संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा 10 महीने से चलाए जा रहे किसान आंदोलन को दुनिया का सबसे लंबा एवं प्रभावशाली आंदोलन बताया जा रहा है। सामूहिक नेतृत्व में 10 माह से लाखों आंदोलनकारी किसान ना सिर्फ देश की राजधानी दिल्ली को घेरे बैठे हैं, बल्कि आंदोलन के दौरान 600 से अधिक शहादतें हो चुकी हैं। इसके बावजूद आंदोलन लक्ष्य से नहीं डगमगाया बल्कि निरंतर उरूज की ओर है। शायद इसी से दुनिया के बड़े दार्शनिक नोआम चोम्स्की ने भी इसे दुनिया के आंदोलनों के लिए मॉडल आंदोलन बताया है, जिससे दुनिया के आंदोलनों को सीख लेनी चाहिए। 5 सितंबर की "मुजफ्फरनगर किसान महापंचायत" और 27 सितंबर के देशव्यापी "भारत बंद'' की अभूतपूर्व सफलता से पूरी तरह साफ है कि तमाम दबावों और साज़िशों के बावजूद किसान आंदोलन की पहुंच और दायरा, सभी वर्गों और क्षेत्रों तक बढा है लेकिन इसका चुनावी असर अभी मापना बाकी है। वैसे जानकार उत्तर प्रदेश चुनाव में किसान आंदोलन की बड़ी भूमिका देख रहे हैं।
10 माह में किसान आंदोलन ने क्या खोया क्या पाया, के जवाब में किसान नेता योगेंद्र यादव कहते हैं कि किसानों ने 2013 के बाद से पनपे अंतर्विरोधों और मतभेदों को खोया है। अपने किसान होने के अपमानबोध और अपने कमजोर होने के अहसास को खोया है। जाति, धर्म, भाषा, पार्टी के आधार पर अपने बंटवारे को खोया है और जो पाया है वो है अपनी राजनीतिक ताकत का अहसास, किसान होने का सम्मान, आत्मविश्वास और एकजुट होने का अहसास। इसी से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद हुए हिंदू मुस्लिम में बिखराव से भाजपा को जो ताकत मिली थी, "अल्लाह हू अकबर, हर-हर महादेव" का नारा देकर किसान आंदोलन ने उस खाई को भरा है। अलगाव को तोड़ा है और हिंदू मुस्लिम एकता को फिर से एकजुटता के एकसूत्र में पिरोने का काम किया है। वहीं, 27 सितंबर के "भारत बंद" से किसान आंदोलन ने न सिर्फ युवाओं-महिलाओं के साथ-साथ मजदूर व कर्मचारी संगठनों तक अपनी पहुंच बनाई है बल्कि केरल, बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, ओडिशा व महाराष्ट्र आदि राज्यों तक, अपना दायरा बढाकर अखिल भारतीय कर लिया है। यही कारण है कि सभी विपक्षी दलों ने आगे बढ़कर किसान आंदोलन का समर्थन किया है। यही नहीं, जिस तरह जेपी आंदोलन को रेलवे की हड़ताल से बड़ी ताकत मिली थी। उसी तरह आज फिर से देश का मज़दूर आंदोलन संयुक्त किसान मोर्चा के साथ खड़ा दिखलाई दे रहा है। संयुक्त किसान मोर्चा भी निजीकरण व चार लेबर कोड के खिलाफ मजदूर संगठनों के संघर्ष में जमीनी स्तर पर समर्थन में खड़ा दिखलाई पड़ रहा है।
सवाल, किसान आंदोलन यूपी की चुनावी राजनीति में कितना असरदार होगा? तो मुज़फ़्फ़रनगर में 5 सितंबर को हुई किसान महापंचायत और 27 सितंबर के 'भारत बंद' की सफलता उन सवालों का भी जवाब है, जो दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसानों के धरने की धार को कुंद मान रहे थे। हालांकि किसान महापंचायत और 'भारत बंद' में सभी वर्गों और क्षेत्रों की भागीदारी इसका जवाब देने को पर्याप्त हैं। लेकिन अगर धरातल पर देखा जाए तो यूपी में किसान आंदोलन का प्रभाव ख़ासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काफ़ी दिख रहा है। इसकी कई वजहें हैं। एक तो इस इलाक़े में ज़्यादातर गन्ना किसान हैं और वो तीन कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन में शुरू से ही शामिल रहे हैं। दूसरे, आंदोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय किसान यूनियन इसी इलाक़े में ज़्यादा प्रभावी है और वही इस वक़्त किसान आंदोलन का नेतृत्व भी कर रही है। तीसरा, भाजपा सरकार में आसमान छूती लागत के बीच गन्ने के भाव में पर्याप्त इजाफा न किए जाने को लेकर भी किसान नाराज हैं। भाजपा सांसद वरुण गांधी ने भी गन्ना मूल्य को कम बताते हुए, 50 रुपये कुंतल बोनस देने की मांग की है।
यही नहीं, अगले साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, संयुक्त मोर्चा का कहना है कि उन सभी जगहों पर महापंचायत के कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे और बीजेपी के ख़िलाफ़ लोगों से वोट करने की अपील की जाएगी। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत कहते हैं, "पश्चिम यूपी से ही बीजेपी का यूपी में झंडा बुलंद हुआ था और यहीं से इनकी उल्टी गिनती शुरू होगी। किसानों ने ही बीजेपी की केंद्र व यूपी में सरकार बनवाई लेकिन अब सरकार इन्हीं किसानों की बात नहीं सुन रही है। किसान वोट देकर सत्ता दिला सकता है तो वोट की चोट करके गद्दी से उतार भी सकता है। बीजेपी ने पंचायत चुनावों में इसका स्वाद अच्छे से चखा है लेकिन वो दिखा रही है कि इन सबसे बेफ़िक्र है।
पिछले चुनावों यानी 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव और साल 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को यहां से बड़ी जीत मिली लेकिन किसान आंदोलन की वजह से अब स्थितियां कुछ बदल गई हैं। किसान आंदोलन शुरू होने के बाद यूपी में पहले अहम चुनाव पंचायत के हुए और सीधे मतदाताओं की ओर से चुने जाने वाले ज़िला पंचायत सदस्यों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल को अच्छी ख़ासी जीत मिली। किसान आंदोलन से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामाजिक समीकरण भी काफ़ी बदल गए हैं। साल 2013 में हुए मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद छिन्न-भिन्न हुई जाट और मुस्लिम एकता को किसान आंदोलन ने एक बार फिर मज़बूत कर दिया है।
देखें तो 2012 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पश्चिमी यूपी की 110 में से केवल 38 सीटें हासिल हुई थीं और 2017 में उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 88 तक पहुंच गई थी। इसकी बहुत बड़ी वजह 2013 के बाद जाटों का बीजेपी की तरफ़ झुकाव रहा। लेकिन अब समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं। न सिर्फ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश बल्कि संयुक्त मोर्चा अब पूरे उत्तर प्रदेश में पंचायत और सभाएं करने की तैयारी कर रहा है। यही नहीं, मध्य यूपी और पूर्वांचल के किसान संगठनों का भी इस मुहिम में साथ लिया जा रहा है। भले अवध क्षेत्र में किसानों की नाराज़गी उतनी संगठित न दिख रही हो लेकिन यह कम क़तई नहीं है।
