नई दिल्ली। आज बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर देश दुनिया के तमाम लोग एक दूसरे को बुद्ध पूर्णिमा की बधाई दें रहे है। लेकिन क्या आप जानते है कि बुद्ध के इतिहास को बहुत तोड़ा-मरोड़ा गया है। आज हम आपको भाषाविशेषज्ञ और इतिहासकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह के लेखों के माध्यम से बुद्ध के असली इतिहास के बारे में जानकारी देंगे। इतनी तार्किक जानकारी आपको और कही नहीं मिलेगी....
तो पढ़िए बुद्ध उन तथ्यों के बारे में जिन्हे जानकर आप आश्चर्यचकित होने वाले हैं:
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल!
बुद्ध अर्थात जागा हुआ, जानने वाला, ज्ञानी।
जो बुद्ध है वही संस्कृत में बुद् है अर्थात जागना, ज्ञान होना।
जो बुद्ध है वही रूसी में बुदीत् है अर्थात जागना।
जो बुद्ध है वही लिथुआनी में बुदति है अर्थात जानना।
जो बुद्ध है वही स्लोवानी में बुदिति है अर्थात जानना।
जो बुद्ध है,वही चेक और क्रोशियाई में ब्दीम है अर्थात जानना।
जो बुद्ध है वही अवेस्ता में बोदयति है अर्थात जानना, समझना।
बुद्ध पूर्णिमा की बधाई!!!
पालि में जो " थेर/थेरी " है, वही उत्तर भारत में " श्री " है, दक्षिण में " तिरु " है और लोक बोलियों में " सिरी " है।
नामों के अंत में " श्री " जोड़ने की परंपरा बौद्धों की है। पालि साहित्य में पटचारा थेरी, सुभा थेरी, उसभ थेर, चित्तक थेर आदि में थेर/ थेरी नामों के अंत में जुड़ा है।
बाद में भी थेर/ थेरी का संस्कारित रूप श्री बौद्ध नामों के अंत में मिलेगा जैसे मंजू श्री, राज्य श्री। बौद्धों की यह परंपरा काफी बाद में हिंदी में आई है। सुश्री वगैरह का लेखन तो आधुनिक काल के छायावाद युग में आया है।
जब सिंधु घाटी सभ्यता की व्यवस्थित खुदाई हो रही थी, तब जॉन मार्शल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक थे।
जॉन मार्शल को एहसास था कि सिंधु घाटी की सभ्यता बौद्ध सभ्यता जैसी है। जॉन मार्शल ने इसीलिए मोहनजोदड़ो के एल एरिया में स्थित सभा - भवन की बनावट पर यह टिप्पणी दी थी कि यह बौद्ध चैत्य जैसा है, उस चैत्य जैसा, जिसमें बौद्ध भिक्षु लंबी पंक्ति में आसीन होते थे।
गौतम बुद्ध का कपिलवस्तु ठीक वैसा ही बसा हुआ था, जैसे हड़प्पा, मोहनजोदड़ो के नगर बसे हुए थे।
दो भागों में - एक रिहायशी क्षेत्र और दूसरा धार्मिक क्षेत्र। कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र गनवरिया था और धार्मिक क्षेत्र पिपरहवा था। गनवरिया और पिपरहवा दोनों मिलकर कपिलवस्तु था। बुद्ध का घर गनवरिया के रिहायशी क्षेत्र में था। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो जैसे नगरों में भी रिहायशी क्षेत्र अलग था और धार्मिक क्षेत्र अलग था, जिसे पुरातात्विकों ने स्तूप क्षेत्र कहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता बौद्ध सभ्यता थी। प्रस्तुत है कपिलवस्तु पर पुरातत्व अधीक्षक की रिपोर्ट !
अभी- अभी यह तुलनात्मक तसवीरें सिद्धार्थवर्द्धन सिंह ने भेजी है।
पहली तसवीर सिंधु घाटी की सभ्यता में एक सील पर प्राप्त तथाकथित पशुपति की है और दूसरी तसवीर गौतम बुद्ध के मार- बंधन की है। यदि चित्र के प्रतीक भी संकेतों की भाषा है तो इसे गुनिए। विचार कीजिए, क्या तथाकथित पशुपति की तसवीर ककुसन्ध बुद्ध की हो सकती है?
कश्यप बुद्ध, ककुच्छंद बुद्ध और कनकमुनि बुद्ध के जन्मस्थान पर जाने का यात्रा - विवरण फाहियान ने अपनी पुस्तक के इक्कीसवें खंड में लिखा है।
गौतम बुद्ध से पहले भी बुद्ध हुए हैं और यदि हुए हैं तो बौद्ध सभ्यता का पिछला छोर पीछे कहाँ तक जाएगा ?
अमूमन 28 बुद्ध माने जाते हैं। एक बुद्ध का कार्य - काल यदि 50 साल भी मानें तो 28 बुद्ध का 1400 साल हुए। अब गौतम बुद्ध के कार्य-काल से 1400 साल पीछे की ओर जाइए तो कहाँ पहुँचिएगा ? वही सिंधु घाटी सभ्यता में!
