प्रदेश के कुदलीगी तालुक के कल्लाहल्ली गुल्लारहट्टी गांव में स्वतंत्रता के बाद पहली बार दलित के प्रवेश से दशकों पुरानी अंधविश्वास की परंपरा टूटी।

फोटो साभार : द मूकनायक
आजादी के इतिहास में पहली बार हुआ है जब कुदलीगी तालुक के कल्लाहल्ली गुल्लारहट्टी गांव ने एक दलित व्यक्ति को गांव में प्रवेश की अनुमति दी है। स्वतंत्रता के बाद से जारी यह सामाजिक प्रतिबंध विधायक एन.टी. श्रीनिवास और तालुक प्रशासन के प्रयासों के चलते टूट सका है।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, मुख्य रूप से यादव समुदाय के लगभग 130 घरों वाला यह गांव पीढ़ियों से दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाए हुए था। ग्रामीणों के बीच यह विश्वास प्रचलित था कि दलितों का गांव में प्रवेश अशुभ होगा। हाल ही में जब एक दलित सरकारी अधिकारी किसी सर्वेक्षण कार्य के लिए गांव पहुंचे, तो उन्हें भी गांव की सीमा में प्रवेश से रोक दिया गया।
द मूकनायक ने लिखा, इस घटना की जानकारी मिलने पर तहसीलदार वी.के. नेत्रवती अपने स्टाफ के साथ गांव पहुंचीं और ग्रामीणों को ऐसे अंधविश्वासी और असंवैधानिक रीति-रिवाज छोड़ने की सख्त चेतावनी दी। उन्होंने कहा, “हमने ग्रामीणों को संविधान में दिए गए प्रावधानों और ऐसे भेदभाव के कानूनी परिणामों के बारे में बताया। इसके बाद ग्रामीणों ने दलित युवाओं और अन्य लोगों का स्वागत करने पर सहमति जताई।”
गांव में दलितों के प्रवेश पर रोक के अलावा, यहां मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को अलग झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर करने की भी प्रथा रही है।
विधायक श्रीनिवास ने इस सकारात्मक बदलाव की सराहना करते हुए कहा, 'चाहे जानबूझकर हो या अनजाने में, भेदभावपूर्ण परंपराएं संविधान के खिलाफ हैं। दलितों का स्वागत करना विकास और सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण और प्रगतिशील कदम है।
कल्लाहल्ली गुल्लारहट्टी का यह निर्णय बल्लारी जिले के उन गांवों की सूची में एक नया अध्याय जोड़ता है, जो जातीय भेदभाव की दीवारें तोड़कर समानता और न्याय की ओर बढ़ रहे हैं।
ज्ञात हो कि गत जुलाई महीने में सार्वजनिक जल स्रोतों से पानी लेने में अनुसूचित जाति समुदाय के साथ हो रहे भेदभाव को लेकर मद्रास हाईकोर्ट ने सख्त नारागी जाहिर करते हुए कहा था कि यह "वैज्ञानिक युग में भी हैरान करने वाला और दुखद है" कि कुछ समुदायों को अब भी अपने हक के पानी के लिए इंतजार करना पड़ता है।
रिपोर्ट के अनुसार, न्यायमूर्ति आर. एन. मंजुला ने कहा कि यह बेहद दुःखद है कि आज भी कुछ समुदायों को सार्वजनिक संसाधनों तक पहुंच दूसरों के बाद ही मिलती है, जबकि संविधान और कानून सभी नागरिकों को बराबर के अधिकार प्रदान करते हैं।
अदालत ने कहा, “पानी जैसी प्राकृतिक संपत्ति सभी लोगों के लिए है। यह बेहद हैरान करने वाली बात है कि आज के वैज्ञानिक और आधुनिक युग में भी कुछ समुदायों को केवल अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है। क्या हम सभी एक ही मानव समाज का हिस्सा नहीं हैं?”