जानकारों के अनुसार किसान आंदोलन के साथ खेती से जुड़ी एक बड़ी आबादी की भावनाएं जुड़ी हैं तो इसका राजनीतिक प्रभाव भी देखने को मिलना ही है। यही कारण है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ये आंदोलन काफी ताक़तवर माना जा रहा है। कृषि से जुड़े बहुत सारे लोग इस आंदोलन के साथ जुड़ गए हैं। जब तक इसका कोई हल नहीं निकलता है, तब तक ये मुद्दा रहेगा सामाजिक तौर पर भी और सियासी तौर पर भी। उत्तर प्रदेश में इसी साल हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में बीजेपी समर्थक उम्मीदवारों का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा। जिसे किसान आंदोलन के असर के तौर पर देखा गया। इन चुनावों में समाजवादी पार्टी समर्थित 747 उम्मीदवारों को जीत मिली, जबकि बीजेपी समर्थित 690 प्रत्याशी ही जीत पाए। आलम यह है कि बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलावा अयोध्या, वाराणसी, प्रयागराज, मथुरा जैसे ज़िलों में हार का सामना करना पड़ा। इसी से यूपी विधानसभा चुनाव में किसान आंदोलन की अपनी अहम भूमिका होगी, से शायद ही कोई इनकार करें। बस चुनावी असर मापना बाकी है।
देखा जाए तो नवंबर 2019 से 40 किसान संगठन दिल्ली के दर पर केंद्र सरकार के नए कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए बैठे हैं। बीते 10 महीनों में किसानों ने बदलते मौसम के साथ आंदोलन के रंग भी बदलते देखे हैं। याद कीजिए नवंबर का वक्त, जब किसान सबसे पहले पंजाब की ओर से दिल्ली की तरफ बढ़े तो हरियाणा की बीजेपी सरकार ने उन्हें रोकने के लिए सड़कें तक खोद दी थीं। लेकिन उनमें एक भी गड्ढा ऐसा नहीं था जो किसानों के बुलंद हौसले को डिगा सकता। यही हौसला किसानों को गर्मी, सर्दी और बरसात में हिम्मत दे रहा है और इसी हौसले से वो सरकार को झुकाने की मंशा रखते हैं। अपनी इसी मंशा को पूरा करने के लिए किसान नेताओं ने एक बार 27 सितंबर को भारत बंद बुलाया, और ये भारत बंद ऐसे वक्त में बुलाया गया था जब भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारों के नुमाइंदे भी ये कहने लगे थे कि, किसान आंदोलन में अब दम नहीं रहा और ये चंद नेताओं का आंदोलन मात्र रह गया है। लेकिन सितंबर के आखिरी सोमवार को किसानों के ''भारत बंद'' ने एक बार फिर साबित किया कि किसान ना थके हैं, ना रुके हैं और ना पीछे हटे हैं।
इस भारत बंद को ज्यादातर विपक्षी पार्टियों से लेकर कई ट्रक यूनियनों से लेकर व्यापार संगठनों तक का समर्थन हासिल था। किसान आंदोलन का असर कैसा रहा इसका लोग अपने-अपने हिसाब से विवरण कर सकते हैं, लेकिन आपको अगर भारत बंद का असर समझना है तो दोपहर में आई दिल्ली-गुरुग्राम की हाइवे की तस्वीरें देख लीजिए। इसके अलावा दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे, कुंडली-मानेसर एक्सप्रेसवे, नेशनल हाइवे-9, और 24 को भी किसानों ने जाम कर दिया था। गाजीपुर बॉर्डर भी पूरी तरह से ब्लॉक कर दिया गया था जिसकी वजह से दिल्ली पुलिस ने एहतियात के तौर पर लाल किले की तरफ जाने वाले रास्ते रोक दिए थे। केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में भी किसानों के भारत बंद का व्यापक असर रहा। हरियाणा-पंजाब में किसानों ने रेलवे लाइन को भी ब्लॉक कर दिया था।
दरअसल जब-जब सरकार ने किसानों के आंदोलन को कमजोर बताया या समझा, तब-तब किसानों ने अलग-अलग तरीके से अपनी ताकत दिखाई। फिर चाहे वो गाजीपुर बॉर्डर का राकेश टिकैत के रोने के बाद उमड़ा जन सैलाब हो या करनाल में किसानों के सिर फोड़ने के आदेश देने वाले एसडीएम के खिलाफ किसानों की घेराबंदी, हर बार किसानों ने लोहा मनवाया। लेकिन केंद्र सरकार को किसान अभी झुका नहीं पाए हैं। इसी से यूपी चुनाव की चुनौती को अहम माना जा रहा है।
