जामिया नगर की पतली सी गली में एहसान मलिक का ‘मलिक गराज’, मोटरसाइकिल रिपेयरिंग के लिए मशहूर है. अभी वो बिजनस को आगे बढ़ाकर डीलरशिप लेने की सोच ही रहा था कि अचानक भारत में एक नया क़ानून आ गया, इसके तहत एहसान मलिक को अपनी भारतीयता सिद्ध करनी थी.
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उसके पासपोर्ट और आधार कार्ड भी किसी काम के नहीं थे, बच्चों की स्कूल सेर्टिफिकेट भी अभी की नई थी, उसे अपने दादा परदादा के वक़्त के पुराने दस्तावेज़ की ज़रूरत थी.
एहसान ने अपनी दादी से पूछा कि क्या उनके पास कोई कागज़ात हैं जिस से पता चले के वे लोग हिन्दुस्तानी हैं?
दादी ने कहा कि सारे कागज़ एक संदूक में उनके बाबा, मरहूम इदरीस मलिक ने पुराने मकान, जो अब गराज बन चुका है, उसमे रखे थे, अब न जाने किस हाल में होंगे।
एहसान ने खोजा मगर वैसा कोई संदूक नहीं मिला.
घर पर सरकारी नोटिस भी आने लगी थी, मगर अबतक पुराने दस्तावेज़ एहसान के हाथ नहीं लगे थे, इधर दादी अम्मा बिलकुल यकीन के साथ कह रही थीं कि संदूक तो गराज में ही है.
दस्तावेज़ का संदूक ढूंढते ढूंढते कई दिन बीत गए, और थक हार कर इदरीस ने अपनी दादी से कहा कि क्यों न एक दिन वो खुद गराज में आकर देखे कि कहाँ है संदूक.
इन परेशानियों की वजह से एहसान मलिक मोटरसाइकिल मरम्मत का अब कोई काम नहीं ले रहा था, अब उसे सिर्फ दस्तावेज़ की तलाश थी.
किसी तरह वहां पहुँच कर कमर से झुकी हुई दादी आज गराज में संदूक ढूंढ रही थीं, लगभग पूरा दिन बीत गया मगर उन्हें भी वो संदूक नहीं मिला, थक कर बैठने लगीं तो एहसान ने वहां पड़े लोहे के टेबल पर बैठने को कहा, और जैसे ही दादी की नज़र उस टेबल पर पड़ी, वो ख़ुशी से चिल्ला पड़ीं, उन्होंने कहा अरे यही तो है वो संदूक!
एहसान के अब्बा ने संदूक को चारो तरफ से वेल्डिंग कर के बैठने का टेबल बना लिया था. उसके हैंडल और ताले भी निकाल दिए थे, अब वो चिकना सा चौकोर लोहे का टेबल लगता है.बड़ा भारी संदूक है, मुश्किल से हिलाने पर अन्दर से कुछ सामान के हिलने डुलने की आवाज़ आई.
पास के कारखाने से गैस कटर वाला बुला लिया गया था और संदूक काट कर खोल दिया गया. दादी और एहसान दुआ कर रहे थे कि अल्लाह सारे कागजात उन्हें दिलवा दे, और अल्लाह ने उनकी दुआ सुन भी ली, पता नहीं कैसे इतनी बरसातों और बाढ़ में भी पानी अंदर नहीं घुसा था, सारे कागज़ बिलकुल वैसे थे जैसे परदादा ने रखे थे, अंदर बहुत सारी फोटो थीं, दादी दिखाने लगीं कि ये देखो तुम्हारे दादा के बचपन कि तस्वीर, ये लाला अमीरचंद के साथ तुम्हारे परदादा इदरीस मलिक हैं, उनकी गाड़ी और लगभग सारी जायदाद की देखरेख मलिक खानदान ही किया करता था.
तस्वीरें देखते देखते कुछ अजीब दस्तावेज़ हाथ लगे, एहसान कहने लगा दादी अम्मा, क्या लाला अमीरचंद मुसलमान बन गए थे?
दादी ने कहा नहीं, ऐसा तो हमने कभी नहीं सुना, क्यों पूछ रहे हो?
इसपर एहसान ने लाला जी के परिवार के दो दो पासपोर्ट दिखाए, एक में वे सब हिन्दू हैं और दूसरे में सभी मुसलमान हैं!
