अभियोजन पक्ष के बयान और गवाहों के बयानों में विरोधाभास है और सीपीआई (माओवादी) के साथ डॉ. तेलतुंबडे की संलिप्तता और एल्गार परिषद आयोजित करने के निराधार आरोप बॉम्बे हाई कोर्ट के समक्ष उनकी ज़मानत की अस्वीकृति को चुनौती देने वाली उनकी अपील में उजागर हुआ है।
Image: V. Sreenivasa Murthy / The Hindu
बॉम्बे हाई कोर्ट के समक्ष ज़मानत के लिए अपनी अपील याचिका में 71 वर्षीय दलित विद्वान, शिक्षविद और एक्टिविस्ट डॉ. आनंद तेलतुंबडे ने अभियोजन पक्ष के बयान में विरोधाभासों को उजागर किया है। उन पर प्रतिबंधित संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का कथित रूप से वरिष्ठ सदस्य होने के चलते ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम ('यूएपीए') के तहत मामला दर्ज किया गया था।
इस याचिका में बताया गया है कि पुणे के स्वारगेट पुलिस स्टेशन द्वारा की गई जांच में अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि डॉ. तेलतुंबडे और अन्य आरोपी व्यक्तियों ने 31 दिसंबर, 2017 को भीमा कोरेगांव शौर्यदिन प्रेरणा अभियान (बीकेएसपीए) के माध्यम से प्रतिबंधित संगठन के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए पुणे में एल्गार परिषद की बैठक की थी। हालांकि, इस याचिका के अनुसार, ये मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी ('एनआईए') को सौंपे जाने के बाद अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि एल्गार परिषद का आयोजन दलित और मानवाधिकार संगठनों द्वारा किया गया था जहां डॉ. तेलतुंबडे और अन्य आरोपी व्यक्तियों ने सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने के लिए भीड़ इकट्ठा करने का प्रयास किया।
विरोधाभास को उजागर करते हुए इस याचिका में कहा गया है कि एनआईए द्वारा दायर चार्जशीट में बीकेएसपीए को सीपीआई (माओवादी) के अग्रणी संगठन के रूप में उल्लेख नहीं किया गया है और एलगार परिषद का आयोजन सीपीआई (माओवादी) के निर्देश पर किया गया था।
इसके अलावा, इस याचिका में इस बात का उल्लेख किया गया है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 161 (पुलिस द्वारा गवाहों की जांच) के तहत दर्ज किए गए और अभियोजन पक्ष के गवाहों की सूची में नामित व्यक्तियों के बयान में एल्गार परिषद के लिए दान स्वयंसेवकों और लोगों द्वारा दिए गए। इस याचिका में कहा गया है कि गवाहों के बयान इस तरह अभियोजन पक्ष के बयान का खंडन करते हैं कि कार्यक्रम को सीपीआई (माओवादी) द्वारा अपने स्वयं के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए फंडिंग किया गया था।
अपनी याचिका में डॉ. तेलतुंबडे ने अभियोजन पक्ष के इस आरोप का खंडन किया कि वह एल्गार परिषद के संयोजक थे। याचिका में कहा गया है कि वह एल्गार परिषद के पैंफलेट और एजेंडा की सामग्री से असहमत थे और उन्होंने एक लेख लिखा था जिसने एल्गार परिषद या भीमा कोरेगांव के साथ डॉ. तेलतुंबडे की बौद्धिक स्वतंत्रता और अलगाव को स्पष्ट रूप से बताया था। एक संयोजक के रूप में या एल्गार परिषद की योजना में उनकी भागीदारी का संकेत देने वाले साक्ष्य या गवाह के बयानों की अनुपस्थिति को इस याचिका में आगे दावा किया गया था।
इस ज़मानत याचिका में 31 दिसंबर, 2017 को आयोजित एल्गार परिषद के आयोजन में डॉ. तेलतुंबडे की भागीदारी के अभियोजन पक्ष के आरोप का पुरज़ोर विरोध किया गया था। इस याचिका के अनुसार, कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही डॉ. तेलतुंबडे ने पुणे छोड़ दिया था जहां ये कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इस अपील याचिका में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि कोई भी गवाह एल्गार परिषद में किसी भी वक्ता द्वारा दिए गए घृणित या भड़काऊ भाषणों के अभियोजन पक्ष के दावों का समर्थन नहीं करता है।
