क्या कोई कहेगा मी टू रूरल नक्सल

Written by अनुराग मोदी | Published on: October 1, 2018
नक्सलवाद पर असली बहस कोई नहीं कर रहा; मीडिया के एक वर्ग और सरकार ने इसे अर्बन नक्सल के झूठे खेल में फंसा दिया है. अगर ऐसा नहीं होता तो इस बात पर सवाल उठता कि सुधा भरद्वाज सहित दस एक्टिविस्ट की गिरफ्तारी के आगे-पीछे, दो अलग -अलग घटनाओं, एक महाराष्ट्र के गडचिरोली में 40 और दूसरी बस्तर के सुकमा में 15, में कुल 55 आदिवासी युवा और नाबालिग, नक्सल होने के नाम में पुलिस की गोली से क्यों भून दिए गए? 



आमतौर पर इतनी हत्याओं पर तो देश का जनमानस उद्वेलित हो जाना था, लेकिन इस घटना का जैसे इस देश के जनमानस पर उसका कुछ असर ही नहीं हुआ: ना किसी ने कहा- #मी टू रुरल नक्सल, ना मुख्य-धारा के मीडिया में कोई खास डिबेट, ना मानवाधिकार आयोग ने इन एनकाउंटर पर सवाल उठाए. बस, कुछ मानवाधिकारवादी समूहों ने एक रिपोर्ट निकाली और गैर-परम्परागत मीडिया ने कुछ सवाल उठाए. वैसे,अगर यह मृत आदिवासी वाकई नक्सली है, तो हमें उद्वेलित होने की और ज्यादा जरुरत है. इस देश के जनमानस को यह सोचने की जरुरत है कि ऐसा क्या कारण है, कि जब आज एक आम शहरी तरुण अपने हाथ में एंड्राइड मोबाइल पाने के लिए बैचेन रहता है, और माँ-बाप उसकी आगे शिक्षा और रोजगार के लिए चिंतित तब यह आदिवासी किशोर अवस्था से ही अपनी जान न्योछावर कर एक “देशद्रोही” की मौत मरने को तैयार है?

इसलिए स्थापित मीडिया के एक बड़े समूह और सरकार के सारे आरोपों के बीच भी शहर में रहने वाले प्रगतिशील कार्यकर्त्ता और समूह जब साथी सुधा भरद्वाज सहित अन्य गिरफ्तार एक्टिविस्ट के समर्थन में कम से कम यह कह पाए: #मी टू अर्बन नक्सल. सुप्रीम कोर्ट ने भी मामले को पूरी गंभीरता से सुना और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने भी सवाल उठाए. तब,इस सबसे एक सुखद आनंद हुआ. लेकिन साथ ही यह सवाल भी मन में उठा कि क्या नक्सली इलाके में नक्सली होने का आरोप झेलते हुए किसी दिन भी मार दिया जाना आदिवासी की नियति है? क्योंकि,वो मध्यमवर्गीय और उच्च शिक्षित नहीं है और इसलिए उसके लिए हम दावे से नहीं कह सकते कि वो नक्सल नहीं है?

असल में,हमारे देश की सोच इतना मध्यम वर्ग केन्द्रित हो गई है, कि नक्सलवाद और सरकारी दमन भी तब चर्चा में आता है, जब उच्च शिक्षित मध्यमवर्गीय शहरी कार्यकर्त्ता“अर्बन नक्सल” के नाम से गिरफ्तार होते है हालँकि, कोई यह चर्चा नहीं करता है कि नक्सलवाद क्या है? क्यों है? क्या यह सिर्फ हिंसा करने के लिए बना है? इसका हल क्या है?मानवाधिकारवादी कार्यकर्त्ता चाहे जितना गला फाड़े, रिपोर्ट निकले,लेकिन सरकारी और नक्सली हिंसा के बीच पिसते आदिवासी की जिन्दगी की कोई कीमत इस व्यवस्था का मीडिया, अदालत,और काफी तक बुद्धीजीवी भी नहीं आंकते. नक्सलवाद के नाम में सुरक्षा बलों की गोलियों से आदिवासीयों के मारे जाने की खबर और कभी नक्सली हमले में सुरक्षा बलों के मारे जाने की खबर पिछले तीस सालों में हमारे लिएसमान्य खबरों का रूप ले चुकी है; हम इसके आदि से हो गए है, यह घटनाएँ होती रहती है और देश में सब-कुछ समान्य सा चलता रहता है.

