पाकिस्तान में ईशनिंदा क़ानून क्या हैं

Written by Irfan Engineer | Published on: August 29, 2023
पाकिस्तान में 2 ईसाई पुरूषों को पवित्र क़ुरान के अपमान और पैग़म्बर मोहम्म्द साहब को गाली देने के लिए ईशनिंदा क़ानूनों के तहत लोकल पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किया गया है. इस्लाम  मज़हब के ख़िलाफ़ ईशनिंदा के आरोप में ईसाई कॉलोनी में एक व्यक्ति का घर जला दिया गया है. इस क्रम में कैथोलिक चर्च, साल्वेशन आर्मी चर्च, पेन्टेकोस्टल चर्च, यूनाइटेड प्रीसेब्टेरियन चर्च, ऐलीड फ़ाउंडेशन चर्च, शेहरूनवाला चर्च को भारी हानि पहुंचाई गई है. पाकिस्तानी चर्च के विशप ने कथित तौर पर दावा किया है कि इस दौरान बाइबिल का अपमान किया गया और ईसाईयों पर जानबूझकर अत्याचार किए गए हैं.  



पाकिस्तानी मंत्री अनवारूलहक़ काकर ने इसकी कड़ी आलोचना करते हुए ईसाई अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाले लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कारवाई का दिलासा दिया है. पाकिस्तनी  सरकार के अंग के तौर पर काम कर रहे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसे अफ़सोसनाक और शर्मनाक बताया है. मुसलमान धार्मिक अतिवादियों द्वारा ग़रीब, हाशिए पर बसर कर रहे, बेसहारा और अबोध ईसाईयों के घर और चर्च को ध्वस्त किए जाने की इस हरकत की सभी विचारशील और क़ानून के पक्षधर लोगों द्वारा आलोचना की जानी चाहिए.

केवल ईसाई ही नहीं, अनेक मुसलमान भी ईशनिंदा का आरोप लगने के बाद लिंचिंग के ज़रिए मौत का शिकार हुए हैं. यहां तक कि पंजाब के गवर्नर सलमान तसीर की भी उनके ही बॉडीगार्ड ने हत्या कर दी थी क्योंकि उन्होंनें ईसाई फ़ार्म वर्कर आसिया बीबी की रिहाई की पैरवी की थी, जो कि पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट से ईंशनिंदा की आरोपी घोषित होने के बाद सजा काट रही थी. ईशनिंदा की घटना के कुछ दिनों के भीतर ही आसिया बीबी की रिहाई के लिए एक ग्लोबल कैंपेन चल रहा था. उन्होंने दो मुसलमान महिलाओं द्वारा पेश किया पानी भी पीने से मना कर दिया था इसी तरह नास्तिक होने के कारण माशाएल ख़ान नामी स्टूडेंट की हत्या कर दी गई थी. 1990 से लेकर अब तक क़रीब 74  लोग इसी तर्ज़ पर भीड़ का शिकार हो चुके हैं. जबकि 1967 से 2014 तक क़रीब 13,00 लोग ईशनिंदा के आरोपी ठहराए गए हैं जिनमें से सबसे अधिक संख्या में मुसलमान हैं.

पाकिस्तानी पीनल कोड में 1980 के संशोधन के बाद, सेक्शन 298- ए जोड़ा गया जिसमें – मौखिक, लिखित या स्पष्ट चित्रण, वक्तव्य, प्रक्रिया के द्वारा स्पष्ट या अस्पष्ट तौर पर पवित्र पैग़म्बर की किसी भी पत्नी का नाम (उनपर सलाम) या उनके साथियों या ख़लीफ़ाओं के मद्देनज़र इसे एक दण्डनीय अपराध घोषित कर लिया गया.

1984 में एक संशोधन के ज़रिए अहमदी समुदाय को निशाना बनाया गया और पैग़म्बर मुहम्म्द साहब और उनके साथियों के अलावा अन्य किसी को अमीरूल मोमीनीन या ख़िलाफ़तुल मोमीनीन या पैग़म्बर मुहम्मद साहब की पत्नी के अलावा किसी को उम्मुल मोमीनीन और पैग़म्बर मुहम्म्द साहब के परिवार के अलावा किसी भी इंसान को अहले बैत कहने को अपराध की श्रेणी में शुमार कर लिया गया.