असल में लाला अमीरचंद राय ने बंटवारे के वक़्त ये ठान लिया था कि वे अपना वतन छोड़ कर भारत नहीं जायेंगे, सदियों से झंग, पंजाब, में उनके परिवार की ज़मींदारी रही थी और आस पास की मुसलमान बस्तियों में उनके चाहने वालों की कमी नहीं थी.
पूरा पंजाब जब दंगों में जल रहा था तब भी उनके इलाक़े में पूरी शांति थी. सिर्फ यही नहीं, उस वक़्त भी उनके इलाके की बिरादरी लाला जी को ही अपना सरदार मानती रही. बाकायदा पकिस्तान के हालात पर उन्ही से राय लेने वहां के लोग पहुँच जाते थे.
लाला जी के बाकी सारे रिश्तेदार जो दूसरे इलाके में रहते थे, वे भारत चले गए थे, परन्तु लाला अमीरचंद और उनका अपना परिवार कहीं नहीं गया.
जब लोग भारत जा रहे थे तो लाला ने जल्दी में भागते हुए लोगों से उनकी ज़मीन अपने नाम करवा ली थी और बड़ी इमानदारी से बंटवारे के बाद भी वे पंजाब से गए लोगों को उनके सामान और घर जायदाद बेच कर पैसे इत्यादि भिजवाते रहे.
सबकुछ ठीक चल रहा था, लाला अमीरचंद को पकिस्तान में बने रहने का गर्व था और उस समय के कई मंत्रियों से उनका परिचय भी था.
मगर हालात तब बदलने लगे जब पाकिस्तान के कानून मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल को इस्तीफा देना पड़ा, वहां के प्रधान मंत्री लियाक़त अली खान कट्टरपंथियों के दबाव में आकर क़ायद-ए-आज़म जिन्ना के संविधान में फेर बदल करने लगे थे, जो सेक्युलर जम्हूरियत के वादे किए गए थे, उनपर चलने के बजाए उनके विरुद्ध कानून बनने लगे. इसपर लाला जी ने अपने इलाके में मोर्चा भी निकलवाया, वहां की ख़बरों की सुर्ख़ियों में था कि लाला अमीरचंद परिवार के समर्थन में पूरे सूबे के मुसलमानों ने सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाई.
हद तब हो गई जब पचास के दशक में स्वयं डा० जोगेंद्र नाथ मंडल जी भी भारत चले गए, इस से लाखों लोगों का हौसला टूटने लगा और लोगों ने भारत जाने का मन बना लिया। इसपर भी लाला ने उम्मीद नहीं छोड़ी, उन्हें वहां के पेड़ पौधे, गलियों, खेतों खलिहानों सब से इतना लगाव था कि वे अपने बचपन वाला वतन छोड़ना नहीं चाहते थे.
मगर कट्टरपंथ उनके इलाके में भी फैलने लगा था, हर साल मलंग शाह की दरगाह पर लाला जी के परिवार द्वारा ही लंगर लगाया जाता था, इस बार नए मौलवियों ने शिर्क कहते हुए मज़ार का उर्स बंद करवा दिया था, आस पास के मलंग और सूफी भी परेशान रहने लगे थे, क्योंकि अब सरकार मुल्लों मौलवियों को खुश करने में लगी थी, कादियानी को काफ़िर करार देने के लिए पूरे मुल्क में मुहिम चल चुकी थी.
लाला अमीरचंद राय बूढ़े हो चले थे और अब उन्हें भी लग रहा था कि पाकिस्तान उनके रहने लायक नहीं रहा है, बड़ी तेज़ी से कट्टरपंथी मज़बूत हो रहे हैं, क़ायद-ए-आज़म जिन्ना साहब को भी खुले आम गालियाँ दी जा रही थी क्योंकि नए मौलवियों को वेस्टर्न कल्चर वाला शिया क़ायद-ए-आज़म पसंद था. अब अमीरचंद को लगा कि जहाँ जिन्ना को नहीं बक्शा जा रहा है वहां उन्हें कौन छोड़ेगा? वैसे अब भी उनका रोब इतना था कि किसी की मजाल नहीं कि लाला अमीरचंद जी से ऊँची आवाज़ में बात कर ले, मगर ऐसा कबतक रहेगा ये लाला जी को भी पता था, इसलिए वे नहीं चाहते थे कि भारत न जाने की उनकी ज़िद का ख़ामियाज़ा उनके बच्चों को भुगतना पड़े.
