दिल्ली दंगा: जिंदगी बहाल होनी चाहिए...

Written by Vimalbhai | Published on: March 24, 2021
शिव विहार के अलीम खान बता रहे थे कि जमात-ए-इस्लामिया और जमीअत उलमा-ए-हिंद, दोनों संस्थाओं ने यहां बहुत सारे लोगों के मकान बनाये हैं। ये मकान फरवरी 2020 में जला दिए गए थे। जिनके मकान बन रहे हैं वह सिर्फ मुसलमान नहीं है। उनमें हिंदू भी हैं। संस्था के लोगों का कहना है कि वह तूफान आया था। चला गया। जिस पर मुश्किल आई हम सबकी मदद करेंगे।



उतर-पूर्वी दिल्ली में मौजूद शिव विहार मोहल्ला बीते साल हिंदू-मुस्लिम दंगे के केंद्र में रहा। 20-30 हजार की जनसंख्या वाले इस मोहल्ले में लगभग 40 फीसदी मुस्लिम और 60 फीसदी दलित आबादी साथ-साथ रहती आ रही थी। लेकिन, बीते एक साल में आपसी भाईचारा दंगे की भेंट चढ़ चुका है।

एक साल बाद इस इलाके में गलियों में दरवाजे लग गए हैं। दरवाजों के रंग से आप पहचान सकते हैं कि उसमें कौन लोग रहते हैं। भगवा रंग के दरवाजे हिंदुओं के हैं। हिंदुओं के मकानों पर देवी जी का या दूसरे लाल भगवा झंडे लगे हैं। अगर उनको मुसलमानों का डर है तब तो अपनी पहचान बताने की कोई जरूरत ही नहीं थी। बल्कि उनको पहचान छुपाई जानी थी। तो यह शायद उन आक्रमणकारियों के लिए हैं। जो हमला करने पर पहचान जाय की यह हिंदू घर है और यहां हमला नहीं करना है। दूसरे दरवाजे तिरंगे के रंग वाले मिलेंगे। जिनसे जाहिर होता है कि उसके अंदर रहने वाले सिर्फ मुसलमान हैं या मिली-जुली कौम के लोग हैं।



मुस्लिम इलाका बिल्कुल बेरौनक, बिना किसी रंग के दिखाई देता है। बच्चों का कहना है कि हम कहीं खेलने नहीं जा सकते। खेल के मैदान से बच्चों को भगा दिया जाता है। स्कूल में भी हद दर्जे की सांप्रदायिक टिप्पणियां की जाती है। पीढ़ियों में सांप्रदायिकता का जहर भरने वालों की यह बड़ी जीत है।

विधायक-सांसद को यहीं की जनता ने चुना है। अब जिसने भी किसी को वोट दिया हो। मगर अभी तो वर्तमान के विधायक और सांसद ही सबके प्रतिनिधि हैं। उन्होंने जरूर अपनी इस तरह से कुछ किया ही है किंतु आज की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उनकी अत्यधिक सक्रियता कि यहां आवश्यकता है।

परीक्षा आने वाली है। मगर बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे। सरकारी स्कूल नहीं और प्राइवेट स्कूल साम्प्रदायिकता से लिपटे हैं। दिल्ली सरकार भी यहां शिक्षा के मामले में नजर नहीं आती।

लेखक जैसा कोई बाहर से आया व्यक्ति, हाथ में कॉपी पेन लिए या अपने मोबाइल से फोटो खींचते हुए अगर नजर आते हैं तो, कोई तुरंत कह सकता है कि हमारे यहां भी आकर देख लीजिए। लोग अपनी अपनी पीड़ाएं कहने के लिए अभी भी लालायित हैं। क्योंकि उनका हल नहीं हो पाया। मकान बन जाना बहुत बड़ी नियामत मिली है।

जिनके बड़े-बड़े छोटे मोटे व्यवसाय से ही पूरी तरह चौपट हो गए। उनकी इतनी हिम्मत नहीं कि व्यापार दोबारा कर सके। तो बहुत ही छोटी मोटी नौकरी करके परिवार चलाया जा रहा है। दुकानें देखकर मालूम पड़ता है कि व्यापार खास नहीं है।

और देखा जाए तो हिंदू हो या मुसलमान, यह इलाका इतना गरीब है यहां की कोई आवाज नहीं। बस किसी तरीके से मकान है। जिसमें न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी करके लोग रह पा रहे हैं। कोई बेकरी का सामान ले जा कर बाहर की दुकानों पर बेचता है। कपड़ों से जुड़ा छोटा छोटा काम, कोई बैल्टों को काटना, सीना या चिपकाना। उसकी बहुत ही कम मजदूरी पाते हैं। जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते हैं। इतना कम पैसा मिलता है जिससे मालूम पड़ जाता है कि बाजार में सस्ता सामान कैसे मिलता है? न्यूनतम मजदूरी वाली बात तो एक मजाक लगती है।

एक संविधान के तहत बने देश, उसी संविधान के तहत चलने वाली संसद। और उसी से जुड़ी देश की सबसे बड़ी अदालत। यहां से मात्र 20 किलोमीटर पर है। पिछली 22 मार्च 2020 में उस सांप्रदायिक तूफान के बाद सर्वोच्च न्यायालय के तीन पूर्व न्यायाधीश यहां दौरा करके गए विश्वास बहाली की जरूरत उनको लगी थी। वह विश्वास कैसी बहाल हो? जब जीवन की मूलभूत सुविधाएं सुविधाओं से ही लोगों को महरूम रखा जाए और उसमें नाइंसाफी हो।



कई ऐसे अजीबोगरीब वाकये सामने हैं जिनकी संपत्ति जली, उन पर ही अपनी संपत्ति जलाने का मुकदमा दर्ज हो गया। ऐसी परिस्थिति में न्यायपालिका को जो स्वंय संज्ञान लेकर कार्य करने चाहिए, उसका इंतजार आज भी है।

यह तमाम वही लोग हैं जो दिन भर अपनी रोजी-रोटी की जद्दोजहद में ही लगे रहते हैं। उनका तो कोई हल सरकारों के पास नहीं है। तो दिमाग में कुछ और ही डाल दिया जाए। इसलिए ये सांप्रदायिक ताकतों का यह सीधा निशाना है क्योंकि खुद अपनी आवाज कहीं पहुंचा नहीं सकते। एक का, एक हमले का, एक बर्बादी का सितम उन पर पीढ़ियों तक रहेगा। वह दर्द उनमें जहर घोलने के लिए काफी है। बहुत सोची-समझी साजिश के साथ यह पूरा ताना-बाना रचा मालूम पड़ता है। लोग बस घाव पर मरहम लगाने के लिए आते रहे, जाते रहे। मगर घाव का कारण तो कहीं और ही है। घाव के कारणों को ही ठीक करने की जरूरत है ही। वह तो एक लंबी प्रक्रिया होगी। 

फौरी जरूरत है कि राजधानी में सांप्रदायिकता की मार झेलने वाले अत्यंत गरीब तबके के इन लोगों को बिना भेदभाव के शिक्षा, रोजगार में सहायता और पुलिसिया डर से मुक्ति मिले। तभी बेरौनक उदास चेहरों पर कुछ रंग बिखर पाएंगे। होली पर यंहा ये ही सौगात कोई दे दे।

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