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अहमदी समुदाय द्वारा किसी भी दूसरे इंसान को उस सम्मान, पवित्रता और ओहदे का हक़दार नही बनाया जा सकता जिसपर सिर्फ़ पैग़म्बर मोहम्म्द और उनके परिवार का हक़ है. इस प्रावधान ने अहमदी समुदाय से मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद (1835-1908) को उनके समुदाय की नींव रखने वाला और इमाम मेंहदी मानने की आज़ादी से महरूम कर दिया. बता दें कि मुसलमानों के अक़ीदे के मुताबिक़ पैग़म्बर मेंहदी इस्लाम की अंतिम विजय के साथ समय के अंत में दुनिया में आएंगे.

1986 में सेक्शन 295-C के साथ ईशनिंदा क़ानूनों को और भी सख़्त कर दिया गया जिसके मुताबिक़ पवित्र पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के पवित्र नाम के अपमान के एवज़ मृत्युदंड भी दिया जा सकता है. मृत्यु को इसकी केवल एक और न्यूनतम सज़ा क़रार देते हुए ईशनिंदा के मामलों को मुसलमान जज द्वारा सुना जाना तय कर दिया गया.

बाद में क़ानून के कठोर होने के बाद ऐसे आरोपों की संख्या में भी भारी इज़ाफ़ा हुआ. 1987 से 2021 तक पाकिस्तान के ईशनिंदा क़ानूनों के तहत क़रीब 1,855 लोगों पर आरोप लगाए गए हैं. पाकिस्तानी पीनल कोड मे ईशनिंदा प्रावधानों पर कोई न्यायिक कार्यवाही  नहीं की जा सकती है जिससे धार्मिक अतिवादियों को सड़क पर अतिरिक्त सतर्कता और लिंचिंग के ज़रिए सड़क पर हिंसक कार्यवाही करने का हक़ मिल जाता है. 1947 से लेकर 2021 तक (74 सालों में) इन तथाकथित रक्षकों ने 89 लोगों की हत्या की है जिसमें पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहबाज़ भट्टी, हाईकोर्ट के जज आरिफ़ इक़बाल का नाम शामिल है.

ईशनिंदा क़ानूनों से दक्षिणपंथी इस्लामिक दलों का तेज़ी से विकास हुआ है, जो कठिन प्रावधानों की पैरवी में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं और ईशनिंदा के हर छोटी – बड़ी घटना पर ईसाई, अहमदी समुदाय या दूसरे अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने लगते हैं.

ख़ुदा का डर पैदा करने और पैग़म्बर मुहम्मद साहब के लिए प्यार पैदा करने को सरकारी कर्मचारियों और कैबिनेट सदस्यों द्वारा अवाम की सेवा पर ख़ास ज़ोर देते हुए मुत्तहिदा मजिली ए अमल पार्टी ने 15 बिंदुओं के चुनावी मैनिफ़ेस्टो में शामिल किया था.  तहरीक ए लब्बैक पाकिस्तान नामक एक कट्टर दक्षिणपंथी संगठन ने ईशनिंदकों का सिर कटवाने की बात कही है. TLP के विकास के साथ ही ईशनिंदा के दर्ज मामलों में भी ज़बरदस्त उछाल आया है. दक्षिण एशिया में धर्म मोबलाईज़ेशन टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है जिसका भाषा, राष्ट्रीयता, नस्ल या समाज जैसे किसी दूसरे सांस्कृतिक पहलू से इतना लेना-देना नहीं होता है. हालांकि उपनिवेशवाद की ख़िलाफ़त करने के समय में अलग धर्मों, भाषाओं, जातियों के लोगों को जोड़ना, नागरिक जन राष्ट्रवाद और वंचितों के अधिकार के आश्वासन की बदौलत लोग आज़ादी की लड़ाई के लिए एकसाथ एक पटल पर आए थे. मोहम्म्द अली जिन्ना ने मुसलमान अल्पसंख्यकों में ये डर रोपने में सफलता हासिल कर ली थी कि हिंदू बहुसंख्यक उनपर हावी हो जाएंगे.

पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लाभाषी भेदभाव का शिकार हुए जबकि तमिल भाषा को श्रीलंका में सिंहली प्रभुत्व के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया गया. इसी तरह भाषा के आधार पर तमिल अवाम उत्तर भारत के हिंदी प्रभुत्व के ख़िलाफ़ एकजुट हो गई. इससे ये ज़ाहिर होता है कि दक्षिण एशिया में धर्म आधारित राष्ट्रीयता का उफान बेहद तेज़ है जिससे सियासत का भी रूख़ तय होता है.