केंद्र सरकार ने 24 जनवरी, 2020 को एक आदेश जारी कर एनआईए को मौजूदा मामले की जांच करने का निर्देश दिया। तेलतुंबडे ने अपने आवेदन में कहा कि एनआईए भारतीय दंड संहिता और यूएपीए के तहत अपराधों को जोड़ने और बिना दिमाग लगाए मनमाने ढंग से उन्हें छोड़ने के पीछे के तर्क का कोई सबूत देने में विफल रही है।
इस याचिका में कहा गया है कि दूसरी सप्लीमेंट्री चार्जशीट में एनआईए ने सीपीआई (माओवादी) के कामकाज की व्याख्या करने वाले लंबे उल्लेखों, दस्तावेज़ों, किताबों और लेखों का हवाला दिया है जो इंटरनेट पर स्वतंत्र रूप से उपलब्ध हैं और उस सामग्री को सह-अभियुक्त, शोधकर्ता और एक्टिविस्ट रोना विल्सन से कथित तौर पर ज़ब्त कर लिया गया है। हालांकि इस अपील याचिका में टिप्पणी की गई कि अभियोजन पक्ष किसी भी काम को दर्शाने या चूक को स्पष्ट करने में विफल रहता है जिसे सीपीआई (माओवादी) की नीति तैयार करने, निर्देशित करने, भाग लेने या लागू करने में डॉ. तेलतुंबडे या अन्य सह-आरोपी व्यक्तियों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
इसके अलावा, इस याचिका में सीपीआई (माओवादी) के एक अग्रणी संगठन में डॉ. तेलतुंबडे की सदस्यता और/या सीपीआई (माओवादी) की विचारधारा को आगे बढ़ाने या लागू करने के अभियोजन पक्ष के आरोपों से इनकार किया गया। अभियोजन पक्ष के कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स और अनुराधा गांधी मेमोरियल कमेटी सीपीआई (माओवादी) के अग्रणी संगठन होने के दावे को ख़ारिज करते हुए इस याचिका में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि सीपीआई (माओवादी) के अग्रणी संगठनों के रूप में दोनों संगठनों को किसी भी क़ानून के तहत प्रतिबंधित नहीं किया गया है।
अन्य सह-आरोपियों के साथ बातचीत करने, सीपीआई (माओवादी) से धन प्राप्त करने, सीपआई (माओवादी) के अग्रणी संगठनों के एक भाग के रूप में फैक्ट-फाइंडिंग अभियान चलाने तथा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के माध्यम से सीपीआई (माओवादी) के एजेंडे के प्रचार में डॉ. तेलतुंबडे की भूमिका के अभियोजन पक्ष के आरोपों का खंडन करते हुए ये याचिका विस्तार से व्याख्या करती है।
अपीलकर्ता ने प्रार्थना करते हुए कहा कि चूंकि लगभग सभी साक्ष्य इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के रूप में हैं, जहां अधिकांश आपत्तिजनक दस्तावेज़ और पत्र टाइप किए गए हैं और बिना किसी हस्ताक्षर के हैं, ऐसे में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 67 के तहत आवश्यकताएं (हस्ताक्षर का प्रमाण और कथित तौर पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति की हस्तलिपि या लिखित दस्तावेज़) और 73 (स्वीकृत या सिद्ध होने के साथ दूसरों से हस्ताक्षर, लेखन या मुहर की तुलना) का अनुपालन नहीं किया गया है।
इस याचिका में विल्सन द्वारा दायर रिट याचिका का उल्लेख किया गया है जिनके कंप्यूटर में आपत्तिजनक साक्ष्य पाए गए थे। विल्सन की याचिका के मुताबिक़, रिमोट एक्सेस के ज़रिए उनके कंप्यूटर में मैलवेयर इंस्टॉल किया गया था, जिसके ज़रिए आपत्तिजनक सबूत प्लांट किए गए थे। इस याचिका में एक डिजिटल फॉरेंसिक फर्म एम/एस आर्सेनल कंसल्टिंग की विस्तृत रिपोर्ट पर प्रकाश डाला गया है कि तरीक़े से मैलवेयर प्लांट किया गया था और दस्तावेज़ों के साथ साथ अन्य चीजों को भेजने के लिए कैसे इसका इस्तेमाल किया गया था।
