एक आसन्न गिरफ़्तारी देश के ज़मीर पर शूल की तरह चुभती दिख रही है।
पुणे पुलिस द्वारा भीमा कोरेगांव मामले में प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े के ख़िलाफ़ दायर एफआईआर को खारिज करने की मांग को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ठुकरा दिए जाने के बाद विभिन्न संगठन प्रोफेसर के पक्ष में खड़े हो गए हैं। आनंद तेलतुंबड़े ने खुद मदद की गुहार लगाई है। ऐसे में विभिन्न संगठनों ने एक बैठक कर अपने विचार रखे हैं। अदालत ने उन्हें चार सप्ताह तक गिरफ़्तारी से सुरक्षा प्रदान की है और कहा है कि इस अन्तराल में वह निचली अदालत से जमानत लेने की कोशिश कर सकते हैं। इसका मतलब है कि उनके पास फरवरी के मध्य तक का समय है। इस मामले पर विभिन्न संगठनों ने कहा कि......
इस मामले में बाकी विद्वानों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जमानत देने से इन्कार करने वाली निचली अदालत इस मामले में अपवाद करेगी, इसकी संभावना बहुत कम बतायी जा रही है। सुधा भारद्वाज, वर्नन गोंसाल्विस, वरवर राव, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा जैसे कई लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सरकार के निशाने पर आ चुके हैं और इनमें से ज़्यादातर को गिरफ़्तार किया जा चुका है।
दलित खेत मज़दूर परिवार में जन्मे और अपनी प्रतिभा, लगन, समर्पण और प्रतिबद्धता के ज़रिए विद्वतजगत में ही नहीं बल्कि देश के ग़रीबों-मजलूमों के हक़ों की आवाज़ बुलन्द करते हुए नयी उंचाइयों तक पहुंचे प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े की यह आपबीती देश-दुनिया के प्रबुद्ध जनों में चिन्ता एवं क्षोभ का विषय बनी हुई है।
विश्वविख्यात विद्वानों नोम चोमस्की, प्रोफेसर कार्नेल वेस्ट, जां द्रेज से लेकर देश दुनिया के अग्रणी विश्वविद्यालयों, संस्थानों से सम्बद्ध छात्र, कर्मचारियों एवं अध्यापकों ने और दुनिया भर में फैले अम्बेडकरी संगठनों ने एक सुर में यह मांग की है कि ‘पुणे पुलिस द्वारा डा. आनंद तेलतुंबड़े, जो वरिष्ठ प्रोफेसर एवं गोवा इन्स्टिटयूट ऑफ़ मैनेजमेंट में बिग डाटा एनालिटिक्स के विभागाध्यक्ष हैं, के ख़िलाफ़ जो मनगढंत आरोप लगाए गए हैं, उन्हें तत्काल वापस लिया जाए।’ जानी मानी लेखिका अरूंधती रॉय ने कहा है कि ‘उनकी आसन्न गिरफ़्तारी एक राजनीतिक कार्रवाई होगी। यह हमारे इतिहास का एक बेहद शर्मनाक और खौफ़नाक अवसर होगा।’
मालूम हो कि इस मामले में प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े के ख़िलाफ़ प्रथम सूचना रिपोर्ट पुणे पुलिस ने पिछले साल दायर की थी और उन पर आरोप लगाए गए थे कि वह भीमा कोरेगांव संघर्ष के दो सौ साल पूरे होने पर आयोजित जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं (जनवरी 2018)। यह वही मामला है जिसमें सरकार ने देश के चन्द अग्रणी बुद्धिजीवियों को ही निशाना बनाया है, जबकि इस प्रायोजित हिंसा को लेकर हिन्दुत्ववादी संगठनों पर एवं उनके मास्टरर्माइंडों पर हिंसा के पीड़ितों द्वारा दायर रिपोर्टों को लगभग ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
