बुद्ध, बौद्ध धर्म और विपश्यना

Written by Sanjay Shraman Jothe | Published on: October 13, 2018
बुद्ध से लेकर कृष्णमूर्ति जैसे गंभीर दार्शनिकों और ओशो जैसे मदारी बाबाओं से लेकर पश्चिम में एकहार्ट टोले तक में धर्म और मानवीय चेतना के बारे में एक वैज्ञानिक प्रस्तावना उभरती रही है. अलग अलग प्रस्थान बिन्दुओं से यात्रा करते हुए बुद्ध कबीर अंबेडकर कृष्णमूर्ति और टोले एक जैसी निष्पत्तियों पर आ रहे हैं और गौतम बुद्ध की क्रान्तिद्रिष्टि को समकालीन समाज के अनुकूल बनाते जा रहे हैं.



जैसे जैसे सभ्यता आगे बढ़ रही है, सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक बदलावों और क्रांतियों के साथ वैज्ञानिक और तकनीकी विकास होता जा रहा है वैसे वैसे मनुष्य समाज अधिकाधिक बौद्धिक रुझान का होता जा रहा है. कोरे विश्वासों और मूर्खतापूर्ण कर्मकांडों से परे विशुद्ध ध्यान मूलक अनुशासनों का आकर्षण बढ़ रहा है.

अब जब ध्यान की बात आती है तो इसका अर्थ बुद्ध और बौद्ध धर्म होता है. पूरी दुनिया में बुद्ध और बौद्ध धर्म ध्यान और चेतना के विकास के विज्ञान के पर्याय बन चुके हैं.

इस कड़ी में हम ये जानने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक आयामों के अतिरिक्त वह कौनसा आयाम है जिसकी किसी कौम को या किसी समाज को जरूरत होती है.

वह कौनसी भूमि है जिसपर खड़े होकर कोई समाज या कौम अपने होने की घोषणा करता है और जिसके आधार पर वह अपने अतीत सहित भविष्य का चेहरा दुनिया के सामने रखता है. वह आयाम है उस समाज का “धर्म और रहस्यवाद”. और यह आयाम व्यावहारिक रूप में उस समाज की ध्यान करने की या चेतना के विकास को सिद्ध करने और समझाने की पद्धति से अनुमान में आता है.

सीधी सी बात है किसी समाज में या धर्म में चेतना के विकास का या चेतना के अंतिम लक्ष्य के संधान की जैसी धारणा होती है, उसी के अनुरूप उसका सदाचार, शिष्टाचार, सामाजिक ताना बाना, जीवन व जगत के प्रति दृष्टिकोण और न्याय बोध आकार लेता है. ध्यान और आत्मिक विकास के अन्य अनुशासनों का स्वरुप देखकर ही उसकी मान्यताओं का वास्तविक अर्थ समझा जाता है.

इस अर्थ में हमें यह समझना बहुत जरुरी है कि एक वैज्ञानिक और समतामूलक समाज की स्थापना की दिशा में सामाजिक राजनीति और आर्थिक उपायों से कहीं आगे जाते हुये एक वैज्ञानिक आध्यात्म की भी आवश्यकता है. यह विषय बहुत महत्वपूर्ण है.

धर्म और रहस्यवाद की जिस तरह की धारणाएं प्रचलित हैं और जिस तरह से दलित और गरीब समाज उसमे फसा हुआ है उसे देखकर इस विषय की महत्ता और भी बढ़ जाती है. जिन्होंने इस विषय पर गहराई से अध्ययन किया है और आसपास के जीवन को आँखें खोलकर देखा है वे जानते हैं कि गरीबों, दलितों और महिलाओं की असली गुलामी सामाजिक राजनीतिक या आर्थिक गुलामी नहीं है.

