"देश में जिस गुजरात को विकास का मॉडल माना जाता है उसी गुजरात में मजदूरों की दिहाड़ी सबसे कम है। आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक 2021-22 में खेतीहर मजदूरों की दिहाड़ी का राष्ट्रीय औसत 323.2 रुपये था। गुजरात में ये 220.3 रुपये था जबकि केरल में ग्रामीण खेतीहर मजदूरों को 726.8 रुपये की दिहाड़ी मिली है। यही नहीं, देशवासियों को जिस गुजरात का नमक खाने तक की दुहाई प्रधानमंत्री देने से नहीं चूकते है उन नमक मजदूरों यानी अगरिया किसानों का हॉल और भी खराब है।"
पीएम मोदी हों या गृह मंत्री अमित शाह या फिर उनके समर्थक भाजपा नेता दिन-रात गुजरात को विकास का मॉडल बताते नहीं थकते, लेकिन यहां की हकीकत मजदूरों की आय के लिहाज से सबसे ज्यादा खराब है। भाजपा शासित गुजरात और मध्य प्रदेश में खेतिहर मजदूरों की आय सबसे कम है। आरबीआई रिपोर्ट के अनुसार, केरल के बाद सबसे ज्यादा मजदूरी जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु में है। गुजरात और मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में खेतिहर मजदूरों को देश में सबसे कम भुगतान किया जाता है। खास बात यह है कि केरल में खेतिहर मजदूरों को सबसे अधिक दिहाड़ी मजदूरी मिलती है।
ग्रामीण मजदूरों की दैनिक मजदूरी में अलग अलग राज्यों में काफी असमानता है। महंगाई दर के लगातार ऊंची रहने के बावजूद कई राज्यों में मजदूरों को दिन भर काम के बदले महज करीब 200 रुपये दिए जा रहे हैं। RBI ने भारतीय राज्यों से जुड़े अलग अलग आंकड़ों की अपनी हैंडबुक का सातवां संस्करण निकाला है। इसमें 2021-22 के आंकड़ों को शामिल किया गया है। आर्थिक क्षेत्र की कई गतिविधियों से संबंधित आंकड़ों को इस हैंडबुक में जगह दी गई है, जिसमें ग्रामीण इलाकों में दी जाने वाली दैनिक मजदूरी भी शामिल है। 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सामान्य कृषि मजदूरों को मिलने वाली दैनिक मजदूरी का मूल्यांकन किया गया है। आंकड़े अलग अलग राज्यों में दी जाने वाली मजदूरी में बड़ी खाई दिखा रहे हैं। 20 में से कम से कम 10 राज्य राष्ट्रीय औसत जितनी भी मजदूरी नहीं देते। आरबीआई ने बताया है कि इन आंकड़ों का स्रोत केंद्र सरकार का श्रम ब्यूरो है।
सभी राज्यों में केरल सबसे आगे है यहां सामान्य कृषि मजदूरों को 2021-22 के दौरान 726.8 रुपये दैनिक मजदूरी मिली। 2014-15 में इस श्रेणी के लिए दिहाड़ी 575.1 रुपए थी। उसके बाद हर साल इसमें 20-25 रुपयों की वृद्धि हुई। कोरोना वायरस महामारी के दौरान 2020-21 में इसमें सिर्फ छह रुपए की वृद्धि हुई। इस श्रेणी में दैनिक मजदूरी का राष्ट्रीय औसत 323.32 रुपए है। यानी केरल की दर राष्ट्रीय औसत के दुगुने से भी ज्यादा है।
भारतीय रिज़र्व बैंक RBI के आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष खेतिहर मजदूरों को केवल 230 रुपए रोज की दिहाड़ी मिलती है। दूसरी तरफ गुजरात जैसे समृद्ध राज्य में यह आंकड़ा महज 220.3 रुपये ही है। यानि दोनों राज्यों में दैनिक मजदूरी राष्ट्रीय औसत 323.2 रुपये से काफी कम है। वहीं, केरल में खेतिहर मजदूरों की स्थिति काफी अच्छी है और देश में सबसे ज्यादा है। यहां पर खेतिहर मजदूरों को देश भर में सबसे अधिक 726.8 रुपये दिहाड़ी मजदूरी के रूप भुगतान किया जा रहा है। ऐसे में अगर केरल का एक मजदूर महीने में 25 दिन भी काम करता है तो वह औसतन 18,170 रुपये कमा लेगा, जो कि गुजरात से काफी अधिक है। वहीं गुजरात में 5500 रुपए के करीब है। यही वजह है कि केरल में उच्च मजदूरी ने अन्य खराब भुगतान वाले राज्यों के कृषि श्रमिकों को आकर्षित किया है। यहां पर लगभग 25 लाख प्रवासी श्रमिक काम कर रहे हैं।
