पाकिस्तान – एक जर्जर लोकतंत्र

Written by MOHAMMAD MOHIBUL HAQUE | Published on: August 2, 2023
एक ‘ज़ालिम स्टेट’ से‘असफल स्टेट’ की ओर बढ़ रहे पाकिस्तान की जनता क्या लोकतंत्र और मुल्क की हिफ़ाज़त करने में कामयाब हो पाएगी? 


 
पाकिस्तान के इस्लामी लोकतंत्र और लोकतंत्र में कोई ख़ास तालमेल नहीं  है. 1947 के बाद से पाकिस्तान क़रीब 3 दशक से ज़्यादा वक़्त तक सैनिक शासन के अधीन रहा है. लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए किसी भी प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान में शासनकाल पूरा नहीं किया है. 1971 के विभाजन के रूप में पाकिस्तान ने सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को बचाने में नाकाम होने का नतीजा भी भुगता है. 

पाकिस्तान में लोकतंत्र दोबारा ख़तरे में है. बड़ा सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान लोकतंत्र को बचाने में सफल हो पाएगा जिसके बारे में अनेक लोगों का विश्वास है कि इस मुल्क ने ‘ज़ालिम राज्य’ से बढ़कर ‘असफल राज्य’ तक का सफर पूरा कर लिया है. यह लेख गहराई से इस सवाल की पड़ताल करता है. 

सेना का हस्तक्षेप (military intervention)
सैन्य शासन के मंडराते ख़तरे के बीच यह चर्चा लगातार जारी है कि पाकिस्तानी लोकतंत्र के लिए सेना ही सबसे बड़ा ख़तरा है.  कुछ अंतरालों पर सेना के लगातार हस्तक्षेप के पुराने इतिहास को देखते हुए ये तर्क काफ़ी उचित भी मलूम होता है. हालांकि सेना का हस्तक्षेप अपने आप में कोई बीमारी नहीं बल्कि बीमारी का लक्षण है. असल समस्या को जानने के लिए सामाजिक ढांचे की गहरी समझ और पाकिस्तान की सामाजिक बुनावट को जानना बेहद ज़रूरी है.

भू-सुधार नियमावली की कमी  (Absence of land reform)
पाकिस्तान में सेना और ख़ास तौर पर ऊंचे पदों पर तैनात आधिकारी उंचे वर्ग की विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं. सियासत का एक तबक़ा सेना या रियल स्टेट के क्षेत्रों  से आता है. पाकिस्तान में चुनावी लोकतंत्र को भी यही सियासी तबक़ा जनता के मतदान व्यवहार की दिशा तय करके निर्धारित करता है. 

पाकिस्तान का मौजूदा आर्थिक संकट और बुनियादी वस्तुओं की महंगाई के तार भी इस ज़मीदारी प्रथा से जुड़े हैं. पाकिस्तान एक कृषि पर निर्भर देश है. हालांकि ज़मीन के नए सिरे से बंटवारे के लिए कुछ सराहनीय प्रयास किए गए हैं लेकिन मुश्किल की जड़ कहीं और है. 

1977 का क़ानून सिंचित और असिंचित ज़मीन के लिए अधिकतम 100 और 200 एकड़ की सीमा तय करता है, संघीय न्यायपालिका ने इस क़ानून की समीक्षा की है. सुप्रीम कोर्ट की शरीयत पुनर्विचार बेंच ने इस क़ानून को ‘इस्लाम के ख़िलाफ़’ क़रार दिया है. एक विकसित होते समाज में न्यायपालिका पर सामाजिक बदलाव, लोककल्याण और समृद्धि के हक़परस्त बंटवारे की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी होती है. ज़मीन का कुछ लोगों के हाथों में होना पाकिस्तानी न्यायपालिका के लिए चिंता का विषय है. इस मामले को माने-जाने इस्लामी उसूल इज्तिहाद, के हिसाब से तय किया जा सकता था हालांकि कोर्ट ने अक़ादत की तफ़सील कट्टर और महदूद दायरों में पेश की. 

कमज़ोर सामाजिक आंदोलन (Weak socialist movements) 

पाकिस्तान में मार्क्सवाद और समाजवाद का लंबा इतिहास रहा है, लेकिन ‘रावलपिंडी षडयंत्र’ मामले और 1971 में बांग्लादेश के जन्म के कारण ये कभी बड़े पैमाने पर आंदोलन की शक्ल नहीं अख़्तियार कर पाया. 1979 में अफ़गानिस्तान में सोवियत रूस के आक्रमण के बाद पाकिस्तान में समाजवाद का रास्ता बंद करके दक्षिणपंथी ताक़तों को पुष्ट किया जिसके नतीजे में वहां समाजवाद और नारीवाद की तरक्कीपसंद आवाज़ों का दमन किया गया.

