चार क्षेत्रों में कर्फ्यू, मरने वाले 13 हुए ...
और अभी शांति बनाए रखने की सीधी अपील नहीं की गई है
रुद्राक्ष की माला पेन से सुरक्षित है। डरे हुए चेहरे आश्वस्त करने वाले संकेत .... बाकी तो जो है सो हईये है।
समस्या सिर्फ पत्रकारिता से नहीं लोगों से भी है। देखिए लंदन और अमेरिका में क्या होता है और सोचिए हम क्या करते हैं। Sanjay Sinha की आज की पोस्ट :
मैं लंदन में अपने होटल से शहर घूमने निकला था। दो दिन पहले वहां की ट्यूब ट्रेन में विस्फोट हुआ था। शहर में काफी अफरा-तफरी मची थी। बात ही बात में मैंने एक अंग्रेज से पूछा था कि आप अपने शहर में घट रही इन घटनाओं के बारे में क्या सोचते हैं? उसने इतना ही कहा था कि हर आदमी को हर विषय पर बोलने की ज़रूरत नहीं होती।
मैं बहुत देर तक सोचता रहा था कि कैसा देश है ये? दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले इस देश में हर आदमी हर विषय पर नहीं बोलता। कहता है कि सबको हर विषय पर नहीं बोलना चाहिए।
आप ये मत सोचिएगा कि संजय सिन्हा आपको ज्ञान देने चले आए हैं। वो तो बस अपनी यादों को आपसे साझा कर रहे हैं। उस दिन मैं लंदन में ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पर घूम रहा था। शहर में जो हुआ था, उस पर प्रशासन अपना काम कर रहा था। दुकानें खुली थीं। लोग अपना काम कर रहे थे।
मुझे याद आ रहा था कि जिस दिन अमेरिका में ट्विन टावर पर हमला हुआ था, मैं वहीं था। सुबह पौने नौ बजे न्यूयार्क के सबसे व्यस्त इलाके में दो बड़ी इमारतों पर दो विमान गिरा दिए गए थे। पूरा शहर सिहर उठा था, लेकिन कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था।
कोई तुरंत किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच रहा था। लोग इंतज़ार कर रहे थे कि सरकार क्या कहने जा रही है, क्या करने जा रही है। खुफिया विभाग ने तो कह दिया था कि ये आंतकवादी गतिविधि है, पर उसके बाद भी इस निष्कर्ष तक पहुंचने में समय लगा था कि इसे ओसामा बिन लादेन ने अंजाम दिया है। और जब ये पता चल गया, इसकी सरकारी घोषणा हो गई, तब भी पूरे देश में कोई इस विषय पर चर्चा नहीं करता था। लोग बस इतना ही प्रयास कर रहे थे कि किसी तरह शहर में अमन-चैन रहे। स्कूल जाने वाले बच्चे भयभीत न हों।
मेरा बेटा तब वहां स्कूल में पढ़ रहा था। स्कूल की टीचर ने अभिभावकों को बुला कर समझाया था कि घर में इस विषय पर बच्चों के सामने बात मत कीजिएगा। बच्चों के मन पर इनका आजीवन असर रह जाता है, जबकि ये एक हादसा है, सरकार इससे जल्दी निबट लेगी। लेकिन आप इस पर लगातार बातें करेंगे, अपनी प्रतिक्रिया देंगे तो ये एक लाइलाज बीमारी बन जाएगी।
संजय सिन्हा आज दिल्ली में बैठ कर पता नहीं क्यों इंग्लैंड और अमेरिका की दोनों घटनाओं को याद कर रहे हैं। मैं टीवी न्यूज चैनल में काम करता हूं। खुद संपादक हूं। मैं इन विषयों से खुद को कैसे दूर कर सकता हूं? पर मैं इनसे जुड़ भी कैसे सकता हूं?
अमेरिका की घटना तो बहुत पुरानी हो गई। उस समय जन्म लिए बच्चे अब बीस साल के हो गए होंगे। उनमें से कुछ बच्चे अब पत्रकारिता की दुनिया में भी आने की तैयारी कर रहे होंगे। बहुत से बच्चे जो तब स्कूल में रहे होंगे, अब बड़े हो गए होंगे। मुमकिन है कुछ पत्रकारिता में चले भी आए हों।
और आप तो तब भी बड़े थे। आपको पूरी घटना याद होगी। ज़रा याद कीजिए अपनी यादाश्त पर जो़र डाल कर कि क्या आपने न्यूयार्क के उस हादसे में, जिसमें दस हज़ार लोगों की मौत हुई थी, एक भी लाश की तस्वीर देखी थी? क्या आपने खून से सने लोगों को टीवी पर देखा था? क्या आपने क्रंदन की एक आवाज़ टीवी पर सुनी थी?
