामान्य कद-काठी की तुलना में छोटे (ठिगने) और बेहद दुर्बल होते जा रहे हैं। राज्य का स्थान कम वजन वाले (अंडरवेट) बच्चों की श्रेणी में भी देशभर में दूसरा है।
858 करोड़ के पोषण घोटाले का आरोप
याचिका में यह भी आरोप लगाया गया है कि गर्भवती महिलाओं, किशोरियों, स्तनपान कराने वाली माताओं और छोटे बच्चों के लिए वितरित किए जाने वाले पोषण आहार में व्यापक अनियमितताएं पाई गई हैं। याचिकाकर्ता ने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि पोषण आहार की गुणवत्ता, आपूर्ति और परिवहन व्यवस्था में लगभग 858 करोड़ रूपये का भ्रष्टाचार उजागर हुआ है।
इसमें यह भी जिक्र किया गया है कि प्रदेशभर में अधिकांश आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों की वास्तविक उपस्थिति बेहद कम है, इसके बावजूद कागजों पर मध्याह्न भोजन और पोषण आहार का नियमित वितरण दर्शाया जा रहा है। उदाहरण के लिए, जबलपुर जिले में आंगनबाड़ी केंद्रों के किराए के भुगतान के रूप में 1.80 रूपये करोड़ खर्च किए गए, जबकि जांच में इन केंद्रों में बच्चों की संख्या काफी कम पाई गई। राज्य में प्रति केंद्र औसतन 40 से 50 बच्चों का पंजीकरण है, लेकिन उपस्थिति नगण्य है।
स्थानीय अखबारों की रिपोर्ट के अनुसार, ग्वालियर जिले के आदिवासी बहुल हरसी गांव में दो साल दो महीने की एक बच्ची प्रियंका आदिवासी कुपोषण की भयावहता का जीवंत उदाहरण है। प्रियंका का वजन मात्र 4.3 किलोग्राम है, जबकि चिकित्सकीय मानकों के अनुसार इस आयु वर्ग के बच्चे का वजन लगभग 12 किलोग्राम होना चाहिए। मेडिकल श्रेणियों के अनुसार, प्रियंका एसडी-4 स्टेज यानी अत्यधिक कुपोषण (Severe Acute Malnutrition - SAM) की श्रेणी में आ चुकी है।
बच्ची को हाल ही में उसे एनआरसी (Nutrition Rehabilitation Centre) भितरवार में भर्ती किया गया, लेकिन हालत चिंताजनक होने के चलते शुक्रवार को उसे ग्वालियर मेडिकल कॉलेज रेफर करना पड़ा।
परियोजना अधिकारी ओमप्रकाश सिंह ने इसको लेकर मीडिया को बताया, "बच्ची के माता-पिता पिछले छह माह से बाहर थे इसलिए उसकी पहचान नहीं हो पाई। जैसे ही हमें इसकी जानकारी मिली, तुरंत उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया है।"
मौलिक अधिकारों का उल्लंघन
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार प्राप्त है, जिसमें पोषणयुक्त भोजन की उपलब्धता भी शामिल है। इसके अलावा, बच्चों के अधिकार संरक्षण आयोग और सुप्रीम कोर्ट की विभिन्न गाइडलाइंस के अनुसार बच्चों को उचित पोषण प्रदान करना सरकार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। ऐसे में, यदि लाखों बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, तो यह सीधे तौर पर संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन है।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि वह इस मुद्दे को केवल औपचारिकता नहीं बनने देगा। अदालत ने सभी जिलों के कलेक्टरों को एक निश्चित समय सीमा के भीतर कुपोषण की स्थिति की रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है। आगामी सुनवाई में इसी रिपोर्ट को मुख्य आधार बनाया जाएगा।
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मध्य प्रदेश में बच्चों और महिलाओं के बीच बढ़ते कुपोषण और उससे जुड़ी बीमारियों को लेकर जबलपुर हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई है। याचिका में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया गया है कि प्रदेश में 10 लाख से ज्यादा बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जिनमें से 1.36 लाख बच्चे गंभीर रूप से अतिकुपोषित हैं। वहीं, प्रदेश की महिलाओं में एनीमिया की दर चिंताजनक है। करीब 57% महिलाएं खून की कमी से पीड़ित हैं।
