किसानों के 'मन की बात' नहीं सुनती मोदी सरकार?

Written by Navnish Kumar | Published on: September 21, 2020
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि कृषि विधेयक किसान की सुरक्षा करेंगे। आजादी देंगे। किसान देश में कहीं भी फसल बेच सकेंगे। उनकी सरकार किसानों को एमएसपी के जरिए उचित मूल्य दिलाने को प्रतिबद्ध है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा कहते हैं कि मोदीजी का साफ़ कहना है, हमें प्रेशर पॉलिटिक्स से नहीं दबना है। हमारा संकल्प जनता को राहत देना है, हम देकर रहेंगे। वहीं, किसान कहते हैं कि सरकार को राहत या आजादी देनी ही है तो वह एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) से नीचे फसल की खरीद करने को कानूनी जुर्म बनाने का अध्यादेश लेकर क्यों नहीं आती है?



यही नहीं, सरकार कह रही है कि वो, किसानों को मार्केट से जोड़कर, एमएसपी से भी ऊपर दिलाने को सुधार कर रही है। जबकि किसानों का कहना है कि सरकार एमएसपी से भी ऊपर भाव मिलने को सुधार की बात कर रही है तो उसे एमएसपी से कम पर खरीद नहीं होगी, की आजादी (कानूनी गारंटी) देने में क्या दिक्कत है। इसी से सरकार की कथनी करनी को लेकर किसानों के मन मे संशय है कि आखिर उनकी इतनी छोटी और मोटी बात सरकार की समझ में क्यों नहीं आ रही है। 
 
उल्टे, सरकार की कुटिल चाल ने किसानों को ही उलझा दिया है। जिसका नतीजा है कि जो किसान पहले एमएसपी बढ़ाने के लिए आंदोलन किया करते थे, सरकारी दांवपेंच का ही असर है कि, आज उन्हें (किसान) एमएसपी पर खरीद सुनिश्चित करने को आंदोलन करने पड़ रहे हैं। 

किसानों का डर जायज इसलिए है कि ये कानून बिहार जैसे प्रदेशों में पहले से लागू है। वहां मंडी खत्म हो गई हैं और फ्री मार्किट फोर्सेज ने किसान को ऐसा धर के लूटा है कि बिहार का आदमी, पंजाब या हरियाणा आकर धान लगाने की मजदूरी करना मंजूर कर ले रहा है मगर खेती नहीं। अपनी काफी ज़मीन खाली छोड़ देता है। क्योंकि फसल का लागत मूल्य भी नही निकलता है।

दूसरी ओर, आज भी बिहार से व्यापारी किसानों से औने पौने दाम में धान खरीदकर, ट्रांसपोर्ट करके, हरियाणा की मंडियों में मे आकर बेचते हैं। तब भी ट्रांसपोर्ट आदि खर्चे काटकर उन्हें प्रॉफिट बच जाता है। 

ऐसे में सरकार बताए कि, फ्री मार्केट इकोनॉमी का यह मॉडल जब पहले से फेल है तो किसको फायदा पहुंचाने के लिए ये कानून लाये गये हैं?

दूसरा, अगर सरकार मार्केट इकॉनमी को इतना ही मानती है तो 1980 से खेती में प्रयोग होने वाले उपकरणों, फर्टीलाइजर, डीजल इत्यादि के दामों को सोने के मूल्यों के आधार या सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह के आधार पर तुलनात्मक समानता (पैरिटी) मानकर किसानों को लाखों करोड़ रुपये की अंडर-रिकवरी को एरियर के तौर पर क्यों नही देती है? किसान को गरीबी हटाने के वास्ते मार्किट प्राइस ना देकर केंद्रीय लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के द्वारा कम एमएसपी दिया गया है। जिसे स्वामीनाथन आयोग ने भी बताया था। ऐसे में आर्थिक संसाधन विहीन किसानों के कारपोरेट के सामने खड़ा होने की उम्मीद सरकार किस आधार पर कर रही है?

बहरहाल सुधार के नाम पर संकट को न्यौता देना सही नहीं होगा। अन्यथा जैसा, सरकार के बाकी सुधारों के साथ हुआ है वैसा ही 
इन नए सुधारों के साथ भी होगा, से इनकार नहीं किया जा सकता है। मोदी सरकार के द्वारा सुधार के नाम पर किए गए लगभग सारे क्रांतिकारी काम अंततः नए संकटों का कारण ही बने हैं व बन रहे हैं। नोटबंदी से लेकर जीएसटी और सीएए से लेकर लॉकडाउन तक जितने क्रांतिकारी फैसले हुए, जिनको मास्टरस्ट्रोक कहा गया, सब बर्बादी और आखिरकार लोगों की परेशानी को बढ़ाने वाले ही साबित हुए हैं व हो रहे हैं। 

इन कानूनों से भी किसानों की स्थिति सुधरने की बजाय और खराब होगी। सरकार एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी, एपीएमसी कानून को बदल रही है। तो इसके साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी की पुरानी व्यवस्था भी स्वत: ही दम तोड़ देगी। 

