अफगानिस्तान की धरती में दबा बेशकीमती खजाना और तालिबान व पूंजीपति देशों का लालच

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: August 21, 2021
भू-सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान में तालिबान का आगमन अमेरिका के पूर्व नियोजित योजना का हिस्सा नजर आता है



भू-राजनीतिक और भू-सामरिक दृष्टि से दक्षिण एशिया में बसे देश अफगानिस्तान का महत्वपूर्ण स्थान है जो दुनिया भर के देशों को आकर्षित करता रहा है. आज यह देश लम्बे समय से चल रहे हिंसक युद्ध के बाद तालिबान के कब्जे में हैं. कुछ लोगों का कहना है कि वर्षों बाद तालिबान ने अफगानिस्तान में गुलामी की जंजीर को तोड़ा है और अमेरिका के 20 साल के सैन्य शासन को खत्म किया है. वहीँ कुछ देश मानते हैं कि तालिबान कट्टरपंथी सोच को मानने वाला एक आतंकवादी संगठन है. इस स्थिति से इतर एक शोध से पता चला है कि अफगानिस्तान की जमीन के नीचे बेशकीमती ख़जाना दबा हुआ है. दक्षिण एशिया का यह देश जो बेशुमार दौलत का मालिक है, राजनीतिक अस्थिरता की वजह से यहाँ स्थित ससाधनों का समुचित उपयोग कभी भी नहीं हो पाया है. यहाँ की जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने को बाध्य रही है. हिंसक गतिविधियों का इतिहास अफगानिस्तान में नया नहीं है. समय-समय पर अपने हितों को साधने के लिए दुनिया के अलग-अलग देश अफगानिस्तान की सत्ता पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से काबिज होते रहे हैं. 

अफगानिस्तान का नियंत्रण 1996 के बाद तालिबान ने एक बार फिर अपने हाथों में ले लिया. तालिबान की वापसी से एक तरफ़ दुनिया के कुछ देश अफगानिस्तान के हालात को लेकर चिंतित हैं तो कुछ देशों द्वारा तालिबानी सत्ता को समर्थन दिए जाने की घोषणा हो चुकी है. यह देश पिछले 20 सालों से अमेरिकी सैन्य निरीक्षण में था जिसका एक बड़ा कारण निश्चित तौर पर इस देश की धरती में दबी बेशकीमती खनिज संपदा भी है. इसके साथ ही साम्राज्यवादी देश अमेरिका का दक्षिण एशिया में सैन्य ठिकाना बनाने का सपना भी अफगानिस्तान की धरती पर पकड़ बनाए रखने से पूरा हो रहा था. देश की खनिजों का उपयोग कर इस देश की बदहाली और गरीबी दूर हो सकती थी लेकिन इतने सालों में सामाजिक-राजनीतिक अस्थिरता के कारण यह संभव नहीं हो सका. 

दरअसल वर्तमान में तालिबानी अधर में अटका अफगानिस्तान असल में अकूत सम्पति का मालिक है. अमेरिका के एक सर्वे के अनुसार इस देश में लगभग 75 लाख करोड़ रूपये की खनिज सम्पदा मौजूद होने का अनुमान है. इतने बड़े पैमाने पर दबे खनिज सम्पदा का पता 2010 में अमेरिकी सैन्य अधिकारियों और भूगर्भ विज्ञानियों द्वारा लगाया गया. यह एक ऐसा रहस्य था जो अफगानियों की जिन्दगी को बदल सकता है. अधिकारियों ने पाया कि इस देश की घरती के नीचे एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से भी अधिक के खनिज तत्व मौजूद हैं. इनमें से कुछ खनिज ऐसे हैं जिसकी वर्तमान तकनीकी समय में दुनिया को सख्त जरुरत है और जिसकी उपलब्धता दुनिया में काफी कम है. भूगर्भ विज्ञानियों और अमेरिकी अधिकारियों के अनुसार पुरे अफगानिस्तान की धरती के नीचे आयरन, कॉपर और सोना जैसे खनिज मौजूद हैं. सबसे ख़ास बात यह है कि अफगानिस्तान की जमीन में लीथियम खनिज बड़ी मात्रा में मौजूद है. लीथियम वह खनिज है जिसे रिचार्ज होने वाली बैटरी, ई रिक्शा, मोबाईल के लिए इस्तेमाल किया जाता है. दुनिया भर में लीथियम की उपलब्धता बेहद कम है. इसे पर्यावरण संकट को ख़त्म करने के लिए प्रयोग किए जाने वाली तकनीक के उपयोग में भी अहम माना जा रहा है. वर्तमान में तालिबान की सत्ता को चीन का समर्थन भी प्राप्त हुआ है और तालिबान के साथ चीन ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया है.यह संभव है कि इसका एक बड़ा कारण अफगानिस्तान में मौजूद दुर्लभ खनिज सम्पदा भी हो. चीन को दुर्लभ खनिज तत्वों के खनन में विशेषज्ञता हासिल है. 