खास यह भी कि संयुक्त किसान मोर्चे ने बंगाल चुनाव में अपनी ताकत दिखाई है। वहीं, पंजाब व उत्तरप्रदेश के स्थानीय निकाय (पंचायत) चुनाव में भी जनता ने भाजपा का सफाया किया है। उत्तर प्रदेश स्थानीय पंचायत चुनाव में पहले आए नतीजों से साफ था कि उत्तर प्रदेश बदलाव की दिशा में आगे बढ़ रहा है। हालांकि बाद में धनबल, सरकारी मशीनरी और गुंडई का सहारा लेकर भाजपा ने अधिकतर स्थानीय निकायों पर कब्जा जमा लिया लेकिन यह कहा जा सकता है कि स्थानीय निकायों के चुनाव ने योगी मोदी की जोड़ी की चूलें हिला दी हैं।
देखें तो जेपी आंदोलन के बाद देश की जनता ने तानाशाही खत्म कर लोकतंत्र की बहाली के लिए वोट दिया था, उसी तरह अन्ना आंदोलन के बाद भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए वोट दिया। लेकिन क्या देश के मतदाता किसानों और मजदूरों को उनका जायज हक दिलाने, निजीकरण तथा कारपोरेट राज से मुक्ति के लिए वोट देंगे? यह यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब आज देना जल्दबाजी होगी परन्तु बंगाल के अनुभव के आधार पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह संभव है और यूपी चुनाव में इसका असर मापा जाएगा।
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सवाल, किसान आंदोलन यूपी की चुनावी राजनीति में कितना असरदार होगा? तो मुज़फ़्फ़रनगर में 5 सितंबर को हुई किसान महापंचायत और 27 सितंबर के 'भारत बंद' की सफलता उन सवालों का भी जवाब है, जो दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसानों के धरने की धार को कुंद मान रहे थे। हालांकि किसान महापंचायत और 'भारत बंद' में सभी वर्गों और क्षेत्रों की भागीदारी इसका जवाब देने को पर्याप्त हैं। लेकिन अगर धरातल पर देखा जाए तो यूपी में किसान आंदोलन का प्रभाव ख़ासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काफ़ी दिख रहा है। इसकी कई वजहें हैं। एक तो इस इलाक़े में ज़्यादातर गन्ना किसान हैं और वो तीन कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन में शुरू से ही शामिल रहे हैं। दूसरे, आंदोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय किसान यूनियन इसी इलाक़े में ज़्यादा प्रभावी है और वही इस वक़्त किसान आंदोलन का नेतृत्व भी कर रही है। तीसरा, भाजपा सरकार में आसमान छूती लागत के बीच गन्ने के भाव में पर्याप्त इजाफा न किए जाने को लेकर भी किसान नाराज हैं। भाजपा सांसद वरुण गांधी ने भी गन्ना मूल्य को कम बताते हुए, 50 रुपये कुंतल बोनस देने की मांग की है।
यही नहीं, अगले साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, संयुक्त मोर्चा का कहना है कि उन सभी जगहों पर महापंचायत के कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे और बीजेपी के ख़िलाफ़ लोगों से वोट करने की अपील की जाएगी। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत कहते हैं, "पश्चिम यूपी से ही बीजेपी का यूपी में झंडा बुलंद हुआ था और यहीं से इनकी उल्टी गिनती शुरू होगी। किसानों ने ही बीजेपी की केंद्र व यूपी में सरकार बनवाई लेकिन अब सरकार इन्हीं किसानों की बात नहीं सुन रही है। किसान वोट देकर सत्ता दिला सकता है तो वोट की चोट करके गद्दी से उतार भी सकता है। बीजेपी ने पंचायत चुनावों में इसका स्वाद अच्छे से चखा है लेकिन वो दिखा रही है कि इन सबसे बेफ़िक्र है।