बिहार की बात करें तो इस मामले में वो गुजरात, यूपी और एमपी से आगे है। बिहार में न्यूनतम मजदूरी 373 रुपये है। बिहार में हाल ही में न्यूनतम मजदूरी में संशोधन किया गया था। ताजा मजदूरी के मुताबिक अकुशल कोटि के मजदूरों को कम से कम 373 रुपये रोजाना, जबकि अर्ध कुशल कामगारों को 388 रुपये रोजाना और कुशल श्रमिकों को 463 रुपये रोजाना में मिलने का प्रावधान है। मध्य प्रदेश में 2021-22 में औसत दैनिक मजदूरी 270 रुपये थी। महाराष्ट्र 284.2 और ओडिशा 269.5 रुपये खेतिहर मजदूरों को दिहाड़ी दे रहा है। वहीं जम्मू और कश्मीर में खेतिहार मजदूरों को प्रति व्यक्ति औसतन 524.6 रुपये दिहाड़ी मिल रही है। हिमाचल प्रदेश में यह आंकड़ा 457.6 रुपये है तो तमिलनाडु में 445.6 रुपये प्रति व्यक्ति मजदूरी है।
आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक पुरुष गैर-कृषि श्रमिकों के मामले में मध्य प्रदेश में सबसे कम 230.3 रुपये औसत वेतन है। वहीं गुजरात के श्रमिकों को 252.5 रुपये औसत मजदूरी मिलती है। जबकि त्रिपुरा में 250 रुपये का दैनिक वेतन मिल रहा है। ये सभी राष्ट्रीय औसत 326.6 रुपये से कम हैं। दूसरी ओर केरल फिर से गैर-कृषि श्रमिकों के वेतन में 837.7 रुपये प्रति व्यक्ति के साथ सबसे आगे हैं। मार्च 2022 को समाप्त वर्ष के लिए केरल के बाद जम्मू-कश्मीर 500.8 रुपये, तमिलनाडु 462.3 रुपये और हरियाणा 409.3 रुपये था।
हर रोज 115 दिहाड़ी मजदूरों करते हैं खुदकुशी
NCRB 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में आत्महत्या करने वालों में 42,004 दिहाड़ी मजदूर थे। इनमें 4,246 महिलाएं भी थीं। ऐसे में पिछले साल हर दिन औसतन 115 दिहाड़ी मजदूरों ने आत्महत्या की। यानि भारत में हर 12 मिनट में एक दिहाड़ी मजदूर आत्महत्या कर लेता है। हर साल आत्महत्या करने वालों में हर चौथा इंसान दिहाड़ी मजदूर ही होता है। 2021 में 1.64 लाख लोगों ने आत्महत्या की और इनमें से 25 प्रतिशत से ज्यादा दिहाड़ी मजदूर थे।
नमक मजदूरों का हाल और भी खराब
यही नहीं, पीएम नरेंद्र मोदी देशवासियों को जिस गुजरात के नमक खाने की दुहाई देने तक से नहीं चूकते हैं उन नमक मजदूरों जिन्हें अगरिया किसान भी कहा जाता है, का हॉल और भी खराब है। बीबीसी की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, नमक मज़दूर जब तक ज़िंदा रहते हैं नमक के साथ जीते हैं और जब मर जाते हैं तो कई बार नमक में ही लिपट के दफ़्न हो जाते हैं। इन कुछ नमक मज़दूरों का पूरा शरीर चिता में जल जाता है पर वो सख्त हो चुके पैर कई बार नहीं जल पाते हैं क्योंकि सालों साल नंगे पैर चलकर वो आपके लिए नमक बनाते हैं।
गुजरात का कच्छ, इसी नमक की खेती के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। दूर-दूर तक सिर्फ़ मैदान। कहीं मेड़ काटकर खेतों में पानी भरा है तो कहीं उजियारा दिखता है। इन कुछ सफ़ेद हो चुके खेतों में खंपारा (नुकीला फावड़ा) चलाती औरतें, आदमी और बच्चे दिखते हैं। ये लोग साल के आठ महीने यही काम करते हैं। कच्छ के जोगिनीनार इलाके में नमक के खेतों में मज़दूरी कर रहे ये अगरिया सुरेंद्रनगर ज़िले के पास खाराघोड़ा से आए हैं। इन लोगों का घर, गांव सुरेंद्रनगर ज़िले में है। वहां अपनी ज़मीन भी है। पर ये वो इलाक़ा है जहां ज़मीन होने के बावजूद पानी आदि की समस्या के चलते ये लोग नमक की खेती नहीं कर पाते हैं।