असली गुलामी मनोवैज्ञानिक गुलामी है और उसका एकमात्र स्त्रोत धर्म और इश्वर या आत्मा की धारणा में होता है. जो लोग नास्तिकवाद का प्रचार करते हैं वे इस बात को समझते हैं लेकिन इस सच्चाई को अमल में लाने का जो माडल देते हैं वह व्यक्तिगत विद्रोह का माडल है. नास्तिक और इश्वर विरोधी सामूहिक क्रान्ति अगर किसी तरह हो सकती है या हुई है तो वो गौतम बुद्ध के साथ ही संभव है.

बुद्ध आत्मा, परमात्मा स्वर्ग नरक और पुनर्जन्म की मूर्खतापूर्ण धारणाओं को एकदम निकाल बाहर करते हैं और एक वैज्ञानिक आध्यात्म की नीव रखते हैं. बुद्ध असल में चेतना के जगत में सबसे महान वैज्ञानिक हैं. और कई अर्थों में बौद्ध धर्म वैज्ञानिक आध्यात्म का पर्याय बन गया है. बुद्ध और बौद्ध ध्यान अनुशासन को समझना इस सन्दर्भ में उपयोगी होगा. आइये इस विषय में प्रवेश करें.

बुद्ध भारत के लिए क्यों जरुरी हैं और उनकी बतलाई पद्धतियाँ किस तरह हमारे लिए उपयोगी हैं ये हमें जानना चाहिए. जो लोग भारतीय समाज में विभाजन अंधविश्वास, ऐतिहासिक, पराजय, गुलामी और अवैज्ञानिकता को देखकर दुखी होते हैं उन्हें बुद्ध को गहराई से समझना चाहिए.

अक्सर ही भारतीय समाज की समस्याओं का पहाड़ देखकर निराशा होती है और इस पहाड़ के सामने नतमस्तक हो चुके बुद्धिजीवी, क्रांतिकारी, प्रगतिशील, नास्तिक नए धर्मों के प्रवर्तकों और गुरुओं से भी निराशा होती है. कुछ विद्रोहियों को छोड़ दें तो बाकी सब के सब पुरानी समाज व्यवस्था के सामने हार चुके हैं. न केवल हार चुके हैं बल्कि वे बहुत अपमानजनक समझौते करके ज़िंदा हैं.

इस अर्थ में मध्यकाल के कबीर और आधुनिक युग के कृष्णमूर्ति अकेले हैं जो कोई समझौता नहीं कर रहे हैं. इन दोनों में बुद्ध की तरह ही गैर समझौतावादी क्रान्तिद्रिष्टि है. कबीर का साहित्य चूंकि प्रक्षिप्तों से पाट दिया गया है और उनके लेखन में बहुत सारा लेखन उनके विरोधियों ने उनके नाम से ठूंस दिया है इसलिए कभी कभी कबीर भी परम्परागत लगते हैं.

खासकर तब जब उनकी भक्ति और उनका रहस्यवाद वैष्णव भक्ति या नवधा भक्ति जैसा नजर आता है. कबीर न तो रामानंद के शिष्य हैं न वैष्णव हैं. वे खालिस गैर सांप्रदायिक व्यक्ति हैं जो जाति वर्ण सहित स्त्री पुरुष के विभाजन को भी नहीं मानते हैं. इस अर्थ में वे बुद्ध के बहुत निकट हैं. ब्राह्मणवादियों और पोंगा पंडितों ने षड्यंत्र पूर्वक बुद्ध को विष्णु और कबीर को वैष्णव बनाया है.

लेकिन बुद्ध और कबीर इतने विराट हैं कि इन आरोपणों और षड्यंत्रों का सीना चीर कर बार बार निकल आते हैं और अंधविश्वास पर खड़े धर्मों की प्रस्तावनाओं पर कहर बनकर टूटते हैं. ये उनकी अपनी विशेष शैली और पहचान है.