अब तक अफगानिस्तान की सरज़मीं में दबा खनिज तत्वों का समुचित दोहन का कार्य आरम्भ नहीं हुआ है. यह देश लगातार अस्थिरता, अशांत माहौल, युद्ध की परिस्थिति, आधारभूत ढांचे की कमी, निवेश और तकनीक की कमी को झेल रहा है. जितने खनिज सम्पदा का दोहन इस देश में होता भी है वह भ्रष्टाचार और तालिबान की भेंट चढ़ जाता है. अकूत खनिज संपदा के स्वामी होने के बाद भी इस देश में 90 फ़ीसदी से अधिक नागरिक गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं जिसकी पुष्टि 2020 में एक अनुमान के आधार पर अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च सेवा की रिपोर्ट में होती है. 

जागरण रिसर्च के मुताबिक़, 21 वीं सदी के लिए अहम खनिज तत्व भी अफगानिस्तान में मौजूद हैं. इकोलाजिकल फ्यूचर समूह के संस्थापक और वैज्ञानिक रोड स्कुनोवर के अनुसार अफगानिस्तान में परपरागत खनिज संपदा के अलावा ऐसे खनिज भी उपलब्ध हैं जो 21 वीं सदी की अर्थव्यवस्था में अहम् भूमिका निभाने वाले हैं. इन तकनीक की बढती जरूरतों के कारण लीथियम और कोबाल्ट जैसे दुर्लभ खनिज की मांग बढ़ रही है. नियोडीमियम भी वर्तमान की नई तकनीक के लिए अहम है. आईईए के अनुसार, ऐसे दुर्लभ खनिज पदार्थों के उत्खनन में बढ़ोत्तरी करनी पड़ेगी ताकि दुनिया पर्यावरण संकट से प्रभावी तरीके से निपट सके. अभी दुनिया के तीन देश चीन, आस्ट्रेलिया और कांगो गणतंत्र में इस खनिज का उत्पादन होता है जिस पर पूरी दुनिया आश्रित है.

भारत के वरिष्ठ पत्रकार गिरिजेश वशिष्ठ ने भू-सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अफगानिस्तान में अमेरिका और तालिबान के गठजोड़ से सबूत सहित पर्दा हटाया है. दस्तावेजों में दर्ज सबूतों ने दुनिया भर के देशों के सामने अमेरिका का असली रूप सामने लाकर रख दिया है. 

