किसान आंदोलन के बीच उप्र के गन्ना किसानों की दुर्दशा को लेकर भी चर्चा धीरे धीरे जोर पकड़ने लगी हैं। हो भी क्यों नहीं, कमरतोड़ महंगाई से ड्योढ़ी हुई लागत के बावजूद 4 साल से गन्ना भाव एक रुपया नहीं बढ़ा है। वहीं साल-साल भर भुगतान नहीं होता है। लेकिन भाजपा सरकार में बात, इससे कहीं आगे बढ़ गई हैं। इसलिए कृषि कानूनों में काला क्या है? को जानने को गन्ना किसानी को जानना जरूरी है। गन्ने में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एवं एमएसपी दोनों होते हैं। लेकिन दोनों का असल सच क्या है, को जानकर आप कृषि कानून और किसान आंदोलन दोनों को बेहतर जान-समझ सकते हैं।
मसलन गन्ना किसान को ना एमएसपी मिल पा रहा और ना ही कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का लाभ। यह सब भी तब जब गन्ने की कॉन्टैक्ट फार्मिंग इतनी सुरक्षित होती है कि खुद जिले का कलेक्टर यानी सरकार उसमें बतौर गारंटर सिग्नेटरी होती है। वहीं एमएसपी भी तमाम कानूनी सुरक्षा उपायों से लैस है। उसके बावजूद दोनों का हश्र क्या है? यह जान लोगे तो कृषि कानूनों का कालापन खुद-ब-खुद बाहर झांकने लगेगा।
मसलन कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की बात करें तो चीनी मिल को गन्ना सप्लाई के लिए किसानों का सहकारी गन्ना समिति के माध्यम से चीनी मिल व बैंकर्स के बीच एक ट्रिपेटाइट (त्रिपक्षीय) एग्रीमेंट होता हैं जिसे टैगिंग आदेश कहते हैं। टैगिंग आदेश के अनुसार, चीनी मिल को बैंक में सीसीएल (कैश क्रेडिट लिमिट) लेनी होती है और अपनी समस्त उत्पादित चीनी को बैंकर्स के पक्ष में बंधक करना होता है जिस (बंधक करने) की एवज में प्राप्त होने वाले एडवांस पैसे का 85% गन्ना मूल्य भुगतान (अकाउंट) में देना होता है। इसके लिए चीनी मिल को अलग से बैंक अकाउंट खोलना होता हैं। वर्तमान में सरकार गन्ना अधिकारी व चीनी मिल का संयुक्त एस्क्रो अकाउंट भी खोल रही हैं। इसमें भी चीनी बिक्री और अन्य स्रोतों से हुई आय का 85% पैसा, चीनी मिल को गन्ना भुगतान में देना होता है। लेकिन अब जहां कई चीनी मिल सीसीएल ही नहीं बनवाती हैं वहीं, टैगिंग आदेश का उल्लंघन तो आम प्रेक्टिस बन चला है। किसान नेताओं का कहना है कि टैगिंग आदेश का पालन हो जाए तो काफी हद तक समय पर भुगतान सम्भव है।
बात एमएसपी की करें तो गन्ने में केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य एफआरपी (फेयर एंड रिमन्यूरेटिव प्राइस यानि उचित एवं लाभकारी मूल्य) घोषित करती है। कानूनन पूरे भारत में एफआरपी से कम पर गन्ना खरीद नहीं हो सकती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में एसएपी (स्टेट एडवाइजरी प्राइस यानि राज्य परामर्शित मूल्य) व्यवस्था की आड़ में किसानों को एफआरपी का भी लाभ नहीं दिया जा रहा है। मसलन उत्तर प्रदेश में करीब तीन दर्जन फैक्ट्री ऐसी हैं जिनका एफआरपी, राज्य सरकार के एसएपी से कहीं ज्यादा बैठता है।