पिछले चुनावों यानी 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव और साल 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को यहां से बड़ी जीत मिली लेकिन किसान आंदोलन की वजह से अब स्थितियां कुछ बदल गई हैं। किसान आंदोलन शुरू होने के बाद यूपी में पहले अहम चुनाव पंचायत के हुए और सीधे मतदाताओं की ओर से चुने जाने वाले ज़िला पंचायत सदस्यों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल को अच्छी ख़ासी जीत मिली। किसान आंदोलन से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामाजिक समीकरण भी काफ़ी बदल गए हैं। साल 2013 में हुए मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद छिन्न-भिन्न हुई जाट और मुस्लिम एकता को किसान आंदोलन ने एक बार फिर मज़बूत कर दिया है।
देखें तो 2012 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पश्चिमी यूपी की 110 में से केवल 38 सीटें हासिल हुई थीं और 2017 में उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 88 तक पहुंच गई थी। इसकी बहुत बड़ी वजह 2013 के बाद जाटों का बीजेपी की तरफ़ झुकाव रहा। लेकिन अब समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं। न सिर्फ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश बल्कि संयुक्त मोर्चा अब पूरे उत्तर प्रदेश में पंचायत और सभाएं करने की तैयारी कर रहा है। यही नहीं, मध्य यूपी और पूर्वांचल के किसान संगठनों का भी इस मुहिम में साथ लिया जा रहा है। भले अवध क्षेत्र में किसानों की नाराज़गी उतनी संगठित न दिख रही हो लेकिन यह कम क़तई नहीं है।
जानकारों के अनुसार किसान आंदोलन के साथ खेती से जुड़ी एक बड़ी आबादी की भावनाएं जुड़ी हैं तो इसका राजनीतिक प्रभाव भी देखने को मिलना ही है। यही कारण है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ये आंदोलन काफी ताक़तवर माना जा रहा है। कृषि से जुड़े बहुत सारे लोग इस आंदोलन के साथ जुड़ गए हैं। जब तक इसका कोई हल नहीं निकलता है, तब तक ये मुद्दा रहेगा सामाजिक तौर पर भी और सियासी तौर पर भी। उत्तर प्रदेश में इसी साल हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में बीजेपी समर्थक उम्मीदवारों का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा। जिसे किसान आंदोलन के असर के तौर पर देखा गया। इन चुनावों में समाजवादी पार्टी समर्थित 747 उम्मीदवारों को जीत मिली, जबकि बीजेपी समर्थित 690 प्रत्याशी ही जीत पाए। आलम यह है कि बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलावा अयोध्या, वाराणसी, प्रयागराज, मथुरा जैसे ज़िलों में हार का सामना करना पड़ा। इसी से यूपी विधानसभा चुनाव में किसान आंदोलन की अपनी अहम भूमिका होगी, से शायद ही कोई इनकार करें। बस चुनावी असर मापना बाकी है।
