छत्तीसगढ़ की धर्मनगरी रतनपुर की ऐसी शादी जो रूढ़ियों के बजाय संविधान की शपथ से पूर्ण हुई

Written by Mithun Prajapati | Published on: January 12, 2019
मैं अक्सर शादियों में जाने से बचता हूँ। मन तो बहुत होता है पर कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो मन को बहुत खटकती हैं, मसलन दहेज देकर लड़की के बाप का मुरझाया चेहरा, दहेज नगण्य लगने के कारण लड़के के बाप का गुस्से से तमतमाता चेहरा, शादी के बाद अचानक घूंघट में डाल दी गई लड़की, उसके मांग में भरा पौवा भर सिन्दूर.... ।  पर कुछ दिन पहले जब मित्र प्रिया शुक्ला और अनुज श्रीवास्तव की शादी में पहुँचने का निमंत्रण मिला तो अपने आप को रोक न सका। शादी के 'डिजिटल कार्ड' पर लिखी शादी में होने वाली नई रस्मों और कुछ अलग देखने की चाहत ने मुझे उनकी शादी पहुंचने पर विवश कर दिया।

शादी 23 दिसंबर 2018 को छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के रतनपुर गांव के एक मंदिर के प्रांगण में थी। मैं और मेरे मित्र मयंक तथा आमिर शादी के एक दिन पहले ही शाम को रतनपुर के उस मंदिर परिसर में पहुंच गए जहां शादी होनी थी। शादी तो मंदिर के प्रांगण में थी पर इस शादी का मंदिर से कुछ लेना देना नहीं था, जैसा कि शादी के कार्ड में लिखा था यह शादी विशुद्ध रूप से गैर धार्मिक तरीके से होनी थी। हम रात के करीब 8 बजे वहाँ पहुँचे। परिसर में करीब सौ डेढ़ सौ लोग थे। अनुज और प्रियंका के कुछ साथी जो अपने बैंड के साथ प्रांगण में उपस्थित थे लोक संगीत के साथ लोगों का मनोरंजन कर रहे थे। चारों तरफ खुशी का माहौल था। इस परिसर में उपस्थित लोगों में प्रियंका और अनुज के अलावा शायद ही मैं किसी को जानता था पर जिस तरह से हमारे पहुँचने पर लोगों ने स्वागत किया और गर्मजोशी से मिले ऐसा बिलकुल भी नहीं लगा कि हम कहीं नई जहग पर आए हैं।  

अनुज से मेरी मुलाकात दो साल पहले 'मोर्चे पर कवि मुम्बई' के कार्यक्रम में हुई थी। अनुज मुम्बई में रहकर थियेटर से जुड़े रहे और वे मुम्बई में जसम नामक संस्था के हिस्सा भी रहे। पेशे से रंगकर्मी कुछ हद तक पत्रकार और बेहतरीन आवाज के धनी अनुज से मैं बहुत प्रभावित हुआ। कुछ दिन बाद जब अनुज अपने क्षेत्र बिलासपुर लौटे तो यहाँ की समस्याओं, सरकारी शोषण आदिवासियों पर अत्याचार को देखा तो यहीं पर रहकर कुछ वेबसाइटस  के लिए लिखने का काम करने लगे साथ में शोषित लोगों की सहायता  और उनकी कानूनी मदद के लिए उनके साथ हो लिए। 

कुछ दिन बाद उनकी मित्रता लगभग इसी क्षेत्र से जुड़ी पेशे से वकील समाज सेवी  AAP की कार्यकर्ता प्रिया शुक्ला से हो गयी। प्रिया शुक्ला विलासपुर में वह नाम है जो शायद ही कोई न जानता हो। वे दोनों बेहतर दोस्त हुए और साथ में रहकर  बिलासपुर के ग्रामीण, आदिवासियों के बीच उनके हक और बेहतर समाज के लिए काम करने लगे। वे दोनों वहां चलने वाले कई आंदोलनों में साथ रहे और सफलताएं हासिल की। दोस्ती प्यार में बदली और उन्होंने शादी का फैसला लिया जो आज पूरा होने वाला था। 