उधर कृष्णमूर्ति तो खालिस बौद्ध दर्शन पर ही टिके हैं और उनकी शिक्षाओं का सार बौद्ध धर्म की विपश्यनामूलक अंतर्दृष्टि पर आधारित है. उनका सबसे गहरा और प्रचलित वक्तव्य है – “दृष्टा ही दृश्य है” (observer is the observed). यह बहुत ही सुन्दर और क्रांतिकारी वक्तव्य है.

इस एक वक्तव्य की गहराई में जाते ही हम देख सकेंगे कि कृष्णमूर्ति की “चोइसलेस अवेयरनेस” और बुद्ध की “विपश्यना” कैसे एक समान हैं और कैसे मनुष्य की चेतना पर काम करती है. बुद्ध के असली चमत्कार को समझना है तो इस भूमिका से गुजरकर देखिये. आप न सिर्फ धर्म और रहस्यवाद के एक उजले पक्ष को देख सकेंगे बल्कि यह भी जान पायेंगे कि भारत की सनातन समस्याओं के लिए सबसे कारगर इलाज क्या है.

विपश्यना को गहराई से समझते हैं. विपश्यना का अर्थ है देखना या पीछे मुड़कर देखना. इसी से स्पष्ट होता है कि दृष्टा या साक्षी पर आधारित यह कोई विधि है. दर्शन शास्त्र का “दर्शन” शब्द इसी अनुभूति का परिणाम है. जिन लोगों ने मनुष्य के मन और जीवन सहित मनुष्य के समाज की समस्याओं का गहरा अध्ययन किया है उन्होंने रहस्यवाद या अध्यात्म को एक नकद और प्रेक्टिकल विद्या के रूप में प्रचारित किया है.

दर्शन और देखना सहित विपश्यना और दर्शन शास्त्र एक ही प्रवाह में हैं. ताज्जुब नहीं कि इसीलिये बौद्धों ने दुनिया का सबसे विस्तृत और बहुआयामी दर्शनशास्त्र रचा है.

विपश्यना जिन मौलिक अनुभवों और अनुभवजन्य मान्यताओं पर खड़ी है वे बहुत महत्वपूर्ण हैं. सबसे महत्वपूर्ण मान्यता है कि मन शरीर और जीवन सहित प्रकृति में जो कुछ है उसे बगैर किसी धारणा या कल्पना के देखना. यह वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ निरीक्षण का ही मानसिक रूप है.

विज्ञान इसी ढंग से बाहर निरीक्षण करता है विपश्यना इस ढंग से मन में निरीक्षण सिखाती है. दूसरी बात ये कि सब पदार्थ और रचनाएं असल में किसी अन्य पदार्थों और रचनाओं के सम्मिलन या संघात का परिणाम हैं.

उनका स्वयं में कोई अस्तित्वगत मूल्य नहीं है. जैसे कि जिसे हम शरीर कहते हैं वह बहुत सारे जीव द्रव्यों और रसायनों से मिलकर बना है. ये द्रव्य अंतिम रूप से चार महाभूतों में सिमट जाते हैं जिन्हें प्रथ्वी जल अग्नि और वायु गया है (यहाँ आकाश को शामिल नहीं किया जाता है). इन द्रव्यों या महाभूतों से शरीर की रचना हुई है इसलिए अगर शरीर को ठीक से देखा जाए तो वह भी अंततः इन चार महाभूतों में विघटित होता हुआ नजर आता है. अंत में जो बचता है वह चेतना है जो इस संघटन या विघटन को दूर से देखती है.

वह एक अर्थ में आकाश स्वरुप है लेकिन चूंकि वह इस सबमे शामिल नहीं होती इसलिए चेतना और आकाश को चार महाभूतों से अलग ही रखा गया है. हिन्दुओं की तरह उसे पंचभूतों की श्रेणी में शामिल नही किया गया है. इसका क्या लाभ है इसपर आगे बात करेंगे.