खाराघोड़ा, सुरेंद्रनगर के आस-पास गांवों में रहने वाले ये कुछ अगरिया बारिश का मौसम ख़त्म होते ही जोगिनीनार, गांधीधाम जैसी कई जगहों पर आ जाते हैं। यहां ये लोग सेठ यानी दूसरे की ज़मीन और वहीं बनाए एक कमरे में सपरिवार रहकर नमक निकालने की मज़दूरी करते हैं। यहां एक टन नमक निकालने पर इन लोगों को लगभग 50 रुपये मिलते हैं। यानी जितने में आप एक या डेढ़ किलो नमक ख़रीदते हैं, उतने पैसों में ये अगरिया मज़दूर एक हज़ार किलो नमक निकालते हैं। एक मज़दूर परिवार एक सीज़न में ज़मीन और बारिश के आधार पर कई हज़ार टन नमक निकाल सकता है। इसी काम के लिए अपनी ज़मीन पर नमक निकालने वालों को 200-250 रुपये मिलते हैं। खाराघोड़ा के बाहर इन अगरिया लोगों का जीवन अपेक्षाकृत कुछ आसान तो हो जाता है पर ये नमक है, जो अपनी फितरत नहीं बदलता है।
1930 में महात्मा गांधी ने इसी गुजरात में नमक सत्याग्रह किया था। नमक बनाने पर अंग्रेज़ों की लगाई रोक और टैक्स के ख़िलाफ़ गांधी ने दांडी यात्रा की थी। आज उस यात्रा वाली जगह से 100 किलोमीटर दूर कितने ही अगरिया नमक बना रहे हैं। बस वो उतना पैसा नहीं कमा पा रहे हैं, जितना नमक ठेकेदार या फिर एक दिन में एक हज़ार टन नमक पैक करने वाली रिफाइनरी के मालिक कमा रहे हैं। नमक बनाने वालों और नमक पैक करके बेचने वालों के घर देखने पर कमाई का फ़र्क़ साफ़ समझ आता है। जबकि नमक से होने वाली बाकी शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक दिक़्क़तें हर जगह वही हैं।
'पानी होता उधर तो क्यों आते इधर?'
बाल सफ़ेद, दाढ़ी सफ़ेद. देखने पर जोगिनीनार के भरतभाई की उम्र 45-46 की लगती है। उम्र पूछी तो पता चला- सिर्फ़ 31 साल। आपकी उम्र इतनी तो नहीं लगती? जवाब मिला- सफ़ेद नमक में रहते-रहते सब सफ़ेद हो गया। भरतभाई अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ जोगिनीनार में एक सेठ के यहां काम करने अक्टूबर में आए हैं। सेठ ने रहने के लिए एक कमरा दिया है। जब हम भरतभाई से बात कर रहे थे, उस वक़्त खेतों में भरतभाई की बेटी और पत्नी बालूबेन खेत में खंपारा चला रही थीं। गुजरात के अगरिया की सही हालत और संख्या समझने के लिए ये दृश्य समझना बहुत ज़रूरी है।
सरकार नमक बनाते जिस अगरिया को एक गिन रही होती है, वो असल में परिवार के चार या पांच लोगों समेत नमक बना रहा होता है। यानी गिनती होती है एक की पर नमक परिवार के कई लोग बना रहे होते हैं। भरतभाई खाराघोड़ा में रुककर ही अपनी ज़मीन पर नमक क्यों नहीं बनाया? भरतभाई बोले, “उधर पानी होता तो इधर क्यों ही आते? उधर दिक़्क़त है तब ही तो आते हैं न इधर। सेठ रोज पैसा देता है और बाद में जब पूरा पैसा देता है न.... तो जो एडवांस देता है वो काट लेता है।” भरतभाई की पत्नी बालूबेन से जब बात करनी चाही तो वो हँसने लगीं। बोलीं- इससे बात करो न, ये बोलेगा न। मैं क्या बोलूं?
कई सवालों को पूछने पर बालूबेन बोलती हैं, “इधर तो अब थोड़ा ठीक है। उधर खाराघोड़ा में तो पानी का बहुत दिक़्क़त था। इधर भी नमक बनाते हैं तो पैर, आंख तो जलता ही है न। माहवारी होता है या बुखार, खेत में जाकर काम तो करना पड़ेगा न। गोली खाकर जाते हैं। और क्या कर सकते हैं?”
“नमक में जिए, नमक में मरे...”