इस मामले में दर्ज पहली प्रथम सूचना रिपोर्ट (8 जनवरी 2018) में प्रोफेसर आनन्द का नाम भी नहीं था, जिसे बिना कोई कारण स्पष्ट किए 21 अगस्त 2018 को शामिल किया गया और इसके बाद उनकी गैरमौजूदगी में उनके घर पर छापा भी डाला गया, जिसकी चारों ओर भर्त्सना हुई थी।
गौरतलब है कि जिस जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, उसका आयोजन सेवानिवृत्त न्यायाधीश पी बी सावंत और न्यायमूर्ति बी जी कोलसे पाटील ने किया था, जिसमें खुद डा आनन्द शामिल भी नहीं हुए थे बल्कि अपने एक लेख में उन्होंने ऐसे प्रयासों की सीमाओं की बात की थी। उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि ‘भीमा कोरेगांव का मिथक उन्हीं पहचानों को मजबूत करता है, जिन्हें लांघने का वह दावा करता है। हिन्दुत्ववादी शक्तियों से लड़ने का संकल्प निश्चित ही काबिलेतारीफ है, मगर इसके लिए जिस मिथक का प्रयोग किया जा रहा है वह कुल मिला कर अनुत्पादक होगा।’
मालूम हो कि पिछले साल इस गिरफ़्तारी को औचित्य प्रदान करने के ‘सबूत’ के तौर पर पुणे पुलिस ने ‘‘कॉमरेड आनंद’’ को सम्बोधित कई फर्जी पत्र जारी किए। पुणे पुलिस द्वारा लगाए गए उन सभी आरोपों को डा. तेलतुम्बड़े ने सप्रमाण, दस्तावेजी सबूतों के साथ खारिज किया है। इसके बावजूद ये झूठे आरोप डा. तेलतुम्बड़े को आतंकित करने एवं खामोश करने के लिए लगाए जाते रहे हैं। जैसा कि स्पष्ट है यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेन्शन एक्ट) की धाराओं के तहत महज़ इन आरोपों के बलबूते डा. तेलतुम्बड़े को सालों तक सलाखों के पीछे रखा जा सकता है। डा. आनंद तेलतुंबड़े की संभावित गिरफ़्तारी कई ज़रूरी मसलों को उठाती है।
दरअसल रफ़्ता-रफ़्ता दमनकारी भारतीय राज्य ने अपने-आप को निर्दोष साबित करने की बात खुद पीड़ित पर ही डाल दी है: ‘हम सभी दोषी हैं जब तक हम प्रमाणित न करें कि हम निर्दोष हैं। हमारी जुबां हमसे छीन ली गयी है।’
प्रोफेसर आनन्द की संभावित गिरफ्तारी को लेकर देश की एक जानीमानी वकील ने एक विदुषी के साथ निजी बातचीत में (scroll.in) पर जो सवाल रखे हैं, वह इस मौके पर रेखांकित करनेवाले हैं। उन्होंने पूछा है, ‘आख़िर आपराधिक दंडप्रणाली के प्राथमिक सिद्धांतों का क्या हुआ? आखिर क्यों अदालतें सबूतों के आंकलन में बेहद एकांतिक, लगभग दुराग्रही रूख अख्तियार कर रही हैं? आखिर अदालतें क्यों कह रही हैं कि अभियुक्तों को उन मामलों में भी अदालती कार्रवाइयों से गुज़रना पड़ेगा जहां वह खुद देख सकती हैं कि सबूत बहुत कमज़ोर हैं, गढ़े गए हैं और झूठे हैं ? आखिर वे इस बात पर क्यों ज़ोर दे रही हैं कि एक लम्बी, थकाऊ, खर्चीली अदालती कार्रवाई का सामना करके ही अभियुक्त अपना निर्दोष होना साबित कर सकते हैं, जबकि जुटाए गए सबूत प्रारंभिक अवस्था में ही खारिज किए जा सकते हैं ? ’
‘आज हम उस विरोधाभासपूर्ण स्थिति से गुजर रहे हैं कि आला अदालत को राफेल डील में कोई आपराधिकता नज़र नहीं आती जबकि उसके सामने तमाम सबूत पेश किए जा चुके हैं। वहीं, दूसरी तरफ वह तेलतुम्बड़े के मामले में गढ़ी हुई आपराधिकता पर मुहर लगा रही हैं। न्याय का पलड़ा फिलवक्त़ दूसरी तरफ झुकता दिखता है। इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि अदालत ने जनतंत्र में असहमति की भूमिका को रेखांकित किया है, आखिर वह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों के लिए दूसरा पैमाना अपनाने की बात कैसे कर सकती है।’
लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, प्रबुद्ध जनों की यह सभा इस समूचे घटनाक्रम पर गहरी चिन्ता प्रकट करती है और सरकार से यह मांग करती है कि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए सभी फ़र्जी आरोपों को तत्काल खारिज किया जाए।
हम देश के हर संवेदनशील, प्रबुद्ध एवं इन्साफ़ पसंद व्यक्ति के साथ, कलम के सिपाहियों एवं सृजन के क्षेत्र में तरह तरह से सक्रिय लोगों एवं समूहों के साथ इस चिन्ता को साझा भी करना चाहते हैं कि प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, जो जाति-वर्ग के अग्रणी विद्वान हैं, जिन्होंने अपनी छब्बीस किताबों के ज़रिये - जो देश- दुनिया के अग्रणी प्रकाशनों से छपी हैं, अन्य भाषाओं में अनुदित हुई हैं और सराही गयी हैं - अकादमिक जगत में ही नहीं सामाजिक-राजनीतिक हल्कों में नयी बहसों का आगाज़ किया है। जो कमेटी फ़ॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स - जो मानवाधिकारों की हिफाजत के लिए बनी संस्था है - के सक्रिय कार्यकर्ता रहे है। जिन्होंने जनबुद्धिजीवी के तौर पर सत्ताधारियों को असहज करनेवाले सवाल पूछने से कभी गुरेज नहीं किया है, और जो फ़िलवक्त गोवा इन्स्टिटयूट ऑफ़ मैनेजमेण्ट में ‘बिग डाटा एनालिटिक्स’ के विभागप्रमुख हैं और उसके पहले आई आई टी में प्रोफेसर, भारत पेटोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक और पेट्रोनेट इंडिया के सीईओ जैसे पदों पर रहे चुके हैं, क्या हम उनकी इस आसन्न गिरफतारी पर हम मौन रहेंगे!
आईए, अपने मौन को तोड़ें और डा. अम्बेडकर के विचारों को जन जन तक पहुंचाने में मुब्तिला, उनके विचारों को नए सिरे से व्याख्यायित करने में लगे इस जनबुद्धिजीवी के साथ खड़े हों!
अशोक भौमिक, जन संस्कृति मंच (जसम)
हीरालाल राजस्थानी, दलित लेखक संघ (दलेस)
सुभाष गाताडे, न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव
रमणिका गुप्ता, रमणिका फाउंडेशन
प्रेम सिंह, साहित्य वार्ता
अली जावेद, प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, जनवादी लेखक संघ (जलेस)
पुणे पुलिस द्वारा भीमा कोरेगांव मामले में प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े के ख़िलाफ़ दायर एफआईआर को खारिज करने की मांग को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ठुकरा दिए जाने के बाद विभिन्न संगठन प्रोफेसर के पक्ष में खड़े हो गए हैं। आनंद तेलतुंबड़े ने खुद मदद की गुहार लगाई है। ऐसे में विभिन्न संगठनों ने एक बैठक कर अपने विचार रखे हैं। अदालत ने उन्हें चार सप्ताह तक गिरफ़्तारी से सुरक्षा प्रदान की है और कहा है कि इस अन्तराल में वह निचली अदालत से जमानत लेने की कोशिश कर सकते हैं। इसका मतलब है कि उनके पास फरवरी के मध्य तक का समय है। इस मामले पर विभिन्न संगठनों ने कहा कि......