धर्म की रोज़मर्रा के जीवन में लोगों को एकसाथ जोड़ने में अहम भूमिका है. कुछ अनुयायियों के लिए इसमें जीवन का मक़सद और अस्तित्ववादी गुत्थियों का हल है. मज़हब से सामाजिक व्यवहार, ज़िम्मेदारियों और कर्तव्यों के पैमाने तय होते हैं. ये क़ानून का भी स्त्रोत है. जहां त्योहार लोगों को साथ लाकर ख़ुशी और जश्न का मौक़ा देते हैं वहीं इसके तहत जन्म से लेकर मौत तक जीवन के सारे रीति रिवाजों का उल्लेख भी किया जाता है. ये कुछ लोगों को ज़रूरतमंद की बेग़र्ज़ मदद की प्ररेणा देता है तो कुछ को ईश्वर के ख़ौफ़ से बेहतर व्यवहार के लिए संचालित करता है और उम्मीद देता है कि उन्हें इस व्यवहार के लिए पुरस्कृत किया जाएगा. कुछ लोगों के लिए धर्म आत्म और सामाजिक आत्म की अवधारणाएं बनाता है और उनके आपसी रिश्तों को तय करता है. इसके अलावा धर्म उपदेशकों की एक जमात को बोलने के लिए प्लेटफ़ार्म भी देता है जहां वो बड़ी तादाद में अनुयायियों से मिलते हैं, उनसे उनकी भाषा में उनके मुताबिक़ रूपक तय करके ग्रंथ की व्याख्या करते हैं और उन्हें इस बात पर राज़ी करते हैं कि जीवन जीने का उनका तरीक़ा, संस्कृति और अक़ीदा प्राकृतिक और श्रेष्ठ है. समुदाय के लोगों का व्यवहार तय करने के लिए अस्तित्ववादी चिंता और ईश्वर का डर इन उपदेशकों का ख़ास हथियार होता है.

समुदाय को उनके साथ भी खड़ा होना चाहिए जो प्राकृतिक आपदा, मानवीकृत आपदा, आर्थिक दशाओं के कारण ख़राब हालात से जूझ रहे हैं. इन धर्म की पैरवी करने वालों का समूह अनुयायियों को उनके मौजूदा स्टेटस क्यू और वजूद के साथ कंफ़र्टेबल होना सिखा देता है. पाकीज़गी का सिद्दांत अक़ीदे को वैध क़रार देने के लिए मज़हब का अनिवार्य हिस्सा माना जाता है इसलिए इसपर हमला पूरे सामाजिक ढांचे को हिलाकर रख देता है. इससे कुछ इन हमलों के एवज़ अपना जीवन, आज़ादी  और संपत्ति को क़ुर्बान करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं.

क़ानून जब मज़हब के पवित्र, अंतिम और सार्वभौमिक सत्य को बिना किसी परीक्षण के पुष्ट करके और उसकी हिफ़ाज़त करते हैं तो इससे अनुयायियों की उम्मीद बढ़ जाती है और वो अक़ीदा न रखने वालों से भी उम्मीद रखने लगते हैं कि उनके विश्वासों की पवित्रता पर विश्वास किया जाए.

अंत में ये उन लोगों के प्रति हिंसा को जायज़ ठहरा देता है जो इस सार्वभौम को स्वीकार नहीं करते हैं. ईशनिंदा क़ानून उपदेशकों और धर्म के रक्षकों के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक एकाधिकार क़ायम करने का ज़रिया बन जाते हैं. एक विशेष विश्वास की रक्षा के लिए तैयार ईशनिंदा क़ानून एक पंथ को दूसरे समुदाय पर अधिकार सौंपता है.

भौतिकतावाद, अनेक निष्पक्ष स्त्रोतों से ज्ञान हासिल करने और आपसी स्वार्थ के कारण किसी भी समुदाय के गठजोड़ कमज़ोर होते हैं और पवित्र सिद्धांतों की रक्षा के लिए त्याग की भावना भी कम हो जाती है. दूसरे शब्दों में, इससे सहिष्णुता के स्तर में भी सुधार आता है. जबकि दक्षिण एशियाई समाज में भौतिकतावाद ग्लोबल नार्थ के मुक़ाबले विकसित नहीं हुआ है.

विश्वासों की हिफ़ाज़त से मज़हब की हिफ़ाज़त नहीं होती है बल्कि कई बार इसका अर्थ मूल मज़हब की सेवा के बिल्कुल विपरीत भी होता है. ईसाइयत, बौद्ध धर्म, सिख और जैन मज़हब सभी धर्म मानव जाति की सेवा के लिए और समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए विकसित हुए हैं.