पहले तो भारत जाना आसान था, क्योंकि कोई कानून बना ही नहीं था, अब भारत जाने के लिए गैर कानूनी रास्ते के अलावा कोई और चारा नहीं था. उनके वफादार ड्राइवर इदरीस मलिक ने कहा कि उर्स के लिए हर साल काफी लोगों का जत्था अजमेर जाता है, मैं उसी बहाने आपको भारत पहुंचा आऊंगा।
सभी को ये सुझाव पसंद आया, लाला अमीरचंद राय ने गहना तो समेट लिया था मगर जान बूझ कर ज़मीन नहीं बेची, क्योंकि पाकिस्तानी सरकार को उनके जाने का शक हो जाता। इदरीस पर उनको इतना यकीन था कि जैसे लाला ने खुद कई लोगों की ज़मीन अपने नाम करवा के, उन्हें बेचा और उनके मलिकों को धीरे धीरे उसकी रक़म भेजी थी, वैसे ही इदरीस के नाम पर की गई ज़मीन भी का पैसा इदरीस किसी तरह उन्हें भिजवा देगा.
इद्रीस मलिक काफ़ी जुगाड़ू बंदा था, उसने पूरे अमीरचंद राय परिवार के नकली दस्तावेज़ बना के अपने परिवार के साथ अजमेर जाने का जत्था बना लिया और वे बड़ी आसानी से दिल्ली पहुँच गए. दिल्ली में सैकड़ों लोगों को लाला जानते थे मगर उन्होंने कहा कि जिनके दरबार के नाम पर हम यहाँ आये हैं, सबसे पहले उनका दर्शन तो करना ही चाहिए, वे सब अजमेर शरीफ पहुंचे ही थे कि, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की जंग छिड़ गई.
अब तो इदरीस मलिक को भी वापस जाना मुश्किल हो रहा था, दोनों मुल्कों के हालात तेज़ी से बदल रहे थे, दिल्ली में लाला अमीरचंद राय के दोस्तों की कमी नहीं थी, इसलिए उन्हें एक अच्छा सा मकान उनके पुराने दोस्त के घर के बिलकुल सामने मिल गया.
इदरीस ने पाकिस्तान ख़त लिखा तो पता चला कि नकली कागजात बनवाने में मदद करने के कारण वहां की सरकार उसकी तलाश में है, और उसका वापस पाकिस्तान जाना खतरे से खाली नहीं है.
इदरीस का परिवार जैसे लाला अमीरचंद जी के यहाँ काम करता था, वैसे ही यहाँ भी काम करने लगा और लाला ने कहा कि यहीं रहो कुछ न कुछ तो कर लिया जायेगा, मैं हूँ तो तुमलोगों को किसी बात कि कमी नहीं होगी.
मगर लाला ज्यादा दिन तक पाकिस्तान से दूर नहीं रह सके, उन्हें दिल्ली का पानी नहीं खला और बहुत जल्दी ही उनका स्वर्गवास हो गया.
अब न लाला जी हैं, न ही इदरीस मलिक, अब केवल उनके पोते परपोते के परिवार दिल्ली में हैं.
इतने दिन हो चुके, इदरीस मलिक के परिवार को शायद ही लाला जी का कोई वंशज जानता होगा।
पुराने दस्तावेज़ लेकर एहसान और उसकी दादी समझने की कोशिश कर रहे थे कि कैसे भारतीय नागरिकता का प्रमाण दिखाया जाय, कहीं यही दस्तावेज़ उनके खिलाफ तो इस्तेमाल नहीं हो जायेंगे? क्या लाला जी के वंशज, केंद्र मंत्री राघव राय को सभी दस्तावेज़ दिखाए जाएँ? मंत्री हैं कोई न कोई रास्ता तो बता ही देंगे.
आज एहसान मलिक, केन्द्रीय मंत्री राघव राय के बंगले के बाहर खड़ा है, कश्मकश में है कि ये सारे कागज़ देख कर राघव राय जी नाराज़ तो नहीं हो जायेंगे? क्या होगा अगर मंत्री जी को पता चला कि मंत्री जी के पुरखों का मुसलमान नाम से पासपोर्ट था? क्या वे अजमेर के जत्थे वाली फोटो देखकर खुश होंगे, या ये उनके राजनितिक विचारधार के विरुद्ध होगा? क्या वे वैसे ही मिलेंगे जैसे परदादा इदरीस मलिक से लाला अमीरचंद मिला करते थे?