एफआरपी, चीनी रिकवरी (गन्ने में चीनी की मात्रा) पर आधारित होता है। लेकिन मोदी सरकार ने मिल मालिकों के हित में चीनी रिकवरी बेस को भी बढा दिया है। मसलन, किसान चिंतक प्रीतम चौधरी कहते हैं कि पहले 9.5% की रिकवरी पर न्यूनतम गन्ना मूल्य यानि एफआरपी तय किया जाता था लेकिन मोदी सरकार ने 2018 में रिकवरी बेस बढाकर 10% कर दिया है। मसलन, आज 10% की रिकवरी बेस पर गन्ने का न्यूनतम भाव (एफआरपी) तय किया जा रहा है जो 285 रुपये कुंतल है। इससे कम की रिकवरी पर भाव कम हैं लेकिन इससे ज्यादा रिकवरी पर प्रति प्वाइंट 2.85 रुपये का प्रीमियम देय होता है।
अब केंद्र सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एफआरपी) के हिसाब से देखें तो उत्तर प्रदेश में कई दर्जन चीनी मिलों का गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एफआरपी), राज्य सरकार के गन्ना भाव (एसएपी यानि राज्य परामर्शित मूल्य) से कहीं ज्यादा बैठता है।
मसलन सहारनपुर मंडल में ही देखें तो 17 में से आधे से ज्यादा यानी 9 चीनी मिलों देवबंद, शेरमऊ, खतौली, ऊन, खाईखेड़ी, टिकोला, बुढ़ाना, रोहाना व थानाभवन मिल की रिकवरी 11.45% से ज्यादा 12.2% तक आ रही है। यानि 10% की बेस रिकवरी से 14 से 22 प्वॉइंट तक ज्यादा रही है। प्रति प्वॉइंट 2.85 रुपये के हिसाब से इन मिलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एफआरपी), राज्य सरकार के गन्ना मूल्य (एसएपी) 325 रुपये कुंतल से ज्यादा बैठता है।
उदाहरण के तौर त्रिवेणी समूह की देवबंद चीनी मिल की रिकवरी 11.95% रही है। यानी बेस रिकवरी से 19.5 प्वॉइंट ज्यादा। इस हिसाब से देवबंद मिल का एफआरपी 340.58 रुपये प्रति कुंतल बैठता है। उत्तम समूह की खाइखेड़ी मिल की रिकवरी 12.18% (करीब 22 प्वॉइंट ज्यादा) रही है जिसका एफआरपी ही 347.13 रुपये कुंतल बैठता है। लेकिन उप्र में एसएपी की आड़ में, केंद्र के न्यूनतम गन्ना समर्थन मूल्य (एफआरपी) को भी नकारा जा रहा है।
वैसे भी कारपोरेट हितैषी नीतियों को बढ़ावा देने के चलते किसान पहले ही, .सरकार की गन्ना नीति के केंद्र से बाहर हो चला है? मसलन, वर्तमान सरकार भले आय दुगुनी करने आदि के नाम पर किसान-किसान चिल्ला रही हो लेकिन हकीकत में सॉफ्ट लोन हो या ट्रांसपोर्ट सब्सिडी, चीनी का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) फिक्स करना हो या फिर बफर स्टॉक, आदि तमामतर रियायतें केवल और केवल चीनी मिलों को ही दी जा रही हैं। नाम, जरूर किसान का लिया जा रहा है और वो भी पूरे जोर-जोर से।
गन्ना कानूनों में किसान की सुरक्षा व हित वाली क्लॉज तक को बदलकर चीनी मिल (कारपोरेट) के हक में ढाला जा रहा है। टैगिंग आदेश, रिकवरी बेस, 14 दिन में भुगतान व देरी से भुगतान पर सूद व बकाएदार चीनी मिल के किराया कटौती न करने जैसे आदेशों के खुले उल्लंघन के बीच गन्ना कानूनों में भाजपा सरकार, अपनी ओर से ही कई अन्य बदलाव भी ले आई है। मसलन, किसान नेताओं के अनुसार पहले 10% से बड़े बकाये वाली चीनी मिल को सरकार कुर्क कर सकती है लेकिन वर्तमान सरकार ने किसान हितैषी यह क्लॉज खत्म कर दी है।