हर धर्म के पंथ, संप्रदाय आदि में अक़ीदत, सिद्धांत और इबादत के तरीक़ों को लेकर भेद होता है. ये विविधता तकनीक, ज्ञान और नए विचारों के फैलाव के साथ विकसित होती है. कुछ धार्मिक मान्यताएं इन बदलावों को स्वीकर कर लेती हैं तो कुछ इनका विरोध करती हैं. जैसे कि गैलिलियो ने साबित किया कि धरती सूरज के चारो तरफ़ घूम रही है न कि सूरज धरती के चारो ओर घूमता है. इसके बाद चर्च की मान्यताओं में बदलाव आया. अगर इन विश्वासों की रक्षा की जाती तो आगे ज्ञान की कोई तरक़्क़ी नहीं होती और किसी तरह की रिसर्च नामुमकिन हो जाती. जब मेडिकल साइंस ने तरक़्क़ी की और आर्गेन ट्रांसप्लांटेशन संभव हो सका तो इस प्रक्रिया को भी पहले धार्मिक विश्वसों के विपरीत क़रार दिया जाता था.

इसी तरह अगर धार्मिक विश्वास अबोर्शन का विरोध करते हैं तो जिन स्त्रियों को इसकी ज़रूरत है उनके लिए पुर्नविचार करना लाज़मी है. इसी तरह धर्म की हिफ़ाज़त के लिए ज़रूरी है कि जो विश्वास समय के साथ मेल न हीं खाते उन्हें दोहराया जाए और पुनर्विचार किया जाए.  धार्मिक विशवासों के लिए ज्ञान की तरक़्क़ी के साथ यात्रा करना लाज़मी है.

इसी तरह ईशनिंदा क़ानूनों की धर्म निर्धारित करने में कोई भूमिका नहीं है. क़ानून को धर्म और विश्वास की नहीं वरन हर इंसान के विश्वास करने के अधिकार की रक्षा करना चाहिए. क्योंकि पहली मान्यता से तो धार्मिक संस्थाओं की हिफ़ाज़त मुमकिन है जबकि दूसरी मान्यता से किसी इंसान के विश्वास करने का अधिकार तय होता है जिससे किसी धार्मिक विश्वास की रक्षा करने और ज्ञान के विचारों और सिद्धांतों के विकास में एक सही संतुलन बन पाता है.

एक सच्चे और समर्पित अनुयायी को धार्मिक विश्वास पर हमले के घबराना नहीं चाहिए. बल्कि वो तो ऐसे व्यवहार के एवज़ ईश्वर के न्याय पर भरोसा करता है. जब एक यहूदी महिला ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद पर कीचड़ उछाला तो पैग़म्बर या उनके साथी या अनुयायी किसी ने भी उसे दण्डित करने पर विचार नहीं किया बल्कि एक दिन जब उन्होंने कीचड़ नहीं फेंका तो पैग़म्बर मुहम्मद ने उनकी ख़ैरियत जानने की कोशिश की और पाया कि वो बीमार हैं. फिर उन्होंने उसके अच्छे स्वास्थ्य के लिए दुआ की.

बिल्कुल  इसी तर्ज़ पर ईसा मसीह ने भी सूली चढ़ाने वालों के लिए ये कहकर प्रार्थना की थी कि उन्हें नहीं पता कि वो क्या कर रहे हैं. इसी तरह गांधीजी ने कहा कि वो उस गाय की रक्षा के लिए किसी की जान नहीं ले सकते जो उनके लए पवित्र है. दूसरे मज़हब के लिए जो पवित्र है उसके लिए सम्मान भीतर से उपजना चाहिए उसे क़ानून के डर से संचालित नहीं होना चाहिए.
  
किसी के लिए जो कुछ पवित्र है उसपर हमले की प्रतिक्रिया पर संवाद होना चाहिए. विचारों की लड़ाई हिंसा से नहीं वरन विचारों से होनी चाहिए, फिर वो चाहे राज्य हो या ग़ैरराज्य कर्ता.

इसी तरह किसी हिंसा को भड़काने या उकसाने पर क़ानून का नियंत्रण होना चाहिए.

पवित्र मान्यताओं पर हमले के जवाब में आहत भावनाओं के आधार पर हिंसा करने वाले ग़ैरराज्यकर्ता कभी धर्म की रक्षा नहीं करते बल्कि वो वंचित तबक़ों पर अपने प्रभुत्व की रक्षा करते हैं. वो बेसहारा लोगों पर अपने प्रभाव का आनंद लेते हैं. वो ईश्वर का डर नहीं जगाना चाहते हैं बल्कि पहले से कमज़ोर तबक़ों पर अपना डर लागू करना चाहते हैं.

Trans: Bhaven

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