करीब सुबह के ग्यारह बजे का वक्त था। सूरज सबकुछ झुलसा देने के उद्देश्य से तीव्र होता जा रहा था। वो कुर्सी पर पैर फैलाए प्रेमचंद्र का उपन्यास 'निर्मला' पढ़ रहे थे। तीन दिन हो गया था उनको ये उपन्यास शुरू किये। आज चौथा दिन था और उपन्यास लगभग ख़त्म होने की ओर था। करीब नब्बे साल पहले समाज में स्त्री की दशा पर लिखे इस उपन्यास को पढ़ते हुए उनका कालेज विह्वल हो उठता। बाल विवाह, दहेज़ प्रथा, बाल अवस्था में परिवार का बोझ, समाज के ताने, निर्मला के ऊपर पड़ी इन सारी विपत्तियों के बारे में जब वे पढ़ते तो उनकी आँखें गीली हो जातीं। पढ़ते -पढ़ते ही उन्होंने पत्नी को आवाज दी- जरा पानी देना।
गर्मी भीषण पड़ रही थी। इतनी गर्मी में भी सात महीनें की उनकी गर्भवती पत्नी बगल के छप्पर के नीचे चूल्हे पर रोटी सेंक रही थी। शायद सरकार की उज्ज्वला योजना उसतक नहीं पहुंची थी। परिवार थोड़ा बड़ा था इसलिए रोटियां अधिक बेलनी पड़ती थीं। दो ननदें, तीन देवर के अलावा पति, सास-ससुर और वो, इतने लोगों के खाना बनाने का जिम्मा उसके ही सर पर था। खाना बनाने के अलावा जो समय बचता वो दो भैंस, एक बछिया की देख रेख में चला जाता। परिवार प्रगतिशील था इसलिए महिलाओं (ननदों और सास) का खूब सम्मान करता था।
वह रोटियां सेंकती, टपकते पसीने को आँचल से पोछती व्यस्त थी, शायद इसी वहज से पति की पहली आवाज सुनने में नाकाम रही। थोड़ी देर में वो फिर चिल्लाये- अरे पानी माँगा मैंने, सुनाई नहीं दिया क्या,,? वो बोली-जी, आयी।
उसने बेलन बगल में रखा। लोटा उठाकर बाल्टी के पास गयी तो देखा की बाल्टी में पानी ही नहीं था। उसने चूल्हे में जलती आग जरा धीमी की और बाल्टी लेकर कुवें के पास चली गयी। इन्होंने फिर से आवाज दी-कहाँ मर गयी, सुनती नहीं क्या ?
गुस्से में फिर चिल्लाए- क्या मरने के बाद मुंह में पानी डालेगी,,?
इतना कहकर वो जवाब का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद कुछ उत्तर न पाकर उनका पारा चढ़ गया। झाँककर देखा तो वो रसोईं में नहीं थी और नजर दौड़ाई तो पाया की वह कुंवे से बाल्टी लेकर आ रही है। उन्होंने उपन्यास को गुस्से में एक तरफ फेंका और उसके आने का इंतजार करने लगे।
वह आई और लोटे में पानी लेकर सर झुकाये गुलाम की तरह हाथ आगे बढ़ा दिया। उन्होंने लोटा उसके हाथ से लेकर दूर फेंक दिया और एक तमाचा जड़ते हुए बोले- जब पता है की गर्मी का मौसम है, हर वक्त प्यास लगते रहती है तो बाल्टी भरकर रखने में क्या नानी मरती है?
इसके अलावा भी उन्होंने दो चार अपशब्द कहे। वह उनकी बातों को सुनती रही और नारी का भाग्य समझकर अफसोस करती रही।
उसने फेंका हुआ लोटा फिर से उठाया। उभरे हुए पेट को संभालते हुए पानी लाकर दिया।
उन्होंने पानी पिया और एक बार फिर से स्त्री व्यथा पर नब्बे साल पहले लिखा उपन्यास उठाकर पढ़ने लगे। पढ़ते हुए फिर उनकी आंखें नम थीं।
गर्मी भीषण पड़ रही थी। इतनी गर्मी में भी सात महीनें की उनकी गर्भवती पत्नी बगल के छप्पर के नीचे चूल्हे पर रोटी सेंक रही थी। शायद सरकार की उज्ज्वला योजना उसतक नहीं पहुंची थी। परिवार थोड़ा बड़ा था इसलिए रोटियां अधिक बेलनी पड़ती थीं। दो ननदें, तीन देवर के अलावा पति, सास-ससुर और वो, इतने लोगों के खाना बनाने का जिम्मा उसके ही सर पर था। खाना बनाने के अलावा जो समय बचता वो दो भैंस, एक बछिया की देख रेख में चला जाता। परिवार प्रगतिशील था इसलिए महिलाओं (ननदों और सास) का खूब सम्मान करता था।
वह रोटियां सेंकती, टपकते पसीने को आँचल से पोछती व्यस्त थी, शायद इसी वहज से पति की पहली आवाज सुनने में नाकाम रही। थोड़ी देर में वो फिर चिल्लाये- अरे पानी माँगा मैंने, सुनाई नहीं दिया क्या,,? वो बोली-जी, आयी।
उसने बेलन बगल में रखा। लोटा उठाकर बाल्टी के पास गयी तो देखा की बाल्टी में पानी ही नहीं था। उसने चूल्हे में जलती आग जरा धीमी की और बाल्टी लेकर कुवें के पास चली गयी। इन्होंने फिर से आवाज दी-कहाँ मर गयी, सुनती नहीं क्या ?
गुस्से में फिर चिल्लाए- क्या मरने के बाद मुंह में पानी डालेगी,,?
इतना कहकर वो जवाब का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद कुछ उत्तर न पाकर उनका पारा चढ़ गया। झाँककर देखा तो वो रसोईं में नहीं थी और नजर दौड़ाई तो पाया की वह कुंवे से बाल्टी लेकर आ रही है। उन्होंने उपन्यास को गुस्से में एक तरफ फेंका और उसके आने का इंतजार करने लगे।
वह आई और लोटे में पानी लेकर सर झुकाये गुलाम की तरह हाथ आगे बढ़ा दिया। उन्होंने लोटा उसके हाथ से लेकर दूर फेंक दिया और एक तमाचा जड़ते हुए बोले- जब पता है की गर्मी का मौसम है, हर वक्त प्यास लगते रहती है तो बाल्टी भरकर रखने में क्या नानी मरती है?
इसके अलावा भी उन्होंने दो चार अपशब्द कहे। वह उनकी बातों को सुनती रही और नारी का भाग्य समझकर अफसोस करती रही।
उसने फेंका हुआ लोटा फिर से उठाया। उभरे हुए पेट को संभालते हुए पानी लाकर दिया।
उन्होंने पानी पिया और एक बार फिर से स्त्री व्यथा पर नब्बे साल पहले लिखा उपन्यास उठाकर पढ़ने लगे। पढ़ते हुए फिर उनकी आंखें नम थीं।