भौतिक दर्शन ( भूतों का दर्शन) के सभी प्रणेता बुद्ध, अर्हत, चार्वाक, कौत्स कौन हैं ? ये भारतीय दर्शन के भूतवादी दार्शनिक हैं। भूतों के दार्शनिक हैं। इसीलिए वर्णाश्रमी आचार्यों ने भौतिक दर्शन को श्रेष्ठ नहीं माना है।
भौतिक दर्शन ( भूतों का दर्शन ) को छोड़िए, भूतों की भाषा को भी श्रेष्ठ नहीं माना गया है। भोलानाथ तिवारी ने भूत भाषा पर काफी कुछ लिखा है। बताया है कि भूत भाषा भारत के निम्न वर्ग के लोग बोलते थे। इसलिए यह श्रेष्ठ नहीं है।
भूत भाषा को छोड़िए, भौतिक ( भूतों का ) जीवन और संपदा को भी वर्णाश्रमी आचार्यों ने आध्यात्म की राह चलते तथा जगत को मिथ्या कहकर ठुकरा दिया है।
भौतिकता का मार्ग भूतों का है। भौतिक दर्शन भूतों का है। हर हाल में भौतिक भूतों से संबंधित शब्द है।
पालि का एक शब्द है - ककुध। ककु अर्थात शिखर। ककुसन्ध बुद्ध इसी से संबंधित हैं। ककुध के तीन रूप हैं - ककुध, ककुभ और ककुद।
ककुध के तीन अर्थ प्रमुख हैं - शीर्ष, राजचिह्न और वृषभ का कूबड़। विशेषण के अर्थ में यह उत्तम पुरुष का द्योतक है - अध्यात्म के क्षेत्र में भी और सत्ता के क्षेत्र में भी। सिंधु घाटी सभ्यता में सेलखड़ी पत्थर की बनी जिस प्रतिनिधि पुरुष की मूर्ति को इतिहासकारों ने पुरोहित नरेश या कोई शक्ति केंद्रित पुरुष की मूर्ति बताई है, उसके मस्तक पर गोल अलंकरण है, वह ककुध है।
कई सील - चित्रों पर कूबड़दार वृषभ का अंकन है और जिनके बारे में इतिहासकारों की राय है कि उनकी पूजा होती होगी, उनकी पीठ के शीर्ष भाग पर ककुध है।
गौतम बुद्ध के मस्तक पर जो उठी हुई गोलाई है, यदि आप उसे टीका या मांसपिंड समझते हैं तो यह गलतफहमी है। बौद्ध मत में इसे ककुध कहा जाता है। ककुध की परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता को बौद्ध सभ्यता से जोड़ती है।
नीचे दो मूर्तियाँ हैं। एक सिंधु काल के पुरुष की मूर्ति है तथा दूसरी मौर्य काल की यक्षिणी की मूर्ति है और दोनों मूर्तियाँ विख्यात हैं।
दोनों मूर्तियों की नाक टूटी हुई है और दोनों का एक - एक हाथ टूटा हुआ है। यह आकस्मिक हो सकता है।
मगर दोनों मूर्तियों के सिर पर जो शिरोभूषण है, वह आकस्मिक नहीं है, वह एक खास किस्म की सभ्यता के संकेतक है और वह सभ्यता है - बौद्ध सभ्यता।
मौर्य काल और सिंधु काल दोनों बौद्ध सभ्यता में भीगा हुआ काल है। इसीलिए दोनों काल की मूर्तियों में मौजूद शिरोभूषण की समानता आकस्मिक नहीं है।
सिद्धार्थवर्द्धन सिंह ने अपने हालिया लेख में यह साबित करने की कोशिश की है कि सिंधु घाटी सभ्यता में मिली पशुपति की मूर्ति वस्तुतः ककुसन्ध बुद्ध की है। वे सिन्धु, सन्ध और ककुसन्ध को जोड़ते भी हैं। मेजर फोर्ब्स ने बताया है कि ककुसन्ध बुद्ध का समय 3101 ई. पू. है तो साबित - सी बात है कि ककुसन्ध बुद्ध सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन थे।
बाद के इतिहासकार एस. के. बिस्वास ने याद दिलाई है कि सिंधु घाटी की एक मूर्ति का वस्त्र- विन्यास गौतम बुद्ध जैसा है। गौतम बुद्ध अपने वस्त्र को बाएँ कंधे पर रखते थे, जबकि दायाँ कंधा मुक्त होता था। तो क्या सचमुच सिंधु घाटी से मिली मूर्ति जिसे इतिहासकार पशुपति का बताते हैं, वह गौतम बुद्ध के पहले के ककुसन्ध बुद्ध की है ?
एक थे बौद्ध गुरु घंटाल, कम से कम नागार्जुन के समकालीन जिनकी स्मृति में पद्मसंभव ने 8 वीं सदी में गुरु घंटाल मठ की स्थापना की थी।
बौद्ध गुरु घंटाल हिंदी में नाहक बहुत बदनाम हुए हैं - धूर्तता को लेकर, ठगी को लेकर, चालबाजी को लेकर !
गुरु घंटाल का अर्थ धूर्त किसने किया ?
पुरातात्विक साक्ष्य गवाह है कि बुद्ध से पहले कोई विष्णु नहीं थे।
इसलिए बुद्ध किसी विष्णु के अवतार नहीं हैं बल्कि विष्णु ही बुद्ध के मिथकीय अवतार हैं।
ये अशोक का रुम्मिन देई स्तंभलेख है। यह स्तंभलेख वही खड़ा है, जहाँ बुद्ध की माँ ने बुद्ध को जन्म दी थी।
रुम्मिन में जुड़ा हुआ देई ( देवी ) शब्द साबित करता है कि रुम्मिन कोई महिला थी जिनकी पूजा वहाँ होती है।
ये रुम्मिन नामक महिला कौन थी? जी हाँ, बुद्ध की माँ थीं। अभिलेख से पता चलता है कि बुद्ध की माँ का वास्तविक नाम लुंमिनि रहा होगा। यही आगे चलकर स्थानबोधक लुंबिनी हो गया है।
यदि आप मानते हैं कि बौद्ध मठों (विहार) की प्रधानता के कारण भारत के एक प्रांत का नाम बिहार है तो आप यह भी मानिए कि इस प्रांत के अधिकांश नगरों में बौद्ध मठ थे। बौद्ध मठ को पालि में " आराम " कहा जाता है और इसी " आराम " के नाम पर आज का शहर " आरा " है।
डॉ. देवसहाय त्रिवेद ने आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, भाग 3, पृष्ठ 70 (अभिलेख) के हवाले से बताया है कि आधुनिक शाहाबाद जिले के प्रधान शहर को प्राचीन काल में "आराम नगर " कहते थे। आधुनिक काल में जब अंग्रेज आए, तब आरा के लोगों से पूछा कि ये कौन - सा शहर है ? लोगों ने भोजपुरी में बताया कि आरा हऽ अर्थात आरा है। अंग्रेजों ने रिकॉर्ड किया - आराहऽ ( Arrah )। अब आराहऽ (Arrah) धीरे - धीरे फिर से आरा ( Ara ) में बदलने लगा है।
गल्प कथाओं में कलियुग को अनैतिक, अत्याचारी और पतन का युग कहा जाता है जिसका आरंभ 3101 ई. पू. में माना जाता है।
मगर 3101 ई. पू. तो पुरातत्व के अनुसार सिंधु घाटी की सभ्यता का युग है।
दूसरे शब्दों में, जिसे कलियुग कहा जाता है, वह वस्तुतः सिंधु घाटी की सभ्यता का समय है।
गौतम बुद्ध के औसत से अधिक लटके बड़े कान की परिकल्पना इस बात के संकेतक हो सकते हैं कि वे सुनते अधिक और बोलते कम थे।
अमेरिका में बौद्ध सभ्यता!
आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अपनी पुस्तक "बुद्ध और बौद्ध धर्म "में प्रोफेसर फायरमेन के हवाले से बताया है कि 14 सौ साल पहले बौद्ध भिक्षु अमेरिका पहुँचे थे और वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार किए थे।
चीन के प्राचीन ग्रंथों में जो "फुसम" नामक देश का वर्णन है ,वह मेक्सिको है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि 5 वीं शती में सुंगवंशीय राजा थामिन के शासनकाल में 5 बौद्ध- भिक्षु काबुल से फुसम (मेक्सिको) गए थे और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किए। आगे ह्वेनसांग ने फुसम देश के फल, धातु और आचार- विचार के बारे में लिखा है जो अमेरिका के मूल निवासियों तथा मेक्सिको की सीमा पर रहनेवाले लोगों से मिलता- जुलता है।
चतुरसेन शास्त्री ने बताया है कि ये 5 बौद्ध- भिक्षु रूस की उत्तरी सीमा पर कामश्चारका प्रायद्वीप से पैसिफिक- महासागर को पार कर एलास्का की ओर से अमेरिका पहुँचे थे और फिर दक्षिण की ओर से मेक्सिको गए थे। इसीलिए मैक्सिको के मूल निवासियों की सभ्यता बौद्ध सभ्यता से मेल खाती है।
मैक्सिको में पुरोहित को "ग्वाते- मोट- निज" कहते हैं, वह गोतम का रूप है। और भी जैसे - शाकारापेक, शाकापुलाश। ये सब शाक्य शब्द से मिलते हैं। पालेस्के में एक प्राचीन बुद्ध की मूर्ति ह , जिसे वे "शाकामोल" कहते हैं। शाकामोल अर्थात शाक्यमुनि।
अरे! आपने पहचाना नहीं? मैं वही आपका बुद्ध हूँ!!
मुझे कई धर्म- रंगों में रंगा गया है। आप देखते नहीं कि मेरे कंधों पर लटके हुए केश हैं। ललाट पर तिलक है। बाँह में ताबीज है।गले में माला है।मूँछें हैं।
पहचाना नहीं? मैं वही बुद्ध हूँ !!
स्वर्णाक्षरों में अंकित मुहावरे को सच साबित करता हुआ सोने की स्याही से स्वर्णांकित स्वर्ण बौद्ध- ग्रंथ।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री की पुस्तक "बुद्ध और बौद्ध धर्म" से ऐसा जान पड़ता है कि कनिष्क ने पूर्व के शाक्य संवत को जो शुंग- काल में टूट- सा गया था, उसे फिर से 78 ई. में प्रवर्तित किया था।
शक संवत के प्रवर्तक कनिष्क शक नहीं बल्कि शाक्य मुनि का अनुयायी था। ऐसे में संभावना बनती है कि शक संवत वस्तुतः शाक्य संवत का अपभ्रंश है।
चक्रवर्ती अर्थात जिसके रथ का पहिया बहुत दूर- दूर तक घूमता हो, वह राजा जिसका राज्य बहुत दूर- दूर तक फैला हो।
अशोक ने अपने अभिलेखों में "चक्रवर्ती" का उल्लेख नहीं किया है, मगर बाद के साहित्य में उनका चक्रवर्ती के रूप में वर्णन मिलता है ।
संस्कृत साहित्य में चक्रवर्ती की परिकल्पना अशोक और अशोक- चक्र से की गई जान पड़ती है तथा यदि ऐसा है तो चक्रवर्ती की परिकल्पना से लैस संस्कृत साहित्य अशोक के बाद का है एवं चक्रवर्ती से विभूषित नायक भी।
अशोक- चक्र में 24 तीलियाँ हैं, ठीक उतनी ही जितनी कि मौर्यकालीन रथों में हुआ करती थीं ।
देखिए चित्र, मौर्यकालीन लकड़ी का बना रथ का पहिया जिसमें 24 तीलियाँ हैं। साभार पटना म्युजियम।
सिकंदर को विश्वविजेता क्यों कहा जाता है? इसलिए कि उस समय विश्व की अवधारणा एशिया में सिकुड़ी हुई थी।
अमेरिका आदि विश्व पटल से बाहर थे। फिर बुद्ध तो सिकंदर से पहले हुए हैं ।
यदि एशिया में सैनिक विजय करने वाला सिकंदर विश्वविजेता है तो एशिया में धम्म विजय करने वाले बुद्ध विश्वगुरु कैसे नहीं हैं?
सिंधु घाटी की सभ्यता में राक्षस थे नहीं और गौतम बुद्ध ने किसी राक्षस का वध किया नहीं।
बुद्ध के बाद नंद वंश, मौर्य वंश, गुप्त वंश जैसे राजवंश थे।
फिर कहाँ से आए इतने सारे राक्षस?
कब के हैं? कौन थे राक्षस?
यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर अशोक के अभिलेख सच कैसे हैं जिसमें कनकमुनि बुद्ध का पुरातात्विक प्रमाण है ?
यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर फाहियान का वृत्तांत सच कैसे है जिसमें क्रकुच्छंद बुद्ध और कस्सप बुद्ध के स्मारकों का आँखों देखा बयान है?
यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर
भरहुत के लेख सच कैसे हैं जिसमें अन्य बुद्ध के होने का सबूत है?
यदि अशोक के अभिलेख, फाहियान का यात्रा- वृत्तांत और भरहुत के अभिलेख सब कुछ झूठ ही है तो फिर आपका इतिहास सच कैसे है?