दूसरे दिन सुबह से ही शादी की तैयारी शुरू होने लगी। यहां सब घराती थे । कोई बाराती नहीं था और न ही किसी के स्वागत की तैयारी करनी थी। न किसी फूफा के रूठने का डर था और न ही किसी जीजा के मुंह फूलने का। परिसर के मुख्य गेट से शादी के स्थान तक भारत की महान विभूतियों, आंदोलन से जुड़े पोस्टर , धूमिल से लेकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, केदारनाथ सिंह,पाश  की कविताएं लगाई जाने की योजना थी जिसे पूरा कर रहे थे मेरे साथ आये आमिर खान जो कि पढ़ना लिखना नहीं जानते पर  कार्य आसाधारण कर जाते हैं। पोस्टर लगाते हुए जब वे सुधा भारद्वाज की  फोटो लगाने लगे तो अचानक चौंकते हुए बोले- अरे यह तो सुधा मैडम हैं जिनको कुछ दिन पहले गिरफ्तार कर लिया गया। 

आमिर पेशे से सब्जी की दुकान चलाते हैं लेकिन नजर देश की हर गतिविधियों पर रहती है। साथ ही पोस्टर लगा रहे नीलोत्पल शुक्ला जिन्हें सब प्यार से नीलू दादा कहते हैं वे सुधा भारद्वाज के बारे में बताने लगे कि किस तरह से आदिवासियों के बीच रहकर उनके हक के लिए लड़ रही हैं। 

मयंक सक्सेना जो कि केदारनाथ सिंह, धूमिल , फ़ैज़ की कविताओं के सुंदर पोस्टर तैयार कर रहे थे साथ में मखमली धूप में उन्हें गुनगुनाये जा रहे थे सुनकर अलग एहसास हो रहा था।

सारे पोस्टर लगाए जा चुके थे। जैसा कि मैंने जिक्र किया कि इन पोस्टरों में वे पोस्टर भी थे जो कि प्रिया, अनुज और साथियों द्वारा किये गए आंदोलन से जुड़े थे। लगाए गए पोस्टरों में कठुआ, उन्नाव रेप , नोटबन्दी का विरोध, अवैध शराब भट्टी के विरोध में आंदोलन के पोस्टर मुख्य रूप से थे।  पोस्टर लगने के कुछ देर बाद एक कॉल नीलू दादा के पास आती है जिसमें कहा जाता है कि नोटबन्दी और सरकार से जुड़े सारे पोस्टर हटा दिए जाएं।

यह कॉल यह दर्शाने के लिए काफी था कि किस तरह से इस शादी पर लोगों की और मीडिया की नजर है।

शाम को शादी शुरू होने वाली थी। दूर-दूर से आये लोग इस अलग तरह से हो रही शादी को देखने के उत्सुक थे। गांव के ही एक छोटे से साइकिल रिक्शे में बारात निकली जो कि सड़क से कुछ दूर तक घूमकर वापस मंदिर परिसर में आ गयी। अब शादी की रस्म शुरू होने वाली थी।  शादी सम्पन कराने का जिम्मा मयंक को सौंपा गया । यहां अग्नि के फेरे नहीं होने थे। जो अलग होना था वह यह कि प्रिया और अनुज ने शादी में संविधान की शपथ लेने की बात रखी थी। और सात फेरे नहीं होने वाले थे। सात वचन तो थे लेकिन हर वचन बराबरी, समानता की बात करता था।

शादी शुरू हुई। प्रिया और अनुज ने  संविधान पर हाथ रखा और मयंक ने सपथ दिलवानी शुरू की जो इस प्रकार है- 

मैं प्रिया शुक्ला/अनुज श्रीवास्तव भारत के संविधान की सपथ लेते हैं कि हम एक दूसरे को हमेशा एक  दूसरे की तरह रहने देंगे। हम दोनों कभी भी मतभेद को मनभेद में नहीं  बदलने देंगे। हम दोनों घर के सारे काम आपस में बराबर बांट लेंगे। कितना भी गुस्सा आये हम दोनों हिंसा से दूर रहेंगे। घर के अंदर या बाहर जातिवादी, अभद्र, महिला विरोधी, नस्लभेदी, वर्गभेदी , साम्प्रदायिक भाषा का प्रयोग नहीं करेंगे। दुनिया के सारे बच्चों को अपने बच्चे की तरह मानेंगे। सारे वंचित समाजों को अपना परिवार मानेंगे। सिर्फ खुद नहीं बदलेंगे, अपना आदर्श स्थापित करके समाज बदलेंगे। समाज के लिए जो सोच रखकर ये शादी इस अंदाज में  की गई है आजीवन यही जीवन जियेंगे। भारत के संविधान द्वारा स्थापित मूल्यों और वैश्विक न्यायिक सिद्धांतों के प्रति निष्ठा ही नहीं रखेंगे बल्कि  उनको कायम रखने के लिए जीवन समर्पित कर देंगे।