क्या राघव राय अपने पुरखों से मलिक परिवार की वफादारी का सम्मान करेंगे?
एहसान मलिक मंत्री जी के बंगले के बाहर खड़ा है...
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उसके पासपोर्ट और आधार कार्ड भी किसी काम के नहीं थे, बच्चों की स्कूल सेर्टिफिकेट भी अभी की नई थी, उसे अपने दादा परदादा के वक़्त के पुराने दस्तावेज़ की ज़रूरत थी.
एहसान ने अपनी दादी से पूछा कि क्या उनके पास कोई कागज़ात हैं जिस से पता चले के वे लोग हिन्दुस्तानी हैं?
दादी ने कहा कि सारे कागज़ एक संदूक में उनके बाबा, मरहूम इदरीस मलिक ने पुराने मकान, जो अब गराज बन चुका है, उसमे रखे थे, अब न जाने किस हाल में होंगे।
एहसान ने खोजा मगर वैसा कोई संदूक नहीं मिला.
घर पर सरकारी नोटिस भी आने लगी थी, मगर अबतक पुराने दस्तावेज़ एहसान के हाथ नहीं लगे थे, इधर दादी अम्मा बिलकुल यकीन के साथ कह रही थीं कि संदूक तो गराज में ही है.
दस्तावेज़ का संदूक ढूंढते ढूंढते कई दिन बीत गए, और थक हार कर इदरीस ने अपनी दादी से कहा कि क्यों न एक दिन वो खुद गराज में आकर देखे कि कहाँ है संदूक.
इन परेशानियों की वजह से एहसान मलिक मोटरसाइकिल मरम्मत का अब कोई काम नहीं ले रहा था, अब उसे सिर्फ दस्तावेज़ की तलाश थी.
किसी तरह वहां पहुँच कर कमर से झुकी हुई दादी आज गराज में संदूक ढूंढ रही थीं, लगभग पूरा दिन बीत गया मगर उन्हें भी वो संदूक नहीं मिला, थक कर बैठने लगीं तो एहसान ने वहां पड़े लोहे के टेबल पर बैठने को कहा, और जैसे ही दादी की नज़र उस टेबल पर पड़ी, वो ख़ुशी से चिल्ला पड़ीं, उन्होंने कहा अरे यही तो है वो संदूक!
एहसान के अब्बा ने संदूक को चारो तरफ से वेल्डिंग कर के बैठने का टेबल बना लिया था. उसके हैंडल और ताले भी निकाल दिए थे, अब वो चिकना सा चौकोर लोहे का टेबल लगता है.बड़ा भारी संदूक है, मुश्किल से हिलाने पर अन्दर से कुछ सामान के हिलने डुलने की आवाज़ आई.
पास के कारखाने से गैस कटर वाला बुला लिया गया था और संदूक काट कर खोल दिया गया. दादी और एहसान दुआ कर रहे थे कि अल्लाह सारे कागजात उन्हें दिलवा दे, और अल्लाह ने उनकी दुआ सुन भी ली, पता नहीं कैसे इतनी बरसातों और बाढ़ में भी पानी अंदर नहीं घुसा था, सारे कागज़ बिलकुल वैसे थे जैसे परदादा ने रखे थे, अंदर बहुत सारी फोटो थीं, दादी दिखाने लगीं कि ये देखो तुम्हारे दादा के बचपन कि तस्वीर, ये लाला अमीरचंद के साथ तुम्हारे परदादा इदरीस मलिक हैं, उनकी गाड़ी और लगभग सारी जायदाद की देखरेख मलिक खानदान ही किया करता था.
तस्वीरें देखते देखते कुछ अजीब दस्तावेज़ हाथ लगे, एहसान कहने लगा दादी अम्मा, क्या लाला अमीरचंद मुसलमान बन गए थे?
दादी ने कहा नहीं, ऐसा तो हमने कभी नहीं सुना, क्यों पूछ रहे हो?
इसपर एहसान ने लाला जी के परिवार के दो दो पासपोर्ट दिखाए, एक में वे सब हिन्दू हैं और दूसरे में सभी मुसलमान हैं!
असल में लाला अमीरचंद राय ने बंटवारे के वक़्त ये ठान लिया था कि वे अपना वतन छोड़ कर भारत नहीं जायेंगे, सदियों से झंग, पंजाब, में उनके परिवार की ज़मींदारी रही थी और आस पास की मुसलमान बस्तियों में उनके चाहने वालों की कमी नहीं थी.