याद रखिएगा कि जिस दिन न्यूयार्क में ये हादसा हुआ था, वहां के एक टीवी चैनल ने सब कुछ लाइव रिकॉर्ड किया था। वो उस समय किसी और फिल्म की शूट के लिए वहां थे, उसी दौरान हादसा हुआ था। सब कुछ कैमरे की रील में था, पर न उसने दिखलाया, न आपने देखा।
लोगों ने बस इतना जाना कि देश में बड़ी आंतवकवादी घटना घटी है। उसके बाद हर आदमी सिर्फ स्नेह का मरहम लेकर घूम रहा था, कोई अपने हाथ में छुरी लेकर नहीं चल रहा था।
ये भी याद रखिएगा कि इंग्लैंड और अमेरिका दोनों में लोकतंत्र ही है। वहां भी बोलने की उतनी ही आजादी है, जितनी यहां है। पर यहां?
सोशल साइट पर हर आदमी कुछ बोल रहा है। जो दिल्ली में नहीं हैं, जिन्हें सचमुच कुछ भी पता नहीं, वो भी बोल रहे हैं। समस्तीपुर, जबलपुर, जैसलमेर, रुड़की, हरिद्वार, पटना, इंदौर और बहुत से शहरों में बैठ कर आप जो सोच रहे हैं, उसी पर अपनी प्रतिक्रिया दिए जा रहे हैं। वहां वो लंदन में रह रहा आदमी चुप था। कह रहा था कि सबको सब विषय पर बोलने की ज़रूरत नहीं होती। वहां अमेरिका में वो टीचर मुझे समझा रही थी कि हर आदमी जब अपनी राय देने लगता है, सारा दिन उसी पर चर्चा करता है तो फिर बीमारी लाइलाज बन जाती है।
बोलने से निकला बारुद शांत नहीं रहता। वो अपना असर छोड़कर ही जाता है।
तय आपको करना है कि आप कैसी दुनिया चाहते हैं? आपको कैसी दुनिया पसंद है? जैसा बोलेंगे, जैसा सोचेंगे वैसी दुनिया आपको मिलेगी।
और अभी शांति बनाए रखने की सीधी अपील नहीं की गई है
रुद्राक्ष की माला पेन से सुरक्षित है। डरे हुए चेहरे आश्वस्त करने वाले संकेत .... बाकी तो जो है सो हईये है।
समस्या सिर्फ पत्रकारिता से नहीं लोगों से भी है। देखिए लंदन और अमेरिका में क्या होता है और सोचिए हम क्या करते हैं। Sanjay Sinha की आज की पोस्ट :
मैं लंदन में अपने होटल से शहर घूमने निकला था। दो दिन पहले वहां की ट्यूब ट्रेन में विस्फोट हुआ था। शहर में काफी अफरा-तफरी मची थी। बात ही बात में मैंने एक अंग्रेज से पूछा था कि आप अपने शहर में घट रही इन घटनाओं के बारे में क्या सोचते हैं? उसने इतना ही कहा था कि हर आदमी को हर विषय पर बोलने की ज़रूरत नहीं होती।
मैं बहुत देर तक सोचता रहा था कि कैसा देश है ये? दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले इस देश में हर आदमी हर विषय पर नहीं बोलता। कहता है कि सबको हर विषय पर नहीं बोलना चाहिए।
आप ये मत सोचिएगा कि संजय सिन्हा आपको ज्ञान देने चले आए हैं। वो तो बस अपनी यादों को आपसे साझा कर रहे हैं। उस दिन मैं लंदन में ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पर घूम रहा था। शहर में जो हुआ था, उस पर प्रशासन अपना काम कर रहा था। दुकानें खुली थीं। लोग अपना काम कर रहे थे।
मुझे याद आ रहा था कि जिस दिन अमेरिका में ट्विन टावर पर हमला हुआ था, मैं वहीं था। सुबह पौने नौ बजे न्यूयार्क के सबसे व्यस्त इलाके में दो बड़ी इमारतों पर दो विमान गिरा दिए गए थे। पूरा शहर सिहर उठा था, लेकिन कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था।