दिन के कई घंटे नमक में गुज़ारने के बाद इन मज़दूरों के पैर सख़्त हो जाते हैं। ये पैर कुछ मामलों में इतने सख़्त हो जाते हैं कि मरने के बाद जब शरीर जलाया जाता है तो सब जल जाता है, बस पैर नहीं जलते। 65 साल के नरसीभाई बताते हैं, “हम मर जावें तो हमारा पांव नहीं जलता है। नमक डालकर पांव को खड्डे में डालना पड़ता है या तो फिर अग्नि में दोबारा पांव को डालते हैं।” मशीनों और जूतों के आने से ऐसे मामलों में कमी तो आई है। मगर दशकों से नमक का काम कर रहे अगरिया बुज़ुर्गों में ऐसे मंज़र की यादें पूछने पर ताज़ा हो जाती हैं।
सरकार की ओर से इन किसानों को काला चश्मा और काले जूते दिए गए हैं। पर अगरिया बताते हैं कि ये जूते तीन या पांच साल पहले दिए गए थे और टूट गए थे। कई किसानों ने हमें अपने टूटे जूते लाकर दिखाए। यही हाल काले चश्मे का भी नज़र आता है।
गुजरात के ज़्यादातर शहरों में जहां चुनाव से जुड़ी कुछ न कुछ चीज़ें या रैलियां, बैनर्स दिख ही जाते हैं, वहीं इन किसानों के आस-पास कोई बैनर या चुनावी प्रचार नहीं दिखता है। चुनाव में वोट की बाबत पूछने पर कुछ अगरिया बताते हैं, “जो गाड़ी लेकर आ जाता है, हम चले जाते हैं वोट डालने। जो हमारा करेगा हम लोग तो उसी को वोट डालेंगे।” मैं पूछता हूं कि कौन आप लोगों के लिए करता है? तो जवाब मिलता है- अभी तक कोई नहीं किया, अब देखो कौन करता है।
चुनाव आते हैं तो सरकार से क्या चाहते हैं? नरसीभाई, भरतभाई समेत कई अगरिया किसान कहते हैं, “सरकार जूते देती है पर वो एक साल चलते हैं। चुनाव है तो बस यही कहेंगे कि सरकार हमको जूते, चश्मा दे दें तो थोड़ा आंखों में जलन कम हो।”
केंद्र और राज्य के बीच की लड़ाई
इंडियन सॉल्ट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन यानी ISMA के प्रेसीडेंट भरत सी रावल बीबीसी से कहते हैं, “गुजरात में नमक का टर्नओवर क़रीब 5 हज़ार करोड़ का है। मोटे तौर पर लगभग 5 लाख लोग इसके काम से जुड़े हैं। अब इन लोगों की जो बुनियादी ज़रूरतें हैं, वो पूरा करना सरकार का काम है न कि इंडस्ट्री वालों का। अभी हमारी नमक इंडस्ट्री केंद्र और राज्य सरकार के बीच लटक रही है।"
वे कहते हैं, "नमक केंद्र के तहत आता है और नमक पैदा करने वाली ज़मीन राज्य सरकार के। नमक या इसे बनाने वाले लोग सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है।” रावल के मुताबिक़, "देश में सालाना 300-350 लाख टन नमक पैदा होता है। जैसी बारिश होती है, नमक का उत्पादन भी वैसे ही घटता और बढ़ता है। किस मज़दूर को कहां कितने रुपये मिल रहे हैं, ये कई चीज़ों पर निर्भर करता है। सरकार की ओर से नमक निकालने वालों की कोई न्यूनतम मज़दूरी सरकार की ओर से तय नहीं की गई है।”
बीबीसी ने भारत की सॉल्ट कमिश्नर से इस बारे में उनका पक्ष जानने की कोशिश की। मगर उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है। कुछ निजी संस्थाएं अगरिया लोगों के लिए काम करती दिखती हैं जो सोलर पैनल लगवाना हो, बच्चों की शिक्षा के लिए काम करना हो या फिर स्वास्थ्य सुविधाओं का इंतज़ाम करना हो। गुजरात के किसी भी हिस्से में नमक बन रहा हो, तो इसका एक बड़ा असर अगरिया लोगों के बच्चों पर भी होता है। नमक बनाने का काम नौ महीने तक चलता है। जैसे ही अक्टूबर में ये काम शुरू होता है अगरिया अपने गांवों से निकलकर नमक बनाने वाले खेतों में आ जाते हैं। अगले नौ महीने वीरानी जगह के इन खेतों में ही बीतते हैं। ऐसे में बच्चों का भी स्कूल छूटता है। नई जगह पर कुछ पढ़ाई तो हो पाती है पर सारी तारतम्यता टूट जाती है।
बच्चों के भविष्य पर नरसीभाई कहते हैं, “ज्यादा पैसा नहीं आएगा तो बच्चों को क्या पढ़ाएंगे। हमारी मजबूरी है। पेट के लिए काम तो करना पड़ता है न। हम नमक बनाते हैं पर हमारी परेशानी कोई देखे तो हमारा काम करावे न। हमारी परेशानी नहीं देखता कोई।” तीन बच्चों की मां बालूबेन कहती हैं, “अब हम कर रहे हैं तो बच्चों को भी करना पड़ता है। हम पढ़ा तो रहे हैं पर ये काम भी सिखा रहे हैं।"