तो विपश्यना शरीर को अन्य द्रव्यों का समुच्चय मानती है और शरीर ही नहीं मन और व्यक्तित्व सहित “स्व” को भी अन्य छोटी छोटी स्वतंत्र रचनाओं का समुच्चय मानती है. यह बौद्ध दर्शन की धुरी है. “मन” “व्यक्तित्व” “स्व” या “आत्म” असल में स्मृतियों, इच्छाओं, कल्पनाओं और विचारों का ढेर मात्र है.

इसीलिये मन में ठीक से झाँकने पर अखंड मन जैसा कुछ पकड में नहीं आता सिर्फ विचार कल्पना स्मृति आदि ही नजर आते हैं. यही सबसे बड़ा दान है बौद्ध धर्म का और इसी से बुद्ध मानव मन की संरचना के सबसे महान अन्वेषक सिद्ध होते हैं.

इसीलिये वे अनत्ता या शून्य की प्रस्तावना कर सके थे. अगर मन अपने कारण स्वरूप विचारों स्मृतियों इत्यादि का ढेर है तो इस ढेर के बिखर जाने पर मन से मुक्ति मिल सकती है और मन से मुक्ति ही दुखों से मुक्ति है. इस तरह विपश्यना एक क्रांतिकारी मान्यता पर खड़ी है. वो ये कि मन या स्व को जिन रचनाओं ने मिलकर बनाया है उन रचनाओं को आपस में अन्तः क्रिया करते हुए आपस में टकराते हुए और अलग अलग रूप आकार लेते हुए देख लो.

इस देखने से पता चलेगा कि मन और विचार अपने आप ही एक स्वतंत्र मशीन की तरह किन्ही कार्यकारण नियमों से चलते हैं वहां बहुत कुछ है जो यांत्रिक ढंग से होता है. वहां कोई दिव्य प्रेरणा या ईश्वरीय हस्तक्षेप जैसा कुछ नहीं है. अधिक से अधिक मनुष्य के स्वयं के विवेक को किसी परिवर्तन या निर्णय का श्रेय दिया जा सकता है अन्यथा तो मन स्वयं भी दूसरों से उधार ली गयी रचना है.

ये मान्यताएं बौद्ध धर्म की बहुत आधारभूत विशेषताएं हैं जो उसे हिन्दू व जैन धर्म से अलग करती हैं. इनका मतलब ये हुआ कि जैसे शरीर स्वयं में भोजन, जल, खनिज, मांस, मज्जा आदि से बनता है और इसी में विघटित हो जाता है उसी तरह मन या स्व भी विचार, भाव, इच्छा स्मृति कल्पना आदि से बनता है और उन्ही में विघटित हो जाता है.

तब सवाल उठता है कि इस संघटन और विघटन को देखने और जानने वाला क्या है और कौन है? हिन्दू और जैन इसे आत्मा कहते हैं. और बौद्ध इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं देते. स्वयं बुद्ध के समय से यह निर्देश दिया गया है कि इस प्रश्न का उत्तर न दिया जाए. उत्तर न देने के दो बड़े कारण हैं. पहला यह कि यह अनुभव से जानने योग्य बात है, इसे व्यर्थ की चर्चा का विषय बनाकर जिज्ञासा और अन्वेषण की चुनौती की ह्त्या नहीं करनी चाहिए.

दूसरा और सबसे बड़ा कारण है कि इसी प्रश्न के उत्तर पर सनातन आत्मा, परमात्मा, भूत प्रेत और पुनर्जन्म जैसे पाखण्ड खड़े होते हैं. फिर इन पाखंडों पर शोषण, कर्मकांड और विभाजन जन्म लेता है. इसीलिये बुद्ध ने इस प्रश्न का उत्तर छुपाकर एक बहुत ही क्रांतिकारी नजरिया दिया है जो उनके पहले कोई सोच भी नहीं सकता था.