आपत्तिजनक पत्रों को 'झूठा और मनगढ़ंत' बताते हुए इस याचिका में आगे दावा किया गया है कि अभियोजन पक्ष इन पत्रों की सामग्री की पुष्टि करने में विफल रहा है और दस्तावेज़ों के तथ्य को सत्यापित करने के लिए जांच पूरी नहीं की है।
इस ज़मानत याचिका के अनुसार, यह मानने का कोई उचित आधार नहीं है कि डॉ. तेलतुंबडे के ख़िलाफ़ प्रथम दृष्टया मामला बनता है। इस याचिका में कहा गया है कि ऐसा कोई सबूत नहीं है जो कथित पत्रों की सामग्री या गवाहों के बयानों की पुष्टि करता हो। इसने आगे इस बात पर ज़ोर दिया कि पूरा सबूत अफवाह है, संदेह पर आधारित है और इसलिए अस्वीकार्य है।
इस याचिका में कहा गया है कि वर्तमान मामले में दायर चार्जशीट हज़ारों पन्नों के हैं और अभियोजन पक्ष 200 से अधिक गवाहों से पूछताछ करना चाहता है। त्वरित सुनवाई के लिए डॉ. तेलतुंबडे के मौलिक अधिकार की दलील देते हुए, ज़मानत अर्ज़ी में आशंका है कि मुक़दमे को पूरा होने में वर्षों लगेंगे और डॉ. तेलतुंबडे की ज़मानत से इनकार का मतलब होगा कि उन्हें वर्षों तक क़ैद में रखा जाएगा।
अपनी ज़मानत याचिका में डॉ. तेलतुंबडे ने कहा कि उन्हें भारत में हाशिये पर मौजूद लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के उल्लंघन तथा जाति और भूमि संघर्षों पर उनके लेखन और कार्य के कारण जांच एजेंसी द्वारा निशाना बनाया गया है। डॉ. तेलतुंबडे ने अपनी याचिका में आगे कहा कि उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और चूंकि जांच पूरी हो चुकी है और चार्जशीट दायर की जा चुकी है इसलिए उन्हें हिरासत में रखने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
आख़िर में इस याचिका में विशेष अदालत के 12 जुलाई 2020 के आदेश को रद्द करने और अपीलकर्ता को ऐसे नियमों और शर्तों पर ज़मानत पर रिहा करने की गुहार लगाई गई जिसे उच्च न्यायालय उचित समझे।
पृष्ठभूमि
अप्रैल 2020 में प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) के कथित रूप से वरिष्ठ सदस्य होने और शहरी क्षेत्रों में काम करने के लिए डॉ. तेलतुंबडे को एनआईए के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था।
सितंबर 2021 में, एनआईए की एक विशेष अदालत ने सेहत के आधार पर मांगी गई डॉ. तेलतुंबडे की ज़मानत को खारिज कर दी थी। डॉ. तेलतुंबडे ने यह कहा था कि वह क्रोनिक अस्थमा, क्रोनिक सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, सुप्रास्पिनैटस टेंडिनोपैथी और प्रोस्टेटोमेगाली से पीड़ित हैं।
1 दिसंबर 2021 को एनआईए की विशेष अदालत ने सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में नक्सल नेता उनके भाई मिलिंद तेलतुंबडे की मौत के मद्देनजर डॉ. तेलतुंबडे की 90 वर्षीय मां के साथ रहने की अंतरिम ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज कर दी थी। इस साल 6 मार्च को बॉम्बे हाई कोर्ट ने सामाजिक कार्यकर्ता की अपनी मां से मिलने की याचिका को मंज़ूर कर लिया, साथ ही महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि वह डॉ. तेलतुंबडे के सेहत के संबंध में उनकी सुविधा के तौर-तरीक़ों पर विचार करे।
