पश्चिम बंगाल: तीन सौ वर्षों बाद दलित परिवारों ने मंदिर में प्रवेश तो किया लेकिन अब बहिष्कार और धमकियों का सामना कर रहे!

Written by sabrang india | Published on: May 28, 2025
तीन सौ वर्षों के बाद दलित परिवारों ने गिड़ेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश किया, लेकिन इसके बाद सामाजिक बहिष्कार शुरू हो गया।



पश्चिम बंगाल के पूर्वी बर्दवान जिले के गिड़ाग्राम गांव के 130 दलित परिवारों के लिए 13 मार्च 2025 का दिन ऐतिहासिक बन गया। तीन सौ वर्षों के लंबे इंतजार के बाद इन परिवारों को पहली बार अपने ही गांव के गिड़ेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश करने का मौका मिला। यह प्रवेश भारी पुलिस सुरक्षा के बीच हुआ, लेकिन यह पल समाज में गहराई से जमी जातीय असमानता के खिलाफ एक मजबूत और प्रतीकात्मक संदेश बन गया।

हालांकि 13 मार्च 2025 को मिला मंदिर में प्रवेश का पल ऐतिहासिक और भावनात्मक था लेकिन वह खुशी ज्यादा समय तक टिक नहीं सकी। फ्रंटलाइन द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, मंदिर प्रवेश के बाद गांव के प्रभावशाली तबके ने दलित परिवारों के खिलाफ सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार कर दिया। घटना के दो महीने बाद जब गांव का दौरा किया गया, तो यह साफ हुआ कि ऊपर-ऊपर भले ही एक बेमन जैसा स्वीकार नजर आता है, लेकिन भीतर ही भीतर जातीय तनाव अब भी गहराई से मौजूद है। यह स्थिति उस छवि को चुनौती देती है जिसमें पश्चिम बंगाल खुद को एक 'अजाती' और समावेशी समाज के रूप में पेश करता रहा है।

द मूकनायक ने अखबार के हवाले से लिखा, दास पाड़ा से महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर गिड़ेश्वर मंदिर स्थित है, जहां दलित (मुख्यतः दास उपजाति) परिवार रहते हैं। करीब 2000 परिवारों वाले गिड़ाग्राम में केवल इन 130 दलित परिवारों को मंदिर में प्रवेश से वंचित रखा गया था। यह भेदभाव पीढ़ियों से चला आ रहा था। कई बैठकों, प्रशासन के दखल और स्थानीय सहमति के बाद, आखिरकार 13 मार्च को पांच दलितों ने भारी पुलिस सुरक्षा में मंदिर में प्रवेश कर भगवान की पूजा की।

लेकिन इसके बाद जबरदस्त प्रतिकूल प्रतिक्रिया सामने आई। करीब एक महीने तक दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार हुआ। गांव के प्रभावशाली वर्ग ने उनके खिलाफ आर्थिक बहिष्कार का भी आह्वान किया।

एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा, “इस बहिष्कार ने मंदिर में प्रवेश की हमारी खुशी छीन ली। हालांकि अब स्थिति थोड़ी बेहतर हो रही है और लोग हमें मंदिर में स्वीकार करने लगे हैं, लेकिन दिल का दर्द बरकरार है।”

दास समुदाय के सदस्यों का कहना है कि उन्हें सामाजिक जीवन के अन्य पहलुओं में कभी भेदभाव नहीं झेलना पड़ा। वे शादियों में शरीक होते थे, दूसरों को बुलाते थे और विभिन्न समुदायों के साथ उनके संबंध सौहार्दपूर्ण रहे। लेकिन जैसे ही बात मंदिर में प्रवेश की आती थी तो उन्हें अछूत मान लिया जाता था। इस ऐतिहासिक परिवर्तन पर प्रतिक्रिया देते हुए सुकांता दास ने कहा, “अब जब हमें मंदिर में प्रवेश मिला है, तो हमारे भीतर आत्मसम्मान की एक नई भावना जगी है। ऐसा महसूस होता है जैसे हमारी तक़दीर ही बदल गई हो।”

समुदाय के वरिष्ठ सदस्य दिनबंधु दास ने कहा, “पहले हमारे लड़के-लड़कियों में आत्मविश्वास की कमी थी, लेकिन इस संघर्ष ने उनमें एक नया साहस भर दिया है।” हालांकि वे यह भी स्वीकार करते हैं कि मंदिर प्रवेश की मांग उठने के बाद गांव के सामाजिक रिश्तों में तनाव बढ़ा है, और जब यह प्रवेश पुलिस सुरक्षा के बीच हुआ, तो हालात और अधिक संवेदनशील हो गए।

हालांकि दलित परिवार बाहर से यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि गांव में हालात अब सामान्य हो रहे हैं, लेकिन भीतर की पीड़ा कई बार शब्दों या नजरों से झलक जाती है। द्युति राम दास, जिनकी दो बेटियां गिड़ेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश करने वाली पहली दलित महिलाएं थीं, बताती हैं, “शुरुआत में ऊंची जातियों की महिलाएं मंदिर आना बंद कर चुकी थीं। लेकिन अब वे लौट आई हैं और हमारी बेटियों से ऐसे हंस-हंसकर बात करती हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो।” हालांकि यह सतही मेल-जोल किसी समरसता का संकेत लग सकता है। मिथु दास की मानें तो सच्चाई इससे अलग है। “कई महिलाएं अब भी मंदिर जाने से हिचकती हैं।”