उनके बहुत बाद बीसवीं सदी के महान दार्शनिक लुडविन विटगिस्तीन ने भी यह लिखा है कि जो चीजें समझाई नहीं जा सकती उनकी बात भी नहीं की जानी चाहिये, इससे समझ नहीं बल्कि अंधविश्वास पैदा होता है. बुद्ध इस बात को न सिर्फ समझ रहे हैं बल्कि अमल में भी ला रहे हैं. बहुत बाद में इस प्रश्न के उत्तर पर जब विवाद बढ़ता है तो उस सत्ता को शून्य कहा दिया गया है. असल में यह गहरा मजाक है, अनाम को शून्य का नाम दिया है यह भी बौद्ध दार्शनिकों की समझ का ही चमत्कार है.

वे शून्य नाम देकर भी अनाम या अनुत्तर को उत्तर बता रहे हैं और विरोधियों का मुंह बंद कर रहे हैं. आज भी लोग यह समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं कि अगर वे जानते हैं तो उत्तर क्यों नहीं देते. ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि बुद्ध के लिए अध्यात्म या रहस्यवाद अनुभव का विषय है वे कथावाचक या प्रवचनकारों की तरह ध्यान धर्म और अध्यात्म को मनोरंजन का विषय नहीं बना रहे हैं. वे अनुभव करने के लिए ललकारते हैं. और विपश्यना उनके अनुभव का मार्ग है.

इस तरह विपश्यना मूलतः अपने ही मन और व्यक्तित्व में झाँकने की प्रणाली है. यह अपने आप में इतनी वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक है कि इसकी तुलना में अन्य कोई भी ध्यान या निरीक्षण की विधि किसी अन्य धर्म में नहीं है. और इसके जो परिणाम हैं वे भी अन्य विधियों में नहीं हैं. विपश्यना को अन्य प्रणालियों से अलग समझने के लिए अन्य विधियों का उदाहरण समझना चाहिए.

भारत के अन्य धर्मों में प्रचलित विधियां कल्पना और सम्मोहन पर आधारित हैं. इस कल्पना को धारणा कहा गया है. धारणा ऐसी कल्पना को कहा गया है जो अभी व्यक्ति के लिए साकार नहीं हुई है लेकिन गुरु के लिए वह साकार हो गयी है. जैसे कि तृतीय नेत्र का अभी शिष्य को कोई अनुभव नहीं है लकिन गुरु को हो चुका है. इसलिए गुरु शिष्य को तीसरे नेत्र पर किसी ज्योति की कल्पना करने को कहता है. या किसी देवी देवता के स्वरुप पर या मन्त्र या पवित्र शब्द को दोहराने को कहता है.

इस तरह अन्य भारतीय धर्मों की सारी विधियाँ कल्पना और एकाग्रता पर आधारित हैं. इसका सीधा अर्थ हुआ कि यह कल्पना किसी अन्य के द्वारा दी जायेगी और इस कल्पना पर आपको एकाग्र होना है. आइये इसका पोस्टमार्टम करते हैं.

इस तरह की विधियों में यह मानकर चला जा रहा है कि गुरु अनिवार्य रूप से शिष्य से अधिक जानता है, सही जानता है और उसकी सत्ता को शिष्य को अनिवार्य रूप से मानना ही होगा. इसीलिये अन्य धर्मों में गुरु की अनिवार्यता एक भयानक समस्या बन जाती है.

इसी से स्वतंत्र वैज्ञानिक सोच, नवाचार और विद्रोह सहित वैज्ञानिक जिज्ञासा की संभावना पर रुकावट लग जाती है. गुरु शिष्य के बीच में बहुत फासला पैदा हो जाता है जो अमानवीय है. इसी फासले का फायदा उठाकर शिष्यों का शोषण होता आया है. इसीकारण शिष्य गुरुओं से इमानदारी से प्रश्न करना भूल गये हैं और जब चुनौतीपूर्ण प्रश्न नहीं पूछे जाते तो गुरुओं में भी एक झूठी आत्ममुग्धता पैदा हो गयी है. भारत में विश्वगुरु होने की बीमारी यहीं से निकली है.

