उत्तराखंड: जंगल में आग के पीक सीजन से पहले विभाग ने हजारों वन प्रहरियों को हटाया

Written by Navnish Kumar | Published on: April 4, 2022
जंगलों में आग लगने के लिहाज से पीक सीजन माने जाने वाले समय में पांच हजार से ज्यादा वन प्रहरियों (वन मित्रों) की उत्तराखंड सरकार ने छुट्टी कर दी है। ऐसा फैसला वन प्रहरियों के मानदेय देने के लिए बजट नहीं मिल पाने के चलते किया गया है। खास यह है कि ये हजारों वन मित्र करीब 7 माह पहले नियुक्त किए गए थे यानी ऑफ सीजन में तो इन्हें बनाए रखा गया और अब मार्च-अप्रैल  में आग लगने की घटनाओं का पीक शुरू होने से पहले ही इन्हें हटा दिया गया है। मामला वनों की सुरक्षा के साथ साथ बेरोजगारी का भी है। इस फैसले की महत्ता इससे भी समझी जा सकती है कि कोविड लॉकडाउन के साल 2020 को छोड़ दें तो पिछले 11 सालों के दौरान उत्तराखंड में हर साल औसतन 2200 हेक्टेयर वन आग से नष्ट हुए हैं। दूसरी ओर, हाइवे आदि विकास योजनाओं के नाम पर भी हर रोज पेड़ों पर धड़ल्ले से आरी चल रही है।



मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जंगलों में आग लगने के लिहाज से पीक सीजन माने जाने वाले समय में पांच हजार से ज्यादा वन प्रहरियों की छुट्टी के चलते, जंगलों की आग पर काबू पाने में वन विभाग को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। प्रहरियों के मानदेय देने के लिए बजट नहीं मिलने के कारण यह फैसला लिया बताया गया है। यह हाल तब है जब पलायन रोकने के इरादे से वन विभाग ने करीब 7 माह पहले सभी डिवीजनों में वन प्रहरियों की तैनाती की थी। इसमें स्थानीय युवाओं को वन और वन्यजीव संरक्षण, गश्त, जंगलों की आग बुझाने आदि में विभाग की मदद करनी थी। उन्हें 8 हजार रुपये प्रतिमाह मानदेय दिया जा रहा था। इसके लिए कैंपा से बजट की व्यवस्था की गई थी। 

तब इसके पीछे इस पहाड़ी राज्य में पलायन रोकने और युवाओं को वन संरक्षण के साथ ही गांवों के आसपास रोजगार देने की मंशा बताई गई थी। ऐसे में बड़ी संख्या में युवा शहरों में होटल, दुकानों की नौकरी या अपने छोटे-मोटे काम धंधे छोड़कर वन प्रहरी बन गए थे। लेकिन 31 मार्च को सभी की सेवाएं समाप्त कर दी गईं। इसके पीछे कैंपा के बजट की वित्तीय वर्ष 2021-2022 तक ही स्वीकृति मिलना बताया गया। लेकिन सरकार के इस रवैये से एक झटके में ही पांच हजार से ज्यादा युवा पूरी तरह से बेरोजगार हो गए।

खास यह भी है कि वन विभाग में हर साल हजारों हेक्टेयर जंगल सिर्फ इसलिए जल जाते हैं कि विभाग के पास कर्मचारियों की कमी है। इसके बावजूद इन वन प्रहरियों को पीक फायर सीजन में हटाने से विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों में भी नाराजगी है। सहायक वन कर्मचारी संघ के प्रदेश अध्यक्ष इंद्र मोहन कोठारी का कहना है कि विभाग आग बुझाने के लिए इतने के मानदेय में फायर वॉचर तो रखे जा रहे हैं, जबकि वन प्रहरी भी यही काम कर रहे थे। उन्हें वनाग्नि के बजट से मानदेय दिया जा सकता था। पूर्ववर्ती तीरथ रावत सरकार ने एक अप्रैल से जंगल की आग पर काबू पाने के लिए 10 हजार ग्राम प्रहरियों की तैनाती की घोषणा की थी। इनमें पांच हजार महिलाओं को भी वन प्रहरी बनाया जाना था। इनके मानदेय के लिए 40 करोड़ रुपये का बजट भी जारी किया गया था।

