UP चुनाव: पहले चरण में भाजपा की हालत पतली! अब तो मोदी-शाह ही बोल रहे- “सपा जीती तो…”

Written by Navnish Kumar | Published on: February 7, 2022
जिस सूबे के बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है, वहां इस बार सत्ताधारी भाजपा की हालत खासी पतली नजर आ रही है। तमाम चुनावी रुझान, रणनीतिकार और विशेषज्ञ भी कह रहे हैं कि इस बार यूपी चुनाव (पहले चरण) में भाजपा संकट में है। 2017 में भाजपा की जो आंधी (वेस्ट) यूपी में चली थी किसान आंदोलन से उपजा जाट-मुस्लिम-पिछड़ा गठजोड़, उन तमाम समीकरणों को उलटता दिख रहा है। पहले चरण से ही भाजपा के खिलाफ गुस्से का माहौल बन रहा है। हालांकि यह गुस्सा 2017 की तरह आंधी में कितना बदलेगा कितना नहीं बदलेगा, यह तो 10 मार्च को ही पता चलेगा लेकिन भाजपाई तक खुद मान रहे है कि इस बार उन्हें तकरीबन हर जिले में नुकसान हो रहा है। फिर अब तो मोदी-शाह ही बोल रहे कि “सपा जीती तो…”, अपने आप में डर और हार की निशानी है। वहीं यह सब भाजपा की बौखलाहट को भी बखूबी दर्शाता है। 



अगर ‘सपा जीती तो…’ के ये 3 शब्द, चुनाव की तकरीरों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का तकिया कलाम बन गए हैं। अपनी हर सभा में भाजपा के दोनों सबसे बड़े प्रचारकों का भाषण इन्हीं शब्दों से शुरू हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में वर्चुअल सभाएं की, जिसमें उन्होंने 5 जिलों के मतदाताओं को संबोधित किया। पार्टी की ओर से इसे जनचौपाल का नाम दिया गया है। इसमें मोदी ने कई बार ये तकिया कलाम दोहराया कि ‘अगर सपा जीती तो..’।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, प्रधानमंत्री ने कहा कि अगर सपा जीती तो कोरोना काल में गरीबों को जो राशन मिल रहा है उसे बंद कर देगी। इसी तरह प्रधानमंत्री ने कहा कि सपा जीती तो गरीबों को इलाज के लिए केंद्र सरकार जो पांच लाख रुपए दे रही उसे बंद कर देगी। सोचें, मुफ्त राशन की योजना केंद्र सरकार चला रही है, पांच लाख रुपए केंद्र सरकार दे रही है तो उसे कोई राज्य सरकार कैसे बंद कर देगी? उन्होंने यह भी कहा कि अगर सपा जीती तो फर्जी समाजवादी सब लूट लेंगे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में घूम घूम कर चुनावी सभा कर रहे अमित शाह अपनी हर सभा में कई कई बार यह तकिया कलाम बोल रहे हैं। वे लोगों को डरा रहे हैं कि अगर सपा जीती तो माफिया का राज आ जाएगा। अगर सपा जीती तो महिलाओं का घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। अगर सपा जीती तो जयंत की छुट्टी हो जाएगी और आजम खान आ जाएंगे। इस तरह की दसियों बातें हैं, जिनसे वे लोगों को डराते हैं कि सपा जीती तो क्या क्या होगा।

सवाल है कि भाजपा के नेता लोगों को डरा रहे हैं या खुद डरे हुए हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनको लग रहा है कि सपा जीत रही है? इससे पहले तो कहीं ऐसे भाषण सुनने को नहीं मिलते थे! एक तरफ भाजपा के नेता फिर तीन सौ सीट जीतने का दावा कर रहे हैं तो फिर बार-बार ये क्यों दोहरा रहे हैं कि अगर सपा जीती तो... ये हो जाएगा, वो हो जाएगा? सवाल जब भाजपा को तीन सौ सीटें मिल रही हैं तो सपा के जीतने की बात कहां से आई? भाजपा नेताओं के मुंह से बार बार सपा के जीतने की बात निकल रही है तो इसका मतलब है कि कुछ जमीनी फीडबैक उनको मिल रही है!