यही नहीं, गन्ने की हरियाली (अगोला) पर कार्बन क्रेडिट (पर्यावरण से प्रदूषण सोखने की एवज में मिलने वाला ग्रीन पैसा) तक का लाभ चीनी मिल अकेले ले रही हैं जबकि इसमें चीनी मिलों का कोई योगदान नहीं है। वहीं खोई से बिजली बनाने (को-जनरेशन) का मुनाफा हो या गन्ने के शीरे से या सीधे एथनॉल, किसान को मुनाफे में कोई हिस्सा नहीं दिया जा रहा है। जबकि चीनी के रेट कम हो जाने आदि की दुहाई देकर, किसानों के गन्ना मूल्य भुगतान रोकने का काम बखूबी व रोजाना किया जा रहा है। किसान को कानूनी ब्याज तक नहीं दिया जा रहा हैं। उल्टे बाह्य क्रय केंद्रों से गन्ना ढुलाई की एवज में अवैध रूप से किराया कटौती की जा रही है।
यही नहीं, प्रेसमड (मैली) जिसमें जब तक चूने का प्रयोग होता था तब तक उसे किसान को दिया जाता था लेकिन जब से सल्फीटेशन होना शुरू हुआ है और मैली खेतो के लिए फायदेमंद (बेहतरीन खाद) हुई है तब से उसे किसानों की बजाय ईंट भट्ठों पर जलाने को बेचने का काम किया जा रहा है। जबकि किसानों के अनुसार मैली का उपयोग केवल और केवल खेतों में खाद के लिए ही किया जा सकता है।
यही नहीं, चीनी मिलों को शुगर नीति में बेहिसाब छूटें हैं। भूमि व मशीन खरीद से लेकर चीनी स्टोरेज व ट्रांसपोर्ट तक सभी जगह चीनी मिलों को छूट हैं। इसके साथ ही करोडों अरबों के सॉफ्ट लोन। वो भी बिना ब्याज या अत्यंत कम ब्याज पर। यही नहीं, शुगर डेवलपमेंट फण्ड रहा हो या अब शुगर सेस हो, सभी का लाभ चीनी मिलें ही उठाती रही हैं।
अब लेबर लॉज व कारपोरेट टैक्स में कमी आदि को एकबारी छोड़ भी दें तो भी सबसे अहम इस बीच, केंद्र सरकार द्वारा मिल मालिकों को राहत देते हुए चीनी का न्यूनतम बिक्री मूल्य 31 रुपये से बढ़ाकर 33 रुपये किलो कर दिया किया गया है। पहले 29 रुपये से 31 रुपये किया गया था। दूसरा, बिजली व एथेनॉल बनाने में प्रोत्साहन के नाम पर तमाम तरह की छूट अलग से दी जा रही हैं। कुल मिलाकर चीनी मिल मालिकों को राहत देने के दर्जनों नुस्खे मौजूद हैं, लेकिन किसानों को समय पर भुगतान तक नहीं हैं। यही कृषि (गन्ना) कानूनों का कालापन है।
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मसलन कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की बात करें तो चीनी मिल को गन्ना सप्लाई के लिए किसानों का सहकारी गन्ना समिति के माध्यम से चीनी मिल व बैंकर्स के बीच एक ट्रिपेटाइट (त्रिपक्षीय) एग्रीमेंट होता हैं जिसे टैगिंग आदेश कहते हैं। टैगिंग आदेश के अनुसार, चीनी मिल को बैंक में सीसीएल (कैश क्रेडिट लिमिट) लेनी होती है और अपनी समस्त उत्पादित चीनी को बैंकर्स के पक्ष में बंधक करना होता है जिस (बंधक करने) की एवज में प्राप्त होने वाले एडवांस पैसे का 85% गन्ना मूल्य भुगतान (अकाउंट) में देना होता है। इसके लिए चीनी मिल को अलग से बैंक अकाउंट खोलना होता हैं। वर्तमान में सरकार गन्ना अधिकारी व चीनी मिल का संयुक्त एस्क्रो अकाउंट भी खोल रही हैं। इसमें भी चीनी बिक्री और अन्य स्रोतों से हुई आय का 85% पैसा, चीनी मिल को गन्ना भुगतान में देना होता है। लेकिन अब जहां कई चीनी मिल सीसीएल ही नहीं बनवाती हैं वहीं, टैगिंग आदेश का उल्लंघन तो आम प्रेक्टिस बन चला है। किसान नेताओं का कहना है कि टैगिंग आदेश का पालन हो जाए तो काफी हद तक समय पर भुगतान सम्भव है।