सिंधु घाटी की सभ्यता आस्ट्रो- द्रविड़ों का ही है। दरअसल बौद्ध सभ्यता का क्रमशः विकास हुआ है। उसमें कई चीजें बाद में जुड़ी हैं और कई चीजें हटी हैं। वृक्ष, विशेषकर पीपल पूजा किन की है, आस्ट्रो- द्रविड़ों का ही तो है। फिर ये सब बौद्धों में भी तो है। संथालों का मारंग मारु कौन है? बुद्ध की तरह ज्ञान और प्रज्ञा के देवता हैं ।साहेबगंज के संथालों में धार्मिक क्रिया- कलापों के दौरान सिंधु लिपि जैसी लिपि का प्रयोग होता है। सिंधु लिपि तो ब्राह्मी लिपि है नहीं और न ही उसकी भाषा पालि है। बौद्ध सभ्यता का क्रमशः विकास या परिवर्तन इसे जो भी कह लें, हुआ है। हम बौद्ध धर्म को आज की तारीख में देख रहे हैं। हम आदिवासी समाज को आज की तारीख में देख रहे हैं। हंटर ने लिखा है कि संथालों के बीच बौद्ध धर्म प्रचलित था। आज भी कई आदिवासी समुदाय बौद्ध ही तो है- मोंपा, शेरडुकपेन, मेंबास, खाम्ती , सिंहपो , तामंग - ये सभी बौद्ध ही तो हैं। आप खाम्ती आदिवासियों का रामायण पढ़ लीजिए- पूरी तरह से बौद्ध धर्म में भीगा हुआ है। निचले बंगाल में, आदिवासी बहुल इलाकों में शिव की नाक चपटी, होठ मोटे हैं। शिव आदिवासियों के हैं, योग संस्कृति के हैं; वहीं योग संस्कृति जो बौद्ध सभ्यता में मौजूद है और वही सिंधु घाटी की सभ्यता में भी। बौद्ध सभ्यता की आदिम विशेषताएं आदिवासियों में है। बौद्ध सभ्यता का आरंभिक विकास आदिवासियों ने ही किया है। बौद्ध सभ्यता का विकास हजारों साल में हुआ है , कई पीढ़ियों ने , कई लोगों ने इसके विकास में योगदान किया है।
बुद्ध के पहले और बुद्ध के बाद के अवतारों के घर कहाँ गए , जबकि बुद्ध का घर मिल गया है।
किसकी थी सिंधु घाटी की सभ्यता? आपको इसे जानने के लिए दूर नहीं जाना है।
आप मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्रतिनिधि -पुरुष के नाक- नक्शे को गौर से देखिए।
मूर्ति का मस्तक छोटा तथा पीछे की ओर ढलुआ है। गर्दन कुछ अधिक मोटी है तथा मुँह की गोलाई बड़ी है। होंठ मोटे हैं। नाक चौड़ी और कुछ ऊपर की ओर उभरी हुई है। जबकि नृविज्ञानियों ने बताया है कि आर्यों का मस्तक उभरा हुआ लंबा, गर्दन सुराहीनुमा तथा होंठ पतले एवं नाक नुकीली और तीखी होती है।
नाक- नक्शे का यह विरोधाभास साबित करता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता आर्यों की नहीं थी।
बौद्ध धर्म जब हिंदू धर्म है , तब जापान को हिंदुस्तान क्यों नहीं कहा जाता है?
पीपल के नीचे भूत नहीं बल्कि बुद्ध बैठे हैं। उत्तरवार्ता को धन्यवाद।
यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर अशोक के अभिलेख सच कैसे हैं ?
फाहियान का वृत्तांत सच कैसे है ?
भरहुत के लेख सच कैसे हैं ?
सभी तो कई बुद्ध होने का सबूत दे रहे हैं।
और जब सब कुछ झूठ ही है तो फिर आपका इतिहास सच कैसे है?
गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक नहीं थे। वे तो बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। संस्थापक और प्रवर्तक में अंतर होता है।
गौतम बुद्ध ने धर्म चक्र का प्रवर्तन किया था। वे धर्म चक्र के भी संस्थापक नहीं थे।
संस्थापक किसी धर्म की स्थापना करता ह, जबकि प्रवर्तक पहले से चले आ रहे किसी धर्म को परिमार्जित करते हुए नए सिरे से चालू करता है।
बौद्ध धर्म गौतम बुद्ध से पहले भी था।
यदि आप चाहें तो एक सूत्र अब याद कर सकते हैं, वह यह कि जिन ग्रंथों में गोतम का नाम सिद्धार्थ, पत्नी का नाम यशोधरा और माता का नाम महामाया आया है, वे बहुत बाद में लिखे गए ग्रंथ हैं।
ऐसे सभी ग्रंथ तब लिखे गए हैं, जब भारत की जनता बुद्ध का वास्तविक नाम गोतम, उनकी पत्नी का वास्तविक नाम कच्चाना तथा उनकी माता का वास्तविक नाम लुंमिनि भूल चुकी थी।
साहित्य में डुप्लीकेट नामों की सेंधमारी तब होती है, जब वास्तविक नाम कहीं गुम हो जाया करते हैं।
भाषाविज्ञान बताता है कि कोई भी भाषा 1000 सालों में अपने शब्दकोश का 19 % शब्द गुम कर देती है।
मेरा अनुमान है कि बुद्ध से जुड़ी नामवाची शब्दावली को गुम होने में हजारों साल लगे होंगे।
जब गौतम बुद्ध थे, तब न संस्कृत थी और न संस्कृत- संधि के नियम- कानून थे। इसलिए संस्कृत के नियम- कानून से बने सिद्धार्थ और उनकी पत्नी का नाम यशोधरा डुप्लीकेट है। पहले में संस्कृत की दीर्घ संधि है, दूसरे में विसर्ग संधि। डी. डी. कोसंबी ने बताया है कि बुद्ध का वास्तविक नाम गोतम तथा उनकी पत्नी का वास्तविक नाम कच्चाना था। वे यह भी बताते हैं कि बुद्ध के जन्म- नाम गोतम में डुप्लीकेट नाम सिद्धार्थ बाद में जोड़ा गया है और वे बुद्ध की पत्नी कच्चाना के यशोधरा नाम को इतना डुप्लीकेट मानते हैं कि पूरे इतिहास- ग्रंथ में इस नाम का उल्लेख तक नहीं करते हैं।
आइए, बुद्ध के वास्तविक नाम गोतम पर विचार करें।
गोतम नाम पर विचार करने के लिए आपको संस्कृत की दुनिया को छोड़ना होगा और कोलों की दुनिया में लौटना होगा, जिन कोलों की दुनिया में गोतम की माँ लुंमिनि जनमी थी, वह लुंमिनि जिसका डुप्लीकेट नाम इतिहासकारों ने महामाया बताया है। संथाली, मुंडारी और हो जैसी भाषाएँ कोलों की हैं। आप इन भाषाओं का शब्दकोश देख लीजिए, सीधे- सीधे गोतम शब्द मिलेगा, घी के अर्थ में। इन सभी भाषाओं में घी को गोतम ही कहा जाता है, कहीं- कहीं बँगला प्रभाव से गोतोम भी। घी, दूध, दधि के आधार पर नामकरण करने की परंपरा पहले भी थी, आज भी है। संस्कृत में भी, लोक में भी- संस्कृत में घृतप्रस्थ, दधिवाहन, नवनीत कुमार और लोक में मक्खन सिंह, दूधन राम, राबड़ी देवी आदि। कच्चाना- गोतम पुत्र राहुल को हुल जोहार!
इतिहासकारों ने मौर्य वंश के पतन के लिए तो बौद्ध- धर्म को जिम्मेवार बताया है, मगर गुप्त वंश के पतन के लिए ब्राह्मण- धर्म को जिम्मेवार नहीं बताया है।
उल्टे यह लिख दिया है कि बाद के गुप्त राजाओं का बौद्ध- धर्म के प्रति झुकाव हो गया था। इसलिए गुप्त वंश का पतन हो गया।
भाई ! राष्ट्रीय एकता की जगह जाति- पाँति फैलाइएगा, अश्वमेध यज्ञ रचाइएगा, सती के नाम पर स्त्रियों को जलाइएगा और इमारत के नाम पर सिर्फ मंदिर बनाइएगा तो साम्राज्य का पतन तो होगा ही।
इसके लिए ब्राह्मण- धर्म न जिम्मेवार है?
