मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकार भुखमरी और कुपोषण के मोर्चे पर हमेशा आगे रही है और इन मामलों में प्रदेश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनामी दिलाने की दोषी साबित होती है।
Image: India Spend
खुद सरकारी आंकड़े कहते हैं कि मध्यप्रदेश में कुपोषण से हर दिन 92 बच्चों की मौत हो जाती है। महिला और बाल विकास विभाग विधानसभा में बता चुका है कि प्रदेश में जनवरी 2016 से जनवरी 2018 के बीच लगभग 57 हजार बच्चों की मौत कुपोषण से हुई है।
सरकार की लापरवाही की हद है कि मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले को भारत का इथोपिया कहा जाने लगा है। सितंबर 2016 में 116 बच्चों की मौत कुपोषण से इस जिले में हुई थी। उस समय विपक्षी दल कांग्रेस ने कुपोषण से मारे गए बच्चों के माता-पिताओं के साथ मौन सत्याग्रह भी किया था जिससे सरकार पर कुछ दबाव बना था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई बदनामी से घबराए शिवराज सिंह ने तब इस मामले पर श्वेत पत्र लाने की घोषणा की थी, लेकिन जब मामला ठंडा हो गया तो वो फिर से शांत बैठ गए।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 14 सितंबर 2016 को प्रदेश में कुपोषण की स्थिति जानने के लिए श्वेत पत्र तैयार करने के लिए कमेटी बनाने का ऐलान किया था, लेकिन समिति ने अब तक जांच का आधार तक तय नहीं किया है। जाहिर है कि अब चुनाव के केवल पांच-छह माह बचे हैं तो यह काम अब होना ही नहीं है।
दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक महिला बाल विकास विभाग के प्रमुख सचिव जेएन कंसोटिया का बयान है कि श्वेत पत्र क्यों जारी नहीं हुआ, इस बारे में कुछ भी कहने के लिए वे अधिकृत नहीं हैं।
मामला केवल श्योपुर या आदिवासी बहुल जिलों तक ही सीमित नहीं है। अभी मई माह में ग्वालियर में भी कुपोषण से 2 बच्चों की मौत हुई है। इनके अलावा, बहुत सारे बच्चे कुपोषण से पीड़ित मिले। इसके बाद कई पीड़ित बच्चों को ग्वालियर में कुपोषण केंद्र में भर्ती कराया गया।
दरअसल प्रदेश में कुपोषण की स्थिति बने रहना राजनेताओं और अधिकारियों के लिए कई मायनों में अनुकूल ही है। जिस तरह से छत्तीसगढ़ की सरकार नक्सलवाद बनाए रखकर, केंद्र से लंबा-चौड़ा अनुदान नक्सलियों से निपटने के लिए लेती है, उसी तरह से मध्यप्रदेश में कुपोषण से कथित जंग अधिकारियों और नेताओं की जेब भरने का सबब बनी हुई है।
पिछले दो सालों में शिवराज सरकार 3300 करोड़ रुपए कुपोषण से निपटने के लिए खर्च करने का दावा करती है। समन्वित बाल विकास सेवा, पोषण आहार और अटल बिहारी वाजपेयी आरोग्य एवं पोषण योजनाओं के क्रियान्वयन का उसका दावा है जो केवल कागजों पर है।
कुपोषण से निपटने के लिए इतनी भारी-भरकम राशि आखिर जा कहां रही है, इसका खुलासा श्वेत पत्र जारी होने पर हो सकता है, लेकिन शिवराज सिंह ये बताना ही नहीं चाहते। पिछले दस सालों में बच्चों के लिए पोषण आहार की खरीदी पर 4800 करोड़ खर्च करने का उनका दावा है, लेकिन इसके बावजूद कुपोषण से बच्चों की मौतें थम नहीं रही हैं।
हैरानी की बात है कि मध्यप्रदेश में कुपोषण न भाजपा सरकार की राजनीतिक प्राथमिकताओं में रहा और न ही जनता के लिए ये कोई बड़ी बात रही। 2003 से लगातार हर विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनावों में भाजपा भारी सफलता हासिल करती रही, लेकिन किसी भी चुनाव में कुपोषण मुद्दा बन ही नहीं पाया।