शपथ पूरा होते ही परिसर तालियों से गूंज उठा। दुल्हन के रूप में प्रियंका शुक्ला ने अपनी बात रखी और बताया कि किस तरह से उस शादी में तमाम तरह की रुकावटे आईं पर अंततः शादी सफल हुए। धार्मिक रीति से शादी न करने पर किस तरह से अंत तक परिवार नाराज रहा और घर की तरफ से माँ के अलावा कोई न आया। प्रिया ने कहा- समाज को बदलने के लिए ऐसा कदम जरूरी हो जाता है। लोग तमाम तरह की बातें करते रहे पर सबसे परे हमनें यह शादी की।

प्रिया शुक्ला ने इस शादी को सम्पन्न होने में सबसे बड़ा योगदान नीलोत्पल शुक्ला का बताया जिन्हें वह अपना पिता मानती हैं। अपनी बात रखते हुए प्रिया ने जोश के साथ 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' के नारे लगाए जो अपने आप में देखने, सुनने में अविश्वसनीय, अद्वितीय लगा। यह मेरे लिए न भूलने वाले अनुभवों में से एक होगा। 

अनुज ने अपनी बात रखते हुए कहा- 'यह शादी कभी पूरी न होती यदि इन गाँव वालों का साथ न होता'। इतना कहते ही वे भावुक हो गए और आ रहे आसुंओं की बूंदों को रोक न सके। अपने आप को संभालते हुए अनुज ने फिर कहना शुरू किया- मैं समाज के बंधनों को तोड़ना चाहता हूं। सिंदूर, टीका, घूंघट, आदि रूढ़िवादी संस्कारों से लोगों देश की महिलाओं को बाहर लाना चाहता हूँ। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की बराबर की भागीदारी चाहता हूं। मेरे परिवार के लोग चाहते हैं , मेरी माँ चाहती थी कि मैं ये सब रस्में निभाऊं तो मैंने ना कह दिया जिसकी वजह से मेरे परिवार से शादी में शामिल होने कोई नहीं आया।

यह सब कहते हुए अनुज का गला रुंध जा रहा था। उन्होंने आगे कहना जारी रखा और दृढ़ता से आगे की लाइन कही जिसे हर युवा को दिमाग में डाल लेनी चाहिए- मैं एक माँ की इच्छाओं के लिए देश की लाखों माँओं को नरक की ज़िंदगी जीते नहीं देख सकता। मुझे समाज में बदलाव देखना है जो मैं अपने से शुरू करता हूँ।

अनुज ने आगे कहा- आज मेरे परिवार से कोई नहीं आया लेकिन पूरा गांव परिवार बनकर हमारे साथ खड़ा है। किसी के घर से दालें आयी हैं, किसी के घर से मटर, तो कोई चावल ले आया है।  मेरे साथी ग्रामीण इस शादी के लिए रात में मटर छीलते रहे, खाने की तैयारी करते रहे। यह किसी पैसे या लालच में नहीं था। यह प्रेम में था। समाज की यही रीति है। जो हम समाज को देते हैं समाज वही हमें देता है। आज इन गांव वालों के बीच मुझे परिवार की याद नहीं आ रही। यही मेरा परिवार है। 

प्रिया अनुज की बातें सबकी आंखें गीली कर गयीं। और एक अद्भुत शादी नाच गाने के साथ संपन्न हुई।

यह मेरी जिंदगी के तमाम अनुभवों में सबसे यादगार लम्हें हैं। समाज को बदलने के लिए इस तरह की विचारधारा का होना जरूरी है। यह शादी बहुत कुछ सिखा गई समाज को। समाज में बदलाब के लिए यह जरूरी भी था।
 

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