Courtesy: National Dastak
तो पढ़िए बुद्ध उन तथ्यों के बारे में जिन्हे जानकर आप आश्चर्यचकित होने वाले हैं:
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल!
बुद्ध अर्थात जागा हुआ, जानने वाला, ज्ञानी।
जो बुद्ध है वही संस्कृत में बुद् है अर्थात जागना, ज्ञान होना।
जो बुद्ध है वही रूसी में बुदीत् है अर्थात जागना।
जो बुद्ध है वही लिथुआनी में बुदति है अर्थात जानना।
जो बुद्ध है वही स्लोवानी में बुदिति है अर्थात जानना।
जो बुद्ध है,वही चेक और क्रोशियाई में ब्दीम है अर्थात जानना।
जो बुद्ध है वही अवेस्ता में बोदयति है अर्थात जानना, समझना।
बुद्ध पूर्णिमा की बधाई!!!
पालि में जो " थेर/थेरी " है, वही उत्तर भारत में " श्री " है, दक्षिण में " तिरु " है और लोक बोलियों में " सिरी " है।
नामों के अंत में " श्री " जोड़ने की परंपरा बौद्धों की है। पालि साहित्य में पटचारा थेरी, सुभा थेरी, उसभ थेर, चित्तक थेर आदि में थेर/ थेरी नामों के अंत में जुड़ा है।
बाद में भी थेर/ थेरी का संस्कारित रूप श्री बौद्ध नामों के अंत में मिलेगा जैसे मंजू श्री, राज्य श्री। बौद्धों की यह परंपरा काफी बाद में हिंदी में आई है। सुश्री वगैरह का लेखन तो आधुनिक काल के छायावाद युग में आया है।
जब सिंधु घाटी सभ्यता की व्यवस्थित खुदाई हो रही थी, तब जॉन मार्शल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक थे।
जॉन मार्शल को एहसास था कि सिंधु घाटी की सभ्यता बौद्ध सभ्यता जैसी है। जॉन मार्शल ने इसीलिए मोहनजोदड़ो के एल एरिया में स्थित सभा - भवन की बनावट पर यह टिप्पणी दी थी कि यह बौद्ध चैत्य जैसा है, उस चैत्य जैसा, जिसमें बौद्ध भिक्षु लंबी पंक्ति में आसीन होते थे।
गौतम बुद्ध का कपिलवस्तु ठीक वैसा ही बसा हुआ था, जैसे हड़प्पा, मोहनजोदड़ो के नगर बसे हुए थे।
दो भागों में - एक रिहायशी क्षेत्र और दूसरा धार्मिक क्षेत्र। कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र गनवरिया था और धार्मिक क्षेत्र पिपरहवा था। गनवरिया और पिपरहवा दोनों मिलकर कपिलवस्तु था। बुद्ध का घर गनवरिया के रिहायशी क्षेत्र में था। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो जैसे नगरों में भी रिहायशी क्षेत्र अलग था और धार्मिक क्षेत्र अलग था, जिसे पुरातात्विकों ने स्तूप क्षेत्र कहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता बौद्ध सभ्यता थी। प्रस्तुत है कपिलवस्तु पर पुरातत्व अधीक्षक की रिपोर्ट !
अभी- अभी यह तुलनात्मक तसवीरें सिद्धार्थवर्द्धन सिंह ने भेजी है।
पहली तसवीर सिंधु घाटी की सभ्यता में एक सील पर प्राप्त तथाकथित पशुपति की है और दूसरी तसवीर गौतम बुद्ध के मार- बंधन की है। यदि चित्र के प्रतीक भी संकेतों की भाषा है तो इसे गुनिए। विचार कीजिए, क्या तथाकथित पशुपति की तसवीर ककुसन्ध बुद्ध की हो सकती है?
कश्यप बुद्ध, ककुच्छंद बुद्ध और कनकमुनि बुद्ध के जन्मस्थान पर जाने का यात्रा - विवरण फाहियान ने अपनी पुस्तक के इक्कीसवें खंड में लिखा है।
गौतम बुद्ध से पहले भी बुद्ध हुए हैं और यदि हुए हैं तो बौद्ध सभ्यता का पिछला छोर पीछे कहाँ तक जाएगा ?
अमूमन 28 बुद्ध माने जाते हैं। एक बुद्ध का कार्य - काल यदि 50 साल भी मानें तो 28 बुद्ध का 1400 साल हुए। अब गौतम बुद्ध के कार्य-काल से 1400 साल पीछे की ओर जाइए तो कहाँ पहुँचिएगा ? वही सिंधु घाटी सभ्यता में!