इस मामले में बाकी विद्वानों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जमानत देने से इन्कार करने वाली निचली अदालत इस मामले में अपवाद करेगी, इसकी संभावना बहुत कम बतायी जा रही है। सुधा भारद्वाज, वर्नन गोंसाल्विस, वरवर राव, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा जैसे कई लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सरकार के निशाने पर आ चुके हैं और इनमें से ज़्यादातर को गिरफ़्तार किया जा चुका है।
दलित खेत मज़दूर परिवार में जन्मे और अपनी प्रतिभा, लगन, समर्पण और प्रतिबद्धता के ज़रिए विद्वतजगत में ही नहीं बल्कि देश के ग़रीबों-मजलूमों के हक़ों की आवाज़ बुलन्द करते हुए नयी उंचाइयों तक पहुंचे प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े की यह आपबीती देश-दुनिया के प्रबुद्ध जनों में चिन्ता एवं क्षोभ का विषय बनी हुई है।
विश्वविख्यात विद्वानों नोम चोमस्की, प्रोफेसर कार्नेल वेस्ट, जां द्रेज से लेकर देश दुनिया के अग्रणी विश्वविद्यालयों, संस्थानों से सम्बद्ध छात्र, कर्मचारियों एवं अध्यापकों ने और दुनिया भर में फैले अम्बेडकरी संगठनों ने एक सुर में यह मांग की है कि ‘पुणे पुलिस द्वारा डा. आनंद तेलतुंबड़े, जो वरिष्ठ प्रोफेसर एवं गोवा इन्स्टिटयूट ऑफ़ मैनेजमेंट में बिग डाटा एनालिटिक्स के विभागाध्यक्ष हैं, के ख़िलाफ़ जो मनगढंत आरोप लगाए गए हैं, उन्हें तत्काल वापस लिया जाए।’ जानी मानी लेखिका अरूंधती रॉय ने कहा है कि ‘उनकी आसन्न गिरफ़्तारी एक राजनीतिक कार्रवाई होगी। यह हमारे इतिहास का एक बेहद शर्मनाक और खौफ़नाक अवसर होगा।’
मालूम हो कि इस मामले में प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े के ख़िलाफ़ प्रथम सूचना रिपोर्ट पुणे पुलिस ने पिछले साल दायर की थी और उन पर आरोप लगाए गए थे कि वह भीमा कोरेगांव संघर्ष के दो सौ साल पूरे होने पर आयोजित जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं (जनवरी 2018)। यह वही मामला है जिसमें सरकार ने देश के चन्द अग्रणी बुद्धिजीवियों को ही निशाना बनाया है, जबकि इस प्रायोजित हिंसा को लेकर हिन्दुत्ववादी संगठनों पर एवं उनके मास्टरर्माइंडों पर हिंसा के पीड़ितों द्वारा दायर रिपोर्टों को लगभग ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
इस मामले में दर्ज पहली प्रथम सूचना रिपोर्ट (8 जनवरी 2018) में प्रोफेसर आनन्द का नाम भी नहीं था, जिसे बिना कोई कारण स्पष्ट किए 21 अगस्त 2018 को शामिल किया गया और इसके बाद उनकी गैरमौजूदगी में उनके घर पर छापा भी डाला गया, जिसकी चारों ओर भर्त्सना हुई थी।
गौरतलब है कि जिस जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, उसका आयोजन सेवानिवृत्त न्यायाधीश पी बी सावंत और न्यायमूर्ति बी जी कोलसे पाटील ने किया था, जिसमें खुद डा आनन्द शामिल भी नहीं हुए थे बल्कि अपने एक लेख में उन्होंने ऐसे प्रयासों की सीमाओं की बात की थी। उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि ‘भीमा कोरेगांव का मिथक उन्हीं पहचानों को मजबूत करता है, जिन्हें लांघने का वह दावा करता है। हिन्दुत्ववादी शक्तियों से लड़ने का संकल्प निश्चित ही काबिलेतारीफ है, मगर इसके लिए जिस मिथक का प्रयोग किया जा रहा है वह कुल मिला कर अनुत्पादक होगा।’
मालूम हो कि पिछले साल इस गिरफ़्तारी को औचित्य प्रदान करने के ‘सबूत’ के तौर पर पुणे पुलिस ने ‘‘कॉमरेड आनंद’’ को सम्बोधित कई फर्जी पत्र जारी किए। पुणे पुलिस द्वारा लगाए गए उन सभी आरोपों को डा. तेलतुम्बड़े ने सप्रमाण, दस्तावेजी सबूतों के साथ खारिज किया है। इसके बावजूद ये झूठे आरोप डा. तेलतुम्बड़े को आतंकित करने एवं खामोश करने के लिए लगाए जाते रहे हैं। जैसा कि स्पष्ट है यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेन्शन एक्ट) की धाराओं के तहत महज़ इन आरोपों के बलबूते डा. तेलतुम्बड़े को सालों तक सलाखों के पीछे रखा जा सकता है। डा. आनंद तेलतुंबड़े की संभावित गिरफ़्तारी कई ज़रूरी मसलों को उठाती है।