बात एमएसपी की करें तो गन्ने में केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य एफआरपी (फेयर एंड रिमन्यूरेटिव प्राइस यानि उचित एवं लाभकारी मूल्य) घोषित करती है। कानूनन पूरे भारत में एफआरपी से कम पर गन्ना खरीद नहीं हो सकती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में एसएपी (स्टेट एडवाइजरी प्राइस यानि राज्य परामर्शित मूल्य) व्यवस्था की आड़ में किसानों को एफआरपी का भी लाभ नहीं दिया जा रहा है। मसलन उत्तर प्रदेश में करीब तीन दर्जन फैक्ट्री ऐसी हैं जिनका एफआरपी, राज्य सरकार के एसएपी से कहीं ज्यादा बैठता है।
एफआरपी, चीनी रिकवरी (गन्ने में चीनी की मात्रा) पर आधारित होता है। लेकिन मोदी सरकार ने मिल मालिकों के हित में चीनी रिकवरी बेस को भी बढा दिया है। मसलन, किसान चिंतक प्रीतम चौधरी कहते हैं कि पहले 9.5% की रिकवरी पर न्यूनतम गन्ना मूल्य यानि एफआरपी तय किया जाता था लेकिन मोदी सरकार ने 2018 में रिकवरी बेस बढाकर 10% कर दिया है। मसलन, आज 10% की रिकवरी बेस पर गन्ने का न्यूनतम भाव (एफआरपी) तय किया जा रहा है जो 285 रुपये कुंतल है। इससे कम की रिकवरी पर भाव कम हैं लेकिन इससे ज्यादा रिकवरी पर प्रति प्वाइंट 2.85 रुपये का प्रीमियम देय होता है।
अब केंद्र सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एफआरपी) के हिसाब से देखें तो उत्तर प्रदेश में कई दर्जन चीनी मिलों का गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एफआरपी), राज्य सरकार के गन्ना भाव (एसएपी यानि राज्य परामर्शित मूल्य) से कहीं ज्यादा बैठता है।
मसलन सहारनपुर मंडल में ही देखें तो 17 में से आधे से ज्यादा यानी 9 चीनी मिलों देवबंद, शेरमऊ, खतौली, ऊन, खाईखेड़ी, टिकोला, बुढ़ाना, रोहाना व थानाभवन मिल की रिकवरी 11.45% से ज्यादा 12.2% तक आ रही है। यानि 10% की बेस रिकवरी से 14 से 22 प्वॉइंट तक ज्यादा रही है। प्रति प्वॉइंट 2.85 रुपये के हिसाब से इन मिलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एफआरपी), राज्य सरकार के गन्ना मूल्य (एसएपी) 325 रुपये कुंतल से ज्यादा बैठता है।
उदाहरण के तौर त्रिवेणी समूह की देवबंद चीनी मिल की रिकवरी 11.95% रही है। यानी बेस रिकवरी से 19.5 प्वॉइंट ज्यादा। इस हिसाब से देवबंद मिल का एफआरपी 340.58 रुपये प्रति कुंतल बैठता है। उत्तम समूह की खाइखेड़ी मिल की रिकवरी 12.18% (करीब 22 प्वॉइंट ज्यादा) रही है जिसका एफआरपी ही 347.13 रुपये कुंतल बैठता है। लेकिन उप्र में एसएपी की आड़ में, केंद्र के न्यूनतम गन्ना समर्थन मूल्य (एफआरपी) को भी नकारा जा रहा है।