मानव अधिकारवादी समूहों की दोनों घटनाओं पर दो अलग-अलग निकाली गई रिपोर्ट के अनुसार 

(https://wssnet.org/2018/05/17/press-release-of-the-joint-fact-finding-in...)मारे गए नक्सली नहीं थे और यह मुठभेड थी ही नहीं; इसमें एकतरफा ही लोग मारे गए थे,सुरक्षा बलों को तो कोई खास चोट तक नहीं आई थी, जो किसी भी दो सशत्र दलों की आपसी मुठभेड में असंभव है.इस रिपोर्ट में लिखा है कि सुरक्षा बलों ने अंडर बैर्रल राकेट लांचर का उपयोग किया था और मरने वालों में अनेक नाबालिग थे और बाकी सब युवा.

यह दोनों घटनाओं की चर्चा इसलिए भी जरुरी है, क्योंकि पहली घटना के बाद पहली गिरफ्तारी हुई और दूसरी घटना के बाद दूसरी. पहली घटना 22 अप्रले को महाराष्ट्र के गडचिरोली जिले के भामरागढ़ तहसील के बोरिया-कानासौर के जंगल में हुई.इसके बाद, 6 जून 2018 को पुणे पुलिस ने “अर्बन नक्सल” के नाम से पहली गिरफ्तारी की; इन गिरफ्तार में से एक महेश राउत तो गढ़चिरोली, और सोमा सेन नागपुर में प्रोफेसर थी भी थी.यह वो कार्यकर्त्ता है, जो इस ईलाके में लोतान्त्रिक तरीकों से आदिवासीयों के मुद्दे उठाते रहे है; इसमें सुरक्षा दलों व्दारा आदिवासीयों की जाने वाली ज्यादतीयों के मुद्दे भी होते है.

इसके बाद 6 अगस्त 2018 को छतीसगढ़ के सुकमा के जिले के कोन्टा छेत्र के मेहता पंचायत के नुलकतोग गाँव में एक खेत में 15 आदिवासी जिला पुलिस बल के एनकाउंटर में मारे गए. कमाल की बात यह है, इस हमले में भी पुलिस दल में से कोई गंभीर रूप से हताहत नहीं हुआ.वैसे  इस मामले मे; वहां मानवाधिकार पर काम कर रहे स्थानीय स्वतंत्र पत्रकार,सोनी सोरी के भतीजे, आदिवासी लिंगराम कोड़ोपी, ने इस बारे में अपनी फेस-बुक वाल पर जो रिपोर्ट डाली है उसके अनुसार: मरने वालों में 14 से 17 साल के 7 बच्चे है, ; इस बात की पुष्टी मानवाधिकारवादी संगठन वीमेन अगेंस्ट सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट रीपरेशन (Women against sexual violance) की रिपोर्ट से भी होती है. हमे ध्यान रखना होगा कि इसके बाद अन्य चार लोगों इन मुद्दों को लोकतान्त्रिक तरीको से उठाने वाली सुधा भरद्वाज की 29 अगस्त 2018 को गिरफ्तारी होती है.

ऐसा नहीं कि यह सब अभी हो रहा है; सिर्फ एक उदाहरण से नक्सली इलाके में रहने वाले आदिवासी महिलाओं के प्रति हमारा दोहरापन उजागर होगा:  सारा देश दिल्ली में निर्भयाकांड को लेकर उद्वेलित था,लेकिन एक साल पहले  उसी तरह की एक घटनानक्सली समर्थक होने के झूठे आरोप में गिरफ्तार आदिवासी कार्यकर्त्ता सोनी सोरी के साथ छतीसगढ पुलिस व्दारा अभिरक्षा में किए जाने की घटना सामने आई थी; पर मानवाधिकारवादी समूहों को छोड़कर देश का सामान्य जनमानस चुप था.

ऐसे ही एक समूह , यौन शोषण और राज्य की हिंसा के खिलाफ महिलाएं, की २९ दिसम्बर २०१२ को जारी एक रिपोर्ट के अनुसार (https://wssnet.org/2018/08/12/statement-by-wss-on-the-sukma-encounter-on...)  सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पहले उसका मेडिकल परीक्षण एन आर एस मेडिकल कॉलेज, कलकत्ता में हुआ, जिसकी रिपोर्ट २५ नवम्बर २०११ को सुप्रीम कोर्ट में पेश की गई; इस रिपोर्ट में यह साफ़ था, कि उसके गुप्तांग में गहरे तीन  पत्थर मिले, जिसके कारण उसे पेट दर्द के शिकायत हो रही थी, और उसकी रीढ़ की हड्डी के बाहरी हिस्से से  रिसाव होने लगा (annular tear) .ना एम्स दिल्ली में उनके मेडिकल परीक्षण में साफ़ हो गई थी; कोर्ट के आदेश पर ही उन्हें दिल्ली एम्स में ईलाज भी मिला था; इसमें यह बात सामने आ गई थी, कि सोनी के गुप्तांगो में पत्थर डाले गए है.इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के दुसरे आदेश पर मई २०१२ में सोनी सोरी का ईलाज और मेडिकल परीक्षण एम्स, दिल्ली में भी किया गया.