दरअसल रफ़्ता-रफ़्ता दमनकारी भारतीय राज्य ने अपने-आप को निर्दोष साबित करने की बात खुद पीड़ित पर ही डाल दी है: ‘हम सभी दोषी हैं जब तक हम प्रमाणित न करें कि हम निर्दोष हैं। हमारी जुबां हमसे छीन ली गयी है।’
प्रोफेसर आनन्द की संभावित गिरफ्तारी को लेकर देश की एक जानीमानी वकील ने एक विदुषी के साथ निजी बातचीत में (scroll.in) पर जो सवाल रखे हैं, वह इस मौके पर रेखांकित करनेवाले हैं। उन्होंने पूछा है, ‘आख़िर आपराधिक दंडप्रणाली के प्राथमिक सिद्धांतों का क्या हुआ? आखिर क्यों अदालतें सबूतों के आंकलन में बेहद एकांतिक, लगभग दुराग्रही रूख अख्तियार कर रही हैं? आखिर अदालतें क्यों कह रही हैं कि अभियुक्तों को उन मामलों में भी अदालती कार्रवाइयों से गुज़रना पड़ेगा जहां वह खुद देख सकती हैं कि सबूत बहुत कमज़ोर हैं, गढ़े गए हैं और झूठे हैं ? आखिर वे इस बात पर क्यों ज़ोर दे रही हैं कि एक लम्बी, थकाऊ, खर्चीली अदालती कार्रवाई का सामना करके ही अभियुक्त अपना निर्दोष होना साबित कर सकते हैं, जबकि जुटाए गए सबूत प्रारंभिक अवस्था में ही खारिज किए जा सकते हैं ? ’
‘आज हम उस विरोधाभासपूर्ण स्थिति से गुजर रहे हैं कि आला अदालत को राफेल डील में कोई आपराधिकता नज़र नहीं आती जबकि उसके सामने तमाम सबूत पेश किए जा चुके हैं। वहीं, दूसरी तरफ वह तेलतुम्बड़े के मामले में गढ़ी हुई आपराधिकता पर मुहर लगा रही हैं। न्याय का पलड़ा फिलवक्त़ दूसरी तरफ झुकता दिखता है। इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि अदालत ने जनतंत्र में असहमति की भूमिका को रेखांकित किया है, आखिर वह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों के लिए दूसरा पैमाना अपनाने की बात कैसे कर सकती है।’
लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, प्रबुद्ध जनों की यह सभा इस समूचे घटनाक्रम पर गहरी चिन्ता प्रकट करती है और सरकार से यह मांग करती है कि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए सभी फ़र्जी आरोपों को तत्काल खारिज किया जाए।
हम देश के हर संवेदनशील, प्रबुद्ध एवं इन्साफ़ पसंद व्यक्ति के साथ, कलम के सिपाहियों एवं सृजन के क्षेत्र में तरह तरह से सक्रिय लोगों एवं समूहों के साथ इस चिन्ता को साझा भी करना चाहते हैं कि प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, जो जाति-वर्ग के अग्रणी विद्वान हैं, जिन्होंने अपनी छब्बीस किताबों के ज़रिये - जो देश- दुनिया के अग्रणी प्रकाशनों से छपी हैं, अन्य भाषाओं में अनुदित हुई हैं और सराही गयी हैं - अकादमिक जगत में ही नहीं सामाजिक-राजनीतिक हल्कों में नयी बहसों का आगाज़ किया है। जो कमेटी फ़ॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स - जो मानवाधिकारों की हिफाजत के लिए बनी संस्था है - के सक्रिय कार्यकर्ता रहे है। जिन्होंने जनबुद्धिजीवी के तौर पर सत्ताधारियों को असहज करनेवाले सवाल पूछने से कभी गुरेज नहीं किया है, और जो फ़िलवक्त गोवा इन्स्टिटयूट ऑफ़ मैनेजमेण्ट में ‘बिग डाटा एनालिटिक्स’ के विभागप्रमुख हैं और उसके पहले आई आई टी में प्रोफेसर, भारत पेटोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक और पेट्रोनेट इंडिया के सीईओ जैसे पदों पर रहे चुके हैं, क्या हम उनकी इस आसन्न गिरफतारी पर हम मौन रहेंगे!
आईए, अपने मौन को तोड़ें और डा. अम्बेडकर के विचारों को जन जन तक पहुंचाने में मुब्तिला, उनके विचारों को नए सिरे से व्याख्यायित करने में लगे इस जनबुद्धिजीवी के साथ खड़े हों!
अशोक भौमिक, जन संस्कृति मंच (जसम)
हीरालाल राजस्थानी, दलित लेखक संघ (दलेस)
सुभाष गाताडे, न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव
रमणिका गुप्ता, रमणिका फाउंडेशन
प्रेम सिंह, साहित्य वार्ता
अली जावेद, प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, जनवादी लेखक संघ (जलेस)