गौरक्षा के नाम पर हिंसा में इजाफा: भारत में मुस्लिमों के खिलाफ भेदभाव का बड़ा कारण

Written by CJP Team | Published on: January 6, 2025
हाल ही में उत्तर प्रदेश में एक मुस्लिम व्यक्ति की हिंदुत्ववादी गौरक्षकों की भीड़ द्वारा की गई हत्या ने उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति और सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में वृद्धि को लेकर सवाल खड़े किए हैं।



मार्क ट्वेन ने साल 1901 में मिसौरी में नस्लीय लिंचिंग को लेकर अपनी प्रतिक्रिया में भीड़ की हिंसा के खतरों का सबसे खतरनाक जिक्र किया है। उन्होंने उस घटना में अमेरिका के “द यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ लिंचर्डम” में बदलने का खतरा पाया था। एक सदी बाद भारत इसी खतरे की चपेट में दिखाई दे रहा है।

साल 2014 से गौरक्षकों की हिंसा चरमपंथी हिंदुत्ववादी समूहों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का प्रमुख कारण बन गई है। हाल ही में मुरादाबाद के 37 वर्षीय मोहम्मद शाहिदीन कुरैशी नामक एक मुस्लिम व्यक्ति इसी का शिकार हुए। 30 दिसंबर 2024 को कुरैशी और उनके दोस्त मोहम्मद अदनान पर हिंदुत्ववादी भीड़ ने “जय श्री राम” के नारे लगाते हुए हमला किया और आरोप लगाया कि कुरैशी और अदनान ने एक गाय का वध किया है। इस बीच अदनान वहां से भाग गया और कुरैशी, जो हमले के बाद गंभीर रूप से घायल हो गए थे, उन्हें मुरादाबाद जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उनकी मौत हो गई।

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में एसएचओ के हवाले से कहा गया, “हमने स्वतः संज्ञान लेते हुए कुरैशी और मोहम्मद अदनान (29) के खिलाफ गोहत्या के आरोप में एफआईआर दर्ज की है।” हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, मोहम्मद शहजाद (मृतक के भाई) द्वारा भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 103 (1) (हत्या) के तहत अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ एक और एफआईआर दर्ज की गई है।

पुलिस ने मृतक के साथी को गिरफ्तार कर लिया, जो कथित तौर पर हमले के समय उसके साथ था। एसएचओ मोहित चौधरी ने बताया कि 30 दिसंबर, 2024 की सुबह स्थानीय लोगों ने अदनान और कुरैशी को बैल काटते हुए पाया, जिसके बाद वह मौके से भाग गया। हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि अभी तक पुलिस इस हत्याकांड में कोई गिरफ्तारी नहीं कर पाई है। अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (शहर) कुमार रणविजय सिंह ने कहा कि जांच जारी है, हालांकि "हम अभी तक कुरैशी की हत्या के सिलसिले में किसी को गिरफ्तार नहीं कर पाए हैं।"

कुरैशी किराए की ठेलियों पर सामान ढोकर अपना गुजारा करते थे। उनकी भाभी मासूमा जमाल ने कहा, "यह मरने की उम्र नहीं है। क्या आज इंसान की जान की कीमत इतनी कम हो गई है? अगर उसने कोई जानवर मारा भी होता तो पुलिस को बुलाया जा सकता था। वह जेल में हो सकता था, लेकिन लोगों ने उसे इतनी बुरी तरह क्यों पीटा कि वह मर गया?" जमाल का यह सवाल बड़ी चिंता को उजागर करता है कि हाल के वर्षों में किस तरह से गौरक्षकों की संख्या बढ़ी है और यह मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का मुख्य कारण बन गया है।

यह घटना कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति को उजागर करती है। आर्म्ड कंफ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा द्वारा किए गए रिसर्च और स्टेटिस्टा द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, जून 2019 से मार्च 2024 के बीच मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा का मुख्य कारण हिंदुओं द्वारा की गई गौरक्षक कार्रवाई रही है। इसके अलावा, रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2010 से 2017 के बीच भारत में कुल 63 गौरक्षक द्वारा हमले हुए हैं, जिनमें से अधिकांश हमले 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद हुए हैं। इन हमलों में 28 लोग मारे गए, जिनमें से 24 मुस्लिम थे, और 124 घायल हुए। इसके अलावा, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया है कि वर्ष 2015 से भारत में गौरक्षक हिंसा में इजाफा हुआ है और इसका कारण भारत में हिंदू राष्ट्रवाद में वृद्धि है। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के विश्लेषण के अनुसार, वर्ष 2011 में लिंचिंग या सार्वजनिक अव्यवस्था की कुल घटनाओं में गाय से संबंधित हिंसा की संख्या 5 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2017 में 20 प्रतिशत हो गई है। गाय की रक्षा के नाम पर हिंसा को भारत-पाकिस्तान विभाजन की यादों से पैदा छिपे हुए सांप्रदायिक पूर्वाग्रह का एक रूप माना जा सकता है। यह हिंदू दक्षिणपंथियों द्वारा अपनाई गई सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण की रणनीति का भी परिणाम है, जो हिंदू समुदाय में डर और खतरे की झूठी भावना पैदा करता है।