रही बात गारंटी की तो बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा का कहना है कि नए कानूनों में 3 दिन में गारंटीड भुगतान का प्रावधान है। तो गन्ने का 14 दिन में भुगतान का कानूनी प्रावधान है। अन्यथा की स्थिति में 15% ब्याज और आउट सेंटरों से गन्ना ढुलाई की एवज में होने वाली किराया कटौती नहीं कर सकने का कानून है लेकिन ब्याज मिलना तो दूर, साल-साल भर तक असल भुगतान नहीं हो पा रहा है। वर्तमान में भी अकेले सहारनपुर मंडल में ही करीब 1725 करोड़ का बकाया है। ब्याज अलग है। यह हाल तब है जब अगले महीने नया पेराई सत्र शुरू हो जाएगा। यही नहीं, आउट सेंटरों से गैरकानूनी किराया कटौती किसानों से काटा जाना बादस्तूर जारी है। ऐसे में नड्डाजी की गारंटी से किसान सहमत होंगे, लगता नहीं।

वैसे भी जिन राज्यों में मंडी नहीं है वहां के किसान क्या बहुत खुशहाल हैं? बिहार में एपीएमसी नहीं है। वहां का किसान सरकारी खरीद से आजाद है तो क्या वह मध्यप्रदेश, हरियाणा या पंजाब के किसान से ज्यादा खुशहाल है? सरकार किसान को सरकारी खरीद से आजाद करके उसका बड़ा भला करने का दावा कर रही है। पर असल में ऐसा नहीं है। जमाख़ोरी पर सरकारी मुहर लगाकर खेती कारपोरेट के हवाले तथा किसान, बाजार की ताकतों के हवाले हो रहा है। वर्तमान में धान व मक्का की औने पौने में हो रही खरीद इसका जीता जागता उदाहरण है। 

दरअसल, एक बार फसल पैदा हो जाती है तो उसे तुरंत बेचना आवश्यक होता है, वरना वह नष्ट होगी और उसका मूल्य गिरेगा। इसका फायदा बाजारी शक्तियां उठाती हैं। मंडी, एमएसपी का बंधन नहीं होगा और स्टॉक की खुली छूट होगी तो सरमायेदारों, दलालों (बिचौलियों) और रिलायंस-आईटीसी जैसे बड़े कारपोरेट के ही फलने फूलने का काम होगा। यह बात अनाड़ी भी समझ रहा हैं। कि निजी मंडियां बनाए जाने के बाद और आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी से अनाज, दलहन, तिलहन, आलू, प्याज हटाए जाने के बाद इन वस्तुओं के दाम व व्यापार पर सरकारी नियामन समाप्त हो जाएगा। इस सब के बावजूद पता नहीं क्यों, मोदी सरकार जानते बुझते अंजान होकर, किसान के 'मन की बात' को ना-समझने का ढोंग कर रही हैं।  

दूसरी ओर, कडुआ सच यह भी है कि भाजपा भले आय दोगुनी करने जैसे जुमले लाख दिन-रात उछाले लेकिन हकीकत में किसानों की कर्जदारी बढ़ी है और लागत बढ़ने से, जिसमें बिजली व डीजल के दाम सरकार बढ़ा रही है और बाकी सामान कम्पनियां बेच रही हैं, यह कर्जदारी और बढ़ रही है। अब ठेका खेती में किसानों की जमीन को शामिल करके कम्पनियां नए कानून के अनुसार उन्हें और मंहगे दाम पर खाद-बीज खरीदने के लिए मजबूर करेंगी।

यहां यह भी खास है कि भारत में किसान और भूमिहीन बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं, लगभग हर घंटे दो किसान मर रहे हैं। ऐसे में सरकार 'आत्मनिर्भरता' का नारा देकर, किसान के हितों को बड़ी कम्पनियों के हवाले कर रही हैं। जो उसके कथनी करनी के भेद को एक बार फिर शीशे की तरह साफ कर दे रहीं हैं।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने अध्यादेशों के पुरजोर विरोध का ऐलान किया है। आक्रोश दिवस व रेल रोको के साथ 25 सितंबर को भारत बंद व प्रतिरोध सभाओं का आयोजन करेगी। 28 सितंबर को शहीद ए आजम भगत सिंह के 114वें जन्मदिन पर इन कानूनों के साथ, नए बिजली बिल तथा डीजल के दाम में बेजा वृद्धि के केन्द्र सरकार के कारपोरेट पक्षधर और किसान विरोधी कदमों का विरोध किया जाएगा। 

मोदी सरकार भूल रही है कि किसानों की फसल के दाम की सुरक्षा केवल सरकारें देती हैं, कम्पनियां नहीं। कम्पनियां केवल सस्ते में खरीद कर मंहगा बेचती हैं और मुनाफा कमाती हैं। 

ऐसे में अच्छा संकेत है कि केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर ने इस्तीफा दे दिया है, जिसका मतलब साफ है कि किसान आंदोलन को लेकर जमीन पर कुछ ज्यादा ही खुदबुदाहट हैं। यही नहीं, इससे जननायक जनता पार्टी के दुष्यंत चौटाला पर भी भाजपा से अलग होने को दबाव बढा है। तो पंजाब हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि के साथ उप्र में भी किसानों में सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ रही है तो आरएसएस का किसान विंग भारतीय किसान संघ भी एमएसपी की गारंटी को लेकर नए अध्यादेशों के विरोध में आ गया है। ऐसे में संख्या बल के नशे में चूर, सरकार किसान के 'मन की बात' कब तक नहीं सुनती, देखना दिलचस्प होगा।

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