वहीं, इसी साल मार्च महीने में पश्चिम बंगाल में तीन सौ वर्षों के बाद दलित परिवारों ने गिड़ेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश किया, लेकिन इसके बाद सामाजिक बहिष्कार शुरू हो गया था।
पश्चिम बंगाल के पूर्वी बर्दवान जिले के गिड़ाग्राम गांव के 130 दलित परिवारों के लिए 13 मार्च 2025 का दिन ऐतिहासिक बन गया था। तीन सौ वर्षों के लंबे इंतजार के बाद इन परिवारों को पहली बार अपने ही गांव के गिड़ेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश करने का मौका मिला था। यह प्रवेश भारी पुलिस सुरक्षा के बीच हुआ, लेकिन यह पल समाज में गहराई से जमी जातीय असमानता के खिलाफ एक मजबूत और प्रतीकात्मक संदेश बन गया।
हालांकि 13 मार्च 2025 को मिला मंदिर में प्रवेश का पल ऐतिहासिक और भावनात्मक था लेकिन वह खुशी ज्यादा समय तक टिक नहीं सकी। फ्रंटलाइन द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, मंदिर प्रवेश के बाद गांव के प्रभावशाली तबके ने दलित परिवारों के खिलाफ सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार कर दिया। घटना के दो महीने बाद जब गांव का दौरा किया गया, तो यह साफ हुआ कि ऊपर-ऊपर भले ही एक बेमन जैसा स्वीकार नजर आ रहा था, लेकिन भीतर ही भीतर जातीय तनाव अब भी गहराई से मौजूद था। यह स्थिति उस छवि को चुनौती दे रही थी जिसमें पश्चिम बंगाल खुद को एक 'अजाती' और समावेशी समाज के रूप में पेश करता रहा।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, दास पाड़ा से महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर गिड़ेश्वर मंदिर स्थित है, जहां दलित (मुख्यतः दास उपजाति) परिवार रहते हैं। करीब 2000 परिवारों वाले गिड़ाग्राम में केवल इन 130 दलित परिवारों को मंदिर में प्रवेश से वंचित रखा गया था। यह भेदभाव पीढ़ियों से चला आ रहा था। कई बैठकों, प्रशासन के दखल और स्थानीय सहमति के बाद, आखिरकार 13 मार्च को पांच दलितों ने भारी पुलिस सुरक्षा में मंदिर में प्रवेश कर भगवान की पूजा की।
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फोटो साभार : द मूकनायक
आजादी के इतिहास में पहली बार हुआ है जब कुदलीगी तालुक के कल्लाहल्ली गुल्लारहट्टी गांव ने एक दलित व्यक्ति को गांव में प्रवेश की अनुमति दी है। स्वतंत्रता के बाद से जारी यह सामाजिक प्रतिबंध विधायक एन.टी. श्रीनिवास और तालुक प्रशासन के प्रयासों के चलते टूट सका है।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, मुख्य रूप से यादव समुदाय के लगभग 130 घरों वाला यह गांव पीढ़ियों से दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाए हुए था। ग्रामीणों के बीच यह विश्वास प्रचलित था कि दलितों का गांव में प्रवेश अशुभ होगा। हाल ही में जब एक दलित सरकारी अधिकारी किसी सर्वेक्षण कार्य के लिए गांव पहुंचे, तो उन्हें भी गांव की सीमा में प्रवेश से रोक दिया गया।
द मूकनायक ने लिखा, इस घटना की जानकारी मिलने पर तहसीलदार वी.के. नेत्रवती अपने स्टाफ के साथ गांव पहुंचीं और ग्रामीणों को ऐसे अंधविश्वासी और असंवैधानिक रीति-रिवाज छोड़ने की सख्त चेतावनी दी। उन्होंने कहा, “हमने ग्रामीणों को संविधान में दिए गए प्रावधानों और ऐसे भेदभाव के कानूनी परिणामों के बारे में बताया। इसके बाद ग्रामीणों ने दलित युवाओं और अन्य लोगों का स्वागत करने पर सहमति जताई।”
गांव में दलितों के प्रवेश पर रोक के अलावा, यहां मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को अलग झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर करने की भी प्रथा रही है।