वन अधिकारियों का कहना है कि हर साल लगभग 36 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र में वनाग्नि को रोकने के लिए नियंत्रित तरीके से आग लगाई जाती है। करीब 2700 किमी फायर लाइन का रखरखाव किया जाता है। स्थानीय निवासियों से प्रतिवर्ष लगभग 7000 फायर वॉचर अग्निकाल में लगाए जाते हैं। 40 मास्टर कंट्रोल रूम, 1317 क्रू स्टेशन और 174 वाच टावर स्थापित किए गए हैं। डीएफओ देहरादून नितीशमणि त्रिपाठी के अनुसार, हमने अपने डिवीजन में जो भी वन प्रहरी रखे थे वो 31 मार्च को हटा दिए। हमें 31 मार्च तक ही इसके लिए कैंपा के तहत बजट मिल रहा था।

कालागढ़ टाइगर रिजर्व वन प्रभाग (केटीआर) की ओर से कैंपा योजना के तहत रखे गए वन प्रहरियों को हटाने के बाद उन्हें साढ़े तीन माह के शेष वेतन का भुगतान भी नहीं किया गया है। सोना नदी रेंज के वन प्रहरियों ने इस संबंध डीएफओ को ज्ञापन भेजकर उन्हें पुन: बहाल करने और शेष वेतन का भुगतान करने की मांग की है। सोना नदी रेंज के वन प्रहरियों ने कहा कि जुलाई, 2021 में कैंपा योजना के तहत पूरे उत्तराखंड में 10 हजार वन प्रहरियों की तैनाती की गई थी। केटीआर के सोना नदी रेंज में भी वन प्रहरियों की तैनाती की गई। कहा कि उन्हें सितंबर माह तक का वेतन भुगतान किया गया, लेकिन इसके बाद करीब साढ़े तीन माह के वेतन का भुगतान नहीं किया गया। इस बीच 15 जनवरी, 2022 को केटीआर प्रशासन ने वन प्रहरियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया लेकिन शेष साढ़े तीन माह का वेतन नहीं दिया गया।

डाउन टू अर्थ पत्रिका के अनुसार, उत्तराखंड में गत वर्ष फरवरी का महीना औसत से ज्यादा गर्म रहा था और मार्च भी औसत से 4 डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म था। वनों में आग लगने के आसार बढ़ गये थे। पिछले सालों के अनुभव बताते हैं कि आम नागरिकों की सहभागिता के बिना जंगलों को आग से बचाना संभव नहीं है। ऐसे में राज्य सरकार ने 10 हजार वन प्रहरियों की भर्ती करने की घोषणा की थी। सामान्य से कम बारिश, सामान्य से ज्यादा अधिकतम तापमान और पश्चिमी विक्षोभों के बार-बार बिना बरसे लौट जाने से बीती गर्मियां उत्तराखंड के जंगलों पर भारी पड़ने की आशंका बनी हुई थी। पिछली बार सर्दी के दिनों में भी राज्य में वनों में बार-बार आग लगती रही है। 15 फरवरी को वन विभाग का औपचारिक फायर सीजन शुरू होने से पहले की जंगलों में आग लगने की 600 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी थीं।

उत्तराखंड का पिछले वर्षों का अनुभव बताता है कि आम लोगों की भागीदारी के बिना जंगलों को आग से बचाना संभव नहीं है। आग लगने पर आसपास के गांवों के लोग भारी संख्या में आग बुझाने पहुंचते थे। वे पेड़ों की हरी टहनियों के झाड़ू बनाकर आग बुझाते थे। यह एक सामाजिक कार्य माना जाता था और हर समर्थ परिवार का इसमें शामिल होना आवश्यक होता था। 

जंगलों की आग बुझाने के सामूहिक प्रयास को ’झापा लगाना’ कहा जाता था। लेकिन जब से राज्य के लोगों को जंगलों में हक-हकूकों से वंचित किया गया, जंगलों से सूखी लकड़ी और चारा पत्ती लाने तक की मनाही कर दी गई, तब से लोग जंगलों से दूर हो गये और साल दर साल ज्यादा जंगल आग की भेंट चढ़़ने लगे। इसी सब को देखते हुए, राज्य सरकार ने लोगों को फिर से जंगलों की सुरक्षा से जोड़ने के नये तरह के प्रयास शुरू किये थे। इस कड़ी में मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने राज्य में 10 हजार (5 हजार महिला) वन प्रहरी भर्ती की घोषणा की थी। 