कल्पना के बाद इन विधियों का दूसरा पहलू है एकाग्रता का. शरीर के किसी हिस्से या मन्त्र इत्यादि पर एकाग्रता करनी होती है. इसका अर्थ यह हुआ कि अध्यात्म या ध्यान की सबसे आधारभूत प्रक्रिया की शुरुआत से ही अपने मन और शरीर में विभाजन करने की आदत डाली जा रही है. ये एक तरह का स्क्रीजोफेनिया है.

इसमें असल में ये सिखाया जा रहा है कि आपके शरीर में या आपके मन में कोई एक हिस्सा कोई एक विचार पवित्र है और बाकी अपवित्र है. इसी से शरीर मन और व्यक्तित्व में विभाजन पैदा होता है और एक ही व्यक्ति बहुत सारे खण्डों में टूट जाता है. तब उसे शिष्य या गुलाम बनाना और अधिक आसान हो जाता है. इससे शिष्य का रहा सहा व्यक्तित्व भी ख़त्म हो जाता है.

अन्य धर्मों में इसी इस मुर्दगी को गुरु या ईश्वर के प्रति समर्पण कहा गया है. इसे बहुत ऊँची अवस्था माना गया है. असल में यह व्यक्ति के स्वतंत्र व्यक्तित्व की हत्या है. इसीलिये ऐसे धर्म नए प्रयोग या नवाचार नहीं कर पाते. सनातन शब्द का अर्थ ही है नए की संभावना का निषेध. पुराने का ही एक अनंत से दुसरे अनंत तक सातत्य.

इस प्रकार कल्पना और एकाग्रता दोनों ही आत्मघाती हैं, गुलाम बनाने वाली हैं और वैज्ञानिक जिज्ञासा की विरोधी हैं. इन्ही से लोगों को मानसिक बीमारिया होती है जिन्हें धार्मिक भाषा में उच्चाटन कहा जाता है. असल में यह कुछ और नहीं है बल्कि विभाजित व्यक्तित्व की बीमारी है जिसे मनोविज्ञान में स्क्रीजोफेनिया कहा जाता है. कल्पनाओं के गहरे दबाव और एकाग्रता से इंसान का अपने खुद के व्यक्तिव से नाता ही टूट जाता है और जिस देवता या भगवान की कल्पना की जाते है वह चलता फिरता या बात करता नजर आने लगता है.

यह मानसिक विक्षिप्तता है जिसे अन्य भारतीय परम्पराओं ने बहुत सम्मान दिया है. लेकिन मनोविज्ञान में यह “हेलिसुनेशन” कहलाता है. इसे परम्परा में दिव्य दर्शन कहा गया है, इसकी मूर्खता निस्सारता को इसी बात से समझा जा सकता है ये दिव्या दर्शन उन्ही महापुरुषों या भगवान् का होता है जिसे आप पूजते आये हैं.

किसी हिन्दू को जीसस या किसी इसाई को महाकाली नजर नहीं आती. इस तरह अन्य धर्मों की प्रार्थना या कल्पना या एकाग्रता आधारित विधियाँ असल में उन्हें पंगु और कमजोर बनाती हैं. न केवल व्यक्ति के स्तर पर वे भयानक रूप से परनिर्भर और गुलाम बन जाते हैं बल्कि समाज और राष्ट्र के स्तर पर भी वे नयेपन और नवाचार से डरने लगते हैं. इसीलिये ऐसे समुदायों में न विज्ञान जन्म लेता है न साहस. यही भारत की हजारों साल लंबी गुलामी का कारण भी रहा है.