पूरा पंजाब जब दंगों में जल रहा था तब भी उनके इलाक़े में पूरी शांति थी. सिर्फ यही नहीं, उस वक़्त भी उनके इलाके की बिरादरी लाला जी को ही अपना सरदार मानती रही. बाकायदा पकिस्तान के हालात पर उन्ही से राय लेने वहां के लोग पहुँच जाते थे.
लाला जी के बाकी सारे रिश्तेदार जो दूसरे इलाके में रहते थे, वे भारत चले गए थे, परन्तु लाला अमीरचंद और उनका अपना परिवार कहीं नहीं गया.
जब लोग भारत जा रहे थे तो लाला ने जल्दी में भागते हुए लोगों से उनकी ज़मीन अपने नाम करवा ली थी और बड़ी इमानदारी से बंटवारे के बाद भी वे पंजाब से गए लोगों को उनके सामान और घर जायदाद बेच कर पैसे इत्यादि भिजवाते रहे.
सबकुछ ठीक चल रहा था, लाला अमीरचंद को पकिस्तान में बने रहने का गर्व था और उस समय के कई मंत्रियों से उनका परिचय भी था.
मगर हालात तब बदलने लगे जब पाकिस्तान के कानून मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल को इस्तीफा देना पड़ा, वहां के प्रधान मंत्री लियाक़त अली खान कट्टरपंथियों के दबाव में आकर क़ायद-ए-आज़म जिन्ना के संविधान में फेर बदल करने लगे थे, जो सेक्युलर जम्हूरियत के वादे किए गए थे, उनपर चलने के बजाए उनके विरुद्ध कानून बनने लगे. इसपर लाला जी ने अपने इलाके में मोर्चा भी निकलवाया, वहां की ख़बरों की सुर्ख़ियों में था कि लाला अमीरचंद परिवार के समर्थन में पूरे सूबे के मुसलमानों ने सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाई.
हद तब हो गई जब पचास के दशक में स्वयं डा० जोगेंद्र नाथ मंडल जी भी भारत चले गए, इस से लाखों लोगों का हौसला टूटने लगा और लोगों ने भारत जाने का मन बना लिया। इसपर भी लाला ने उम्मीद नहीं छोड़ी, उन्हें वहां के पेड़ पौधे, गलियों, खेतों खलिहानों सब से इतना लगाव था कि वे अपने बचपन वाला वतन छोड़ना नहीं चाहते थे.
मगर कट्टरपंथ उनके इलाके में भी फैलने लगा था, हर साल मलंग शाह की दरगाह पर लाला जी के परिवार द्वारा ही लंगर लगाया जाता था, इस बार नए मौलवियों ने शिर्क कहते हुए मज़ार का उर्स बंद करवा दिया था, आस पास के मलंग और सूफी भी परेशान रहने लगे थे, क्योंकि अब सरकार मुल्लों मौलवियों को खुश करने में लगी थी, कादियानी को काफ़िर करार देने के लिए पूरे मुल्क में मुहिम चल चुकी थी.
लाला अमीरचंद राय बूढ़े हो चले थे और अब उन्हें भी लग रहा था कि पाकिस्तान उनके रहने लायक नहीं रहा है, बड़ी तेज़ी से कट्टरपंथी मज़बूत हो रहे हैं, क़ायद-ए-आज़म जिन्ना साहब को भी खुले आम गालियाँ दी जा रही थी क्योंकि नए मौलवियों को वेस्टर्न कल्चर वाला शिया क़ायद-ए-आज़म पसंद था. अब अमीरचंद को लगा कि जहाँ जिन्ना को नहीं बक्शा जा रहा है वहां उन्हें कौन छोड़ेगा? वैसे अब भी उनका रोब इतना था कि किसी की मजाल नहीं कि लाला अमीरचंद जी से ऊँची आवाज़ में बात कर ले, मगर ऐसा कबतक रहेगा ये लाला जी को भी पता था, इसलिए वे नहीं चाहते थे कि भारत न जाने की उनकी ज़िद का ख़ामियाज़ा उनके बच्चों को भुगतना पड़े.