हालांकि कुछ लोग पहले चरण से ही भाजपा के पिछड़ने के पीछे मोदी योगी और शाह की आपसी खींचतान वाले रवैये को भी कारण मान रहे हैं। राजनीतिक चिंतक लोकेश सलारपुरी अपनी फेसबुक पोस्ट में कहते हैं कि समर्थकों (मोदी योगी समर्थक) ठंडे दिमाग़ से सोचिए कि जिस अंदाज से भाजपा चुनाव लड़ने के लिए जानी जाती है क्या यूपी में चुनाव वह वैसे ही अंदाज में लड़ रही है??
नहीं!
क्योंकि हालत पतली है!
राजनाथ कहीं नज़र आये?
नहीं, क्योंकि योगी को हराना है!
मोदी नज़र आये?
नहीं, क्योंकि योगी को हराना है! बंगाल में मोदी जी ने 23 रैली की थी, और वो सारी 23 सीट भाजपा हार गई थी!
बहुत बड़ी और अपमानजनक हार की तरफ भाजपा बहुत मजबूती के साथ बढ़ रही है! 
भाजपा समर्थकों तय कर लो अभी से ही कि भाजपा यूपी में किसके कारण हार रही है? मोदी के कारण? योगी के कारण? या भाजपा समर्थकों की बदतमीजियों के कारण? लेकिन हार रही है ये तय है... । वेस्ट यूपी में भाजपा के वही विधायक मुकाबले में नज़र आ रहे हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में जनता से निरंतर संवाद जारी रखा, जनता से जुड़ाव क़ायम रखा!

दूसरी ओर, कांग्रेस की प्रियंका-राहुल की यूपी की राजनीति में बढ़ती सक्रियता का भी असर दिख रहा है। कांग्रेस अपने खोये हुए जनाधार को फिर से समेटने में लगी है। उनके नाम पर इकट्ठा होने वाली, खास तौर पर महिलाओं और युवाओं की, भारी भीड़ से इंदिरा गांधी का जमाना सामने आ जाता है। वहीं, चंद्रशेखर रावण विलंब होने के बावजूद भी कुछ छोटे दलों के जातीय क्षत्रपों को बटोरकर एक मोर्चा बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। वे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ गोरखपुर से चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर चुके हैं। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी इस चुनावी समर में एकला चलो की तर्ज़ पर उतरे हैं। उन्होंने अयोध्या की परिक्रमा, सरयू में स्नान और दर्शन-पूजन करके खुद को रामभक्त साबित करने की औपचारिकता पूरी कर ली है। बसपा सुप्रीमो मायावती भी अपनी पिछली शैली से हटकर ब्राह्मण सम्मेलनों द्वारा प्रदेश के ब्राह्मणों को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर एक अलग भूमिका अदा कर चुकी हैं।

यही नहीं, भाजपा के साथ, उसकी ‘बी टीम’ कही जा रही असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली एआईएमआईएम का पश्चिमी बंगाल की तरह सूपड़ा साफ हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान गोली चली जिसे लेकर मुस्लिम युवाओं में नाराजगी बढ़ी है। यह तो संयोग अच्छा था कि गोली गाड़ी के दरवाजे के बिल्कुल निचले हिस्से में लगी, जिससे ओवैसी या उनके किसी साथी को कोई नुकसान नहीं हुआ। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना है लेकिन यह घटना ऐसे समय में हुई है, जब उत्तर प्रदेश में पहले चरण का मतदान होना है। इसलिए इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का भी राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है, जैसा अक्सर होता रहा है। इस घटना को अंजाम देने वाले लोग भाजपा के समर्थक हैं और यह घटना बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने जैसी है। ओवैसी उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन वे लड़ाई में नहीं हैं। उन्हें कुछ युवाओं का ही समर्थन दिख रहा है। मुस्लिम आवाम मोटे तौर पर रालोद-सपा के साथ है। लेकिन इस घटना के बाद ओवैसी का समर्थन करने वाले युवा मुस्लिम मतदाताओं की संख्या बढ़ी है। सोशल मीडिया में उनका समर्थन बढ़ा है। दूसरी ओर उनके खिलाफ नफरत फैलाने वाले पोस्ट की संख्या भी बढ़ी है। इसका मतलब है कि इस घटना को आधार बनाकर दोनों तरफ से ध्रुवीकरण के प्रयास तेज हो गए हैं। अगर इस घटना के बाद मुस्लिम वोटों का जरा भी रूझान ओवैसी के उम्मीदवारों की ओर होता है तो नुकसान सपा और रालोद का है। फायदा किसको होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है। 

खास है कि बिहार में ओवैसी की पार्टी नवंबर 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में 20 सीटों पर चुनाव लड़ी थी जिनमें से पांच सीटों पर उसे सफलता प्राप्त हुई थी। जबकि मुस्लिम विधायकों की कुल संख्या घटकर 2010 के बराबर पहुंच गई है। साल 2020 के चुनाव में यहां कुल 19 मुस्लिम विधायक जीते, जिनमें आरजेडी के टिकट पर सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक जीतकर आये जबकि जेडीयू से एक भी मुस्लिम नहीं जीत सका। हालांकि बिहार की सफलता से उत्साहित होकर असदुद्दीन ओवैसी ने पिछले साल अप्रैल-मई में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भी 7 मुस्लिम बहुल सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे जिनमें से कोई भी जीत दर्ज नहीं कर पाया था। 