वैसे भी कारपोरेट हितैषी नीतियों को बढ़ावा देने के चलते किसान पहले ही, .सरकार की गन्ना नीति के केंद्र से बाहर हो चला है? मसलन, वर्तमान सरकार भले आय दुगुनी करने आदि के नाम पर किसान-किसान चिल्ला रही हो लेकिन हकीकत में सॉफ्ट लोन हो या ट्रांसपोर्ट सब्सिडी, चीनी का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) फिक्स करना हो या फिर बफर स्टॉक, आदि तमामतर रियायतें केवल और केवल चीनी मिलों को ही दी जा रही हैं। नाम, जरूर किसान का लिया जा रहा है और वो भी पूरे जोर-जोर से।
गन्ना कानूनों में किसान की सुरक्षा व हित वाली क्लॉज तक को बदलकर चीनी मिल (कारपोरेट) के हक में ढाला जा रहा है। टैगिंग आदेश, रिकवरी बेस, 14 दिन में भुगतान व देरी से भुगतान पर सूद व बकाएदार चीनी मिल के किराया कटौती न करने जैसे आदेशों के खुले उल्लंघन के बीच गन्ना कानूनों में भाजपा सरकार, अपनी ओर से ही कई अन्य बदलाव भी ले आई है। मसलन, किसान नेताओं के अनुसार पहले 10% से बड़े बकाये वाली चीनी मिल को सरकार कुर्क कर सकती है लेकिन वर्तमान सरकार ने किसान हितैषी यह क्लॉज खत्म कर दी है।
यही नहीं, गन्ने की हरियाली (अगोला) पर कार्बन क्रेडिट (पर्यावरण से प्रदूषण सोखने की एवज में मिलने वाला ग्रीन पैसा) तक का लाभ चीनी मिल अकेले ले रही हैं जबकि इसमें चीनी मिलों का कोई योगदान नहीं है। वहीं खोई से बिजली बनाने (को-जनरेशन) का मुनाफा हो या गन्ने के शीरे से या सीधे एथनॉल, किसान को मुनाफे में कोई हिस्सा नहीं दिया जा रहा है। जबकि चीनी के रेट कम हो जाने आदि की दुहाई देकर, किसानों के गन्ना मूल्य भुगतान रोकने का काम बखूबी व रोजाना किया जा रहा है। किसान को कानूनी ब्याज तक नहीं दिया जा रहा हैं। उल्टे बाह्य क्रय केंद्रों से गन्ना ढुलाई की एवज में अवैध रूप से किराया कटौती की जा रही है।
यही नहीं, प्रेसमड (मैली) जिसमें जब तक चूने का प्रयोग होता था तब तक उसे किसान को दिया जाता था लेकिन जब से सल्फीटेशन होना शुरू हुआ है और मैली खेतो के लिए फायदेमंद (बेहतरीन खाद) हुई है तब से उसे किसानों की बजाय ईंट भट्ठों पर जलाने को बेचने का काम किया जा रहा है। जबकि किसानों के अनुसार मैली का उपयोग केवल और केवल खेतों में खाद के लिए ही किया जा सकता है।
यही नहीं, चीनी मिलों को शुगर नीति में बेहिसाब छूटें हैं। भूमि व मशीन खरीद से लेकर चीनी स्टोरेज व ट्रांसपोर्ट तक सभी जगह चीनी मिलों को छूट हैं। इसके साथ ही करोडों अरबों के सॉफ्ट लोन। वो भी बिना ब्याज या अत्यंत कम ब्याज पर। यही नहीं, शुगर डेवलपमेंट फण्ड रहा हो या अब शुगर सेस हो, सभी का लाभ चीनी मिलें ही उठाती रही हैं।
अब लेबर लॉज व कारपोरेट टैक्स में कमी आदि को एकबारी छोड़ भी दें तो भी सबसे अहम इस बीच, केंद्र सरकार द्वारा मिल मालिकों को राहत देते हुए चीनी का न्यूनतम बिक्री मूल्य 31 रुपये से बढ़ाकर 33 रुपये किलो कर दिया किया गया है। पहले 29 रुपये से 31 रुपये किया गया था। दूसरा, बिजली व एथेनॉल बनाने में प्रोत्साहन के नाम पर तमाम तरह की छूट अलग से दी जा रही हैं। कुल मिलाकर चीनी मिल मालिकों को राहत देने के दर्जनों नुस्खे मौजूद हैं, लेकिन किसानों को समय पर भुगतान तक नहीं हैं। यही कृषि (गन्ना) कानूनों का कालापन है।
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