मेरी मां जैसा कोई नहीं..सुधा भारद्वाज की बेटी ने लिखा भावुक पत्र

Published on: September 8, 2018
भीमा कोरेगांव मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं वामपंथी विचारक और कवि वरवर राव, वकील सुधा भारद्वाज, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंज़ाल्विस को अर्बन नक्सल बताकर गिरफ्तार किया था. ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है. अब सुप्रीम कोर्ट ने इन कार्यकर्ताओं की नजरबंदी की अवधि बढ़ाकर 12 सितंबर कर दी है.



महाराष्ट्र पुलिस ने इन कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाए हैं कि इनके संबंध माओवादियों के प्रतिबंधित संगठनों के साथ थे और ये देश में अराजकता फ़ैलाने की कोशिश कर रहे थे. इनकी गिरफ्तारी को लेकर महाराष्ट्र पुलिस भी सवालों के घेरे में है. पिछले दिनों महाराष्ट्र पुलिस ने इस मामले पर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सफाई दी थी जिसपर बॉम्बे हाईकोर्ट ने लताड़ लगाई थी. हाईकोर्ट ने कहा था कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो पुलिस किस अधिकार से प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रही है. 

इन सामाजिक कार्यकर्ताओं में शामिल वरिष्ठ वकील सुधा भारद्वाज ने एक पत्र सार्वजनिक करते हुए पुलिस की तरफ से लगाए गए तमाम आरोपों को बेबुनियाद बताया था. अब सुधा भारद्वाज की बेटी मायशा नेहरा ने एक चिट्ठी सार्वजनिक की है, इस चिट्ठी के ज़रिए मायशा अपनी मां को याद कर रही हैं, पढ़िए मायशा की अपने मां के नाम लिखी यह चिट्ठी...

सुबह के सात बजे थे. मम्मी ने उठाया सर्च करने आए हैं घर को, उठ जाओ.

फिर उसके बाद जो हुआ वो सब जानते हैं. सब मम्मा के बारे में लिख रहे हैं.

मैंने सोचा मैं भी लिख दूं (हाहा)...

मेरी और मम्मा की सोच में हमेशा से थोड़ा फ़र्क रहा है. मेरी सोच शायद मम्मा की तरह मैच नहीं करती. 

इस बारे में शायद हमारी बहस भी हुई होगी.



हमेशा मम्मा को कहती थी कि, ''मम्मा हम ऐसी लाइफ़ क्यों लीड करते हैं बिल्कुल नॉर्मल सी, हम क्यूं अच्छे से नहीं रहते.''

मम्मा कहती थी कि बेटा मुझे ऐसे ही ग़रीबों के बीच में रह कर काम करना अच्छा लगता है. बाक़ी जब तुम बड़ी हो जाओगी तुम अपने हिसाब से रहना.

फिर भी मुझे बुरा लगता था. मैं कहती थी कि आप ने बहुत साल दिए हैं सभी लोगों को अब अपने लिए टाइम निकालो और अच्छे से रहो.

मेरी नाराज़गी ये भी थी कि मम्मा ने मुझे वक़्त नहीं दिया काम की वजह से. उनका ज़्यादा वक़्त लोगों के लिए होता था मेरे लिए नहीं.

बचपन में यूनियन के एक चाचा की फ़ैमिली के साथ रहती थी. उनके बच्चे थे, वो साथ रहते थे. 

पर मम्मा की याद आती थी तो मैं मम्मा की साड़ी पकड़कर रोती थी. मुझे आज भी याद है मैं बीमार थी और चाची ने मेरे पास आकर मेरे सिर पर हाथ फेरा था.

मैने सोचा मम्मा होगी. अचनाक मैं बोल पड़ी 'मां' फिर आंख खोली तो देखा चाची थी.

बचपन का कम वक़्त ही मैंने मम्मा के साथ बिताया है.

जब मैं छठी क्लास में आयी तब प्रॉपर मम्मा के साथ रहना शुरू किया, शायद इसीलिए हम एक दूसरे को आज भी कम समझ पाते हैं.

मैंने उनको देखा है पूरे दिन काम करते हुए, बिना नहाए बिना खुद का ख़्याल रखे, बिना खाए, बिना सोए. दूसरों के लिए लड़ते हुए, दसरों के लिए करते हुए.

मुझे बुरा लगता है जब मम्मा अपना ख़्याल नहीं रखती, उनके पास जब केस आता था तो मम्मा काफ़ी अपसेट होती थीं.

उनके लिए मैं सोचती थी कि ये इनका प्रोफ़ेशन है, WHY SHE IS GETTING UPSET ABOUT IT. बोला भी है मैंने उन्हें.

वो कहती थी कि हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा.

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