विधायक श्रीनिवास ने इस सकारात्मक बदलाव की सराहना करते हुए कहा, 'चाहे जानबूझकर हो या अनजाने में, भेदभावपूर्ण परंपराएं संविधान के खिलाफ हैं। दलितों का स्वागत करना विकास और सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण और प्रगतिशील कदम है।
कल्लाहल्ली गुल्लारहट्टी का यह निर्णय बल्लारी जिले के उन गांवों की सूची में एक नया अध्याय जोड़ता है, जो जातीय भेदभाव की दीवारें तोड़कर समानता और न्याय की ओर बढ़ रहे हैं।
ज्ञात हो कि गत जुलाई महीने में सार्वजनिक जल स्रोतों से पानी लेने में अनुसूचित जाति समुदाय के साथ हो रहे भेदभाव को लेकर मद्रास हाईकोर्ट ने सख्त नारागी जाहिर करते हुए कहा था कि यह "वैज्ञानिक युग में भी हैरान करने वाला और दुखद है" कि कुछ समुदायों को अब भी अपने हक के पानी के लिए इंतजार करना पड़ता है।
रिपोर्ट के अनुसार, न्यायमूर्ति आर. एन. मंजुला ने कहा कि यह बेहद दुःखद है कि आज भी कुछ समुदायों को सार्वजनिक संसाधनों तक पहुंच दूसरों के बाद ही मिलती है, जबकि संविधान और कानून सभी नागरिकों को बराबर के अधिकार प्रदान करते हैं।
अदालत ने कहा, “पानी जैसी प्राकृतिक संपत्ति सभी लोगों के लिए है। यह बेहद हैरान करने वाली बात है कि आज के वैज्ञानिक और आधुनिक युग में भी कुछ समुदायों को केवल अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है। क्या हम सभी एक ही मानव समाज का हिस्सा नहीं हैं?”
वहीं, इसी साल मार्च महीने में पश्चिम बंगाल में तीन सौ वर्षों के बाद दलित परिवारों ने गिड़ेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश किया, लेकिन इसके बाद सामाजिक बहिष्कार शुरू हो गया था।
पश्चिम बंगाल के पूर्वी बर्दवान जिले के गिड़ाग्राम गांव के 130 दलित परिवारों के लिए 13 मार्च 2025 का दिन ऐतिहासिक बन गया था। तीन सौ वर्षों के लंबे इंतजार के बाद इन परिवारों को पहली बार अपने ही गांव के गिड़ेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश करने का मौका मिला था। यह प्रवेश भारी पुलिस सुरक्षा के बीच हुआ, लेकिन यह पल समाज में गहराई से जमी जातीय असमानता के खिलाफ एक मजबूत और प्रतीकात्मक संदेश बन गया।
हालांकि 13 मार्च 2025 को मिला मंदिर में प्रवेश का पल ऐतिहासिक और भावनात्मक था लेकिन वह खुशी ज्यादा समय तक टिक नहीं सकी। फ्रंटलाइन द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, मंदिर प्रवेश के बाद गांव के प्रभावशाली तबके ने दलित परिवारों के खिलाफ सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार कर दिया। घटना के दो महीने बाद जब गांव का दौरा किया गया, तो यह साफ हुआ कि ऊपर-ऊपर भले ही एक बेमन जैसा स्वीकार नजर आ रहा था, लेकिन भीतर ही भीतर जातीय तनाव अब भी गहराई से मौजूद था। यह स्थिति उस छवि को चुनौती दे रही थी जिसमें पश्चिम बंगाल खुद को एक 'अजाती' और समावेशी समाज के रूप में पेश करता रहा।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, दास पाड़ा से महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर गिड़ेश्वर मंदिर स्थित है, जहां दलित (मुख्यतः दास उपजाति) परिवार रहते हैं। करीब 2000 परिवारों वाले गिड़ाग्राम में केवल इन 130 दलित परिवारों को मंदिर में प्रवेश से वंचित रखा गया था। यह भेदभाव पीढ़ियों से चला आ रहा था। कई बैठकों, प्रशासन के दखल और स्थानीय सहमति के बाद, आखिरकार 13 मार्च को पांच दलितों ने भारी पुलिस सुरक्षा में मंदिर में प्रवेश कर भगवान की पूजा की।
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