उन्होंने कहा, “हम चाहते हैं कि ये समस्याएं खत्म हों और हम सब पहले की तरह शांति से साथ रहें।”

गांव में पहले से मौजूद तनाव और सामाजिक संतुलन को बिगड़ने से रोकने के लिए दलित समुदाय ने अपने स्तर पर संयम बरतने का फैसला किया है। भले ही उन्हें अब मंदिर में प्रवेश का पूरा अधिकार मिल चुका है, लेकिन वे खुद ही नियम बनाकर चल रहे हैं जैसे, एक बार में केवल दो ही महिलाएं मंदिर जाती हैं। एक महिला ने संकोच के साथ कहा, “हमें पता है लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं। हम जान-बूझकर भीड़ नहीं करते, क्योंकि माहौल पहले से ही गर्म है, हम नहीं चाहते कि और चिंगारी भड़के।” इतना ही नहीं, उन्होंने मंदिर के सामने फोटो खिंचवाने से भी परहेज़ किया।

हालांकि गांव में हालात ऊपर से सामान्य दिखते हैं, लेकिन डर की हल्की-सी परत अब भी मौजूद है। दलित समुदाय के कुछ सदस्यों को अब भी छिपे तौर पर धमकियों का सामना करना पड़ता है। एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया, “कई बार कानों में पड़ता है ‘अभी तो सरकार की वजह से मंदिर में घुस पाए हो, सरकार बदलेगी तब देखेंगे।’”

गांव में हर कोई इस बदलाव से खुश नहीं है। गिड़ेश्वर मंदिर के पास बैठे कुछ लोगों ने अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर की। एक स्थानीय निवासी ने तंज भरे लहजे में कहा, “अब कुछ कहने का क्या फायदा? वे तो पुलिस के सहारे मंदिर में घुस ही गए। लेकिन हमारी 400 साल पुरानी परंपरा का क्या होगा?” बदलाव की यह हलचल इतनी गहरी रही कि इस साल अप्रैल में मनाया जाने वाला मंदिर का सबसे बड़ा त्योहार जो दशकों से पूरे गांव को एक साथ लाता था, पहली बार नहीं मनाया गया।

गांव के कई लोगों का मानना है कि दास समुदाय को मंदिर प्रवेश से वंचित रखने की जड़ें उनके पारंपरिक पेशे से जुड़ी हैं। कहा जाता है कि वे लंबे समय से पशुओं की खाल से जुड़े काम करते रहे हैं। इसी कारण उन्हें 'अपवित्र' मानकर मंदिर से दूर रखा गया। एक स्थानीय निवासी, जिनका उपनाम प्रामाणिक था और परंपरागत रूप से नाई समुदाय से जुड़े हैं, उन्होंने स्पष्ट किया, “यह मुद्दा सभी एससी या ओबीसी समुदायों का नहीं है, सिर्फ दासों का है।” हालांकि उन्होंने यह कहकर अपनी बात को अधूरा ही छोड़ दिया और राय जाहिर करने से परहेज़ किया।

यह पूरा घटनाक्रम पश्चिम बंगाल में जातिगत असमानताओं की गहरी जड़ों को सामने लाता है। प्रख्यात समाजशास्त्री सुरजीत सी. मुखोपाध्याय इस संदर्भ में कहते हैं, “बहुत से लोग यह मानते हैं कि बंगाल में जातिवाद नहीं है, क्योंकि ज्यादातर जानकारी कोलकाता जैसे बड़े शहरों तक सीमित रहती है। लेकिन असलियत यह है कि गांवों की स्थिति पूरी तरह अलग है, जहां जातिगत भेदभाव अभी भी प्रबल है।”

प्रख्यात समाजशास्त्री सुरजीत सी. मुखोपाध्याय ने बताया कि बंगाल का सुधार आंदोलन, जिसमें राजा राममोहन राय, विद्यासागर और बाद में वामपंथी आंदोलन शामिल हैं, अपेक्षाकृत नया है, जबकि जातिगत संरचनाएं सदियों पुरानी हैं। उन्होंने कहा, “गिड़ाग्राम की घटना बंगाल की सामाजिक और राजनीतिक हकीकत को सामने लाती है।”

सीपीआई (एम) के वरिष्ठ नेता तमाल मांझी के अनुसार, गिड़ाग्राम के दास समुदाय की इस लड़ाई ने आसपास के अन्य गांवों को भी प्रेरित किया है। उन्होंने बताया, “गिड़ाग्राम के बाद केतुग्राम और देवग्राम में भी दलित समुदाय को मंदिर में प्रवेश का अधिकार मिला है। कुछ स्थानों पर यह बिना किसी विवाद के हुआ, तो कहीं कोर्ट के आदेश के बाद।”

दास पाड़ा के लोगों के लिए यह संघर्ष लंबा और अपमानजनक रहा लेकिन उन्होंने आखिरकार अपनी बुनियादी गरिमा हासिल कर ली, वह सम्मान जिसकी वे हमेशा से हकदार थे। भले ही इस लड़ाई ने गांव के कुछ हिस्सों को उनसे दूर कर दिया हो पर वे दृढ़ विश्वास रखते हैं कि एक दिन उनके विरोधी भी अपनी सोच की भूल स्वीकार कर लेंगे।

एक बुजुर्ग ने कहा, “हम जानते हैं, एक दिन वे समझेंगे कि यह परंपरा को खत्म करना नहीं, बल्कि न्याय को बहाल करना था।”

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