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खुद सरकारी आंकड़े कहते हैं कि मध्यप्रदेश में कुपोषण से हर दिन 92 बच्चों की मौत हो जाती है। महिला और बाल विकास विभाग विधानसभा में बता चुका है कि प्रदेश में जनवरी 2016 से जनवरी 2018 के बीच लगभग 57 हजार बच्चों की मौत कुपोषण से हुई है।
सरकार की लापरवाही की हद है कि मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले को भारत का इथोपिया कहा जाने लगा है। सितंबर 2016 में 116 बच्चों की मौत कुपोषण से इस जिले में हुई थी। उस समय विपक्षी दल कांग्रेस ने कुपोषण से मारे गए बच्चों के माता-पिताओं के साथ मौन सत्याग्रह भी किया था जिससे सरकार पर कुछ दबाव बना था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई बदनामी से घबराए शिवराज सिंह ने तब इस मामले पर श्वेत पत्र लाने की घोषणा की थी, लेकिन जब मामला ठंडा हो गया तो वो फिर से शांत बैठ गए।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 14 सितंबर 2016 को प्रदेश में कुपोषण की स्थिति जानने के लिए श्वेत पत्र तैयार करने के लिए कमेटी बनाने का ऐलान किया था, लेकिन समिति ने अब तक जांच का आधार तक तय नहीं किया है। जाहिर है कि अब चुनाव के केवल पांच-छह माह बचे हैं तो यह काम अब होना ही नहीं है।
दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक महिला बाल विकास विभाग के प्रमुख सचिव जेएन कंसोटिया का बयान है कि श्वेत पत्र क्यों जारी नहीं हुआ, इस बारे में कुछ भी कहने के लिए वे अधिकृत नहीं हैं।
मामला केवल श्योपुर या आदिवासी बहुल जिलों तक ही सीमित नहीं है। अभी मई माह में ग्वालियर में भी कुपोषण से 2 बच्चों की मौत हुई है। इनके अलावा, बहुत सारे बच्चे कुपोषण से पीड़ित मिले। इसके बाद कई पीड़ित बच्चों को ग्वालियर में कुपोषण केंद्र में भर्ती कराया गया।
दरअसल प्रदेश में कुपोषण की स्थिति बने रहना राजनेताओं और अधिकारियों के लिए कई मायनों में अनुकूल ही है। जिस तरह से छत्तीसगढ़ की सरकार नक्सलवाद बनाए रखकर, केंद्र से लंबा-चौड़ा अनुदान नक्सलियों से निपटने के लिए लेती है, उसी तरह से मध्यप्रदेश में कुपोषण से कथित जंग अधिकारियों और नेताओं की जेब भरने का सबब बनी हुई है।
पिछले दो सालों में शिवराज सरकार 3300 करोड़ रुपए कुपोषण से निपटने के लिए खर्च करने का दावा करती है। समन्वित बाल विकास सेवा, पोषण आहार और अटल बिहारी वाजपेयी आरोग्य एवं पोषण योजनाओं के क्रियान्वयन का उसका दावा है जो केवल कागजों पर है।
कुपोषण से निपटने के लिए इतनी भारी-भरकम राशि आखिर जा कहां रही है, इसका खुलासा श्वेत पत्र जारी होने पर हो सकता है, लेकिन शिवराज सिंह ये बताना ही नहीं चाहते। पिछले दस सालों में बच्चों के लिए पोषण आहार की खरीदी पर 4800 करोड़ खर्च करने का उनका दावा है, लेकिन इसके बावजूद कुपोषण से बच्चों की मौतें थम नहीं रही हैं।
हैरानी की बात है कि मध्यप्रदेश में कुपोषण न भाजपा सरकार की राजनीतिक प्राथमिकताओं में रहा और न ही जनता के लिए ये कोई बड़ी बात रही। 2003 से लगातार हर विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनावों में भाजपा भारी सफलता हासिल करती रही, लेकिन किसी भी चुनाव में कुपोषण मुद्दा बन ही नहीं पाया।