31 मार्च को डॉ. तेलतुंबडे ने इस दलील के साथ बॉम्बे हाई कोर्ट का रुख करते हुए कहा था कि उन पर यूएपीए के तहत ग़लत तरीक़े से आरोप लगाया गया था और कहा था कि एनआईए इस मामले में हिंसा को सीधे तौर पर उनके लिए ज़िम्मेदार ठहराने में विफल रही थी। अप्रैल में, डॉ. तेलतुंबडे ने एनआईए की विशेष अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था और उन पर लगाए गए आरोपों को इस आधार पर आरोप मुक्त करने की मांग की थी कि एनआईए ने अभी तक अदालत के सामने ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की है जिससे यह साबित हो सके कि वह सीपीआई (माओवादी) के सदस्य थे।
डॉ. तेलतुंबडे वर्तमान में तलोजा सेंट्रल जेल में बंद हैं और सुनवाई का इंतज़ार कर रहे हैं।
11 नवंबर को बॉम्बे हाई कोर्ट की जस्टिस ए.एस. गडकरी और मिलिंद एन. जाधव की एक खंडपीठ ने पिछले साल जुलाई में एनआईए की विशेष अदालत द्वारा डॉ. तेलतुंबडे की ज़मानत ख़ारिज करने को चुनौती देने वाली उनकी अपील से जुड़ी सुनवाई पूरी की। इस खंडपीठ ने मामले को आदेश के लिए सुरक्षित रख लिया है।
कालक्रम
अगस्त
अक्टूबर 2019 में, डॉ. तेलतुंबडे सहित तीन सामाजिक कार्यकर्ताओं की जमानत याचिकाओं को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था
अप्रैल 2020 में, प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) के कथित रूप से वरिष्ठ सदस्य होने और शहरी क्षेत्रों में काम करने के लिए डॉ. तेलतुंबडे को एनआईए के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था।
सितंबर 2021 में, एक विशेष एनआईए अदालत ने चिकित्सा आधार पर डॉ. तेलतुंबडे की जमानत खारिज कर दी। डॉ. तेलतुंबडे ने यह तर्क दिया था कि वह क्रोनिक अस्थमा, क्रोनिक सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, सुप्रास्पिनैटस टेंडिनोपैथी और प्रोस्टेटोमेगाली से पीड़ित थे।
1 दिसंबर, 2021 को, विशेष एनआईए अदालत ने सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में एक शीर्ष नक्सल नेता, उनके भाई मिलिंद तेलतुंबडे की मौत के मद्देनजर डॉ. तेलतुंबडे की 90 वर्षीय मां के साथ रहने की अंतरिम जमानत अर्जी खारिज कर दी। इस साल 6 मार्च को, बॉम्बे हाई कोर्ट ने सामाजिक कार्यकर्ता की अपनी मां से मिलने की याचिका को मंजूर कर लिया, साथ ही महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि वह डॉ. तेलतुंबडे के स्वास्थ्य के संबंध में उनकी यात्रा के तरीके पर विचार करे।
31 मार्च को, डॉ. तेलतुंबडे ने इस दलील के साथ बंबई उच्च न्यायालय का रुख किया कि उन पर यूएपीए के तहत गलत तरीके से आरोप लगाया गया था, और तर्क दिया कि एनआईए वास्तविक मामले में हिंसा के किसी विशेष कार्य को सीधे तौर पर उनके लिए जिम्मेदार ठहराने में विफल रही थी। अप्रैल में, डॉ. तेलतुंबडे ने एनआईए की विशेष अदालत का दरवाजा खटखटाया और उन पर लगाए गए आरोपों को इस आधार पर आरोप मुक्त करने की मांग की कि एनआईए ने अभी तक अदालत के सामने ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की है जिससे यह साबित हो सके कि वह सीपीआई (माओवादी) के सदस्य थे।
डॉ. तेलतुम्बडे वर्तमान में तलोजा सेंट्रल जेल में बंद हैं, और मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
11 नवंबर को बॉम्बे हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने जस्टिस ए.एस. गडकरी और मिलिंद एन. जाधव ने पिछले साल जुलाई में एनआईए की विशेष अदालत द्वारा डॉ. तेलतुंबडे की जमानत खारिज करने को चुनौती देने वाली उनकी अपील से संबंधित सुनवाई पूरी की।
इसके बाद खंडपीठ ने मामले को आदेश के लिए सुरक्षित रख लिया। 18 नवंबर, 2022 को बॉम्बे हाई कोर्ट की बेंच ने मेरिट के आधार पर डॉ. आनंद तेलतुंबडे को जमानत दे दी।
वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई और अधिवक्ता सुश्री देवयानी कुलकर्णी डॉ तेलतुम्बडे की ओर से पेश हुए।
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Image: V. Sreenivasa Murthy / The Hindu
बॉम्बे हाई कोर्ट के समक्ष ज़मानत के लिए अपनी अपील याचिका में 71 वर्षीय दलित विद्वान, शिक्षविद और एक्टिविस्ट डॉ. आनंद तेलतुंबडे ने अभियोजन पक्ष के बयान में विरोधाभासों को उजागर किया है। उन पर प्रतिबंधित संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का कथित रूप से वरिष्ठ सदस्य होने के चलते ग़ैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम ('यूएपीए') के तहत मामला दर्ज किया गया था।
इस याचिका में बताया गया है कि पुणे के स्वारगेट पुलिस स्टेशन द्वारा की गई जांच में अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि डॉ. तेलतुंबडे और अन्य आरोपी व्यक्तियों ने 31 दिसंबर, 2017 को भीमा कोरेगांव शौर्यदिन प्रेरणा अभियान (बीकेएसपीए) के माध्यम से प्रतिबंधित संगठन के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए पुणे में एल्गार परिषद की बैठक की थी। हालांकि, इस याचिका के अनुसार, ये मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी ('एनआईए') को सौंपे जाने के बाद अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि एल्गार परिषद का आयोजन दलित और मानवाधिकार संगठनों द्वारा किया गया था जहां डॉ. तेलतुंबडे और अन्य आरोपी व्यक्तियों ने सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने के लिए भीड़ इकट्ठा करने का प्रयास किया।
विरोधाभास को उजागर करते हुए इस याचिका में कहा गया है कि एनआईए द्वारा दायर चार्जशीट में बीकेएसपीए को सीपीआई (माओवादी) के अग्रणी संगठन के रूप में उल्लेख नहीं किया गया है और एलगार परिषद का आयोजन सीपीआई (माओवादी) के निर्देश पर किया गया था।
इसके अलावा, इस याचिका में इस बात का उल्लेख किया गया है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 161 (पुलिस द्वारा गवाहों की जांच) के तहत दर्ज किए गए और अभियोजन पक्ष के गवाहों की सूची में नामित व्यक्तियों के बयान में एल्गार परिषद के लिए दान स्वयंसेवकों और लोगों द्वारा दिए गए। इस याचिका में कहा गया है कि गवाहों के बयान इस तरह अभियोजन पक्ष के बयान का खंडन करते हैं कि कार्यक्रम को सीपीआई (माओवादी) द्वारा अपने स्वयं के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए फंडिंग किया गया था।
अपनी याचिका में डॉ. तेलतुंबडे ने अभियोजन पक्ष के इस आरोप का खंडन किया कि वह एल्गार परिषद के संयोजक थे। याचिका में कहा गया है कि वह एल्गार परिषद के पैंफलेट और एजेंडा की सामग्री से असहमत थे और उन्होंने एक लेख लिखा था जिसने एल्गार परिषद या भीमा कोरेगांव के साथ डॉ. तेलतुंबडे की बौद्धिक स्वतंत्रता और अलगाव को स्पष्ट रूप से बताया था। एक संयोजक के रूप में या एल्गार परिषद की योजना में उनकी भागीदारी का संकेत देने वाले साक्ष्य या गवाह के बयानों की अनुपस्थिति को इस याचिका में आगे दावा किया गया था।
इस ज़मानत याचिका में 31 दिसंबर, 2017 को आयोजित एल्गार परिषद के आयोजन में डॉ. तेलतुंबडे की भागीदारी के अभियोजन पक्ष के आरोप का पुरज़ोर विरोध किया गया था। इस याचिका के अनुसार, कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही डॉ. तेलतुंबडे ने पुणे छोड़ दिया था जहां ये कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इस अपील याचिका में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि कोई भी गवाह एल्गार परिषद में किसी भी वक्ता द्वारा दिए गए घृणित या भड़काऊ भाषणों के अभियोजन पक्ष के दावों का समर्थन नहीं करता है।
