अरबन नक्सल का हौव्वा खड़ा करके किनके हित साध रहा है संघ ?

Written by Bhanwar Meghwanshi | Published on: June 23, 2019
आरएसएस के प्रचार विभाग द्वारा संकलित और विश्व संवाद केंद्र,जयपुर द्वारा प्रकाशित 50 पृष्ठ की एक पुस्तिका "कौन है Urban Naxals"कल ही पढ़ने को मिली।



जैसा कि इसकी प्रस्तावना में ही लिखा गया है कि -' समाज की सतत सजगता हेतु मुख्यधारा के हिंदी समाचार पत्र पत्रिकाओं में "अरबन नक्सल" विषयों पर प्रकाशित आलेखों का संकलन है यह पुस्तिका।

इसके लेखकों में अजय सेतिया, विवेक अग्निहोत्री, मनु त्रिपाठी, मकरंद परांजपे, ज्ञानेंद्र भरतिया, आशीष कुमार अंशु,अभिनव प्रकाश,नीलम महेंद्र,हितेश शंकर,अवधेश,शौर्य रंजन,अंजनी झा और यादवेन्द्र सिंह शेखावत जैसे लोग शामिल है।

ज्यादातर आलेख पांचजन्य अथवा अन्य दक्षिणपंथी विचार समूह की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये है।

पुस्तिका साफ कहती है कि 'बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम' जैसी फ़िल्म बनाने वाले विवेक अग्निहोत्री की देन है अरबन नक्सल शब्द,जिनकी इसी नाम से एक किताब भी आ चुकी है।इस किताब की भूमिका मकरंद परांजपे द्वारा लिखी गई है,ऐसा परांजपे का खुद कहना है।

किताबें लिखी जाती है,प्रकाशित होती है,वितरित होती है,बिकती है,यह सामान्य बात है,इसमें कोई दिक्कत नहीं है,लोकतांत्रिक देश में हर तरह के विचार का साहित्य छपेगा,बंटेगा और बिकेगा भी,मगर खतरनाक बात यह है कि पढ़ने पर यह प्रचार पुस्तिका पूरी तरह से दुष्प्रचार पुस्तिका जैसी लगती है।

इस पुस्तिका के माध्यम से देश भर में गरीब दलित आदिवासी व अल्पसंख्यक समुदाय के मूलभूत मानवीय अधिकारों के लिए दशकों से लड़ रहे लोगों को द्वेषपूर्ण ढंग से टारगेट करते हुए लांछित किया गया है,इस पुस्तिका की भूमिका में ही यह नफरत उजागर हो जाती है ,जहां साफ तौर पर यह लिख दिया जाता है कि - 'जो अपनी पहचान प्रगतिशील, सिविल सोसायटी या लिबरल के रूप में चाहते हैं,एनजीओ, मानवाधिकार, साहित्यिक व कला मंच जिनके माध्यम है,एक दूसरे को मैग्सेसे व उनके समकक्ष पुरुस्कार दिलाना जिनकी फितरत है,पत्रकारिता,पुस्तक ,फ़िल्म जिनके आतंक फैलाने के हथियार है,असहिष्णुता व अभिव्यक्ति की आज़ादी जिनके प्रिय जुमले हैं,प्राध्यापक, पत्रकार, अधिवक्ता व एक्टिविस्ट होना जिनका पैसा है,जनसुनवाई और आरटीआई जिनके माध्यम है ,प्रधानमंत्री, भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जो अपना शत्रु मानते हैं,जिन्हें वाममार्गी,माओवादी ,कम्युनिस्ट कहा जाता है,परन्तु एक ही शब्द का सम्बोधन देना हो तो वह है- अरबन नक्सल ।

यह प्रचार पुस्तिका सलवा जुडूम की भूरी भूरी प्रशंसा करती है,महेंद्र कर्मा को बार बार उद्धरित करती है ,बस्तर के पूर्व आईजी कल्लूरी के श्रीमुख से कहलवाती है कि -'बस्तर से नक्सली सालाना 1100 करोड़ की वसूली करते हैं,यह पैसा उन माओवादियों को नहीं मिलता है,जो हथियार लेकर जंगल मे आंधी पानी और मलेरिया से जूझ रहे हैं,यह पैसा पहुंचता है नक्सलियों के अरबन नेटवर्क के पास,ये एक छोटा वर्ग है जो गैर सरकारी संगठन व मानव अधिकार के नाम पर ,अध्येता या शोधार्थी के नाम पर इस दावे के साथ बस्तर में मौजूद होता है कि हम वहां काम कर रहे हैं।'

पुस्तिका कईं सामाजिक कार्यकर्ताओं,पत्रकारों,लेखकों,रंगकर्मियों ,प्राध्यापकों को शहरी सफेदपोश नक्सली के रूप में चिन्हित करती है,उनकी नजर में मेधा पाटकर,अरुंधति रॉय,स्वामी अग्निवेश,राहुल पंडिता,अरुणा रॉय ,नंदिनी सुंदर जैसे लोग अरबन नक्सल है ,वरवर राव,सुधा भारद्वाज,अरुण फरेरा, गौतम नवलखा,वेरनन गोंजाल्विस,फादर स्टेन स्वामी,सुसान अब्राहम,आनंद तेलतुंबड़े ,कबीर कला मंच,यलगार परिषद तो है ही।