कच्छ की राजनीति
गुजरात में कुल 182 विधानसभा सीटें हैं। कच्छ लोकसभा क्षेत्र में छह सीटें आती हैं। ये सीटें अबडासा, मांडवी, भुज, अंजार, गांधीधाम और रापर हैं। 2017 के चुनावों में कच्छ में बीजेपी छह में से चार सीटें जीती थी, वहीं कांग्रेस 2 सीटें जीत पाई थी।
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ग्रामीण मजदूरों की दैनिक मजदूरी में अलग अलग राज्यों में काफी असमानता है। महंगाई दर के लगातार ऊंची रहने के बावजूद कई राज्यों में मजदूरों को दिन भर काम के बदले महज करीब 200 रुपये दिए जा रहे हैं। RBI ने भारतीय राज्यों से जुड़े अलग अलग आंकड़ों की अपनी हैंडबुक का सातवां संस्करण निकाला है। इसमें 2021-22 के आंकड़ों को शामिल किया गया है। आर्थिक क्षेत्र की कई गतिविधियों से संबंधित आंकड़ों को इस हैंडबुक में जगह दी गई है, जिसमें ग्रामीण इलाकों में दी जाने वाली दैनिक मजदूरी भी शामिल है। 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सामान्य कृषि मजदूरों को मिलने वाली दैनिक मजदूरी का मूल्यांकन किया गया है। आंकड़े अलग अलग राज्यों में दी जाने वाली मजदूरी में बड़ी खाई दिखा रहे हैं। 20 में से कम से कम 10 राज्य राष्ट्रीय औसत जितनी भी मजदूरी नहीं देते। आरबीआई ने बताया है कि इन आंकड़ों का स्रोत केंद्र सरकार का श्रम ब्यूरो है।
सभी राज्यों में केरल सबसे आगे है यहां सामान्य कृषि मजदूरों को 2021-22 के दौरान 726.8 रुपये दैनिक मजदूरी मिली। 2014-15 में इस श्रेणी के लिए दिहाड़ी 575.1 रुपए थी। उसके बाद हर साल इसमें 20-25 रुपयों की वृद्धि हुई। कोरोना वायरस महामारी के दौरान 2020-21 में इसमें सिर्फ छह रुपए की वृद्धि हुई। इस श्रेणी में दैनिक मजदूरी का राष्ट्रीय औसत 323.32 रुपए है। यानी केरल की दर राष्ट्रीय औसत के दुगुने से भी ज्यादा है।
भारतीय रिज़र्व बैंक RBI के आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष खेतिहर मजदूरों को केवल 230 रुपए रोज की दिहाड़ी मिलती है। दूसरी तरफ गुजरात जैसे समृद्ध राज्य में यह आंकड़ा महज 220.3 रुपये ही है। यानि दोनों राज्यों में दैनिक मजदूरी राष्ट्रीय औसत 323.2 रुपये से काफी कम है। वहीं, केरल में खेतिहर मजदूरों की स्थिति काफी अच्छी है और देश में सबसे ज्यादा है। यहां पर खेतिहर मजदूरों को देश भर में सबसे अधिक 726.8 रुपये दिहाड़ी मजदूरी के रूप भुगतान किया जा रहा है। ऐसे में अगर केरल का एक मजदूर महीने में 25 दिन भी काम करता है तो वह औसतन 18,170 रुपये कमा लेगा, जो कि गुजरात से काफी अधिक है। वहीं गुजरात में 5500 रुपए के करीब है। यही वजह है कि केरल में उच्च मजदूरी ने अन्य खराब भुगतान वाले राज्यों के कृषि श्रमिकों को आकर्षित किया है। यहां पर लगभग 25 लाख प्रवासी श्रमिक काम कर रहे हैं।
बिहार की बात करें तो इस मामले में वो गुजरात, यूपी और एमपी से आगे है। बिहार में न्यूनतम मजदूरी 373 रुपये है। बिहार में हाल ही में न्यूनतम मजदूरी में संशोधन किया गया था। ताजा मजदूरी के मुताबिक अकुशल कोटि के मजदूरों को कम से कम 373 रुपये रोजाना, जबकि अर्ध कुशल कामगारों को 388 रुपये रोजाना और कुशल श्रमिकों को 463 रुपये रोजाना में मिलने का प्रावधान है। मध्य प्रदेश में 2021-22 में औसत दैनिक मजदूरी 270 रुपये थी। महाराष्ट्र 284.2 और ओडिशा 269.5 रुपये खेतिहर मजदूरों को दिहाड़ी दे रहा है। वहीं जम्मू और कश्मीर में खेतिहार मजदूरों को प्रति व्यक्ति औसतन 524.6 रुपये दिहाड़ी मिल रही है। हिमाचल प्रदेश में यह आंकड़ा 457.6 रुपये है तो तमिलनाडु में 445.6 रुपये प्रति व्यक्ति मजदूरी है।
आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक पुरुष गैर-कृषि श्रमिकों के मामले में मध्य प्रदेश में सबसे कम 230.3 रुपये औसत वेतन है। वहीं गुजरात के श्रमिकों को 252.5 रुपये औसत मजदूरी मिलती है। जबकि त्रिपुरा में 250 रुपये का दैनिक वेतन मिल रहा है। ये सभी राष्ट्रीय औसत 326.6 रुपये से कम हैं। दूसरी ओर केरल फिर से गैर-कृषि श्रमिकों के वेतन में 837.7 रुपये प्रति व्यक्ति के साथ सबसे आगे हैं। मार्च 2022 को समाप्त वर्ष के लिए केरल के बाद जम्मू-कश्मीर 500.8 रुपये, तमिलनाडु 462.3 रुपये और हरियाणा 409.3 रुपये था।
हर रोज 115 दिहाड़ी मजदूरों करते हैं खुदकुशी
NCRB 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में आत्महत्या करने वालों में 42,004 दिहाड़ी मजदूर थे। इनमें 4,246 महिलाएं भी थीं। ऐसे में पिछले साल हर दिन औसतन 115 दिहाड़ी मजदूरों ने आत्महत्या की। यानि भारत में हर 12 मिनट में एक दिहाड़ी मजदूर आत्महत्या कर लेता है। हर साल आत्महत्या करने वालों में हर चौथा इंसान दिहाड़ी मजदूर ही होता है। 2021 में 1.64 लाख लोगों ने आत्महत्या की और इनमें से 25 प्रतिशत से ज्यादा दिहाड़ी मजदूर थे।
नमक मजदूरों का हाल और भी खराब
यही नहीं, पीएम नरेंद्र मोदी देशवासियों को जिस गुजरात के नमक खाने की दुहाई देने तक से नहीं चूकते हैं उन नमक मजदूरों जिन्हें अगरिया किसान भी कहा जाता है, का हॉल और भी खराब है। बीबीसी की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, नमक मज़दूर जब तक ज़िंदा रहते हैं नमक के साथ जीते हैं और जब मर जाते हैं तो कई बार नमक में ही लिपट के दफ़्न हो जाते हैं। इन कुछ नमक मज़दूरों का पूरा शरीर चिता में जल जाता है पर वो सख्त हो चुके पैर कई बार नहीं जल पाते हैं क्योंकि सालों साल नंगे पैर चलकर वो आपके लिए नमक बनाते हैं।
गुजरात का कच्छ, इसी नमक की खेती के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। दूर-दूर तक सिर्फ़ मैदान। कहीं मेड़ काटकर खेतों में पानी भरा है तो कहीं उजियारा दिखता है। इन कुछ सफ़ेद हो चुके खेतों में खंपारा (नुकीला फावड़ा) चलाती औरतें, आदमी और बच्चे दिखते हैं। ये लोग साल के आठ महीने यही काम करते हैं। कच्छ के जोगिनीनार इलाके में नमक के खेतों में मज़दूरी कर रहे ये अगरिया सुरेंद्रनगर ज़िले के पास खाराघोड़ा से आए हैं। इन लोगों का घर, गांव सुरेंद्रनगर ज़िले में है। वहां अपनी ज़मीन भी है। पर ये वो इलाक़ा है जहां ज़मीन होने के बावजूद पानी आदि की समस्या के चलते ये लोग नमक की खेती नहीं कर पाते हैं।
खाराघोड़ा, सुरेंद्रनगर के आस-पास गांवों में रहने वाले ये कुछ अगरिया बारिश का मौसम ख़त्म होते ही जोगिनीनार, गांधीधाम जैसी कई जगहों पर आ जाते हैं। यहां ये लोग सेठ यानी दूसरे की ज़मीन और वहीं बनाए एक कमरे में सपरिवार रहकर नमक निकालने की मज़दूरी करते हैं। यहां एक टन नमक निकालने पर इन लोगों को लगभग 50 रुपये मिलते हैं। यानी जितने में आप एक या डेढ़ किलो नमक ख़रीदते हैं, उतने पैसों में ये अगरिया मज़दूर एक हज़ार किलो नमक निकालते हैं। एक मज़दूर परिवार एक सीज़न में ज़मीन और बारिश के आधार पर कई हज़ार टन नमक निकाल सकता है। इसी काम के लिए अपनी ज़मीन पर नमक निकालने वालों को 200-250 रुपये मिलते हैं। खाराघोड़ा के बाहर इन अगरिया लोगों का जीवन अपेक्षाकृत कुछ आसान तो हो जाता है पर ये नमक है, जो अपनी फितरत नहीं बदलता है।
1930 में महात्मा गांधी ने इसी गुजरात में नमक सत्याग्रह किया था। नमक बनाने पर अंग्रेज़ों की लगाई रोक और टैक्स के ख़िलाफ़ गांधी ने दांडी यात्रा की थी। आज उस यात्रा वाली जगह से 100 किलोमीटर दूर कितने ही अगरिया नमक बना रहे हैं। बस वो उतना पैसा नहीं कमा पा रहे हैं, जितना नमक ठेकेदार या फिर एक दिन में एक हज़ार टन नमक पैक करने वाली रिफाइनरी के मालिक कमा रहे हैं। नमक बनाने वालों और नमक पैक करके बेचने वालों के घर देखने पर कमाई का फ़र्क़ साफ़ समझ आता है। जबकि नमक से होने वाली बाकी शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक दिक़्क़तें हर जगह वही हैं।
'पानी होता उधर तो क्यों आते इधर?'