केंद्र सरकार ने 24 जनवरी, 2020 को एक आदेश जारी कर एनआईए को मौजूदा मामले की जांच करने का निर्देश दिया। तेलतुंबडे ने अपने आवेदन में कहा कि एनआईए भारतीय दंड संहिता और यूएपीए के तहत अपराधों को जोड़ने और बिना दिमाग लगाए मनमाने ढंग से उन्हें छोड़ने के पीछे के तर्क का कोई सबूत देने में विफल रही है।
इस याचिका में कहा गया है कि दूसरी सप्लीमेंट्री चार्जशीट में एनआईए ने सीपीआई (माओवादी) के कामकाज की व्याख्या करने वाले लंबे उल्लेखों, दस्तावेज़ों, किताबों और लेखों का हवाला दिया है जो इंटरनेट पर स्वतंत्र रूप से उपलब्ध हैं और उस सामग्री को सह-अभियुक्त, शोधकर्ता और एक्टिविस्ट रोना विल्सन से कथित तौर पर ज़ब्त कर लिया गया है। हालांकि इस अपील याचिका में टिप्पणी की गई कि अभियोजन पक्ष किसी भी काम को दर्शाने या चूक को स्पष्ट करने में विफल रहता है जिसे सीपीआई (माओवादी) की नीति तैयार करने, निर्देशित करने, भाग लेने या लागू करने में डॉ. तेलतुंबडे या अन्य सह-आरोपी व्यक्तियों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
इसके अलावा, इस याचिका में सीपीआई (माओवादी) के एक अग्रणी संगठन में डॉ. तेलतुंबडे की सदस्यता और/या सीपीआई (माओवादी) की विचारधारा को आगे बढ़ाने या लागू करने के अभियोजन पक्ष के आरोपों से इनकार किया गया। अभियोजन पक्ष के कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स और अनुराधा गांधी मेमोरियल कमेटी सीपीआई (माओवादी) के अग्रणी संगठन होने के दावे को ख़ारिज करते हुए इस याचिका में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि सीपीआई (माओवादी) के अग्रणी संगठनों के रूप में दोनों संगठनों को किसी भी क़ानून के तहत प्रतिबंधित नहीं किया गया है।
अन्य सह-आरोपियों के साथ बातचीत करने, सीपीआई (माओवादी) से धन प्राप्त करने, सीपआई (माओवादी) के अग्रणी संगठनों के एक भाग के रूप में फैक्ट-फाइंडिंग अभियान चलाने तथा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के माध्यम से सीपीआई (माओवादी) के एजेंडे के प्रचार में डॉ. तेलतुंबडे की भूमिका के अभियोजन पक्ष के आरोपों का खंडन करते हुए ये याचिका विस्तार से व्याख्या करती है।
अपीलकर्ता ने प्रार्थना करते हुए कहा कि चूंकि लगभग सभी साक्ष्य इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के रूप में हैं, जहां अधिकांश आपत्तिजनक दस्तावेज़ और पत्र टाइप किए गए हैं और बिना किसी हस्ताक्षर के हैं, ऐसे में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 67 के तहत आवश्यकताएं (हस्ताक्षर का प्रमाण और कथित तौर पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति की हस्तलिपि या लिखित दस्तावेज़) और 73 (स्वीकृत या सिद्ध होने के साथ दूसरों से हस्ताक्षर, लेखन या मुहर की तुलना) का अनुपालन नहीं किया गया है।
इस याचिका में विल्सन द्वारा दायर रिट याचिका का उल्लेख किया गया है जिनके कंप्यूटर में आपत्तिजनक साक्ष्य पाए गए थे। विल्सन की याचिका के मुताबिक़, रिमोट एक्सेस के ज़रिए उनके कंप्यूटर में मैलवेयर इंस्टॉल किया गया था, जिसके ज़रिए आपत्तिजनक सबूत प्लांट किए गए थे। इस याचिका में एक डिजिटल फॉरेंसिक फर्म एम/एस आर्सेनल कंसल्टिंग की विस्तृत रिपोर्ट पर प्रकाश डाला गया है कि तरीक़े से मैलवेयर प्लांट किया गया था और दस्तावेज़ों के साथ साथ अन्य चीजों को भेजने के लिए कैसे इसका इस्तेमाल किया गया था।