भौतिक दर्शन ( भूतों का दर्शन) के सभी प्रणेता बुद्ध, अर्हत, चार्वाक, कौत्स कौन हैं ? ये भारतीय दर्शन के भूतवादी दार्शनिक हैं। भूतों के दार्शनिक हैं। इसीलिए वर्णाश्रमी आचार्यों ने भौतिक दर्शन को श्रेष्ठ नहीं माना है।
भौतिक दर्शन ( भूतों का दर्शन ) को छोड़िए, भूतों की भाषा को भी श्रेष्ठ नहीं माना गया है। भोलानाथ तिवारी ने भूत भाषा पर काफी कुछ लिखा है। बताया है कि भूत भाषा भारत के निम्न वर्ग के लोग बोलते थे। इसलिए यह श्रेष्ठ नहीं है।
भूत भाषा को छोड़िए, भौतिक ( भूतों का ) जीवन और संपदा को भी वर्णाश्रमी आचार्यों ने आध्यात्म की राह चलते तथा जगत को मिथ्या कहकर ठुकरा दिया है।
भौतिकता का मार्ग भूतों का है। भौतिक दर्शन भूतों का है। हर हाल में भौतिक भूतों से संबंधित शब्द है।
पालि का एक शब्द है - ककुध। ककु अर्थात शिखर। ककुसन्ध बुद्ध इसी से संबंधित हैं। ककुध के तीन रूप हैं - ककुध, ककुभ और ककुद।
ककुध के तीन अर्थ प्रमुख हैं - शीर्ष, राजचिह्न और वृषभ का कूबड़। विशेषण के अर्थ में यह उत्तम पुरुष का द्योतक है - अध्यात्म के क्षेत्र में भी और सत्ता के क्षेत्र में भी। सिंधु घाटी सभ्यता में सेलखड़ी पत्थर की बनी जिस प्रतिनिधि पुरुष की मूर्ति को इतिहासकारों ने पुरोहित नरेश या कोई शक्ति केंद्रित पुरुष की मूर्ति बताई है, उसके मस्तक पर गोल अलंकरण है, वह ककुध है।
कई सील - चित्रों पर कूबड़दार वृषभ का अंकन है और जिनके बारे में इतिहासकारों की राय है कि उनकी पूजा होती होगी, उनकी पीठ के शीर्ष भाग पर ककुध है।
गौतम बुद्ध के मस्तक पर जो उठी हुई गोलाई है, यदि आप उसे टीका या मांसपिंड समझते हैं तो यह गलतफहमी है। बौद्ध मत में इसे ककुध कहा जाता है। ककुध की परंपरा सिंधु घाटी सभ्यता को बौद्ध सभ्यता से जोड़ती है।
नीचे दो मूर्तियाँ हैं। एक सिंधु काल के पुरुष की मूर्ति है तथा दूसरी मौर्य काल की यक्षिणी की मूर्ति है और दोनों मूर्तियाँ विख्यात हैं।
दोनों मूर्तियों की नाक टूटी हुई है और दोनों का एक - एक हाथ टूटा हुआ है। यह आकस्मिक हो सकता है।
मगर दोनों मूर्तियों के सिर पर जो शिरोभूषण है, वह आकस्मिक नहीं है, वह एक खास किस्म की सभ्यता के संकेतक है और वह सभ्यता है - बौद्ध सभ्यता।
मौर्य काल और सिंधु काल दोनों बौद्ध सभ्यता में भीगा हुआ काल है। इसीलिए दोनों काल की मूर्तियों में मौजूद शिरोभूषण की समानता आकस्मिक नहीं है।
सिद्धार्थवर्द्धन सिंह ने अपने हालिया लेख में यह साबित करने की कोशिश की है कि सिंधु घाटी सभ्यता में मिली पशुपति की मूर्ति वस्तुतः ककुसन्ध बुद्ध की है। वे सिन्धु, सन्ध और ककुसन्ध को जोड़ते भी हैं। मेजर फोर्ब्स ने बताया है कि ककुसन्ध बुद्ध का समय 3101 ई. पू. है तो साबित - सी बात है कि ककुसन्ध बुद्ध सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन थे।
बाद के इतिहासकार एस. के. बिस्वास ने याद दिलाई है कि सिंधु घाटी की एक मूर्ति का वस्त्र- विन्यास गौतम बुद्ध जैसा है। गौतम बुद्ध अपने वस्त्र को बाएँ कंधे पर रखते थे, जबकि दायाँ कंधा मुक्त होता था। तो क्या सचमुच सिंधु घाटी से मिली मूर्ति जिसे इतिहासकार पशुपति का बताते हैं, वह गौतम बुद्ध के पहले के ककुसन्ध बुद्ध की है ?
एक थे बौद्ध गुरु घंटाल, कम से कम नागार्जुन के समकालीन जिनकी स्मृति में पद्मसंभव ने 8 वीं सदी में गुरु घंटाल मठ की स्थापना की थी।
बौद्ध गुरु घंटाल हिंदी में नाहक बहुत बदनाम हुए हैं - धूर्तता को लेकर, ठगी को लेकर, चालबाजी को लेकर !
गुरु घंटाल का अर्थ धूर्त किसने किया ?
पुरातात्विक साक्ष्य गवाह है कि बुद्ध से पहले कोई विष्णु नहीं थे।
इसलिए बुद्ध किसी विष्णु के अवतार नहीं हैं बल्कि विष्णु ही बुद्ध के मिथकीय अवतार हैं।
ये अशोक का रुम्मिन देई स्तंभलेख है। यह स्तंभलेख वही खड़ा है, जहाँ बुद्ध की माँ ने बुद्ध को जन्म दी थी।
रुम्मिन में जुड़ा हुआ देई ( देवी ) शब्द साबित करता है कि रुम्मिन कोई महिला थी जिनकी पूजा वहाँ होती है।
ये रुम्मिन नामक महिला कौन थी? जी हाँ, बुद्ध की माँ थीं। अभिलेख से पता चलता है कि बुद्ध की माँ का वास्तविक नाम लुंमिनि रहा होगा। यही आगे चलकर स्थानबोधक लुंबिनी हो गया है।
यदि आप मानते हैं कि बौद्ध मठों (विहार) की प्रधानता के कारण भारत के एक प्रांत का नाम बिहार है तो आप यह भी मानिए कि इस प्रांत के अधिकांश नगरों में बौद्ध मठ थे। बौद्ध मठ को पालि में " आराम " कहा जाता है और इसी " आराम " के नाम पर आज का शहर " आरा " है।
डॉ. देवसहाय त्रिवेद ने आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, भाग 3, पृष्ठ 70 (अभिलेख) के हवाले से बताया है कि आधुनिक शाहाबाद जिले के प्रधान शहर को प्राचीन काल में "आराम नगर " कहते थे। आधुनिक काल में जब अंग्रेज आए, तब आरा के लोगों से पूछा कि ये कौन - सा शहर है ? लोगों ने भोजपुरी में बताया कि आरा हऽ अर्थात आरा है। अंग्रेजों ने रिकॉर्ड किया - आराहऽ ( Arrah )। अब आराहऽ (Arrah) धीरे - धीरे फिर से आरा ( Ara ) में बदलने लगा है।
गल्प कथाओं में कलियुग को अनैतिक, अत्याचारी और पतन का युग कहा जाता है जिसका आरंभ 3101 ई. पू. में माना जाता है।
मगर 3101 ई. पू. तो पुरातत्व के अनुसार सिंधु घाटी की सभ्यता का युग है।
दूसरे शब्दों में, जिसे कलियुग कहा जाता है, वह वस्तुतः सिंधु घाटी की सभ्यता का समय है।
गौतम बुद्ध के औसत से अधिक लटके बड़े कान की परिकल्पना इस बात के संकेतक हो सकते हैं कि वे सुनते अधिक और बोलते कम थे।
अमेरिका में बौद्ध सभ्यता!
आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अपनी पुस्तक "बुद्ध और बौद्ध धर्म "में प्रोफेसर फायरमेन के हवाले से बताया है कि 14 सौ साल पहले बौद्ध भिक्षु अमेरिका पहुँचे थे और वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार किए थे।
चीन के प्राचीन ग्रंथों में जो "फुसम" नामक देश का वर्णन है ,वह मेक्सिको है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि 5 वीं शती में सुंगवंशीय राजा थामिन के शासनकाल में 5 बौद्ध- भिक्षु काबुल से फुसम (मेक्सिको) गए थे और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किए। आगे ह्वेनसांग ने फुसम देश के फल, धातु और आचार- विचार के बारे में लिखा है जो अमेरिका के मूल निवासियों तथा मेक्सिको की सीमा पर रहनेवाले लोगों से मिलता- जुलता है।
चतुरसेन शास्त्री ने बताया है कि ये 5 बौद्ध- भिक्षु रूस की उत्तरी सीमा पर कामश्चारका प्रायद्वीप से पैसिफिक- महासागर को पार कर एलास्का की ओर से अमेरिका पहुँचे थे और फिर दक्षिण की ओर से मेक्सिको गए थे। इसीलिए मैक्सिको के मूल निवासियों की सभ्यता बौद्ध सभ्यता से मेल खाती है।
मैक्सिको में पुरोहित को "ग्वाते- मोट- निज" कहते हैं, वह गोतम का रूप है। और भी जैसे - शाकारापेक, शाकापुलाश। ये सब शाक्य शब्द से मिलते हैं। पालेस्के में एक प्राचीन बुद्ध की मूर्ति ह , जिसे वे "शाकामोल" कहते हैं। शाकामोल अर्थात शाक्यमुनि।
अरे! आपने पहचाना नहीं? मैं वही आपका बुद्ध हूँ!!
मुझे कई धर्म- रंगों में रंगा गया है। आप देखते नहीं कि मेरे कंधों पर लटके हुए केश हैं। ललाट पर तिलक है। बाँह में ताबीज है।गले में माला है।मूँछें हैं।
पहचाना नहीं? मैं वही बुद्ध हूँ !!
स्वर्णाक्षरों में अंकित मुहावरे को सच साबित करता हुआ सोने की स्याही से स्वर्णांकित स्वर्ण बौद्ध- ग्रंथ।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री की पुस्तक "बुद्ध और बौद्ध धर्म" से ऐसा जान पड़ता है कि कनिष्क ने पूर्व के शाक्य संवत को जो शुंग- काल में टूट- सा गया था, उसे फिर से 78 ई. में प्रवर्तित किया था।
शक संवत के प्रवर्तक कनिष्क शक नहीं बल्कि शाक्य मुनि का अनुयायी था। ऐसे में संभावना बनती है कि शक संवत वस्तुतः शाक्य संवत का अपभ्रंश है।
चक्रवर्ती अर्थात जिसके रथ का पहिया बहुत दूर- दूर तक घूमता हो, वह राजा जिसका राज्य बहुत दूर- दूर तक फैला हो।
अशोक ने अपने अभिलेखों में "चक्रवर्ती" का उल्लेख नहीं किया है, मगर बाद के साहित्य में उनका चक्रवर्ती के रूप में वर्णन मिलता है ।
संस्कृत साहित्य में चक्रवर्ती की परिकल्पना अशोक और अशोक- चक्र से की गई जान पड़ती है तथा यदि ऐसा है तो चक्रवर्ती की परिकल्पना से लैस संस्कृत साहित्य अशोक के बाद का है एवं चक्रवर्ती से विभूषित नायक भी।
अशोक- चक्र में 24 तीलियाँ हैं, ठीक उतनी ही जितनी कि मौर्यकालीन रथों में हुआ करती थीं ।
देखिए चित्र, मौर्यकालीन लकड़ी का बना रथ का पहिया जिसमें 24 तीलियाँ हैं। साभार पटना म्युजियम।
सिकंदर को विश्वविजेता क्यों कहा जाता है? इसलिए कि उस समय विश्व की अवधारणा एशिया में सिकुड़ी हुई थी।
अमेरिका आदि विश्व पटल से बाहर थे। फिर बुद्ध तो सिकंदर से पहले हुए हैं ।
यदि एशिया में सैनिक विजय करने वाला सिकंदर विश्वविजेता है तो एशिया में धम्म विजय करने वाले बुद्ध विश्वगुरु कैसे नहीं हैं?
सिंधु घाटी की सभ्यता में राक्षस थे नहीं और गौतम बुद्ध ने किसी राक्षस का वध किया नहीं।
बुद्ध के बाद नंद वंश, मौर्य वंश, गुप्त वंश जैसे राजवंश थे।
फिर कहाँ से आए इतने सारे राक्षस?
कब के हैं? कौन थे राक्षस?
यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर अशोक के अभिलेख सच कैसे हैं जिसमें कनकमुनि बुद्ध का पुरातात्विक प्रमाण है ?
यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर फाहियान का वृत्तांत सच कैसे है जिसमें क्रकुच्छंद बुद्ध और कस्सप बुद्ध के स्मारकों का आँखों देखा बयान है?
यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर
भरहुत के लेख सच कैसे हैं जिसमें अन्य बुद्ध के होने का सबूत है?
यदि अशोक के अभिलेख, फाहियान का यात्रा- वृत्तांत और भरहुत के अभिलेख सब कुछ झूठ ही है तो फिर आपका इतिहास सच कैसे है?
सिंधु घाटी की सभ्यता आस्ट्रो- द्रविड़ों का ही है। दरअसल बौद्ध सभ्यता का क्रमशः विकास हुआ है। उसमें कई चीजें बाद में जुड़ी हैं और कई चीजें हटी हैं। वृक्ष, विशेषकर पीपल पूजा किन की है, आस्ट्रो- द्रविड़ों का ही तो है। फिर ये सब बौद्धों में भी तो है। संथालों का मारंग मारु कौन है? बुद्ध की तरह ज्ञान और प्रज्ञा के देवता हैं ।साहेबगंज के संथालों में धार्मिक क्रिया- कलापों के दौरान सिंधु लिपि जैसी लिपि का प्रयोग होता है। सिंधु लिपि तो ब्राह्मी लिपि है नहीं और न ही उसकी भाषा पालि है। बौद्ध सभ्यता का क्रमशः विकास या परिवर्तन इसे जो भी कह लें, हुआ है। हम बौद्ध धर्म को आज की तारीख में देख रहे हैं। हम आदिवासी समाज को आज की तारीख में देख रहे हैं। हंटर ने लिखा है कि संथालों के बीच बौद्ध धर्म प्रचलित था। आज भी कई आदिवासी समुदाय बौद्ध ही तो है- मोंपा, शेरडुकपेन, मेंबास, खाम्ती , सिंहपो , तामंग - ये सभी बौद्ध ही तो हैं। आप खाम्ती आदिवासियों का रामायण पढ़ लीजिए- पूरी तरह से बौद्ध धर्म में भीगा हुआ है। निचले बंगाल में, आदिवासी बहुल इलाकों में शिव की नाक चपटी, होठ मोटे हैं। शिव आदिवासियों के हैं, योग संस्कृति के हैं; वहीं योग संस्कृति जो बौद्ध सभ्यता में मौजूद है और वही सिंधु घाटी की सभ्यता में भी। बौद्ध सभ्यता की आदिम विशेषताएं आदिवासियों में है। बौद्ध सभ्यता का आरंभिक विकास आदिवासियों ने ही किया है। बौद्ध सभ्यता का विकास हजारों साल में हुआ है , कई पीढ़ियों ने , कई लोगों ने इसके विकास में योगदान किया है।
बुद्ध के पहले और बुद्ध के बाद के अवतारों के घर कहाँ गए , जबकि बुद्ध का घर मिल गया है।
किसकी थी सिंधु घाटी की सभ्यता? आपको इसे जानने के लिए दूर नहीं जाना है।
आप मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्रतिनिधि -पुरुष के नाक- नक्शे को गौर से देखिए।
मूर्ति का मस्तक छोटा तथा पीछे की ओर ढलुआ है। गर्दन कुछ अधिक मोटी है तथा मुँह की गोलाई बड़ी है। होंठ मोटे हैं। नाक चौड़ी और कुछ ऊपर की ओर उभरी हुई है। जबकि नृविज्ञानियों ने बताया है कि आर्यों का मस्तक उभरा हुआ लंबा, गर्दन सुराहीनुमा तथा होंठ पतले एवं नाक नुकीली और तीखी होती है।
नाक- नक्शे का यह विरोधाभास साबित करता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता आर्यों की नहीं थी।
बौद्ध धर्म जब हिंदू धर्म है , तब जापान को हिंदुस्तान क्यों नहीं कहा जाता है?
