आदिवासियों पर आपराधिक मामले में व्यवस्था की समझ

Written by राज कुमार सिन्हा | Published on: September 21, 2020
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वन अधिकार पट्टा वितरण कार्यक्रम में ऐलान किया है कि आदिवासियों के छोटे आपराधिक मामले वापस लिए जाएंगे। यह स्वागत योग्य कदम है। 



दरअसल हाल ही में राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में मध्यप्रदेश की जेलों में बंद कैदियों को लेकर चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। प्रदेश के अंदर जेल में बंद कैदियों के आंकड़ों की बात करें तो आलम यह है कि विचाराधीन और सजा काट रहे कैदियों में आदिवासी समुदाय के सबसे ज्यादा 10 हजार कैदी शामिल है। बताया जा रहा है कि,आदिवासी कैदियों के खिलाफ सबसे ज्यादा वन एवं भूमि से सबंधित और अवैध कच्ची शराब से जुड़े मामले दर्ज हैं। आदिवासी,दलित और मुस्लिम समुदाय के कैदियों की संख्या इसलिये भी ज्यादा है, क्योंकि अलग-अलग अपराधों में जेल जाने के बाद जमानत के लिए पैसे नहीं होते हैं। आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण आदिवासी,दलित और कुछ हद तक मुस्लिम समुदाय जेल में ही बंद रहते हैं। मध्यप्रदेश में कुल 131 जेल हैं। इसमें से 11 सेन्ट्रल जेल, 41 जिला जेल और 73 उपजेल सहित 6 खुली जेल हैं। प्रदेश के जेलों में कैदियों को रखने की कुल क्षमता 28 हजार 718 है जबकि इन जेलों में 44 हजार 603 कैदी बंद हैं। करीब 15 हजार 885 कैदी क्षमता से अधिक हैं।

1935 के भारत शासन अधिनियम (अनुच्छेद- 92) में जनजातीय क्षेत्रों को सभी केंद्रीय और क्षेत्रीय कानूनों से मुक्त रखा गया था।  संविधान सभा में विस्तृत चर्चा के बाद आदिवासी क्षेत्रों का प्रशासन आदिवासी समाज की सहमति और स्वीकार्यता के आधार पर संचालित करने हेतू संविधान के भाग (10) में प्रावधान निर्धारित किये गये हैं। परन्तु हमारी वयवस्था को आदिवासी समाज की समझ नहीं होने के कारण जल, जंगल, जमीन और संस्कृति के लिए समावेशी दृष्टिकोण नहीं आ पाया और सामान्य क्षेत्रों की तरह डंडे के बल पर प्रशासन चलाना चाहती है। जिसके कारण आदिवासी आदिवासी क्षेत्रों में भारी आक्रोश व्याप्त है।

विकास के नाम पर आदिवासी संस्कृति को उजाड़ने का काम सरकार द्वारा किया जाता रहा है। विकास परियोजनाओं के नाम पर पर आदिवासियों को विस्थापित किया गया है परन्तु पुनर्वास नहीं किया गया है। जिसके कारण खेती के तलाश में वन एवं राजस्व भूमि पर काबिज कर खेती शुरू देते हैं जो अपराध की श्रेणी में आ जाता है। अतः जमीन अधिग्रहण के पहले के पहले ग्राम सभा की मंजूरी आवश्यक है। भारतीय वन कानून 1927 को पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों में लागू करने के पूर्व यह संशोधन आवश्यक था कि जनजातीय और अनुसूचित क्षेत्रों में वन प्रबंधन जनजातीय समाज के निर्देशानुसार किया जाए। आदिवासी समाज अपने परम्परागत तरीके से जंगल एवं वनभूमि का इस्तेमाल सदियों से अपनी आजीविका सुनिश्चित करने हेतु करता आया है। परन्तु यही उनके लिए अपराध हो गया है। 

24 दिसम्बर 1996 को संसद में पेसा कानून पास हुआ जिसने आदिवासियों की पारम्परिक व्यवस्था और स्वशासन प्रणाली को कानूनी मान्यता दी। भूतपूर्व आईएएस और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के अध्यक्ष डाक्टर बी.डी.शर्मा के नेतृत्व में आदिवासी इलाकों में बङे पैमाने पर पत्थलगङी की गई। यानि बङे-बङे चट्टानों पर ग्राम सभा की शक्तियों एवं अधिकारों को लिखा गया। इस पत्थलगङी आंदोलन को राष्ट्र-द्रोह आंदोलन बना दिया गया।

आदिवासियों को उनके जल, जंगल, जमीन से बाहर निकाल कर उस पर कम्पनियों का कब्ज़ा दिलाने के साजिश का विरोध करने पर अधिकारियों के मिलीभगत से आदिवासीयों पर फर्जी मुकदमा कायम कर दिया जाता है। अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून की धारा 3(1)छ के तहत किसी भी अनुसूचित जाति या जनजाति को वनभूमि या वन अधिकारों से बेदखल करना एक दंडनीय अपराध है। परन्तु शायद ही इसका इस्तेमाल शायद ही किसी शासकीय कर्मचारीयों पर हुआ होगा। बल्कि मध्यप्रदेश में सबसे अधिक अत्याचार आदिवासी और दलित पर हो रहे हैं और जेल में भी वही बंद हैं। 

(लेखक बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ  के सदस्य हैं)

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