यही नहीं, जिस तरह यूपी विधानसभा के वर्तमान चुनाव में लोगों द्वारा जगह जगह भाजपा प्रत्याशियों को खदेड़ा जा रहा है और अखिलेश यादव तथा जयंत चौधरी गठबंधन के अलावा प्रियंका-राहुल को सुनने लोगों की भारी भीड़ उमड़ रही है तो दूसरी तरफ किसान नेताओं ने भाजपा के विरुद्ध तीखे सवालों की बौछार शुरू कर दी है। इसके अलावा हाल ही में प्रदेश में छात्रों और बेरोजगारों पर की गई पुलिसिया कार्रवाई ने युवाओं में भाजपा के खिलाफ माहौल बना दिया है; इस सबसे उत्तर प्रदेश में भाजपा को उसकी उम्मीद के अनुरूप जनसमर्थन मिलने की आशा नहीं है। प्रदेश विधानसभा चुनाव में 403 सीटों में से पश्चिमी उप्र की 142 सीटों पर सपा-आरएलडी गठबंधन से भाजपा उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर मिलने की संभावना है। जबकि भाजपा अब भी अपने सदाबहार हिंदू-मुस्लिम कार्ड के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश में है लेकिन किसान आंदोलन और पूर्वांचल में छात्र आंदोलन ने उसके प्रयासों को पलीता लगा दिया है। ऊपर से बेरोजगारी और महंगाई से लोग अलग त्रस्त हैं।

जातीय समीकरण साधने में भाजपा पिछड़ी

इसके साथ ही बिहार की जातीय राजनीति से प्रभावित पूर्वांचल की 124 सीटों पर भी भाजपा की नैया डंवाडोल है। उसने 2017 में सुहेलदेव के नेतृत्व वाली भासपा के ओमप्रकाश राजभर से समझौता करके जातीय समीकरण अपने पक्ष में कर लिये थे लेकिन इस बार सुभासपा ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लिया है। साथ ही योगी मंत्रिमंडल से स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान ने चुनाव से पहले ही इस्तीफा देकर भाजपा को बड़ा झटका दिया है। जिसकी भरपाई कर पाना भाजपा के लिए आसान नहीं है। हालांकि भाजपा ने भी निषाद पार्टी और अपना दल से समझौता करके कुछ हद तक स्थिति को संभालने की कोशिश जरूर की है। हालांकि अपना दल भाजपा के साथ पहले से ही है लेकिन पूर्वांचल की राजनीति में उसकी स्थिति पहले जैसी नहीं रही क्योंकि वह दो भागों में विभाजित हो गया है और उसका एक गुट सपा गठबंधन के साथ है। यूपी के चुनावी दंगल में फिलहाल जातीय अस्मिता का रुझान बढ़ा है। यहां साम्प्रदायिक व जातीय समीकरण एक धरातली सच्चाई है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए यूपी में चुनाव के मंडल बनाम कमंडल होने की भरपूर आशंका है। जिसमें भाजपा मजबूत स्थिति में दिखाई नहीं देती।

उधर, हाल ही में प्रयागराज में लॉज में घुसकर पुलिस ने छात्रों की जिस तरह पिटाई की है, उसका असर भी चुनाव परिणाम पर पड़ने की संभावना है। उधर जनवरी 2018 में 68500 और दिसम्बर 2018 में 69000 सहायक शिक्षकों की भर्ती शुरू हुई थी। इसमें 6000 आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की नियुक्ति होनी थी लेकिन व्यापक स्तर पर हुई धांधली से मामला खटाई में पड़ गया था। जिसके विरुद्ध आंदोलनरत युवाओं पर पुलिस द्वारा जबरदस्त लाठी-डंडे बरसाये गये थे।इसके अलावा रेलवे की आरआरबी एनटीपीसी परीक्षा के घोषित परिणामों में हुई धांधली के कारण बिहार और उत्तर प्रदेश के छात्र आंदोलनरत हैं। छात्रों ने ‘बिहार बंद’ का आह्वान किया था, जिसका असर पटना समेत विभिन्न स्थानों पर देखने को मिला था। अतः किसान आंदोलन की तरह छात्र आंदोलन का भी असर उत्तर प्रदेश के चुनाव पर पड़े बिना नहीं रहेगा।

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