बाल सफ़ेद, दाढ़ी सफ़ेद. देखने पर जोगिनीनार के भरतभाई की उम्र 45-46 की लगती है। उम्र पूछी तो पता चला- सिर्फ़ 31 साल। आपकी उम्र इतनी तो नहीं लगती? जवाब मिला- सफ़ेद नमक में रहते-रहते सब सफ़ेद हो गया। भरतभाई अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ जोगिनीनार में एक सेठ के यहां काम करने अक्टूबर में आए हैं। सेठ ने रहने के लिए एक कमरा दिया है। जब हम भरतभाई से बात कर रहे थे, उस वक़्त खेतों में भरतभाई की बेटी और पत्नी बालूबेन खेत में खंपारा चला रही थीं। गुजरात के अगरिया की सही हालत और संख्या समझने के लिए ये दृश्य समझना बहुत ज़रूरी है।
सरकार नमक बनाते जिस अगरिया को एक गिन रही होती है, वो असल में परिवार के चार या पांच लोगों समेत नमक बना रहा होता है। यानी गिनती होती है एक की पर नमक परिवार के कई लोग बना रहे होते हैं। भरतभाई खाराघोड़ा में रुककर ही अपनी ज़मीन पर नमक क्यों नहीं बनाया? भरतभाई बोले, “उधर पानी होता तो इधर क्यों ही आते? उधर दिक़्क़त है तब ही तो आते हैं न इधर। सेठ रोज पैसा देता है और बाद में जब पूरा पैसा देता है न.... तो जो एडवांस देता है वो काट लेता है।” भरतभाई की पत्नी बालूबेन से जब बात करनी चाही तो वो हँसने लगीं। बोलीं- इससे बात करो न, ये बोलेगा न। मैं क्या बोलूं?
कई सवालों को पूछने पर बालूबेन बोलती हैं, “इधर तो अब थोड़ा ठीक है। उधर खाराघोड़ा में तो पानी का बहुत दिक़्क़त था। इधर भी नमक बनाते हैं तो पैर, आंख तो जलता ही है न। माहवारी होता है या बुखार, खेत में जाकर काम तो करना पड़ेगा न। गोली खाकर जाते हैं। और क्या कर सकते हैं?”
“नमक में जिए, नमक में मरे...”