सत्ता का आदिवासीयों के प्रति जो आम रवैया है और नक्सलीयों के प्रभाव से जो उन्हें इससे राहत मिलती है वो भी कहीं ना कहीं आदिवासीयों के मन में नक्सलीयों के प्रति एक सद्भावना पैदा कर ही देता है. इसलिए, मीडिया,अदालतें, बुद्धीजीवीयों, जागरूक नागरिक सबको यह सोचना होगा कि क्या आदिवासी को नक्सली होने के आरोप में गोली से भून देने से या,इस मुद्दे को उठाने वाले मध्यमवर्गीय शहरी मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं को “अर्बन नक्सल” के नाम में जेल में ठूँस देने से नक्सली समस्या का हल हो पाएगा? हमें यह समझना होगा कि बस्तर में नक्सलवाद 1980 से है, लेकिन कैसे निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति के चरम तक आते-आते वो 21 सदी में देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा  बन गया? क्यों विकास औए सुरक्षा बलों पर हजारों करोड़ रुपए के खर्चे के बावजूद नक्सलवाद खत्म नहीं हो रहा? 

नक्सलवाद के नाम पर राज्य सरकारों को क्षमता निर्माण आदि के नाम में 2018-19 में 1222 करोड़ मिला, जो पिछले वित्तीय वर्ष से 380 करोड़ ज्यादा है .हलात यह है कि, आज इन इलाकों में लोगों से ज्यादा संख्या में सुरक्षा बल है:अकेले सेंट्रल रिजर्व्ड पुलिस फ़ोर्स, जो मुख्यतौर पर नक्सल प्रभावित इलाकों में पोस्टेड होती है, उसका 2017-18   का बजट 16228.18 करोड़ था जो 1635.35 रुपए बढाकर २०१८-१९ 17,868.53 कर दिया गया 
(https://idsa.in/idsacomments/analysis-internal-security-budget-2017-18_p...)  

हमें यह भी देखना होगा: क्या वाकई नक्सलवाद के कारण आदिवासी पिछड़े रह गए; उनका विकास नहीं हुआ? और क्यों देश के 90% आदिवासी ईलाके, जो नक्सल मुक्त है, वहां आजतक कितना विकास पहुंचा? और असल बात: विकास के नाम में जो सबकुछ हो रहा है, वो क्या वाकई विकास है?जब यह सब बहस होगी तब नक्सलवाद खत्म होगा वर्ना अर्बन नक्सल की इस थोथी बहस से कुछ नहीं होगा.और अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात,सुधा भरद्वाज को मैं पिछले 20 सालों से जानता हूँ: पहले अविभाजित मध्य प्रदेश में और फिर उसके बाद भी म. प्र. और छतीसगढ़ के जनसंगठन के समूह जन संघर्ष मोर्चा में हम साथ थे.

फिर भी, मुझे उनकी गिरफ्तारी होने तक उनकी डिग्री का पता नहीं था. इतना ही नहीं, जब हमारे साथ 23 साल से जुड़े आलोग सागर को बैतूल पुलिस ने शक के आधार पर पूछताछ के लिए बुलाया तब उनकी सारी डिग्रीयां मालूम हुई; और वो भी उन्होंने मीडिया के आग्रह पर उन्हें बताई, पुलिस को नहीं. हम साथी हमेशा यह कोशिश करते है, कि हमारी डिग्रीयां गाँव स्तर के कार्यकर्त्ता और हम शहरी मध्यमवर्गीय कार्यकर्त्ता के बीच दीवार या भेदभाव का कारण ना बने.और कोई कार्यकर्त्ता नहीं चाहता कि आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद के असली कारण से निकलकर यह बहस अर्बन नक्सल या एक्टिविस्ट की अकादमिक उपलब्धी पर केन्द्रित हो.

(लेखक समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.)

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