पहले तो भारत जाना आसान था, क्योंकि कोई कानून बना ही नहीं था, अब भारत जाने के लिए गैर कानूनी रास्ते के अलावा कोई और चारा नहीं था. उनके वफादार ड्राइवर इदरीस मलिक ने कहा कि उर्स के लिए हर साल काफी लोगों का जत्था अजमेर जाता है, मैं उसी बहाने आपको भारत पहुंचा आऊंगा।
सभी को ये सुझाव पसंद आया, लाला अमीरचंद राय ने गहना तो समेट लिया था मगर जान बूझ कर ज़मीन नहीं बेची, क्योंकि पाकिस्तानी सरकार को उनके जाने का शक हो जाता। इदरीस पर उनको इतना यकीन था कि जैसे लाला ने खुद कई लोगों की ज़मीन अपने नाम करवा के, उन्हें बेचा और उनके मलिकों को धीरे धीरे उसकी रक़म भेजी थी, वैसे ही इदरीस के नाम पर की गई ज़मीन भी का पैसा इदरीस किसी तरह उन्हें भिजवा देगा.
इद्रीस मलिक काफ़ी जुगाड़ू बंदा था, उसने पूरे अमीरचंद राय परिवार के नकली दस्तावेज़ बना के अपने परिवार के साथ अजमेर जाने का जत्था बना लिया और वे बड़ी आसानी से दिल्ली पहुँच गए. दिल्ली में सैकड़ों लोगों को लाला जानते थे मगर उन्होंने कहा कि जिनके दरबार के नाम पर हम यहाँ आये हैं, सबसे पहले उनका दर्शन तो करना ही चाहिए, वे सब अजमेर शरीफ पहुंचे ही थे कि, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की जंग छिड़ गई.
अब तो इदरीस मलिक को भी वापस जाना मुश्किल हो रहा था, दोनों मुल्कों के हालात तेज़ी से बदल रहे थे, दिल्ली में लाला अमीरचंद राय के दोस्तों की कमी नहीं थी, इसलिए उन्हें एक अच्छा सा मकान उनके पुराने दोस्त के घर के बिलकुल सामने मिल गया.
इदरीस ने पाकिस्तान ख़त लिखा तो पता चला कि नकली कागजात बनवाने में मदद करने के कारण वहां की सरकार उसकी तलाश में है, और उसका वापस पाकिस्तान जाना खतरे से खाली नहीं है.
इदरीस का परिवार जैसे लाला अमीरचंद जी के यहाँ काम करता था, वैसे ही यहाँ भी काम करने लगा और लाला ने कहा कि यहीं रहो कुछ न कुछ तो कर लिया जायेगा, मैं हूँ तो तुमलोगों को किसी बात कि कमी नहीं होगी.
मगर लाला ज्यादा दिन तक पाकिस्तान से दूर नहीं रह सके, उन्हें दिल्ली का पानी नहीं खला और बहुत जल्दी ही उनका स्वर्गवास हो गया.
अब न लाला जी हैं, न ही इदरीस मलिक, अब केवल उनके पोते परपोते के परिवार दिल्ली में हैं.
इतने दिन हो चुके, इदरीस मलिक के परिवार को शायद ही लाला जी का कोई वंशज जानता होगा।
पुराने दस्तावेज़ लेकर एहसान और उसकी दादी समझने की कोशिश कर रहे थे कि कैसे भारतीय नागरिकता का प्रमाण दिखाया जाय, कहीं यही दस्तावेज़ उनके खिलाफ तो इस्तेमाल नहीं हो जायेंगे? क्या लाला जी के वंशज, केंद्र मंत्री राघव राय को सभी दस्तावेज़ दिखाए जाएँ? मंत्री हैं कोई न कोई रास्ता तो बता ही देंगे.
आज एहसान मलिक, केन्द्रीय मंत्री राघव राय के बंगले के बाहर खड़ा है, कश्मकश में है कि ये सारे कागज़ देख कर राघव राय जी नाराज़ तो नहीं हो जायेंगे? क्या होगा अगर मंत्री जी को पता चला कि मंत्री जी के पुरखों का मुसलमान नाम से पासपोर्ट था? क्या वे अजमेर के जत्थे वाली फोटो देखकर खुश होंगे, या ये उनके राजनितिक विचारधार के विरुद्ध होगा? क्या वे वैसे ही मिलेंगे जैसे परदादा इदरीस मलिक से लाला अमीरचंद मिला करते थे?
क्या राघव राय अपने पुरखों से मलिक परिवार की वफादारी का सम्मान करेंगे?
एहसान मलिक मंत्री जी के बंगले के बाहर खड़ा है...