क्या दलित पिछडों के प्रतिनिधित्व का सवाल उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों के चुनाव एजेंडे का हिस्सा बनेगा?

Written by Vidya Bhushan Rawat | Published on: August 8, 2021
कल मंडल दिवस था. सामजिक न्याय और पिछड़ी जातियों की सत्ता में भागीदारी के सवाल को लेकर ये भारतीय राजनीति के लिए एक क्रांतिकारी दिन था क्योंकि इस दिन ही 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को मानने की घोषणा की. आयोग को बने और रिपोर्ट दिए 10 वर्ष से अधिक हो गए थे और वह सरकारी फाइलों में धूल चाट रही थी. क्योंकि जनता दल और राष्ट्रीय मोर्चा के घोषणा पत्र में ये था इसलिए इन्हें लागू करने की तैय्यारी चल रही थी. दो केन्द्रीय नेता इसमें सबसे आगे थे राम विलास पासवान और शरद यादव. यदि वी पी सिंह के साथ सबसे ज्यादा अपमान और गालिया किसी को झेलनी पडी तो वे ये थे. फिर लालू प्रसाद यादव और एम करूणानिधि खुले तौर पर और दिल से इस प्रश्न पर साथ थे. बाकि भी दिल से साथ रहे होंगे लेकिन इतिहास के उस महत्वपूर्ण दौर में वे विरोधियों के साथ थे. मंडल और मंदिर को लेकर सरकार गिरी थी. 



तीस वर्ष से उपर हो गया और मुझे वही घटनाक्रम याद आ रहा है. मैं कल इंतज़ार किया कि कौन कौन ट्वीट कर रहा है मंडल को लेकर. निस्संदेह सामाजिक न्याय के लिए लगे हुए पार्टी विहीन युवाओं के लिए एक महत्वपूर्ण दिन था. बिहार में राजद इसको लेकर मुखर है और तेजस्वी यादव ने उसको लेकर ट्वीट भी किया था. क्योंकि कल का ही दिन डीएमके के नेता करूणानिधि जी की पुण्य तिथि थी इसलिए सामाजिक न्याय के नाम पर उन्हें तो याद करना जरुरी है. तमिलनाडु, पेरियार, करूणानिधि और डीएमके पिछड़े वर्ग के सम्मान और राजनितिक सशक्तिकरण की लड़ाई के सबसे बड़े हीरो हैं. उत्तर भारत के नेता यदि इसको स्वीकार कर लेंगे तो अच्छा रहेगा. अभी नीट में आरक्षण का सवाल आया तो केवल एम के स्टालिन और डीएमके सक्रिय थे. बाकी की सारी लड़ाई युवाओं ने अपने आप लड़ी. ये युवा ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं और सडकों पर लाठिया भी खाते हैं. क्या नेता केवल राजनितिक लाभ लेने के लिए है या कुछ खुल कर बोलेंगे भी? 

आखिर क्या कारण है कि सामाजिक न्याय के इस दिन पर जब दलित पिछड़े सभी मिलकर उस दिन को याद करते हैं और मानते हैं तो उत्तर प्रदेश में उनके नाम पर राजनीति करने वाले दल इसका नाम लेने से कतराते हैं. 

राजनीति में मजबूरियां होती हैं लेकिन ऐसी नहीं कि आप अपने मूल सिद्धांतों से समझौता करें. दो दिन पूर्व पंडित जनेश्वर मिश्रा की जयंती को अखिलेश जी और समाजवादी पार्टी ने इस धूम धाम से मनाया कि कभी लोहिया जी को भी ऐसे नहीं मनाया होगा. खैर ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब की जयंती को ऐसे मना लेंगे इसका तो मुझे शक है. मानता हूँ कि जनेश्वर मिश्रा खांटी समाजवादी थे लेकिन क्या आपने वाकई उनका जन्मदिन इसलिए मनाया कि वह समाजवादी थे या इसलिए कि वह मिश्रा थे. और कमाल देखिये, बहिन जी भी इस बात के लिए ट्वीट कर रही हैं कि समाजवादी पार्टी का 'प्रबुद्ध वर्ग' प्रेम 'झूठा' है. दोनों ही पार्टियों में होड़ लगी है कि 'उत्पीडित' ब्राह्मणों को कौन 'बचाएगा'. लखनऊ के नामी गिरामी सेक्युलर समाजवादी पत्रकार सब बेचारे उत्पीडित हैं इसलिए उनकी चांदी है. जब दलित पिछड़े वर्ग के लेखक पत्रकारों का सोशल मीडिया ग्रुप तैयार है तो भी उनके नेताओं को उनकी जरुरत नहीं है. उन्हें वही चाहिए जो ये नैरेटिव बना सके कि वे कितने ब्राह्मण प्रेमी हैं. कोई नहीं कहता कि आपको ये कार्य नहीं करना चाहिए. राजनीती में तो सभी के पास पहुंचना होगा लेकिन क्या ईमानदारी से ऐसे प्रयास नहीं किये जा सकते कि दलित पिछड़ी जातियों का बड़ा सम्मेलन कर उन्हें समझा जाए.