इन्हें भीमा कोरेगांव का दलित गौरव और आदिवासियों का पत्थलगढ़ी का आंदोलन भयानक नक्सली साज़िश लगती है ,यह जेएनयू को देशद्रोह का अड्डा और टुकड़े टुकड़े गैंग,अवार्ड वापसी गैंग ,पाकिस्तान परस्त,मुस्लिमों के प्रति प्रेम से भरे हुए,भारत विरोधी व हिन्दू विरोधी जैसे विशेषणों से तो सबको नवाजते ही हैं।

इस दुष्प्रचार पुस्तिका के मुताबिक- "वाम विचार प्रेरित आतंकवाद के लिए बड़े शहरों के साहित्यक,विश्वविद्यालय व अन्य बौद्धिक मंच,कला ,मीडिया ,पत्रकार और यहां तक कि फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े पढ़े लिखे ,किंतु उसी विचार को मानने वाले लोग,जो प्रोपेगैंडा कर जन असंतोष को भड़का कर नक्सलवाद के पक्ष में माहौल बनाते हैं।इन्हीं लोगों को अरबन नक्सल कहा गया है।"

पुस्तिका के अंतिम पृष्ठ पर बॉक्स में एक लघु आलेख किन्ही यादवेन्द्र सिंह द्वारा लिखित प्रकाशित है, जिसका शीर्षक इस प्रकार है-
" राजस्थान के केंद्रीय विश्वविद्यालय में अरबन नक्सल की आहट"
इस आलेख में कहा गया है कि "राजस्थान के एकमात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय को पूर्व योजना के मुताबिक अरबन नक्सल वाद का अड्डा बनाया जा रहा है,यहां का सोशल वर्क डिपार्टमेंट कईं बार निखिल डे को व्याख्यान हेतु बुलाता है,जो कि मजदूर किसान शक्ति संगठन में अरुणा राय के सहयोगी है व अरबन नक्सल को बढ़ावा दे रगे है। कल्चर व मीडिया विभाग से प्रतिवर्ष इंटर्न्स mkss भेजते हैं"।

किताब के अंदरूनी मुखपृष्ठ पर एक कार्टून के साथ "मी टू अरबन नक्सल" वाली फ़ोटो भी छापी गयी है,जिसमें प्रशांत भूषण,अरुंधति रॉय,अरुणा रॉय व जिग्नेश मेवाणी आदि नजर आते है।

कुल जमा इस प्रचार पुस्तिका के ज़रिए राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे देश की सिविल सोसायटी व जन आंदोलन के चेहरों को शहरी माओवादी के रूप में प्रचारित करके उनके विरुद्ध आम जन के मानस में घृणा,विद्वेष फैलाना है,उनके काम पर सवालिया निशान लगाते हुए उनके बारे में दुष्प्रचार करना है,ताकि ये लोग और इनके संगठन गरीब,दलित,मजदूर,किसान ,आदिवासी व पीड़ित अल्पसंख्यकों के साथ एकजुटता में खड़े न हो सके।

यह दुष्प्रचार काफी वक्त से जारी है,जब इस तरह की असत्य बातें एक सुनियोजित षड़यंत्र के तहत लोगों के बीच प्रचारित कर दी जाती है तो उसका परिणाम मॉब लिंचिंग और हमलों व हत्याओं के रूप में सामने आती है।

यह बहुत भयानक स्थिति है,इस उकसाने व भड़काने वाली ,नफरत पैदा करने वाली कार्यवाही की भर्त्सना की जानी चाहिए, ऐसी दुष्प्रचार प्रोपेगैंडा पुस्तिकाओं के प्रकाशकों व लेखकों के ख़िलाफ़ कानून सम्मत कार्यवाही होनी चाहिए,अन्यथा इस प्रकार की प्रवृति बढ़ेगी और सामाजिक न्याय व बदलाव के काम ग्रासरूट पर करना दूभर हो जाएगा।

इससे यह सवाल भी उठना स्वाभाविक है कि आरएसएस क्यों अपने प्रचार विभाग के ज़रिए इस प्रकार का साहित्य प्रचारित करवा रहा है,उसका क्या हिडन एजेंडा है,वह किसके हित साध रहा है,क्या यह पूंजीवाद और सांप्रदायिकता के गर्भनाल रिश्तों को मजबूती देने की कोशिश है या जीवन लगा देने वाले सेवा भावी सामाजिक कार्यकर्ताओं को जानबूझकर बदनाम करने का प्रयास ?

कुछ न कुछ तो है !

(भंवर मेघवंशी सामाजिक कार्यकर्ता और शून्यकाल के संपादक हैं।)

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