पीपल के नीचे भूत नहीं बल्कि बुद्ध बैठे हैं। उत्तरवार्ता को धन्यवाद।
यदि कई बुद्ध के होने की बात झूठ है तो फिर अशोक के अभिलेख सच कैसे हैं ?
फाहियान का वृत्तांत सच कैसे है ?
भरहुत के लेख सच कैसे हैं ?
सभी तो कई बुद्ध होने का सबूत दे रहे हैं।
और जब सब कुछ झूठ ही है तो फिर आपका इतिहास सच कैसे है?
गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक नहीं थे। वे तो बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। संस्थापक और प्रवर्तक में अंतर होता है।
गौतम बुद्ध ने धर्म चक्र का प्रवर्तन किया था। वे धर्म चक्र के भी संस्थापक नहीं थे।
संस्थापक किसी धर्म की स्थापना करता ह, जबकि प्रवर्तक पहले से चले आ रहे किसी धर्म को परिमार्जित करते हुए नए सिरे से चालू करता है।
बौद्ध धर्म गौतम बुद्ध से पहले भी था।
यदि आप चाहें तो एक सूत्र अब याद कर सकते हैं, वह यह कि जिन ग्रंथों में गोतम का नाम सिद्धार्थ, पत्नी का नाम यशोधरा और माता का नाम महामाया आया है, वे बहुत बाद में लिखे गए ग्रंथ हैं।
ऐसे सभी ग्रंथ तब लिखे गए हैं, जब भारत की जनता बुद्ध का वास्तविक नाम गोतम, उनकी पत्नी का वास्तविक नाम कच्चाना तथा उनकी माता का वास्तविक नाम लुंमिनि भूल चुकी थी।
साहित्य में डुप्लीकेट नामों की सेंधमारी तब होती है, जब वास्तविक नाम कहीं गुम हो जाया करते हैं।
भाषाविज्ञान बताता है कि कोई भी भाषा 1000 सालों में अपने शब्दकोश का 19 % शब्द गुम कर देती है।
मेरा अनुमान है कि बुद्ध से जुड़ी नामवाची शब्दावली को गुम होने में हजारों साल लगे होंगे।
जब गौतम बुद्ध थे, तब न संस्कृत थी और न संस्कृत- संधि के नियम- कानून थे। इसलिए संस्कृत के नियम- कानून से बने सिद्धार्थ और उनकी पत्नी का नाम यशोधरा डुप्लीकेट है। पहले में संस्कृत की दीर्घ संधि है, दूसरे में विसर्ग संधि। डी. डी. कोसंबी ने बताया है कि बुद्ध का वास्तविक नाम गोतम तथा उनकी पत्नी का वास्तविक नाम कच्चाना था। वे यह भी बताते हैं कि बुद्ध के जन्म- नाम गोतम में डुप्लीकेट नाम सिद्धार्थ बाद में जोड़ा गया है और वे बुद्ध की पत्नी कच्चाना के यशोधरा नाम को इतना डुप्लीकेट मानते हैं कि पूरे इतिहास- ग्रंथ में इस नाम का उल्लेख तक नहीं करते हैं।
आइए, बुद्ध के वास्तविक नाम गोतम पर विचार करें।
गोतम नाम पर विचार करने के लिए आपको संस्कृत की दुनिया को छोड़ना होगा और कोलों की दुनिया में लौटना होगा, जिन कोलों की दुनिया में गोतम की माँ लुंमिनि जनमी थी, वह लुंमिनि जिसका डुप्लीकेट नाम इतिहासकारों ने महामाया बताया है। संथाली, मुंडारी और हो जैसी भाषाएँ कोलों की हैं। आप इन भाषाओं का शब्दकोश देख लीजिए, सीधे- सीधे गोतम शब्द मिलेगा, घी के अर्थ में। इन सभी भाषाओं में घी को गोतम ही कहा जाता है, कहीं- कहीं बँगला प्रभाव से गोतोम भी। घी, दूध, दधि के आधार पर नामकरण करने की परंपरा पहले भी थी, आज भी है। संस्कृत में भी, लोक में भी- संस्कृत में घृतप्रस्थ, दधिवाहन, नवनीत कुमार और लोक में मक्खन सिंह, दूधन राम, राबड़ी देवी आदि। कच्चाना- गोतम पुत्र राहुल को हुल जोहार!
इतिहासकारों ने मौर्य वंश के पतन के लिए तो बौद्ध- धर्म को जिम्मेवार बताया है, मगर गुप्त वंश के पतन के लिए ब्राह्मण- धर्म को जिम्मेवार नहीं बताया है।
उल्टे यह लिख दिया है कि बाद के गुप्त राजाओं का बौद्ध- धर्म के प्रति झुकाव हो गया था। इसलिए गुप्त वंश का पतन हो गया।
भाई ! राष्ट्रीय एकता की जगह जाति- पाँति फैलाइएगा, अश्वमेध यज्ञ रचाइएगा, सती के नाम पर स्त्रियों को जलाइएगा और इमारत के नाम पर सिर्फ मंदिर बनाइएगा तो साम्राज्य का पतन तो होगा ही।
इसके लिए ब्राह्मण- धर्म न जिम्मेवार है?
Courtesy: National Dastak
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