सवाल इस बात का नहीं कि आप सबको साथ न लें लेकिन ये प्रश्न भी पूछना पडेगा कि क्या ब्राहमण उत्तर प्रदेश के अन्दर इतना उत्पीडित है? क्या उत्तर प्रदेश में दलित, मुस्लिम, महिला उत्पीडन के सवाल मुख्य नहीं बनेंगे. हम जानते हैं कि ब्राह्मण खबरची माहिर हैं इन खबरों को आगे बढाने में. उत्तर प्रदेश में कभी भी ईमानदारी के साथ भूमि सुधार नहीं हुए. मंडल सिफ़ारिशों में भूमिहीन लोगों के प्रश्न भी थे. पसमांदा मुसलमानों के सवाल, सीएए एनआरसी का सवाल भी जरुरी है. उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक हासिये के लोगों में डोम, मुशहर, वाल्मीकि, कोल, निषाद, मल्लाह, चमार, पासी, राजभर. गड़रिया, पाल आदि जातियों के सवालों को कभी 'मुख्य धारा' का प्रश्न बनाया जाएगा या नहीं. क्या उनमें से एक दो नेताओं को विधायकी या मंत्री पद देने से उनका सशक्तिकरण मान लिया जाए. यदि ऐसा है, देश की संसद में पिछड़े और दलित आदिवासी सांसदों का ही बहुमत है लेकिन उनके अधिकारों और संशाधनों पर लूट से ये सांसद उन्हें नहीं बचा पाए. किसानों के प्रश्न पर वे चुप रहे. दो चार को छोड़ दें तो इनमें ऐसे लोग भी होंगे जो अपने समाज के लिए कोई अच्छे कानून को भी फाड़ देंगे. पदोन्नित में आरक्षण के बिल को यूपीए के समय लोकसभा में किसने फाड़ा था इसको बताने की जरुरत नहीं है. 

उत्तर प्रदेश का चुनाव महत्वपूर्ण है. समाज बदलाव और सामजिक न्याय के लिए हम भी चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब, ज्योतिबा फूले, पेरियार के सिद्धांतों पर चलने वाले लोग आयें. हालांकि हम सब जानते हैं कि पेरियार के नाम पर किस प्रकार से उत्तर प्रदेश के राजनैतिक दलों को इतना डिफेंसिव बना दिया गया कि वे उनका नाम तक नहीं लेना चाहते. बहुत से लोगों को लगता है कि मंडल और सामजिक न्याय अब महत्वपूर्ण नहीं रहे. प्रोफेसनल अब बता रहे हैं कि आरक्षण, पेरियार, वीपी सिंह का नाम दूर दूर तक नहीं लेना नहीं तो लाभ के स्थान पर नुकसान होगा लेकिन ये गलतफहमी है. सामाजिक न्याय और अस्मिता की बात होगी तो लोग आंबेडकर फूले पेरियार को याद रखेंगे. पिछडों के आरक्षण का सवाल आएगा तो मंडल, वीपी सिंह को याद करना ही पडेगा. 

यदि आरक्षण की महत्ता ख़त्म हो गयी होती तो हिंदुत्व की शक्तियों को मंडल राग न जपना पड़ता और ये तब जब उन्होंने पिछडों की नौकरियों को लूट लिया. किसी को अगर ये लगता है पिछडों के लिए आरक्षण अब मुद्दा नहीं है और ब्राह्मण वाकई में हासिये पर हैं तो केवल जातिगत जनगणना के लिए हां करे. हर एक जाति की संख्या, उसकी भूमि ओनरशिप, सरकारी नौकरियों में उसकी भागीदारी, मीडिया, न्याय पालिका में उसकी हिस्सेदारी पर बात कर ली जाए. उत्तर प्रदेश के चुनाव की तैयारी शुरू हो चुकी है तो पिछले 5 वर्षों में उत्तर प्रदेश में सरकारी सेवाओं में दलित पिछडों को क्या मिला उसका रिकॉर्ड भी निकाल कर देख लिया जाए तो सशक्तिकरण के मायने पता चल जायेंगे. 

राजनीतिक सशक्तिकरण के कोई मायने नहीं यदि पार्टियों के बड़े नेताओं के या मुख्यमंत्रियों के सलाहकार दलित -पिछड़ी-आदिवासी समुदायों से ना हों. प्रधानमंत्री कार्यालय में जिस जाति के सलाहाकारों की बहुतायत है वहीं उत्तर प्रदेश में विपक्षी पार्टियों को भी सलाह दे रहे हैं. इसको कहते ही जाति की सर्वोच्चता. जब नैरेटिव वे बनायेंगे तो आप के सवाल हमेशा हासिये भी रहेंगे केवल नेता सशक्त होंगे. उत्तर प्रदेश के चुनावो में चुप मत रहिये और सवाल करिए. 

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