मृतक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मुरादाबाद पुलिस की कार्रवाई भारत की कानून-प्रवर्तन मशीनरी में भी गहराई से जड़ जमाए बैठे पूर्वाग्रह और कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा को दर्शाती है। यह ध्यान देने और समझने वाली बात है कि जब कोई भी समूह कानून के स्वयंभू रक्षकों की आड़ में कानून को अपने हाथ में लेता है तो अराजकता और अव्यवस्था फैलती है, जो एक हिंसक समाज के पैदा होने का कारण बनती है।

सुप्रीम कोर्ट ने तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ [(2018) 9 एससीसी 501] और अन्य के मामले में “गौरक्षा” के रूप में वर्गीकृत किए जा सकने वाले मामलों की बढ़ती संख्या पर अपनी चिंता जाहिर की है। लिंचिंग और भीड़तंत्र की हिंसा धीरे-धीरे बढ़ते हुए खतरे बनती जा रही हैं, जो धीरे-धीरे एक तुफान जैसे दानव का रूप ले सकती हैं, जैसा कि देशभर में भीड़ द्वारा अंजाम दी जाने वाली घटनाओं के बढ़ते रुझान से स्पष्ट होता है, जो असहिष्णुता से प्रेरित हैं और झूठी खबरों और अफवाहों के प्रसार से गुमराह हो रही हैं। भीड़ हिंसा और पीड़ा देने वाले आतंक की दुर्भाग्यपूर्ण सूची एक गंभीर और वीभत्स तस्वीर पेश करती है, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारे जैसे बड़े गणराज्य के लोगों ने एक विविध संस्कृति को बनाए रखने के लिए सहिष्णुता के मूल्यों को खो दिया है।

इसके अलावा शुभम सिंह बघेल बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य [MANU/MP/1610/2020] के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना है कि "राज्य द्वारा सतर्कता के कृत्यों को सार्वजनिक व्यवस्था की स्थिरता को खतरा पहुंचाने वाले कृत्यों के रूप में समझा जा सकता है।"

न्यायपालिका ने भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा के खतरों और भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर पड़ने वाले इसके प्रभावों को बार-बार उजागर किया है, लेकिन कानून के रखवालों द्वारा सार्वजनिक व्यवस्था और शांति सुनिश्चित करने के लिए न के बराबर या कोई कार्रवाई नहीं की गई है।

गौरक्षकों के प्रति सरकारी मशीनरी की प्रतिक्रिया को समझना भी उचित है। दादरी मामले में, जिसे सीजेपी ने गंभीरता से कवर किया है, जहां एक मुस्लिम व्यक्ति को गोमांस रखने के आरोप में उसके घर में घुसने के बाद हिंदुत्ववादी भीड़ ने मार डाला था। न्यूज़लॉन्ड्री की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) से संबंधित तत्कालीन पर्यटन मंत्री महेश शर्मा ने कहा, "(हत्या) उस घटना (गोहत्या) की प्रतिक्रिया के रूप में हुई थी। आपको यह भी विचार करना चाहिए कि उस घर में एक 17 वर्षीय बेटी भी थी। किसी ने उसे उंगली नहीं लगाई।"

हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने इस लिंचिंग को एक गलतफहमी बताया और यह दावा करते हुए सांप्रदायिकता को फिर से सही ठहराया कि, "वे गोमांस खाना बंद करने के बाद भी मुस्लिम हो सकते हैं, है न? ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि मुसलमानों को गोमांस खाना चाहिए, न ही ईसाई धर्म में कहीं लिखा है कि उन्हें गोमांस खाना चाहिए।"

गौरक्षकों की हरकतों ने जहां डर पैदा किया है, वहीं सरकार और कानून लागू करने वाली मशीनरी की अपर्याप्त और अनुचित प्रतिक्रिया ने इस धारणा को कायम रखा है कि ऐसी कट्टरता कानून की पहुंच से बाहर है।

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