पूरी दुनिया में ज़मींदार और बुर्जआ वर्ग से भूमिहीन मज़दूरों, कामगारों और ग़रीब लोगों की हिफ़ाज़त करने और भू-सुधार में इन समाजवादी आंदोलनों का बड़ा योगदान है. ऐसे में साफ़ है कि पाकिस्तान के लोगों को देश में वामपंथ की कमज़ोर हालत का ख़ामियाज़ा उठाना पड़ा है.

धार्मिक अतिवाद (Religious extremism)

पाकिस्तान जैसे मुल्क में क़ानून और सामाजिक ढांचों के निर्माण में इस्लाम की भूमिका अहम है. हालांकि इतिहास के मुताबिक शासक वर्ग अपने फ़ायदे के लिए मज़हब का ग़लत इस्तेमाल करता रहा है. जैसे कि सैमुअल जॉनसन कहते हैं- “मज़हब दुष्टों का आख़िरी पनाहगाह है.” इस्लाम पाकिस्तान की सियासत और सेना की आख़िरी शरण है. अपने निजी सियासी फ़ायदों के लिए  मज़हब का इस्तेमाल करके वो मुल्क के लोकतंत्र को लगातार कमज़ोर बना रहे हैं.

पाकिस्तान में दक्षिणपंथी ताक़तों का उरूज लोकतंत्र के लिए बड़ा ख़तरा है. हिज़बुत तहरीर  जैसे कुछ मज़हबी संगठनों का मानना है कि लोकतंत्र कुफ़्र है. इसलिए पाकिस्तान में इस्लाम के कथित रूप की रोशनी में लोकतंत्र के लिए क़ानून के मुताबिक़ न्याय आज भी एक बड़ी चुनौती है. इस्लाम में लोकतंत्र का कोई यूनिवर्सल ढांचा नहीं है. नतीजे में सिर्फ़ पाकिस्तान ही नहीं बल्कि अनेक मुसलमान देशों में जनता ऐसी ताक़तों की चपेट में हैं.

इमरान ख़ान- एक घटना (Imran Khan, a phenomenon)

पाकिस्तान के इतिहास में इमरान ख़ान सबसे लोकप्रिय नेता की हैसियत से उभरे थे. पाकिस्तान की राजनीति में युवाओं के लिए जगह बनाकर उन्होंने लोकतंत्र की बुनियाद को पुख़्ता करने में ख़ास योगदान दिया है.

क्रिकेट के दौर से ही वो पाकिस्तान की अवाम में मक़बूल रहे हैं. उनकी पार्टी ‘तहरीक ए इंसाफ़’ ने पाकिस्तान की सियासत के मुहावरों और व्याकरण को बदल दिया है. उन्होंने सेना के शासन को चुनौती देने में और लोकतांत्रिक सियासत में इसके ग़ैरज़रूरी दख़ल का विरोध करने में भी कामयाबी हासिल की है. हालांकि पाकिस्तान को ‘रियासत ए मदीना’ में बदलने की उनकी योजना ने नागरिकों को हताश किया है क्योंकि मदीना के आदर्श को पाकिस्तान में उतारना क़रीब नामुमकिन माना जा सकता है. फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पाकिस्तान में इमरान ख़ान की PTI ने लोकतंत्र के दावों के लिए मज़बूत ज़मीन तैयार कर ली है.

इमरान ख़ान ने पाकिस्तान को अमेरिका के शिकंजे से आज़ाद करने की भी कोशिशें की हैं. उन्हें देश के लिए विदेश नीति का एक आज़ाद और आत्मनिर्भर ख़ाका पेश करने का श्रेय भी जाता है. इमरान ख़ान को सत्ता से बाहर करने को भी अनेक लोगों ने USA नीति के नतीजे के तौर पर पहचानते हैं. डोनाल्ड लू को दक्षिण और दक्षिण एशियाई मामलों के लिए असिस्टेंट सेक्रेटरी के तौर पर तैनात किया जाना भी इस ओर इशारा करता है.

इमरान ख़ान पहले नेता हैं जिन्होंने सेना की ताक़ता को खुली चुनौती देते हुए 1971 के दौर की सेना की निरंकुशता को याद दिलाया है. शहबाज़ शरीफ़ द्वारा अभी भी चुनाव को टालने के रवैय्ये से इमरान के दमन के 15 महीनों बाद भी उनकी लोकप्रियता को समझा जा सकता है. फिर भी अभी सेना और इस लोकप्रिय नेता के बीच खिंचती लकीर पर अभी कोई भविष्यवाणी करना जल्दबाज़ी ही है. इमरान आज पाकिस्तानी इतिहास के ग़लत मुहाने पर खड़े हैं.

भारत जैसे पड़ोसी देशों को भी इमरान के इस संघर्ष का समर्थन करना चाहिए क्योंकि एक सेना की तानाशाही वाले पड़ोसी मुल्क के मुक़ाबले एक ज़िम्मेदार सरकार से डील करना कई लिहाज़ से आसान होगा.

[लेखक  अलीगढ़ में राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफ़ेसर हैं.]  

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