एससी-एसटी (उत्पीड़न निवारण) कानून का भयानक दुरुपयोग !

Written by Arvind Shesh | Published on: April 8, 2018
1- सोलापुर (महाराष्ट्र) बलात्कार की पीड़ित एक दलित महिला ने आरोपी पर से मुकदमा वापस ले लिया, क्योंकि पुलिस में जाने के बाद उस महिला का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था!

2- ऐसे ही एक मामले में एक दलित के घर पर पत्थर बरसाए गए, ताकि वह अपना मुकदमा आगे नहीं बढ़ाए!

2016 के मोदी राज में दलितों के खिलाफ अपराधों में सजा की दर महज 16 प्रतिशत और आदिवासियों के मामले में महज 8 प्रतिशत (इंडियन एक्सप्रेस, 8 अप्रैल)। यानी दलितों पर जुल्म ढाने वाले 84 प्रतिशत आरोपियों और आदिवासियों पर अत्याचार करने वाले 92 प्रतिशत आरोपियों को सजा नहीं होती। वैसे दलितों के खिलाफ अपराध में भाजपा शासित राज्य सबसे आगे हैं!

यानी मान लिया गया कि 84 प्रतिशत मामलों में दलितों ने और 92 प्रतिशत मामलों में आदिवासियों ने एससी-एसटी (उत्पीड़न निवारण) कानून का दुरुपयोग किया और 'निर्दोष' लोगों पर झूठे आरोप लगाए!

एक और आंकड़ा- 2016 यानी देश पर मोदी राज में दलितों के खिलाफ अपराध के कुल मामलों में से 96.6% मामले सजा के अंजाम तक नहीं पहुंच सके। आदिवासियों के खिलाफ अपराध के कुल मामलों में से 99.2% मामले सजा तक नहीं पहुंच सके।

सजा तक नहीं पहुंच सके सभी मामले क्या एससी-एसटी अत्याचार निवारण कानून के दुरुपयोग के उदाहरण हैं?

जितने भी मामलों में आरोपियों को सजा नहीं होती, उनमें से ज्यादातर में उनके खिलाफ गवाही देने वाले गवाह अपने बयान से मुकर जाते हैं, इसलिए अपराधी आरोपों से बरी हो जाते हैं।

गवाह बयान से क्यों मुकरते हैं, इसका कारण ऊपर के दो प्रतिनिधि मामलों से समझा जा सकता है। लेकिन यह समझने के लिए किसी दूसरे ग्रह से दिमाग लाने की जरूरत नहीं है कि समाज में अब भी सबसे लाचार सामाजिक हैसियत में जीने वाले दलितों-आदिवासियों के खिलाफ अपराध करने वाले, उन पर जुल्म ढाने वाले लोग कौन होते हैं, उनकी सामाजिक हैसियत क्या होती है और वे लोग अपने खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराने वाले दलितों-आदिवासियों को किन-किन रास्तों से चुप करा सकते हैं, गवाहों के बयान पलटवा सकते हैं!

तो गवाहों के (ऊंच कही जाने वाली जातियों के डर से) अपने बयान से पलटने, पीड़ितों के (ऊंच कही जाने वाली जातियों के डर से) मुकदमा वापस ले लेने का मतलब एससी-एसटी कानून का दुरुपयोग करना! यह दलील मराठों और भारत की अपराधी सामंती अमानवीय कुंठित सवर्ण जातियों को भाती है। अगर यही दलील आजाद भारत की अदालतों के जजों को भी सही लगती है तो क्या यह स्वाभाविक है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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