पत्रकार गिरिजेश वशिष्ठ के अनुसार: 
अमेरिका ने जानबूझ कर तालिबान को पूरी योजना के साथ सत्ता सौंप दी है जिसकी पटकथा वर्षों पहले लिखी जा चुकी थी. अफगानिस्तान में तालिबान का सत्ता में आना कोई इत्तेफाक नहीं है. अमेरिका के द्वारा योजनाबद्ध तरीके से तालिबान की वापसी हुई है जिसे समझौता के द्वारा हस्ताक्षर कर रिकॉर्ड किया गया. 10 मार्च 2020 को अमेरिका और तालिबान के बीच लिखित समझौता होता है जिसका दस्तावेज मौजूद है. अमेरिका द्वारा 135 दिन में सैनिकों को हटाने के लिए अग्रीमेंट किया गया. जिसे तालिबान के साथ शांति समझौता का नाम दिया गया. ट्रंप सरकार ने यह वादा किया जिसे अमेरिका की वर्तमान बाइडेन सरकार ने लागू किया. दस्तावेज यह भी बताता है कि तलिबान पर लगाए गए प्रतिबन्ध को हटाने से लेकर UN में घोषित आतंकवादी के तमगे को ख़त्म करवाने का आश्वासन भी अमेरिका द्वारा तालिबान को दिया गया है. यह संभव है कि आने वाले समय में तालिबान को अफगानिस्तान की सरकार के रूप में मान्यता दिलवा दिया जाए. वर्तमान में अमेरिका के साथ-साथ तालिबान के बोल भी बदल चुके हैं. वो महिलाओं को साथ लेकर चलने और मीडिया के आज़ादी की बात तक कर चुके हैं लेकिन साथ में वो यह भी कह चुके हैं कि सभी को हमारे सांस्कृतिक दायरे में रह कर काम करना पड़ेगा. उनके इस सांस्कृतिक दायरे की परिधि कितनी बड़ी या संकुचित हो सकती यह वक्त तय करेगा. 

अफगानिस्तान में तालिबान क्या कर रहा है या क्या करेगा इसका अंदाजा हम तालिबान के पहले के शासन से लगा सकते हैं. लेकिन दस्तावेज कुछ और ही बयान कर रहे हैं और अमेरिका पर सवाल खड़े कर रहे हैं. तालिबान और आतंकवाद के ख़िलाफ़ खड़े होने के नाम पर अफगानिस्तान की धरती पर आने वाले अमेरिका के लिए भी अगर तालिबान दुनिया के लिए ख़तरा है तो अमेरिका ने मानवीय हितों से परे जाकर इस्लामिक एमिरेट्स ऑफ अफगानिस्तान (तालिबान) के साथ समझौता क्यूँ किया? वैश्विक परिदृश्य को समझने के लिए हमें थोडा पीछे जाकर अमेरिका के इतिहास को समझना पड़ेगा. अमेरिका की चाहत रही है कि वो दक्षिण एशिया या हिन्द महासागर में अपनी पकड़ मजबूत कर सके ताकि बाद में रूस और चीन पर दबाब बनाया जा सके और उन पर नियंत्रण रखा जा सके. हिन्द महासागर में स्थित डीयो गार्सिया में अमेरिका द्वारा सैन्य अड्डा बनाया जा रहा था जिसका दुनिया भर में विरोध हुआ और वहां वह सफल नहीं हो सका. उसके बाद अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन और आतंकवाद के नाम पर अफगानिस्तान में घुस पैठ कर लिया और 20 साल तक सैन्य अड्डा बना कर अमेरिका अपने हित को साधता रहा. वर्तमान में अमेरिका का भारत की मोदी सरकार से अग्रीमेंट हो चुका है कि वह भारत के सैन्य अड्डे का इस्तेमान कर सकते हैं. इस वायदे के बाद अमेरिका का अफगानिस्तान को छोड़ कर जाना लाभदायक सौदा रहा. बदले में भारत को भी यह वादा दिया गया है कि वो US के सैन्य अड्डे इस्तेमाल कर सकता है जो भविष्य में भी भारत के किसी काम की नहीं है. 

चूंकि निकट भविष्य में तालिबान को सरकार के रूप में मानने, संयुक्त राष्ट्र में सत्ता के तौर पर मान्यता दिलवाने की तैयारी अमेरिका सहित कई देशों ने कर ली है तो जाहिर है उनकी नज़र अफगानिस्तान की भू सामरिक स्थिति सहित वहां दबे बेशकीमती खनिजों पर भी होगी. दुनिया भर के पूंजीपति देशों के चरित्र का विश्लेषण अगर किया जाए तो पता चलता है कि मुनाफ़े के सिद्धांत पर आधारित ये देश पूंजीपतियों के फायदे के लिए देशी और विदेशी नीतियों में बदलाव करते रहे हैं. वर्तमान में अफगानिस्तान ऐसे देशों के लिए बहुत बड़ी सम्भावना है और निकट भविष्य में इसकी नियति तय होनी है.  

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