दिन के कई घंटे नमक में गुज़ारने के बाद इन मज़दूरों के पैर सख़्त हो जाते हैं। ये पैर कुछ मामलों में इतने सख़्त हो जाते हैं कि मरने के बाद जब शरीर जलाया जाता है तो सब जल जाता है, बस पैर नहीं जलते। 65 साल के नरसीभाई बताते हैं, “हम मर जावें तो हमारा पांव नहीं जलता है। नमक डालकर पांव को खड्डे में डालना पड़ता है या तो फिर अग्नि में दोबारा पांव को डालते हैं।” मशीनों और जूतों के आने से ऐसे मामलों में कमी तो आई है। मगर दशकों से नमक का काम कर रहे अगरिया बुज़ुर्गों में ऐसे मंज़र की यादें पूछने पर ताज़ा हो जाती हैं।
सरकार की ओर से इन किसानों को काला चश्मा और काले जूते दिए गए हैं। पर अगरिया बताते हैं कि ये जूते तीन या पांच साल पहले दिए गए थे और टूट गए थे। कई किसानों ने हमें अपने टूटे जूते लाकर दिखाए। यही हाल काले चश्मे का भी नज़र आता है।
गुजरात के ज़्यादातर शहरों में जहां चुनाव से जुड़ी कुछ न कुछ चीज़ें या रैलियां, बैनर्स दिख ही जाते हैं, वहीं इन किसानों के आस-पास कोई बैनर या चुनावी प्रचार नहीं दिखता है। चुनाव में वोट की बाबत पूछने पर कुछ अगरिया बताते हैं, “जो गाड़ी लेकर आ जाता है, हम चले जाते हैं वोट डालने। जो हमारा करेगा हम लोग तो उसी को वोट डालेंगे।” मैं पूछता हूं कि कौन आप लोगों के लिए करता है? तो जवाब मिलता है- अभी तक कोई नहीं किया, अब देखो कौन करता है।
चुनाव आते हैं तो सरकार से क्या चाहते हैं? नरसीभाई, भरतभाई समेत कई अगरिया किसान कहते हैं, “सरकार जूते देती है पर वो एक साल चलते हैं। चुनाव है तो बस यही कहेंगे कि सरकार हमको जूते, चश्मा दे दें तो थोड़ा आंखों में जलन कम हो।”
केंद्र और राज्य के बीच की लड़ाई
इंडियन सॉल्ट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन यानी ISMA के प्रेसीडेंट भरत सी रावल बीबीसी से कहते हैं, “गुजरात में नमक का टर्नओवर क़रीब 5 हज़ार करोड़ का है। मोटे तौर पर लगभग 5 लाख लोग इसके काम से जुड़े हैं। अब इन लोगों की जो बुनियादी ज़रूरतें हैं, वो पूरा करना सरकार का काम है न कि इंडस्ट्री वालों का। अभी हमारी नमक इंडस्ट्री केंद्र और राज्य सरकार के बीच लटक रही है।"
वे कहते हैं, "नमक केंद्र के तहत आता है और नमक पैदा करने वाली ज़मीन राज्य सरकार के। नमक या इसे बनाने वाले लोग सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है।” रावल के मुताबिक़, "देश में सालाना 300-350 लाख टन नमक पैदा होता है। जैसी बारिश होती है, नमक का उत्पादन भी वैसे ही घटता और बढ़ता है। किस मज़दूर को कहां कितने रुपये मिल रहे हैं, ये कई चीज़ों पर निर्भर करता है। सरकार की ओर से नमक निकालने वालों की कोई न्यूनतम मज़दूरी सरकार की ओर से तय नहीं की गई है।”
बीबीसी ने भारत की सॉल्ट कमिश्नर से इस बारे में उनका पक्ष जानने की कोशिश की। मगर उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है। कुछ निजी संस्थाएं अगरिया लोगों के लिए काम करती दिखती हैं जो सोलर पैनल लगवाना हो, बच्चों की शिक्षा के लिए काम करना हो या फिर स्वास्थ्य सुविधाओं का इंतज़ाम करना हो। गुजरात के किसी भी हिस्से में नमक बन रहा हो, तो इसका एक बड़ा असर अगरिया लोगों के बच्चों पर भी होता है। नमक बनाने का काम नौ महीने तक चलता है। जैसे ही अक्टूबर में ये काम शुरू होता है अगरिया अपने गांवों से निकलकर नमक बनाने वाले खेतों में आ जाते हैं। अगले नौ महीने वीरानी जगह के इन खेतों में ही बीतते हैं। ऐसे में बच्चों का भी स्कूल छूटता है। नई जगह पर कुछ पढ़ाई तो हो पाती है पर सारी तारतम्यता टूट जाती है।
बच्चों के भविष्य पर नरसीभाई कहते हैं, “ज्यादा पैसा नहीं आएगा तो बच्चों को क्या पढ़ाएंगे। हमारी मजबूरी है। पेट के लिए काम तो करना पड़ता है न। हम नमक बनाते हैं पर हमारी परेशानी कोई देखे तो हमारा काम करावे न। हमारी परेशानी नहीं देखता कोई।” तीन बच्चों की मां बालूबेन कहती हैं, “अब हम कर रहे हैं तो बच्चों को भी करना पड़ता है। हम पढ़ा तो रहे हैं पर ये काम भी सिखा रहे हैं।"
कच्छ की राजनीति
गुजरात में कुल 182 विधानसभा सीटें हैं। कच्छ लोकसभा क्षेत्र में छह सीटें आती हैं। ये सीटें अबडासा, मांडवी, भुज, अंजार, गांधीधाम और रापर हैं। 2017 के चुनावों में कच्छ में बीजेपी छह में से चार सीटें जीती थी, वहीं कांग्रेस 2 सीटें जीत पाई थी।
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