आपत्तिजनक पत्रों को 'झूठा और मनगढ़ंत' बताते हुए इस याचिका में आगे दावा किया गया है कि अभियोजन पक्ष इन पत्रों की सामग्री की पुष्टि करने में विफल रहा है और दस्तावेज़ों के तथ्य को सत्यापित करने के लिए जांच पूरी नहीं की है।
इस ज़मानत याचिका के अनुसार, यह मानने का कोई उचित आधार नहीं है कि डॉ. तेलतुंबडे के ख़िलाफ़ प्रथम दृष्टया मामला बनता है। इस याचिका में कहा गया है कि ऐसा कोई सबूत नहीं है जो कथित पत्रों की सामग्री या गवाहों के बयानों की पुष्टि करता हो। इसने आगे इस बात पर ज़ोर दिया कि पूरा सबूत अफवाह है, संदेह पर आधारित है और इसलिए अस्वीकार्य है।
इस याचिका में कहा गया है कि वर्तमान मामले में दायर चार्जशीट हज़ारों पन्नों के हैं और अभियोजन पक्ष 200 से अधिक गवाहों से पूछताछ करना चाहता है। त्वरित सुनवाई के लिए डॉ. तेलतुंबडे के मौलिक अधिकार की दलील देते हुए, ज़मानत अर्ज़ी में आशंका है कि मुक़दमे को पूरा होने में वर्षों लगेंगे और डॉ. तेलतुंबडे की ज़मानत से इनकार का मतलब होगा कि उन्हें वर्षों तक क़ैद में रखा जाएगा।
अपनी ज़मानत याचिका में डॉ. तेलतुंबडे ने कहा कि उन्हें भारत में हाशिये पर मौजूद लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के उल्लंघन तथा जाति और भूमि संघर्षों पर उनके लेखन और कार्य के कारण जांच एजेंसी द्वारा निशाना बनाया गया है। डॉ. तेलतुंबडे ने अपनी याचिका में आगे कहा कि उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और चूंकि जांच पूरी हो चुकी है और चार्जशीट दायर की जा चुकी है इसलिए उन्हें हिरासत में रखने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
आख़िर में इस याचिका में विशेष अदालत के 12 जुलाई 2020 के आदेश को रद्द करने और अपीलकर्ता को ऐसे नियमों और शर्तों पर ज़मानत पर रिहा करने की गुहार लगाई गई जिसे उच्च न्यायालय उचित समझे।
पृष्ठभूमि
अप्रैल 2020 में प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) के कथित रूप से वरिष्ठ सदस्य होने और शहरी क्षेत्रों में काम करने के लिए डॉ. तेलतुंबडे को एनआईए के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था।
सितंबर 2021 में, एनआईए की एक विशेष अदालत ने सेहत के आधार पर मांगी गई डॉ. तेलतुंबडे की ज़मानत को खारिज कर दी थी। डॉ. तेलतुंबडे ने यह कहा था कि वह क्रोनिक अस्थमा, क्रोनिक सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, सुप्रास्पिनैटस टेंडिनोपैथी और प्रोस्टेटोमेगाली से पीड़ित हैं।
1 दिसंबर 2021 को एनआईए की विशेष अदालत ने सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में नक्सल नेता उनके भाई मिलिंद तेलतुंबडे की मौत के मद्देनजर डॉ. तेलतुंबडे की 90 वर्षीय मां के साथ रहने की अंतरिम ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज कर दी थी। इस साल 6 मार्च को बॉम्बे हाई कोर्ट ने सामाजिक कार्यकर्ता की अपनी मां से मिलने की याचिका को मंज़ूर कर लिया, साथ ही महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि वह डॉ. तेलतुंबडे के सेहत के संबंध में उनकी सुविधा के तौर-तरीक़ों पर विचार करे।
31 मार्च को डॉ. तेलतुंबडे ने इस दलील के साथ बॉम्बे हाई कोर्ट का रुख करते हुए कहा था कि उन पर यूएपीए के तहत ग़लत तरीक़े से आरोप लगाया गया था और कहा था कि एनआईए इस मामले में हिंसा को सीधे तौर पर उनके लिए ज़िम्मेदार ठहराने में विफल रही थी। अप्रैल में, डॉ. तेलतुंबडे ने एनआईए की विशेष अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था और उन पर लगाए गए आरोपों को इस आधार पर आरोप मुक्त करने की मांग की थी कि एनआईए ने अभी तक अदालत के सामने ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की है जिससे यह साबित हो सके कि वह सीपीआई (माओवादी) के सदस्य थे।