कोई तुरंत किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच रहा था। लोग इंतज़ार कर रहे थे कि सरकार क्या कहने जा रही है, क्या करने जा रही है। खुफिया विभाग ने तो कह दिया था कि ये आंतकवादी गतिविधि है, पर उसके बाद भी इस निष्कर्ष तक पहुंचने में समय लगा था कि इसे ओसामा बिन लादेन ने अंजाम दिया है। और जब ये पता चल गया, इसकी सरकारी घोषणा हो गई, तब भी पूरे देश में कोई इस विषय पर चर्चा नहीं करता था। लोग बस इतना ही प्रयास कर रहे थे कि किसी तरह शहर में अमन-चैन रहे। स्कूल जाने वाले बच्चे भयभीत न हों।
मेरा बेटा तब वहां स्कूल में पढ़ रहा था। स्कूल की टीचर ने अभिभावकों को बुला कर समझाया था कि घर में इस विषय पर बच्चों के सामने बात मत कीजिएगा। बच्चों के मन पर इनका आजीवन असर रह जाता है, जबकि ये एक हादसा है, सरकार इससे जल्दी निबट लेगी। लेकिन आप इस पर लगातार बातें करेंगे, अपनी प्रतिक्रिया देंगे तो ये एक लाइलाज बीमारी बन जाएगी।
संजय सिन्हा आज दिल्ली में बैठ कर पता नहीं क्यों इंग्लैंड और अमेरिका की दोनों घटनाओं को याद कर रहे हैं। मैं टीवी न्यूज चैनल में काम करता हूं। खुद संपादक हूं। मैं इन विषयों से खुद को कैसे दूर कर सकता हूं? पर मैं इनसे जुड़ भी कैसे सकता हूं?
अमेरिका की घटना तो बहुत पुरानी हो गई। उस समय जन्म लिए बच्चे अब बीस साल के हो गए होंगे। उनमें से कुछ बच्चे अब पत्रकारिता की दुनिया में भी आने की तैयारी कर रहे होंगे। बहुत से बच्चे जो तब स्कूल में रहे होंगे, अब बड़े हो गए होंगे। मुमकिन है कुछ पत्रकारिता में चले भी आए हों।
और आप तो तब भी बड़े थे। आपको पूरी घटना याद होगी। ज़रा याद कीजिए अपनी यादाश्त पर जो़र डाल कर कि क्या आपने न्यूयार्क के उस हादसे में, जिसमें दस हज़ार लोगों की मौत हुई थी, एक भी लाश की तस्वीर देखी थी? क्या आपने खून से सने लोगों को टीवी पर देखा था? क्या आपने क्रंदन की एक आवाज़ टीवी पर सुनी थी?
याद रखिएगा कि जिस दिन न्यूयार्क में ये हादसा हुआ था, वहां के एक टीवी चैनल ने सब कुछ लाइव रिकॉर्ड किया था। वो उस समय किसी और फिल्म की शूट के लिए वहां थे, उसी दौरान हादसा हुआ था। सब कुछ कैमरे की रील में था, पर न उसने दिखलाया, न आपने देखा।
लोगों ने बस इतना जाना कि देश में बड़ी आंतवकवादी घटना घटी है। उसके बाद हर आदमी सिर्फ स्नेह का मरहम लेकर घूम रहा था, कोई अपने हाथ में छुरी लेकर नहीं चल रहा था।
ये भी याद रखिएगा कि इंग्लैंड और अमेरिका दोनों में लोकतंत्र ही है। वहां भी बोलने की उतनी ही आजादी है, जितनी यहां है। पर यहां?
सोशल साइट पर हर आदमी कुछ बोल रहा है। जो दिल्ली में नहीं हैं, जिन्हें सचमुच कुछ भी पता नहीं, वो भी बोल रहे हैं। समस्तीपुर, जबलपुर, जैसलमेर, रुड़की, हरिद्वार, पटना, इंदौर और बहुत से शहरों में बैठ कर आप जो सोच रहे हैं, उसी पर अपनी प्रतिक्रिया दिए जा रहे हैं। वहां वो लंदन में रह रहा आदमी चुप था। कह रहा था कि सबको सब विषय पर बोलने की ज़रूरत नहीं होती। वहां अमेरिका में वो टीचर मुझे समझा रही थी कि हर आदमी जब अपनी राय देने लगता है, सारा दिन उसी पर चर्चा करता है तो फिर बीमारी लाइलाज बन जाती है।
बोलने से निकला बारुद शांत नहीं रहता। वो अपना असर छोड़कर ही जाता है।
तय आपको करना है कि आप कैसी दुनिया चाहते हैं? आपको कैसी दुनिया पसंद है? जैसा बोलेंगे, जैसा सोचेंगे वैसी दुनिया आपको मिलेगी।