इस पर संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने गहरी चिंता जताई है और सभी जिलों के कलेक्टर्स से कुपोषण की स्थिति पर विस्तृत रिपोर्ट तलब की है।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति विनय सराफ की युगलपीठ ने राज्य शासन, मुख्य सचिव और अन्य संबंधित विभागों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। यह जनहित याचिका जबलपुर निवासी सामाजिक कार्यकर्ता दिपांकर सिंह की ओर से अधिवक्ताओं अमित सिंह सेंगर, अतुल जैन, अनूप सिंह सेंगर और कोविदा त्रिपाठी के जरिए दायर की गई है।
पोषण स्तर के मामले एमपी दूसरे स्थान पर
दाखिल याचिका में पोषण ट्रैकर 2.0 और हालिया स्वास्थ्य सर्वेक्षणों का हवाला देते हुए बताया गया है कि मध्य प्रदेश देश में कुपोषण के मामलों में दूसरे स्थान पर पहुंच गया है। याचिकाकर्ता के अनुसार, प्रोटीन और विटामिन की भारी कमी के चलते बच्चों की शारीरिक वृद्धि रुक रही है, जिससे वे सामान्य कद-काठी की तुलना में छोटे (ठिगने) और बेहद दुर्बल होते जा रहे हैं। राज्य का स्थान कम वजन वाले (अंडरवेट) बच्चों की श्रेणी में भी देशभर में दूसरा है।
858 करोड़ के पोषण घोटाले का आरोप
याचिका में यह भी आरोप लगाया गया है कि गर्भवती महिलाओं, किशोरियों, स्तनपान कराने वाली माताओं और छोटे बच्चों के लिए वितरित किए जाने वाले पोषण आहार में व्यापक अनियमितताएं पाई गई हैं। याचिकाकर्ता ने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि पोषण आहार की गुणवत्ता, आपूर्ति और परिवहन व्यवस्था में लगभग 858 करोड़ रूपये का भ्रष्टाचार उजागर हुआ है।
इसमें यह भी जिक्र किया गया है कि प्रदेशभर में अधिकांश आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों की वास्तविक उपस्थिति बेहद कम है, इसके बावजूद कागजों पर मध्याह्न भोजन और पोषण आहार का नियमित वितरण दर्शाया जा रहा है। उदाहरण के लिए, जबलपुर जिले में आंगनबाड़ी केंद्रों के किराए के भुगतान के रूप में 1.80 रूपये करोड़ खर्च किए गए, जबकि जांच में इन केंद्रों में बच्चों की संख्या काफी कम पाई गई। राज्य में प्रति केंद्र औसतन 40 से 50 बच्चों का पंजीकरण है, लेकिन उपस्थिति नगण्य है।
स्थानीय अखबारों की रिपोर्ट के अनुसार, ग्वालियर जिले के आदिवासी बहुल हरसी गांव में दो साल दो महीने की एक बच्ची प्रियंका आदिवासी कुपोषण की भयावहता का जीवंत उदाहरण है। प्रियंका का वजन मात्र 4.3 किलोग्राम है, जबकि चिकित्सकीय मानकों के अनुसार इस आयु वर्ग के बच्चे का वजन लगभग 12 किलोग्राम होना चाहिए। मेडिकल श्रेणियों के अनुसार, प्रियंका एसडी-4 स्टेज यानी अत्यधिक कुपोषण (Severe Acute Malnutrition - SAM) की श्रेणी में आ चुकी है।
बच्ची को हाल ही में उसे एनआरसी (Nutrition Rehabilitation Centre) भितरवार में भर्ती किया गया, लेकिन हालत चिंताजनक होने के चलते शुक्रवार को उसे ग्वालियर मेडिकल कॉलेज रेफर करना पड़ा।
परियोजना अधिकारी ओमप्रकाश सिंह ने इसको लेकर मीडिया को बताया, "बच्ची के माता-पिता पिछले छह माह से बाहर थे इसलिए उसकी पहचान नहीं हो पाई। जैसे ही हमें इसकी जानकारी मिली, तुरंत उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया है।"
मौलिक अधिकारों का उल्लंघन
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार प्राप्त है, जिसमें पोषणयुक्त भोजन की उपलब्धता भी शामिल है। इसके अलावा, बच्चों के अधिकार संरक्षण आयोग और सुप्रीम कोर्ट की विभिन्न गाइडलाइंस के अनुसार बच्चों को उचित पोषण प्रदान करना सरकार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। ऐसे में, यदि लाखों बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, तो यह सीधे तौर पर संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन है।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि वह इस मुद्दे को केवल औपचारिकता नहीं बनने देगा। अदालत ने सभी जिलों के कलेक्टरों को एक निश्चित समय सीमा के भीतर कुपोषण की स्थिति की रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है। आगामी सुनवाई में इसी रिपोर्ट को मुख्य आधार बनाया जाएगा।
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