देखा जाए तो नवंबर 2019 से 40 किसान संगठन दिल्ली के दर पर केंद्र सरकार के नए कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए बैठे हैं। बीते 10 महीनों में किसानों ने बदलते मौसम के साथ आंदोलन के रंग भी बदलते देखे हैं। याद कीजिए नवंबर का वक्त, जब किसान सबसे पहले पंजाब की ओर से दिल्ली की तरफ बढ़े तो हरियाणा की बीजेपी सरकार ने उन्हें रोकने के लिए सड़कें तक खोद दी थीं। लेकिन उनमें एक भी गड्ढा ऐसा नहीं था जो किसानों के बुलंद हौसले को डिगा सकता। यही हौसला किसानों को गर्मी, सर्दी और बरसात में हिम्मत दे रहा है और इसी हौसले से वो सरकार को झुकाने की मंशा रखते हैं। अपनी इसी मंशा को पूरा करने के लिए किसान नेताओं ने एक बार 27 सितंबर को भारत बंद बुलाया, और ये भारत बंद ऐसे वक्त में बुलाया गया था जब भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारों के नुमाइंदे भी ये कहने लगे थे कि, किसान आंदोलन में अब दम नहीं रहा और ये चंद नेताओं का आंदोलन मात्र रह गया है। लेकिन सितंबर के आखिरी सोमवार को किसानों के ''भारत बंद'' ने एक बार फिर साबित किया कि किसान ना थके हैं, ना रुके हैं और ना पीछे हटे हैं।
इस भारत बंद को ज्यादातर विपक्षी पार्टियों से लेकर कई ट्रक यूनियनों से लेकर व्यापार संगठनों तक का समर्थन हासिल था। किसान आंदोलन का असर कैसा रहा इसका लोग अपने-अपने हिसाब से विवरण कर सकते हैं, लेकिन आपको अगर भारत बंद का असर समझना है तो दोपहर में आई दिल्ली-गुरुग्राम की हाइवे की तस्वीरें देख लीजिए। इसके अलावा दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे, कुंडली-मानेसर एक्सप्रेसवे, नेशनल हाइवे-9, और 24 को भी किसानों ने जाम कर दिया था। गाजीपुर बॉर्डर भी पूरी तरह से ब्लॉक कर दिया गया था जिसकी वजह से दिल्ली पुलिस ने एहतियात के तौर पर लाल किले की तरफ जाने वाले रास्ते रोक दिए थे। केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में भी किसानों के भारत बंद का व्यापक असर रहा। हरियाणा-पंजाब में किसानों ने रेलवे लाइन को भी ब्लॉक कर दिया था।
दरअसल जब-जब सरकार ने किसानों के आंदोलन को कमजोर बताया या समझा, तब-तब किसानों ने अलग-अलग तरीके से अपनी ताकत दिखाई। फिर चाहे वो गाजीपुर बॉर्डर का राकेश टिकैत के रोने के बाद उमड़ा जन सैलाब हो या करनाल में किसानों के सिर फोड़ने के आदेश देने वाले एसडीएम के खिलाफ किसानों की घेराबंदी, हर बार किसानों ने लोहा मनवाया। लेकिन केंद्र सरकार को किसान अभी झुका नहीं पाए हैं। इसी से यूपी चुनाव की चुनौती को अहम माना जा रहा है।
खास यह भी कि संयुक्त किसान मोर्चे ने बंगाल चुनाव में अपनी ताकत दिखाई है। वहीं, पंजाब व उत्तरप्रदेश के स्थानीय निकाय (पंचायत) चुनाव में भी जनता ने भाजपा का सफाया किया है। उत्तर प्रदेश स्थानीय पंचायत चुनाव में पहले आए नतीजों से साफ था कि उत्तर प्रदेश बदलाव की दिशा में आगे बढ़ रहा है। हालांकि बाद में धनबल, सरकारी मशीनरी और गुंडई का सहारा लेकर भाजपा ने अधिकतर स्थानीय निकायों पर कब्जा जमा लिया लेकिन यह कहा जा सकता है कि स्थानीय निकायों के चुनाव ने योगी मोदी की जोड़ी की चूलें हिला दी हैं।
देखें तो जेपी आंदोलन के बाद देश की जनता ने तानाशाही खत्म कर लोकतंत्र की बहाली के लिए वोट दिया था, उसी तरह अन्ना आंदोलन के बाद भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए वोट दिया। लेकिन क्या देश के मतदाता किसानों और मजदूरों को उनका जायज हक दिलाने, निजीकरण तथा कारपोरेट राज से मुक्ति के लिए वोट देंगे? यह यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब आज देना जल्दबाजी होगी परन्तु बंगाल के अनुभव के आधार पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह संभव है और यूपी चुनाव में इसका असर मापा जाएगा।
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