पर्यावरण विशेषज्ञ/उत्तराखंड वानिकी एवं औद्यानिक विवि से जुड़े एसपी सती के अनुसार, बढ़ती गर्मियों (तापमान) के चलते वनों को आग से बचाने के लिए यदि अत्यधिक सावधानी नहीं बरती गई तो हालात 2016 और 2018 से ज्यादा भयावह हो सकते हैं। 2016 में राज्य के जंगलों में अब तक की सबसे ज्यादा भयावह आग की घटनाएं हुई थी। उस समय 4538.75 हेक्टेयर वन संपदा नष्ट हो गई थी और 7 लोगों की मौत हो गई थी। 2018 में 4480.04 हेक्टेयर वन आग से जल गये थे। पिछले 11 वर्षों के दौरान हर साल औसतन 2200 हेक्टेयर वन आग से नष्ट हुए हैं। इस दौरान 2020 में कोविड लॉकडाउन के कारण राज्य में आग की सबसे कम 126 घटनाएं हुई, जिनमें 155.89 हेक्टेयर वनों को नुकसान पहुंचा था। बेरोजगारी से इतर वनों में आग के तथ्यों के दृष्टिगत देंखे तो वन प्रहरियों को हटाने से राज्य सरकार की संवेदनशीलता की पोल बखूबी खुल जा रही है।

यह सब भी तब, जब दो साल पहले उत्तराखंड में पूरे साल फायर सीजन होने का ऐलान किया गया था। मतलब यह कि जंगलों की आग बुझाने के लिए सालभर फायर सीजन जैसी तैयारी और चौकसी रहेगी। वन मंत्री हरक सिंह रावत ने इसका प्रस्ताव बनाने को कहा था। खास है कि प्रदेश में 15 फरवरी से फायर सीजन शुरू होता है और 15 जून तक जारी रहता है। दरअसल प्रदेश में जंगल की आग की घटनाएं अधिकतर मानसून से पहले ही देखने को मिलती हैं। मानसून में बारिश के कारण चीड़ के जंगलों तक में आग के मामले सामने नहीं आते और सर्दियों में भी आग की घटनाएं कम हो जाती हैं। इसी के आधार पर जंगल की आग पर काबू पाने के लिए वन विभाग 15 फरवरी से 15 जून तक फायर सीजन मानता है।

खास यह भी है कि 71% वन भूभाग वाले उत्तराखंड में वनों एवं वन्यजीवों के संरक्षण का जिम्मा भी वन विभाग के कंधों पर है। उत्तराखंड वन विभाग ने अपने परिचय में भी, वन संसाधनों की सुरक्षा को वनाग्नि रोकने के साथ जैव विविधता/पर्यावरणीय संरक्षण तथा वन्य जीव संरक्षण और संवर्धन को अपना उद्देश्य बताया है। विषम भूगोल और जटिल परिस्थितियों के मद्देनजर यह कार्य चुनौतीपूर्ण है, लेकिन बजट आदि के बहाने विभाग अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकता है।

दूसरी ओर, विकास परियोजनाओं के नाम पर जंगल काटे जाने की घटनाएं भी उत्तराखंड में बढ़ रही है जिसका असर दून घाटी के जलवायु और आबोहवा पर भी पड़ा है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, देहरादून दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में 30वें स्थान पर है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं के अनुसार, पिछले 20 वर्षों में विकास परियोजनाओं के लिए देहरादून, हरिद्वार और ऋषिकेश में तकरीबन 20 लाख पेड़ों को काटा गया है। अकेले राजधानी देहरादून में ही अलग अलग परियोजनाओं में हजारों पेड़ काटे जा रहे हैं। सहस्त्रधारा क्षेत्र में सड़क चौड़ीकरण के नाम पर 2200 पेड़, शिवालिक एलिफेंट रिजर्व के 10 हज़ार पेड़ों पर हवाई अड्डे विस्तार को आरी चलनी है तो दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेस-वे के लिए 11 हज़ार पेड़ों पर आरी चलेगी। इसी सब का नतीजा है कि इस वर्ष 30 मार्च को देहरादून का अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंच गया। विरोध प्रदर्शन में देहरादून की संस्था मैड, सिटीजन फॉर ग्रीन दून, आगाज, डु नॉट ट्रैश समेत 17 गैर-सरकारी संगठनों के युवा, एक्टिविस्ट, पर्यावरण कार्यकर्ता यहां इकट्ठा हुए और चिपको आंदोलन का आह्वान किया। साथ ही पेड़ों को रक्षा सूत्र बांधकर अपना विरोध जताया है।

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