इस तरह की प्रणाली के विपरीत विपश्यना में सब कल्पनाएँ मन्त्र तंत्र और धारणाओं को फेंकने के लिए कहा जाता है. शरीर पर और मन पर ध्यान गहराने के लिए प्राकृतिक रूप से चलने वाली श्वांस को “देखने” के लिए कहा जाता है. ये श्वांस पर एकाग्रता नहीं है न ही श्वांस को खींचतान करने का प्राणायाम है. यह शुद्ध रूप से दृष्टा की तरह श्वांस को आते जाते देखने का काम है. इसे करते हुए धीरे धीरे पता लगता है कि शरीर में बहुत सारी चीजें चल रही हैं जिन्हें हमने कभी देखा या जाना ही नहीं.

बहुत सारी यांत्रिक चीजें मन में चल रही हैं जो हम समझते रहते हैं कि हमारे निर्णय से होती हैं. इस तरह विपश्यना में प्रवेश करते ही यह साफ़ होने लगता है कि शरीर का अनुभव असल में बहुत सारे अंगों की संवेदनाओं के समुच्चय का अनुभव है और मन का अनुभव विचारों भावनाओं भयों स्मृतियों अत्यादी का अनुभव है.

इतना पता चलते ही मन से एक दूरी बन जाती है. तब मन को एक कंप्यूटर की तरह बंद चालू करने की कुशलता आने लगती है. तब वह अनावश्यक रात दिन चलता नही रहता. जब उसका उपयोग करना है कीजिये और जब विश्राम करना है तब उसे ऑफ़ करके सो जाइए – ये विपश्यना की अंतिम सफलता है.

इसमें मन को भी एक यंत्र की तरह इस्तेमाल करने का हुनर आने लगता है और मन की गुलामी मिटते ही स्मृतियों, भयों, लालच, क्रोध इत्यादि की गुलामी भी मिट जाती है. इसी को निर्वाण कहा गया है. कृष्णमूर्ति और ओशो इस निर्विचार की अवस्था को अस्तित्व का सबसे सुन्दर और समाधानकारी अनुभव बताते हैं. अन्य धर्म इस चीज को बहुत दिव्य भाषा में बहुत अलंकारों के साथ पेश करते हैं इस तरह पेश करते हुए वे इसे लगभग असंभव और अप्राप्य ही बना डालते हैं.

इसीलिये सामान्य भारतीय लोग ध्यान या समाधि की प्रशंसा तो खूब करते हैं लेकिन उनसे पूछिए कि कोई अनुभव हुआ है? तो वे कहेंगे कि अरे भाई ये तो जन्म जन्म की साधना से होता या गुरु के प्रताप से होता. ये सब बहाने असल में इसलिए बनाने होते हैं कि अध्यात्म पर एकाधिकार रखने वाले वर्ग ने ध्यान और समाधी को चमत्कारिक और अलभ्य बनाया है ताकि उस वर्ग की सत्ता बनी रह सके. उनके लिए धर्म चेतना के विकास का विज्ञान नहीं है बल्कि समाज को गुलाम बनाने की चालबाजी है.

बुद्ध और अन्य बौध्द दार्शनिक इस सत्ता और इसकी चालबाजी को उखाड़ फेंकते हैं और ध्यान और समाधी को रोजमर्रा की चीज बना देते हैं. इसीलिये बौद्धों में ध्यान या समाधि की “कृत्रिम दिव्यता” से मतवाला होकर कोई पागल नही होता. हिन्दू भक्त और सूफी फकीरों में कल्पना आधारित उच्चाटन से पीड़ित बहुत लोग मिल जायेंगे. ये असल में धार्मिक श्रेणी के मानसिक बीमार हैं जिन्हें हिन्दू “परमहंस” और सूफी लोग “मस्त फकीर” कहते हैं. लेकिन सबसे मजेदार बात ये है कि बौद्धों में ऐसे मानसिक विक्षिप्त या मस्त नहीं पाए जाते.

विपश्यना इस अर्थ में न सिर्फ कल्पनाओं और गुरुओं की गुलामी पर विराम लगाती है बल्कि व्यक्ति को मानसिक रूप से बहुत स्वस्थ बना देती है.

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