डॉ. तेलतुंबडे वर्तमान में तलोजा सेंट्रल जेल में बंद हैं और सुनवाई का इंतज़ार कर रहे हैं।
11 नवंबर को बॉम्बे हाई कोर्ट की जस्टिस ए.एस. गडकरी और मिलिंद एन. जाधव की एक खंडपीठ ने पिछले साल जुलाई में एनआईए की विशेष अदालत द्वारा डॉ. तेलतुंबडे की ज़मानत ख़ारिज करने को चुनौती देने वाली उनकी अपील से जुड़ी सुनवाई पूरी की। इस खंडपीठ ने मामले को आदेश के लिए सुरक्षित रख लिया है।
कालक्रम
अगस्त
अक्टूबर 2019 में, डॉ. तेलतुंबडे सहित तीन सामाजिक कार्यकर्ताओं की जमानत याचिकाओं को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था
अप्रैल 2020 में, प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) के कथित रूप से वरिष्ठ सदस्य होने और शहरी क्षेत्रों में काम करने के लिए डॉ. तेलतुंबडे को एनआईए के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था।
सितंबर 2021 में, एक विशेष एनआईए अदालत ने चिकित्सा आधार पर डॉ. तेलतुंबडे की जमानत खारिज कर दी। डॉ. तेलतुंबडे ने यह तर्क दिया था कि वह क्रोनिक अस्थमा, क्रोनिक सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, सुप्रास्पिनैटस टेंडिनोपैथी और प्रोस्टेटोमेगाली से पीड़ित थे।
1 दिसंबर, 2021 को, विशेष एनआईए अदालत ने सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में एक शीर्ष नक्सल नेता, उनके भाई मिलिंद तेलतुंबडे की मौत के मद्देनजर डॉ. तेलतुंबडे की 90 वर्षीय मां के साथ रहने की अंतरिम जमानत अर्जी खारिज कर दी। इस साल 6 मार्च को, बॉम्बे हाई कोर्ट ने सामाजिक कार्यकर्ता की अपनी मां से मिलने की याचिका को मंजूर कर लिया, साथ ही महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि वह डॉ. तेलतुंबडे के स्वास्थ्य के संबंध में उनकी यात्रा के तरीके पर विचार करे।
31 मार्च को, डॉ. तेलतुंबडे ने इस दलील के साथ बंबई उच्च न्यायालय का रुख किया कि उन पर यूएपीए के तहत गलत तरीके से आरोप लगाया गया था, और तर्क दिया कि एनआईए वास्तविक मामले में हिंसा के किसी विशेष कार्य को सीधे तौर पर उनके लिए जिम्मेदार ठहराने में विफल रही थी। अप्रैल में, डॉ. तेलतुंबडे ने एनआईए की विशेष अदालत का दरवाजा खटखटाया और उन पर लगाए गए आरोपों को इस आधार पर आरोप मुक्त करने की मांग की कि एनआईए ने अभी तक अदालत के सामने ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की है जिससे यह साबित हो सके कि वह सीपीआई (माओवादी) के सदस्य थे।
डॉ. तेलतुम्बडे वर्तमान में तलोजा सेंट्रल जेल में बंद हैं, और मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
11 नवंबर को बॉम्बे हाई कोर्ट की एक खंडपीठ ने जस्टिस ए.एस. गडकरी और मिलिंद एन. जाधव ने पिछले साल जुलाई में एनआईए की विशेष अदालत द्वारा डॉ. तेलतुंबडे की जमानत खारिज करने को चुनौती देने वाली उनकी अपील से संबंधित सुनवाई पूरी की।
इसके बाद खंडपीठ ने मामले को आदेश के लिए सुरक्षित रख लिया। 18 नवंबर, 2022 को बॉम्बे हाई कोर्ट की बेंच ने मेरिट के आधार पर डॉ. आनंद तेलतुंबडे को जमानत दे दी।
वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई और अधिवक्ता सुश्री देवयानी कुलकर्णी डॉ तेलतुम्बडे की ओर से पेश हुए।
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